हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से

मिस्ट्री, सस्पेंस फ़िल्म देखने का एक अलग रोमांच है। जैसे तीसरी मंज़िल या ज्वेल थीफ या वो कौन थी आदि। क़माल की बात ये है की आम रोमांटिक फिल्म से अलग होते हुये भी इन फिल्मों का संगीत आज तक याद है लोगों को। उदहारण के लिये लग जा गले से। इससे बेहतरीन प्यार का इज़हार करने वाला कोई और गाना हो सकता है? और अगर आप को फ़िल्म की जानकारी मतलब उसके सब्जेक्ट की जानकारी नहीं हो तो ये बहुत ही अजीब सी लगती है की इतना खूबसूरत गीत एक मिस्ट्री फ़िल्म का हिस्सा है।

ये फिल्मों की एक ऐसी श्रेणी है जिसमें हर एक दो साल में कुछ न कुछ नया आता रहता है। अब तकनीक और अच्छी हो गयी है तो और अच्छी फिल्में बन रही हैं। लेकिन कहीं न कहीं अब वो मज़ा नहीं आ रहा है। फिल्मों का संगीत भी ऐसा कुछ खास नहीं है जैसा 1964 में बनी वो कौन थी के संगीत में है और उसमें अगर वो रीसायकल फैक्ट्री से बन कर निकला है तो रही सही उम्मीद भी चली जाती है।

ये भी पढ़ें: उड़ती हुई वक़्त की धूल से, चुन ले चलो रंग हर फूल के

नये ज़माने के निर्देशक अब फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक को ज़्यादा महत्व दे रहे हैं। इन फिल्मों में उसका अपना एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता है। फिल्मों में ज़रूरी न हो तो गाने भी नहीं होते। एक दो गाने प्रोमोशन के लिये शूट कर लेते हैं। लेकिन अब वो भी नहीं होगा क्योंकि एक दर्शक ने केस कर दिया था निर्देशक पर की प्रमोशनल गाना फ़िल्म में दिखाया ही नहीं गया।

दूसरी श्रेणी फ़िल्मों की जिसे मैंने अब देखना कम या बंद कर दिया है वो है हॉरर फिल्म। ऐसा नहीं है की पहले बहुत देखता था लेकिन जितनी भी अच्छी फिल्में आयी हैं मैंने लगभग सभी देखी हैं और सब की सब सिनेमाघरों में।

मुझे याद जब रामगोपाल वर्मा की रात फ़िल्म रिलीज़ हुई थी उस समय मैं कॉलेज के प्रथम वर्ष में था। फ़िल्म कॉलेज से थोड़ी दूर लगी थी। मतलब कॉलेज के आसपास कोई भी सिनेमाघर नहीं था। कॉलेज था भोपाल की BHEL टाऊनशिप में। मेरे कॉलेज के नये नये मित्र जय कृष्णन को भी फ़िल्म देखने का शौक था। बस हम दोनों पहुँच गये सिनेमाघर। कॉलेज के बाकी साथियों ने इस बार हमारा साथ नहीं दिया। शायद उन्होंने अख़बार में फ़िल्म के पोस्टर के साथ लिखी चेतावनी याद रही – कृपया कमज़ोर दिल वाले ये फ़िल्म न देखें।

ये भी पढें: ज़िन्दगी का आनंद लें बेशक, बेफिक्र, बिंदास

फ़िल्म देखने मुश्किल से 15-20 लोग रहे होंगे पूरे हॉल में। दोनों बैठ तो गये लेकिन पता नहीं था क्या होने वाला है। लेकिन क्या बढ़िया फ़िल्म थी। उसका कैमरावर्क कमाल का था और सस्पेंस भी। मेरे लिये आज भी फ़िल्म रात हॉरर फिल्मों में सबसे ऊपर है। अंग्रेज़ी की भी कई फिल्में देखी और महेश भट्ट/विक्रम भट्ट की फैक्ट्री वाली कुछ फिल्में भी देखी हैं। लेकिन रात में जब कैमरा रेवती के पीछे पीछे सिनेमाघर के अंदर और उसके बाद मैनेजर के कमरे में पहुँचता है…

