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कब तक गिने हम धड़कने, दिल जैसे धड़के धड़कने दो

समय को जैसे पर लग गये हैं। एक दिन में साल के छह महीने गुज़र जायेंगे। वैसे समय तो उसी रफ्तार से चल रहा है लेक़िन हम इस रफ़्तार से भी तेज चलना चाहते हैं और चौबीस घंटे के दिन में तीस घंटे गुज़ारना चाहते हैं। थोड़ा रुक कर, इत्मीनान से आसपास का मंजर देखने का भी समय नहीं निकालते। लेक़िन क्या हम एक अच्छी ज़िन्दगी जी रहे हैं?

अब ये फलसफे झाड़ने में तो महारत मिली हुई है। लेक़िन आज मैं यही सोच रहा था। हम काम से कब फुरसत पाते हैं। एक ख़त्म तो दूसरा शुरू और ऐसे ये सिलसिला चलता रहता है। कुछ दिनों के लिये कहीं घूम आये लेकिन वापस फ़िर वही दौड़भाग। और ये सब किस के लिये? उस कल के लिये जिसका कोई अता पता भी नहीं है। लेकिन हम अपना आज रोज़ उसके लिये दाँव पर लगा देते हैं।

छोटे शहर से बड़े शहर जाते हैं। अच्छा पैसा कमाने के लिये ताकि ज़िन्दगी अच्छी हो, बच्चों की सारी ख्वाहिशें पूरी कर सकें। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में जो आप होते हैं वो कहीं खो जाते हैं। और फ़िर धीरे धीरे आप भी इस पुराने आप से मिलने से कतराते हैं। सब काम एक व्यवस्था के जैसे चलते रहते हैं। आप उसका एक हिस्सा और यही आपकी ज़िंदगी बन जाती है।

लेक़िन ये सब करके आपको क्या मिला जो आपके पिताजी या उनके पिताजी के पास नहीं था? ऑटोमेटिक कार? बिजली से भी तेज इंटरनेट? मैं ये इसलिये पूछ रहा हूँ क्योंकि कल एक टैक्सी ड्राइवर मिला था। उसकी अमेठी में ख़ुद की दुकान है लेकिन वो ये सब छोड़ मुम्बई आया है और यहाँ आकर 14-16 घंटे टैक्सी चलता है। कोई छुट्टी नहीं लेता क्योंकि वो छुट्टी लेकर क्या करेगा। मैं हम दोनों में फ़र्क समझने की कोशिश कर रहा हूँ।

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