एक बार फिर मुम्बई। आज कार में सफ़र करते समय रेडियो पर ज़माने को दिखाना है फ़िल्म का गाना दिल लेना खेल है दिलदार का चल रहा था। इस गाने के बीच में कुछ कोरस गाता है जिसका कोई मतलब इतने वर्षों मे समझ ही नहीँ आया। ये कोई अकेला गाना नहीं है जिसमे ऐसा कुछ है। आर डी बर्मन के बहुत से ऐसे गाने हैं जिनमे ऐसा कुछ सुनने के लिए अक्सर मिलता है। इसमें कितना योगदान RDB का हैं और कितना फ़िल्म से जुड़े अन्य लोगों का ये शोध का विषय हो सकता है। लेकिन ये कहना कि इस उटपटांग कोरस को सिर्फ RDB ने ही इस्तेमाल किया है तो गलत होगा।
हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है। सब एक सुर, ताल में बँधे चलते रहते हैं और अचानक एक अलग सा कोरस शुरू हो जाता है जिसका कोई मतलब समझ में तो नहीं आता। लेकिन ये कोरस गाने में इस तरह से गुंथा जाता है कि आपको वो गाने से अलग नहीं लगता। जीवन में ये कोरस को आप अनुभव कह सकते हैं। अच्छे और बुरे सभी अनुभव हमारी इस यात्रा को यादगार बना देते हैं।
अब ये आप पर निर्भर है कि आप उस कोरस को अलग से निकाल कर उसका सुक्ष्म परीक्षण कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं या उसको गुनगुनाते हुए अपने गाने पर वापस आना चाहते हैं। कई बार हम लोग गाना भूल कोरस पर ही अपना ध्यान रखते हैं।
अगर हम किशोर कुमार के गाये हुए फ़िल्म शालीमार के गीत हम बेवफा हरगिज़ न थे कभी सुने तो ये बात औऱ अच्छे से समझ सकते हैं। गाना दिल टूटने की दास्तां बयाँ कर रहा है और उसका कोरस उतना ही ज़्यादा मज़ेदार। कभी फुरसत में सुनियेगा। अब अगर मैं इसके बाकी बैकग्राउंड को ध्यान में रखूं तो गाने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है।
वैसे आजकल के ज़्यादातर गाने बिना किसी मतलब के ही होतें है। क्या यही कारण है कि आज भी लोग उन पुराने गीतों को पसंद करते हैं या रीमिक्स कर बिगाड़ देते हैं?
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