रामसे भाइयों ने भी ढ़ेर सारी फिल्में बनाई हैं लेक़िन मुझे सिर्फ़ उनके नाम याद हैं। बात गानों से शुरू हुई तो उसी से ख़त्म करते हैं। ये गुमनाम फ़िल्म का गीत है जिसमें हेलेन जी वही संदेश दे रही हैं जो आज इस समय बिल्कुल फिट बैठता है।

https://youtu.be/tKodgq-1TgY

ये लम्हे ये पल हम बरसों याद करेंगे

इस वर्ष का विम्बलडन भी कोरोना की भेंट चढ़ गया। खेलकूद में कोई विशेष रुचि नहीं रही शुरू से। इस बात की पुष्टि वो लोग कर सकते हैं जिन्होंने मेरी पूरी प्रोफाइल फोटो देखी है। लेकिन टेनिस में रुचि जगी जिसका श्रेय स्टेफी ग्राफ और बोरिस बेकर को तो जाता ही है लेकिन उनसे भी ज़्यादा पिताजी को। विम्बलडन ही शायद पहला टूर्नामेंट था जिसे मैंने देखा और फॉलो करने लगा।

इसके पीछे की कहानी भी यादगार है। इस टूर्नामेंट की शुरुआत हुई थी और शायद स्टेफी ग्राफ का ही मैच था। लेकिन समस्या ये थी की टीवी ब्लैक एंड व्हाइट था। पिताजी और मेरे एक और रिश्तेदार का मन था की मैच कलर में देखा जाये। तो बस पहुँच गये कलर टीवी वाले घर में। मैं भी साथ में हो लिया या ज़िद करके गया ये याद नहीं।

ये भी पढ़ें: कब तक गिने हम धड़कने, दिल जैसे धड़के धड़कने दो

पिताजी भी बहुत अच्छा टेनिस खेलते थे तो शायद टेनिस के प्रति मेरा रुझान का कारण वो भी हैं। खेलों के प्रति उनका ख़ास लगाव रहा है। उनकी टेनिस खेलते हुये और विजेता ट्रॉफी लेते हुये कई फ़ोटो देखी हैं। उनका पढ़ने और सिनेमा देखने के शौक़ तो अपना लिये लेकिन ये शौक़ रह गया।

पिताजी ने पूरा खेल समझाया। पॉइंट कैसे स्कोर होते हैं और उन्हें क्या कहते है। बस तबसे ये खेल के प्रति रुझान बढ़ गया। उसके बाद नौकरी के चलते सब खेलों पर नज़र रखने का मौका मिला और दिल्ली में पीटीआई में काम के दौरान एक चैंपियनशिप कवर करने का मौका भी मिला।

इन दिनों कुछेक खिलाड़ियों को छोड़ दें तो ज़्यादा देखना नही होता लेकिन नोवाक जोकोविच का मैच देखने को मिल जाये तो मौका नहीं छोड़ता। रॉजर फेडरर एक और खिलाड़ी हैं जो क़माल खलते हैं। उससे कहीं ज़्यादा कोर्ट में वो जिस शांत स्वभाव से खेलते हैं लगता ही नहीं की वो दुनिया के श्रेष्ठ खिलाड़ी हैं।

ये भी पढ़ें: चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जायें हम दोनों

कुछ वर्षों पहले जब घर देख रहा था तब एक घर देखा जिस सोसाइटी में टेनिस कोर्ट भी था। मुझे लगा शायद अब मैं टेनिस का रैकेट पकड़ना सीख ही लूंगा। लेकिन उधर बात बनी नहीं तो टेनिस खेलने के प्लान जंग खा रहा है।

अब जो लिस्ट बना रखी है मौका मिलते ही करने की उसमें ये भी शामिल है। और क्या शामिल है इसके बारे में कल। अगर इन दिनों आप की भी लिस्ट में बदलाव हुये हों तो बतायें।

जाते थे जापान, पहुँच गये चीन, समझ गये न

एक खेल है चाइनीज कानाफूसी (Chinese Whispers)। इस खेल में आप एक संदेश देते हैं एक खिलाड़ी को जो एक एक कर सब खिलाड़ी एक दूसरे के कान में बोलते हैं। जब ये आखिरी खिलाड़ी तक पहुँचता है तब उससे पूछा जाता है उसे क्या संदेश मिला और पहले खिलाड़ी से पूछा जाता है आपने क्या संदेश दिया था। अधिकतर संदेश चलता कुछ और है और पहुँचते पहुँचते उसका अर्थ ही बदल जाता है।

