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रविवारीय: वाह री दुनिया, तेरे जलवे हैं निराले

नये साल को शुरू हुये एक हफ़्ता भी हो गया औऱ लगता है अभी कल की ही बात है जब हम गोआ में नये साल का स्वागत कर रहे थे। कहाँ 2021 के गुज़रने का इंतज़ार कर रहे थे औऱ कहाँ 2022 ही हफ़्ते भर पुराना हो गया है।

जब साल ख़त्म हो रहा था तब से मैं यही सोच रहा था 2021 का अपना अनुभव लिखूँ। लेक़िन अचानक गोआ का कार्यक्रम बन गया औऱ लिखने का कार्यक्रम पीछे रह गया। जो साल की आखिरी पोस्ट मैं लिख पाया वो भी जैसे तैसे हो ही गया। जब 31 दिसम्बर की ढेरों फ़ोटो देखीं तो ज़्यादातर में फ़ोन पर ही कुछ करता हुआ दिख रहा हूँ। दरअसल वो बस लिखने का प्रयास ही कर रहा था। उस बीच में खाना औऱ पीना दोनों भी चल रहा था।

ख़ैर, जब वापस लौटने का कार्यक्रम बना तो मैंने बस से आने का कार्यक्रम बनाया। अपने जीवन में मैंने सबसे कम बस से यात्रायें करीं हैं। जब भी ये यात्रायें हुईं तो वो सरकारी बस से ही हुई औऱ उन्हीं जगहों पर जाना हुआ जहाँ रेलगाड़ी से जाना संभव नहीं था। अब हमारी सरकारी बसों के बारे में जितना लिखा जाये वो कम ही है। हमारे देश की एक बड़ी जनता के लिये बस ही सस्ता औऱ सुलभ यात्रा का साधन रहा है लेक़िन सुविधाओं में विकास उतना तेज़ी से नहीं हुआ। हाँ, निजी बस सर्विस ज़रूर शुरू हो गईं लेक़िन ये यात्रायें कितनी आरामदायक हो गईं हैं, इसका अनुभव मुझे करना था। शायद एकाध बार ही वीडियो कोच बस में यात्रा करी है औऱ उसकी भी कोई ज़्यादा याद नहीं है।

लेक़िन गोआ से मुम्बई से पहले चलते हैं प्राग। जब ऑफिस की सालाना मीटिंग के लिये प्राग जाना हुआ तो म्युनिक से बस से जाना था। शायद तीन-चार घंटे की यात्रा थी। पहले ही लंबी विमान यात्रा उसके बाद ये बस यात्रा – लगा जैसे सब गड़बड़ हो गया। लेक़िन जब बस बैठे तो एक बड़ी सुखद अनुभूति हुई। एक तो क़माल की रोड हैं उसपर  बडी आरामदायक बस। जो नई बात थी वो थी बस में एक शौचालय। ये पहली बार किसी बस में देखा था। अपने यहाँ तो बस रुकने तक रुकिये या बस रुकवाईये। बीच में जहाँ बस रुकी भी तो वहाँ भी बड़े अच्छे शौचालय थे औऱ एक छोटी सी दुकान जहाँ खाने पीने का सामान मिलता है।

जब गोआ से मुम्बई की स्लीपर कोच में सीट बुक करी तो मैं बड़ा उत्सुक था इस यात्रा को लेकर। मेरा ये मानना है जब तक आपको किसी भी चीज़ का व्यक्तिगत अनुभव न हो तो उसके बारे में कहना या लिखना एक ग़लत बात हो जाती है। कई बार मन में आया की किसी तरह ट्रैन में टिकट जुगाड़ी जाये औऱ आराम से घर पहुंचा जाये। भाई ने भी बोला ट्रेन में मुंबई तक साथ चलने के लिये। लेक़िन रात भर की बात थी तो मैं भी तय कार्यक्रम के अनुसार ही चला।

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अग़र आपने इन बसों में यात्रा न करी हो तो इनकी सीट रेल की बर्थ की तरह ही होती हैं। जगह ठीकठाक रहती है। आपको सोने के लिये थोड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है। क्यूँ? इस पर आगे। तो यात्रा शुरू हुई औऱ सीट पर बैठने या कहें लेटने के बाद उठने के कष्ट के अलावा औऱ कोई परेशानी नहीं हुई। बीच में भोजन के लिये रुके औऱ वापस अपनी सीट पर। बस शायद हर दो घंटे के बाद कहीं रुकती क्योंकि एक बंदा आकर बोलता किसी को अग़र लघुशंका के लिये जाना हो तो चला जाये।

मतलब इस बस में शौचालय नहीं था। शायद कुछ बसों में ये सुविधा अब मिलने लगी है लेक़िन सभी बसों में ये उपलब्ध नहीं है। वैसे स्लीपर कोच की यात्रा बहुत आरामदायक हो सकती है (अगर आपको उठने बैठने में परेशानी न हो तो)। लेक़िन हमारे यहाँ इसके आरामदायक होने में अभी कुछ वर्ष लगेंगे। कारण? यात्रा के आरामदायक होने के लिये दो चीज़ों का होना बहुत ज़रूरी है। एक तो बस का आरामदायक होना औऱ दूसरा सड़कों का अच्छा निर्माण।

