स्कूल में किसी ने मुझसे पूछा तुम्हारे पास कार है? कक्षा उम्र का बिल्कुल भी ध्यान नहीं। ये उस समय की बात है जब हर घर में टीवी या कार न होना एक बहुत सामान्य बात थी। लेक़िन मेरे जवाब से उस बंदे को ज़रूर चक्कर आया होगा। मैंने कहा हाँ है तीन कारें।
जिस वक़्त का ये घटनाक्रम है उस समय परिवार बड़े हुआ करते थे औऱ सभी साथ में भी रहते थे। तो ऐसे में सभी की सब चीजें हुआ करती थीं। हमारा संयुक्त परिवार तो नहीं रहा इस लिहाज से मेरा जवाब ग़लत था। लेक़िन ऐसे मौके कई बार आये जब घर के अंदर, मतलब गेट के अंदर, तीन तीन कारें खड़ी होती थीं। वो होती तो परिवार के बाकी सदस्यों की लेक़िन मैंने उनको अपनी कार माना। तो शायद मैंने यही सोच कर जवाब दिया होगा। लेक़िन ये बात मुझे इसलिये याद रही क्योंकि उस बंदे ने पूछा तुम्हारे पिताजी की कौनसी कार है? इसी से जुड़ा एक और किस्सा है बाद के लिये।
पिताजी के पास पहली कार, उनकी पहली कार, इस वाकये के लगभग बीस साल बाद आई। इसके पहले दादाजी की पुरानी कार ऑस्टिन की ख़ूब सेवा करी और हम सबसे करवाई भी। पिताजी को गाड़ी चलाने का ही शौक़ नहीं है बल्कि आज भी उसके रखरखाव का भी पूरा ध्यान रखते हैं। परिवार के कई सदस्यों को कार चलाना सिखाने का श्रेय भी पिताजी को जाता है। बाक़ी सबको तो वो प्यार से सिखाते लेक़िन हम लोगों को कुछ ज़्यादा ही प्यार से सिखाते। जब तक एक दो प्यार की थपकी नहीं पड़ती लगता नहीं गाड़ी चलाई है।
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ऑस्टिन में फ्लोर गेयर हैं और उस समय रोड पर वो गेयर बदलना और नज़र सामने ही रखना – ये लगभग एक असंभव कार्य हुआ करता था। बार बार नज़रें गेयर के हैंडल पर जाती और पिताजी बोलते सामने देखो, नज़रें रोड पर। बस यहीं से गड़बड़ शुरू होती और पिताजी से प्रसाद मिलता। मुझे ऐसा मौका बहुत कम मिला जब पिताजी किसी और को सीखा रहे हों और मुझे भी कार में बैठने का मौक़ा मिला हो। मतलब ये देखने का की प्रसाद वितरण किसी और रूप में तो नहीं हुआ है।
अच्छी बात ये थी कि ऑस्टिन जब रोड पर निकलती तो बरबस सबकी निगाहें उसी तरफ़ होती। अब नई पीढ़ी ने हमारा स्थान लेना शुरू कर दिया है – मतलब अब वो कार चलाना सीख रहे हैं तो अपने सीखने के दिन याद आ गए। आजकल की कारें बहुत ही ज़्यादा व्यवस्थित होती हैं तो सीखने में ज़्यादा परेशानी भी नहीं होती। अब प्रसाद वितरण भी नहीं होता होगा ऐसा मेरा मानना है।
आज कारों की बातें क्योंकि आज से 35 साल पहले भारत में पहली मारुति 800 की डिलीवरी।हुई थी। आज सोशल मीडिया पर पहली मारुति खरीदने वाले दिल्ली के हरपाल सिंह जी फ़ोटो देखी।

जब मारुति की कारें रोड पर दिखने लगीं तो लगा पता नहीं क्या कार बन कर आई है। एक तो दिखने में बहुत छोटी सी क्योंकि इससे पहले बड़ी अम्बेसडर कार या फ़िएट ही सड़कों पर दौड़ती दिखती। जिनके पास ये नई कार आयी उनसे इसकी खूबियाँ सुनते तो लगता बड़ी कमाल की गाड़ी है। लेक़िन जब बैठने का मौका मिला तो लगा अपने जैसे फ़िट लोगों के लिये अम्बेसडर की सवारी ही बढ़िया है। अब बड़ी गाड़ियों का चलन वापस आ रहा है। छोटी गाड़ियों से लोग अब इम्प्रेस नहीं होते। अगर घर के बाहर SUV खड़ी हो तो बेहतर है।
जिन तीन कारों का मैंने ऊपर उल्लेख किया है, दरअसल उनमें से एक भी पिताजी की स्वयं की गाड़ी नहीं थी। लेक़िन ये बात समझ में थोड़ी देर से आई की अपनी चीज़ क्या होती है और आप हर चीज़ को अपना नहीं कह सकते। मतलब आप उन गाड़ियों को ठीक करवाने में अपना पूरा दिन बिता तो सकते हैं लेक़िन मालिकाना हक़ किसी और का ही रहेगा। और मालिक की समझ सिर्फ़ इतनी की अगर गाड़ी बीच सड़क में खड़ी हो जाये तो बस पेट्रोल है या नहीं इतना ही देख सकते हैं।
ये बात यादों पर लागू नहीं होती तो आज उस काली कार की यादों में।