इसको आप आज के संदर्भ में न देखें। इस खेल की याद आज इसलिये आई क्योंकि एक व्यक्ति को एक जानकारी चाहिये थी। लेकिन उसने ये जानकारी उस व्यक्ति से लेना उचित नहीं समझा जो इसके बारे में सब सही जानता था। बल्कि एक दूसरे व्यक्ति को फ़ोन करके तीसरे व्यक्ति से इस बारे में जानकारी एकत्र करने को कहा। अब ये जानकारी चली तो कुछ और थी लेकिन क्या अंत तक पहुँचते पहुँचते वो बदल जायेगी? ये वक़्त आने पर पता चलेगा।

ये भी पढ़ें: सुन खनखनाती है ज़िन्दगी, देख हमें बुलाती है ज़िन्दगी

पीटीआई में मेरे एक बॉस हुआ करते थे जिनकी एक बड़ी अजीब सी आदत थी। वो हमेशा किसी तीसरे व्यक्ति का नाम लेकर बोलते की फलाँ व्यक्ति ऐसा ऐसा कह रहा था आपके बारे में। अब आप उस तथाकथित कथन पर अपना खंडन देते रहिये। कुल मिलाकर समय की बर्बादी।

एक बार उन्होंने मेरी एक महिला सहकर्मी का हवाला देते हुये कहा कि उन्होंने मेरे बारे में कुछ विचार रखे हैं। मेरे और उन महिला सहकर्मी के बीच बातचीत लगभग रोज़ाना ही होती थी। इसलिये जब उन्होंने ये कहा तो मैंने फौरन उस सहकर्मी को ढूंढा और इत्तेफाक से वो ऑफिस में मौजूद थीं। उन्हें साथ लेकर बॉस के पास गया और पूछा की आप क्या कह रहे थे इनका नाम लेकर।

ये भी पढ़ें: काम नहीं है वर्ना यहाँ, आपकी दुआ से बाकी सब ठीक ठाक है

बॉस ने मामला रफा दफा करने की कोशिश करी ये कहते हुये की \”मैंने ऐसा नहीं कहा। मेरे कहने का मतलब था उस सहकर्मी का ये मतलब हो सकता था।\” उस दिन के बाद से मुझे किसी के हवाले से मेरे बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई।

कोई बुरा बनना नहीं चाहता ये भी सच है। इसलिये ऊपर जो फ़ोन वाली बात मैंने बताई उसमें भी यही होगा। दूसरे लोगों का हवाला दिया जायेगा और उनके कंधे पर बंदूक रखकर चलाई जायेगी। कुछ लोग वाकई में इतने भोले होते हैं की उन्हें पता ही नहीं होता की उनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। देर से सही उन्हें इस बात का एहसास होता है और ये उनके जीवन की एक बड़ी सीख साबित होती है।

ये जो चीन से कानाफ़ूसी शुरू हुई है (आज के संदर्भ में), इसका असली सन्देश हमारे लिये सिर्फ़ एक है। अपने जीवन की प्राथमिकता को फ़िर से देखें। कहीं हम सही चीज़ छोड़ ग़लत चीज़ों को तो बढ़वा नहीं दे रहे। बाक़ी देश दूर हैं तो शायद उन तक पहुँचते पहुँचते ये संदेश कुछ और हो जाये। लेकिन हम पड़ोसी हैं इसलिये बिना बिगड़े हुये इस संदेश को भली भांति समझ लें।

ये पल है वही, जिसमें है छुपी पूरी एक सदी, सारी ज़िन्दगी

विगत कुछ वर्षों से विदेश घूमने का चलन बहुत बढ़ गया है। इसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं लेकिन हमारे यहाँ विदेश यात्रा को एक स्टेटस सिंबल की तरह देखा जाता है। आपने भारत भले ही न घुमा हो लेकिन अगर आपने एक भी विदेश यात्रा नहीं करी हो तो आपने अपने जीवन में कुछ नहीं किया।

आज से लगभग 20 वर्ष पहले जब फ़ेसबुक या इंस्टाग्राम या ट्विटर नहीं था तो आपके निकट संबंधियों के अलावा जन सामान्य को आपकी विदेश यात्रा के बारे में कैसे पता चले? अगर आप विदेश यात्रा पर जाते थे या लौटते थे तो कुछ लोग इसका ऐलान बाक़ायदा समाचार पत्र में एक इश्तेहार देकर करते थे। उस छोटे से विज्ञापन का शीर्षक होता था विदेश यात्रा और उस व्यक्ति का नाम और वो कहाँ गये थे और यात्रा का उद्देश्य सब जानकारी रहती थी।

