ट्विटर पर आज एक बड़ा अच्छा संवाद चल रहा था। अगर आपने किसी के सामने अपने दिल के अंदर जो कुछ भी है वो सब निकाल कर रख देते हैं, उसके बाद क्या आप फ़िर से अजनबी हो सकते हैं?
करीब करीब सभी का ये कहना था कि ऐसा उनके साथ हमेशा होता है। और छह महीने बाद यही घटना फ़िर से दोहराई जाती है। मुझे इस पूरे संवाद ने बड़ा विचलित किया। मैंने ऐसे प्रकरण देखे हैं लेकिन ये दोस्तों के बीच नहीं – भाई बहन के बीच, माता पिता और संतान और पति पत्नी के बीच। सालों से बने हुये सम्बन्ध एक झटके में ख़त्म हो जाते हैं और दोनों सामने से बिल्कुल अजनबियों की तरह व्यवहार करते हैं।
मेरे साथ ऐसा बहुत हुआ है ये कहना गलत होगा। मैंने बहुत लोगों के साथ ऐसा किया है। मतलब पूरी तरह से एक अजनबी की तरह पेश आना। जब कुछ दिनों बाद दिमाग शांत होता और अक्ल ठिकाने आती तो फ़िर से चीजें नार्मल हो जाती। इन दिनों ऐसे दौरे कम पड़ते हैं लेकिन पुराने मिलने जुलने वाले जानते हैं उस दौर के बारे में।
दोस्तों से लड़ाई हुई और बातचीत बंद। लेकिन सामनेवाले की उतनी ही चिंता तो किसी माध्यम के ज़रिये मदद करते। लेकिन क्या हो जब सामने वाला भी ऐसा ही हो? इसके बारे में विस्तार से और जल्दी ही।
गुलज़ार साहब ने कहा भी है, कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी एक तस्लीम लाज़मी सी है…
जगजीत सिंह जी की मखमली आवाज़ में आप भी इस ग़ज़ल का आनंद लें और बातचीत चालू रखें क्योंकि बात करने से बात बनती है।