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उड़ती हुई वक़्त की धूल से, चुन ले चलो रंग हर फूल के

ट्रैन के सफ़र का एक अलग ही आनंद है। पिछले काफ़ी सालों से ट्रैन से चलना कम हुआ है लेक़िन यदा कदा जब भी मौक़ा मिलता है (जब फ्लाइट का किराया बहुत ज़्यादा हो तो) भारतीय रेल की सेवायें ली जाती है।

जबसे ट्रैन का सफ़र याद है, तबसे लेकर अभी तक बहुत सारे बदलाव देखें हैं। पहले सफ़र स्लीपर क्लास में ही होता था मौसम कोई भी हो। मुझे फर्स्ट क्लास में भी सफ़र करना याद नहीं है। पहली बार एसी कोच अंदर से देखा था तो किसी परिचित को छोड़ने गये थे। उस समय ये नहीं मालूम नहीं था कि रात के अँधेरे में अगर अंदर की लाइट जली हो तो बाहर से सब दिखता है। अब पर्दा खींच कर ही रखते हैं।

जब पीटीआई ने दिल्ली से मुम्बई भेजा था तब पहली बार राजधानी में सफ़र किया था और शायद एसी में भी। मेरे सहयोगी रणविजय के साथ उस सफ़र का बहुत आनन्द लिया। अब राजधानी में पता नहीं है की नहीं पर उन दिनों सैटेलाइट फ़ोन हुआ करते थे। मैंने उससे माता पिता को कॉल भी किया था।

पिछले हफ़्ते भोपाल जाने का मौका मिला तो ट्रैन को चुना। अब स्लीपर में सफ़र करने का मन तो बहुत होता है लेक़िन हिम्मत नहीं होती। लेकिन इस बार की एसी से यात्रा भी स्लीपर का आनंद दे गई। आसपास बात करने वाले बहुत सारे लोग थे तो विचारों का बहुत आदान प्रदान हुआ। मैं सिर्फ एक श्रोता बन उसको सुन रहा था।

एक माता पिता अपने बेटों से मिल कर वापस लौट रहे थे तो एक महिला यात्री कुछ दिनों के लिये भोपाल जा रहीं थीं। लेकिन दोनों ने भोपाल से जुड़ी इतनी बातें कर डालीं की बस ट्रैन के पहुंचने का इंतज़ार था। अगर आप एक ऐसी ट्रैन से यात्रा कर रहे हों जो उसी शहर में खत्म होती है जहाँ आप जा रहें है तो सबकी मंज़िल एक होती है। ऐसे मैं ये सवाल बेमानी भी हो जाता है कि आप कहाँ जा रहे हैं। उनकी बातें सुनकर भोपाल के अलग अलग इलाके आंखों के सामने आ गये। ये बातचीत ही दरअसल ट्रैन और फ्लाइट की यात्रा में सबसे बड़ा अंतर होता है।

ऐसे ही एक बार मैं भोपाल जा रहा था फ्लाइट से। ऑफिस के एक सहयोगी भी साथ थे। उन्हें कहीं और जाना था। हम दोनों समय काटने के लिये कॉफी पी रहे थे की अचानक मुझे कुछ भोपाल के पहचान वाले नज़र आ गए। चूंकि दोनों आमने सामने थे तो मेरा बच निकलना मुश्किल था। दुआ सलाम हुआ और हम आगे बढ़ गए। मेरे सहयोगी से रहा नही गया और वो बोल बैठे लगता है तुम उनसे मिलकर बहुत ज़यादा खुश नहीं हुये। बात खुश होने या न होने की नहीं थी। उन लोगों के भोपाल में रहने पर कोई मुलाक़ात नहीं होती तो 800 किलोमीटर दूर ऐसा दर्शाना की मैं उनका फैन हूँ कुछ हजम नहीं होता। मेरे इन ख़यालों को भोपाल में उतरने में बाद मुहर भी लग गयी जब हम दोनों ने ही एक दूसरे की तरफ़ देखना भी ज़रूरी नहीं समझा औऱ अपने अपने रास्ते निकल गये।

एक वो यात्रा थी, एक ये यात्रा थी।

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