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फाइंडिंग फॉरेस्टर: आया मौसम दोस्ती का

अपने आप को लेखक मानने की ग़लती नहीं कर सकता लेकिन भूले बिसरे ये जो ब्लॉग पोस्ट लिखना होता है, तो इसलिए स्वयं को एक अदना सा ब्लॉग लिखने वाला ज़रूर बोल सकता हूं। अब लिखने में जो आलस हो जाता है उसके बहुत से कारण हैं। आप अगर मुझसे साक्षात मिलें हों तो शायद आपको ये और बेहतर दिखाई भी देगा और समझ भी आएगा।

आज से लगभग पच्चीस साल पहले एक अंग्रेजी फ़िल्म आई थी Finding Forrester फाइंडिंग फॉरेस्टर। ये फ़िल्म है एक लेखक के बारे में जिसने एक बहुत सफ़ल किताब के बाद अब लिखना छोड़ दिया है और शहर के अच्छे घरों वाले इलाके से दूर एक इलाके में फ़्लैट लेकर रहते हैं। वहां इनकी मुलाक़ात एक ग़रीब घर के लड़के से होती है जो कुछ लिखता रहता है। कैसे ये दोनों दोस्त बनते हैं और कैसे दोनों की ज़िंदगी में एक घटना के बाद भूचाल सा आ जाता है – ये इसकी कहानी है।

चलना शुरू करें

मैं आज इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इसमें लेखक कैसे कहीं अटक जाता है, कैसे उसके विचार आगे नहीं बढ़ते इसका बख़ूबी चित्रण किया है। बहुत से लेखक इसको Writers ब्लॉक भी कहते हैं। जब आप बस सामने रखे कागज़ को देखते रहते हैं और कुछ लिख नहीं पाते।

फ़िल्म में इसका एक बड़ा अच्छा उपाय बताया गया है। उनके अनुसार जब लिखना शुरू करें तो बस लिखें। उस समय सोचना छोड़ दें। ये बात जीवन में किसी भी काम के लिए सभी है। हम अकसर किसी काम को तबतक टालते रहते हैं जब तक हमारे हिसाब से सब कुछ सही नहीं हो जाता। नतीजा ये होता है की हम इंतज़ार ही करते रह जाते हैं। इसी तरह फ़िल्म में जमाल वालेस जब विलियम फॉरेस्टर के घर पर कुछ लिख नहीं पाता तो विलियम उसको अपनी एक किताब के कुछ शुरुआती अंश से लिखने की सलाह देते हैं। जब जमाल ऐसा करना शुरू करता है तो उसके बाद वो उसी शुरुआत को अपने शब्दों में कहीं और ले जाता है।

ये सुझाव कितना कारगर है इसका मुझे पता नहीं। लेकिन मेरे साथ अक्सर ये होता है और ये मेरे पत्रकारिता की शुरुआती दिनों से चल रहा है। जब तक समाचार लिखना है तब तक तो गाड़ी ठीक चलती है। क्योंकि उस समय आप सिर्फ़ एक काम कर रहे होते हैं – अपने पाठकों तक ख़बर पहुंचाना। लेकिन जब कोई स्पेशल स्टोरी या फीचर लिखना हो तो श्रीमान असीम बस ढूंढते रहते हैं प्रेरणा को।

अच्छी बात ये रही कि इस पूरे कार्यक्रम में प्रेरणा नाम की कोई सहयोगी नहीं मिलीं। अगर वो होतीं तो लोगों को खामखां बातें बनाने का अवसर मिलता।

फ़िल्म पर वापस आते हैं। जमाल पढ़ाई में ठीक ठाक ही हैं लेकिन वो बहुत बढ़िया बास्केटबॉल खेलते हैं। अमरीका में अगर आप खेलकूद या अन्य किसी विधा में अच्छे हैं तो अच्छे कॉलेज/स्कूल आपको स्वयं अपने यहां दाखिला देते हैं। इसके चलते एक अच्छे स्कूल में उनकी आगे की पढ़ाई सुनिश्चित होती है। 

लेखक और इनके शागिर्द के बीच एक बात तय होती है कि जो भी इनके फ़्लैट में लिखा जाएगा वो बाहर नहीं ले जाया जाएगा। लेकिन जमाल स्कूल में एक लेखन प्रतियोगिता में घर पर लिखा हुआ एक निबंध जमा करा देते हैं। इस निबंध की शुरुआत उन्होंने विलियम की एक किताब के अंश से शुरू करी लेकिन बाक़ी अपने शब्दों में लिखा। प्रतियोगिता के नियम के अनुसार अगर आपके पास लेखक की अनुमति नहीं है तो इसके लिए आपको स्कूल से निकाल भी सकते हैं।

जमाल के शिक्षक राबर्ट अपने आप को एक तुर्रम लेखक मानते हैं। विलियम जो बरसों से घर से बाहर नहीं निकले थे, अपने दोस्त जमाल के लिये घर से निकलते हैं और उनका लिखा एक दूसरा निबंध सभी के सामने पढ़ते हैं।

अपना अपना नॉर्मल

कहानी में इन दो किरदारों के तरह मैं भी कभी विलियम तो कभी जमाल बन जाता हूँ। जब मेरी टीम के सदस्य लिखते हैं तो मैं विलियम बन उनकी मदद करता हूँ। मगर जब अपने लिखने की बारी आती है तो मैं जमाल बन जाता हूं।

भारत में लेखक या उनके ऊपर बहुत कम फ़िल्में बनी हैं। जो हैं, वो बहुत कुछ ख़ास नहीं लगती। लेकिन जब इस फ़िल्म को मैंने मुंबई के सिनेमाघर में देखा तो लगा था ये लिखने वालों के ऊपर उम्दा कहानी है। शॉन कॉनरी जो विलियम का किरदार निभा रहे हैं, इससे पहले जेम्स बॉन्ड के रोल में ज़्यादा याद थे। लेकिन इस फ़िल्म में लेखक की भूमिका में उनका यादगार अभिनय था। जमाल के रोल में रॉब ब्राऊन भी बहुत जंचे हैं।

इस फ़िल्म को हिंदी में भी डब किया गया है और यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।

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