गोआ से चले तो कुछ हिस्से तक सड़क बहुत बढ़िया थी। अब किसी अदाकारा के गालों की मिसाल देना तो ठीक नहीं होगा। बस बहुत अच्छी रही शुरू के एकाध घंटे की यात्रा। उसके बाद जब ख़राब सड़क आयी तो उह, आह, आउच वाली स्थिति रही। ख़ैर कुछ देर बाद ख़राब सड़क कब ख़त्म हो गयी औऱ कब नींद लग गयी पता नहीं चला।

थोड़े समय बाद ऐसा आभास हुआ की बस तो चल ही नहीं रही है। शायद इसलिये अच्छी नींद आ रही थी। खिड़की से देखा तो ऐसा नहीं लगा किसी होटल पर रुके हैं क्योंकि ज़्यादातर ड्राइवर चाय पीने के लिये कहीं रुकते हैं। यहाँ तो वो भी गायब। किसी तरह उठकर बाहर आये तो पता चला बस में कुछ ख़राबी है जिसको वो लोग ठीक कर रहे थे। नींद तो आ ही रही थी तो वापस पहुँच गये नींद्रलोक लोक में।

थोड़ी देर बाद फ़िर नींद खुली तो लगा अभी भी बस नहीं चल रही है। नीचे उतरकर पता किया तो बताया इसको ठीक करने कंपनी का मैकेनिक ही आयेगा। पंदह बीस मिनट से शुरुआत होते होते बात आठ घंटे तक खींच गयी। उसके बाद फ़िर यात्रा शुरू हुई तो सुबह के घर पहुँच कर काम शुरू करने का कार्यक्रम धरा का धरा रह गया औऱ ग्रह प्रवेश शाम को ही हो सका।

ऐसी घटनायें मैंने सुन तो रखीं थीं लेक़िन पहली बार अनुभव किया था। इंदौर से बिलासपुर (छत्तीसगढ़) जाने के लिये एक इंदौर-बिलासपुर ट्रैन चलती है। इसमें भोपाल से भी कोच लगता है। अभी का पता नहीं लेक़िन पहले ये ट्रेन बहुत ही लेट लतीफ़ हुआ करती थी। भोपाल से चढ़ने वाले यात्रियों की सुविधा के लिये रेलवे ने उनको कोच में बैठने की इजाज़त से दी। यात्रियों के लिये भी ये सुविधाजनक हो गया। इंदौर से ट्रैन जब आये तब आये, वो आराम से बैठ सकते थे औऱ सो भी सकते थे।

एक बार किसी परिचित का जाना हुआ। उनको स्टेशन पर छोड़कर आ गये क्योंकि ट्रेन का कोई अता पता नहीं था। वो भी आराम से सोने चले गये। जब सुबह गाड़ी के जबलपुर पहुँचने के समय पर उठ कर दरवाज़े पर आये तो उन्हें स्टेशन थोड़ा जाना पहचाना से लगा। औऱ क्यूँ न लगे क्योंकि उनकी ट्रैन या कहें उनका कोच अभी तक भोपाल में ही खड़ा हुआ था।

इस ट्रेन का भोपाल आने का समय भी अल सुबह होता था। लेक़िन जितना इसको जाने में समय लगता, आने में ये बिल्कुल समय पर या उससे भी पहले। सर्दियों की सुबह किसी को स्कूटर पर लेने जाना हो तो आनंद ही आनंद। उसपर ट्रेन के इंतज़ार में अग़र स्टेशन की चाशनी जैसी चाय भी हो तो सुभानअल्लाह। वैसे चाय से गोआ का एक वाक्या भी याद आया लेक़िन उसके लिये थोड़ा इंतज़ार।

ख़ैर, साल के दूसरे ही दिन ख़ूब सारा ज्ञान प्राप्त हुआ। औऱ ये सब अपने ही एक निर्णय के चलते। तो क्या आपको स्लीपर कोच से यात्रा करनी चाहिये? ये इसपर निर्भर करता है आप उम्र के किस पड़ाव पर हैं। औऱ आप अगर जिस जगह जा रहें हैं वहाँ की सड़कों हालत की थोड़ी जानकारी निकाल लें तो बेहतर होगा। यही यात्रा अग़र बैठे बैठे करी गई होती तो? तो शायद ये पोस्ट नहीं होती। ये हम लोगों की यूँ होता तो क्या होता वाली सोच हमेशा कहीँ न कहीं प्रकट हो जाती है। श्रीमतीजी को भी लगा की मैंने फ़ालतू इतनी मुसीबत झेली। लेक़िन सब कुछ होने के बाद तो सभी समझदार हो जाते हैं। देखिये अब अग़र कहीं आसपास जाना होता है तो क्या इस फ़िर से बस यात्रा के लिये मन बनेगा?

आप सभी इस पोस्ट को पढ़ें औऱ आगे भी शेयर करें औऱ थोड़ा कष्ट अपनी उंगलियों को भी दें इस सर्दियों में। एक कमेंट लिख कर बतायें आपकी प्रतिक्रिया। आपकी बस यात्रा का अनुभव। आप तक ये पोस्ट किस तरह पहुँचे ये भी बतायें। क्या एक औऱ … व्हाट्सएप ग्रुप आप को परेशान तो नहीं करेगा? आपके जवाब/बों का इंतज़ार करेगा असीम।

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