in ब्लॉग

ज़िंदगी फ़िर भी यहाँ खूबसूरत है

ये परीक्षा परिणाम का मौसम है। ट्विटर, फेसबुक पर कुछ लोगों ने अपनी हाई स्कूल और हायर सेकंडरी की मार्कशीट शेयर कर छात्रों को ये बताने की कोशिश करी है कि नंबर अगर कम आयें तो निराश न हों। जिन्होंने ये शेयर किया है वो आज आईएएस हैं या किसी कंपनी में किसी बड़े ओहदे पर।

आजकल परीक्षा के परिणाम देखने की कई सहुलियत हैं। आप नेट पर देख सकते हैं नहीं तो sms कर भी परिणाम जान सकते हैं। जिस समय हमारे परिणाम आते थे उस समय ये सब सुविधा उपलब्ध नहीं थी। रिजल्ट चार बजे बोर्ड/यूनिवर्सिटी ऑफिस के बाहर चस्पा कर दिये जाते थे और आप भी भीड़ में शामिल हो ढूंढिये अपना रोल नम्बर। मेरा घर यूनिवर्सिटी के नज़दीक हुआ करता था तो रिजल्ट की अफवाहों के चलते साईकल दौड़ानी पड़ती थी और सही न होने पर एक रुपये के सिक्के वाले पीसीओ से फ़ोन कर समाचार देना होता था।

ग्रेजुएशन तक तो यही नियम रहता कि अख़बार में आ जाता फलां तारीख़ को रिजल्ट आयेगा। आप साईकल उठा कर पहुँच जाइये। आ गया तो ठीक नहीं तो वापस घर। चूँकि पिताजी स्कूल शिक्षा विभाग से जुड़े हुए हैं तो स्कूल के रिजल्ट की पक्की तारीख़ उन्हें पता रहती और शायद रिजल्ट भी। जहाँ हमारे कुछ जानने वाले अपना \’एड़ी-चोटी का जोड़\’ लगा देते के उनकी बच्चों के नंबर अच्छे आयें, पिताजी सब जानते हुये भी की कॉपी कहाँ जाँची जा रही हैं ऐसा कुछ नहीं करते।

ग्रेजुएशन के बाद पत्रकारिता में प्रवेश किया तो रिजल्ट की कॉपी मेरी टेबल पर होती। चूँकि शुरुआती दिनों में मेरी बीट शिक्षा हुआ करती थी तो सभी रिजल्ट मुझे ही देखने को मिलते। जब जानने वालों को ये पता चला तो कुछ लोगों ने पूछना शुरू कर दिया। लेकिन पूछने का तरीक़ा थोड़ा अलग। अपना रोल नम्बर देने के बजाय या तो 1-4 का रिजल्ट पूछते या 1,4,8,5 इन चार रोल नंबर का परिणाम। अपना रोल नंबर नहीं बताते। आज माता-पिता बच्चों के इम्तिहान के परिणाम को अपनी इज़्ज़त से जोड़ लेते हैं। अगर व्हाट्सएप पर शेयर करें तो समझिये उनको इस पर गर्व है। अगर पूछने पर नहीं बतायें तो समझ लीजिये उन्हें शर्म आ रही है। लेकिन ऐसे भी कइयों को जानता हूँ जो जैसा है वैसा बताने में कोई।संकोच नहीं करते। अच्छा या बुरा।

आपको अगर आमिर ख़ान की 3 इडियट्स का सीन याद हो जब परीक्षा के रिजल्ट आते हैं और आर माधवन एवं शरमन जोशी क्लास के टॉपर का नाम देखकर सकते में हैं। बिल्कुल वैसा तो नहीं लेकिन लगभग वैसा हुआ जब पिताजी परिवार के तीन लोगों के फर्स्ट ईयर के परिणाम देखने गए। ये करीब 40-45 साल पुरानी बात है। घर लौटे तो दादी ने पूछा पहले का नाम लेकर तो पापा ने कहा नहीं है रोल नंबर, दूसरे का परिणाम पूछने पर भी यही उत्तर मिला। तीसरे का परिणाम पूछने तक पिताजी पलंग पर लेट चुके थे और सिर्फ हाथ उठा कर बता दिया कि उनका नंबर भी लिस्ट में नहीं था।

मेरे दसवीं के परिणाम से पिताजी बहुत दुखी थे। उन्हें लगा था मैं कुछ अच्छे नंबर से पास होऊंगा। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। और बंदे की मार्कशीट भी कमाल की। उसमें डिस्टिंक्शन के साथ ग्रेस नंबर भी। बारहवीं तक आते आते ये नंबर और ज़्यादा अच्छे तो नहीं हुये। लेकिन ग्रेजुएशन में सब ठीक चला और फाइनल ईयर में तो मैं कॉलेज का टॉपर रहा। बस उसके बाद पीजी वाला किस्सा तो मैं पहले ही बता चुका हूँ।

जब अपनी संतान हुई तो मैंने बहुत कोशिश करी की उसको भी इस असेंबली लाइन में न डालूँ। लेकिन मेरी नहीं चली। बच्चों को हर साल सेशन शुरू होने से पहले पूछता हूँ अगर वो न जाना चाहें और घर बैठकर कुछ सीखें। फ़िलहाल तो उन्हें स्कूल प्यारा लग रहा है।

कोशिश यही है कि नंबर पर ज़्यादा ज़ोर न हो। जो करें उसका आनंद लें। कुछ न कुछ हो ही जाता है। सेकंड डिवीजन और दो बार लगभग फेल होने से बचने वाले इस पोस्ट के लेखक को ही ले लीजिए।

Write a Comment

Comment