किताबों का अपना एक जादू होता है। ये लेखक की ख़ूबी ही रहती है की वो शब्दों का ऐसा ताना बाना बुनते हैं की आप बस पन्ने पलटते रह जाते हैं किरदारों की दुनिया में खोये हुये। आपने ऐसी कई किताबें ज़रूर पढ़ी होंगी जिनकी कहानी, क़िरदार आप पर गहरी छाप छोड़ते हैं।
मेरी शुरुआती किताबें अंग्रेज़ी की रहीं। जब थोड़े बड़े हुये तो हिंदी साहित्य की समझ आना शुरू हुआ। दादाजी कर्नल रंजीत की किताबें पढ़ा करते थे। नाम इसलिये याद है क्योंकि उन्हीं के साथ लाइब्रेरी जाना होता और वो क़िताब बदल कर लाते। हमें इसके लिये एक टॉफ़ी मिला करती थी। मुझे याद नहीं मैंने कर्नल रंजीत पढ़ी हो और आज जब लिख रहा हूँ तो उन किताबों के कवर याद आ रहे हैं।
हिंदी के महान लेखक स्कूल में पढ़ाये जाते थे। लेक़िन वो बहुत ही अजीब सी पढाई होती थी। मतलब लेखक की जीवनी याद करो औऱ उनकी कुछ प्रमुख कृतियों के नाम याद करो। किसी भी विषय को पढ़ाने का एक तरीक़ा होता है। जब आप साहित्य या किसी कहानी पढ़ रहे हों तो उसको भी ऐसे ही पढ़ना जैसे किसी समाचार को पढ़ रहे हों तो ये तो लेखक के साथ ज़्यादती है।
उदाहरण के लिये आप मजरूह सुल्तानपुरी साहब का लिखा हुआ माई री और इस पीढ़ी के बादशाह का तेरी मम्मी की जय दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है। अब जिन्होनें पहले वाले को नहीं सुना हो और दूसरे को ही सुना हो तो उनको फ़र्क़ समझ नहीं आयेगा। लेक़िन जो दोनों को जानते हैं उन्हें शायद मजरूह के शब्दों की गहराई समझ आयेगी।
स्कूली दिनों में हिंदी साहित्य की ये गहराई तो समझने का अवसर भी नहीं मिला और न ऐसे शिक्षक जो अपने इस ज्ञान को साझा करने के इछुक हों। अभी भी बहुत ज़्यादा समझ नहीं आयी लेक़िन कोई कभी क़िताब बता देता है या ज़्यादा मेहरबान रहा तो किताब ही दे देता है। तो बस ऐसे ही पढ़ते रहते हैं।
मेरा पास बहुत दिनों तक अमृता प्रीतम जी की रसीदी टिकट रखी थी जो मेरी मित्र ने मुझे दी थी। एक दिन ऐसे ही उठा कर पढ़नी शुरू करदी। उसके बाद उनकी और किताबें पढ़ने की इच्छा हुई। लेक़िन बात कुछ आगे बढ़ी नहीं। ऐसे ही प्रेमचंद जी की आप बीती भी इस लिस्ट में शामिल है। जितनी सरल भाषा में और जितनी गहरी बात वो कह जाते हैं वैसे कम ही लोग लिख पाते हैं।
शायद ये भाषा की सरलता ही है जो किसी लेखक और पाठक के बीच की दूरी कम कर देती हैं। मैंने ऐसी क्लिष्ट हिंदी अभी तक नहीं पढ़ी है। हाँ ऐसी किताबें ज़रूर पढ़ी हैं जो लगता है किसी प्रयोग के इरादे से लिखी गयी हों। कुछ समझ में आती हैं कुछ बाउंसर।
अंग्रेज़ी में मैंने अरुंधति रॉय की बुकर पुरस्कार से सम्मानित \’गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स\’ को मैं कई प्रयासों के बाद भी नहीं पढ़ पाया। किताब पढ़ना मानो माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने जैसा था। हारकर क़िताब को उसकी जगह रख दी औऱ तबसे वो वहीं शोभा बढ़ा रही है।
लेखक शब्दों के जादूगर होते हैं इसका एक और उदाहरण पढ़ने को मिला उषा प्रियंवदा जी की लिखी \’पचपन खंबे लाल दीवारें\’ में पढ़ने को मिलता है। जब वो लिखती हैं कि सर्दी की धूप परदों से छनकर आ रही थी तो आप सचमुच सुषमा और नील को कमरे में बैठे हुये देख सकते हैं औऱ धूप उनके बदन को छू रही है।
कई बार ये किताबों की बनाई दुनिया असल दुनिया से अपनी कमियों के बावजूद, कहीं बेहतर लगती है। उसके पात्र जाने पहचाने से लगते हैं – जैसे हैरी पॉटर। क़माल के होते हैं ये लेखक।