शायद मार्च के पहले हफ़्ते दस दिन तक तो ये बखान यथावत चलता रहा। लेकिन उसके बाद सब कुछ बदलने लगा। वही लोग जो सोशल मीडिया पर अपनी इस यात्रा के टिकट से लेकर हर छोटी बड़ी चीज़ें शेयर करते नहीं थकते थे अचानक उनकी विदेश यात्रा के बारे में बात करने से परहेज़ होने लगा।

ये भी पढ़ें: ताज़ी ताज़ी लगे हमको रोज़ाना, तेरी मेरी बातें यूँ तो पुरानी है

इसमें कुछ ऐसे लोग भी पकड़े गए जो घर से तो काम के सिलसिले में बेंगलुरू और कोलकता का कहकर निकले थे, लेकिन असल में थाईलैंड की यात्रा कर आये थे। उनकी चोरी उनके परिवार को तब पता लगी जब स्थानीय प्रशासन नोटिस लगाने आयी। पकड़े गये व्यक्तियों ने इसका सारा गुस्सा मीडिया पर निकाला।

मेरे एक सीनियर ने मुझे भी ये समझाइश दी थी आज से लगभग पाँच साल पहले की अगर बाहर कहीं जाओ, किसी अच्छे होटल में रुको तो वहाँ की फ़ोटो शेयर करो सोशल मीडिया पर। उनके अनुसार ये अपने आप को मार्केट करने का एक तरीका है। सोशल मीडिया पर लोग फ़ोटो देखेंगे तो आपका स्टेटस सिंबल पता चलेगा और आपके लिये आगे के द्वार खुलेंगे।

ये भी पढ़ें: उसने कहा मुमकिन नहीं मैंने कहा यूँ ही सही

ये सच ज़रूर है की आजकल कंपनियां आपका सोशल मीडिया एकाउंट भी देखती हैं लेकिन वो ये देखने के लिये की आप किस तरह की पोस्ट शेयर कर रहे हैं। कहीं आप कोई आपत्तिजनक पोस्ट तो नहीं करते या शायद ये देखने के लिये भी की आप न कभी उस कंपनी के ख़िलाफ़ कुछ लिखा है क्या? क्या आपने कहाँ अपनी पिछली गर्मी की छुट्टियां बितायीं थीं उसके आधार पर नौकरियां भी दी जाती हैं?

मेरे ध्यान में इस समय वो परिवार है जो रायपुर के समीप अपने गाँव की तरफ़ चला जा रहा है। जिसका कोई सोशल मीडिया एकाउंट नहीं होगा, जिसकी इस यात्रा का कोई वृत्तांत नहीं होगा लेकिन वो इन सबसे बेखबर है। कई बार यूँ बेख़बर होना ही बड़ा अच्छा होता है।

ये भी पढ़ें: ज़िन्दगी फ़िर भी यहाँ खूबसूरत है

जब ये महीना शुरू हुआ था तब श्रीमती जी और मेरी यही बात हो रही थी की साल के दो महीने तो ऐसे निकल गये की कुछ पता ही नहीं चला। होली तक इस महीने के भी उड़नछू हो जाने की सभी संभावनाएं दिख रही थीं की अचानक फ़िल्म जो जीता वही सिकन्दर के क्लाइमेक्स सीन के जैसे सब कुछ स्लोमोशन में होने लगा और लगता है जैसे बरसों बीत गये इस महीने के पंद्रह दिन बीतने में। लेकिन जैसा होता है, समय बीत ही जाता है। मार्च 2020 को हम सभी एक ऐसे महीने के रूप में अपने सारे जीवन याद रखेंगे जिसने हमारे जीवन से जुड़े हर पहलू को हमेशा हमेशा के लिये बदल दिया है। क्या ये बदलाव हमें नई दिशा में लेके जायेगा?

ज़िन्दगी फ़िर भी यहाँ खूबसूरत है

यत्र, तत्र, सर्वत्र ये आज कोरोना के लिये सही है। हम घरों में क़ैद हैं लेकिन बहुत सारे ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने सारे नियम, कायदे तोड़ अपने पैतृक गाँव या शहर जाना ही बेहतर समझा। ये सब उन्होंने तब सोचा जब सरकार ने ट्रेन, बस, हवाई जहाज के कहीं भी आनेजाने पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। ये पोस्ट इस बारे में नहीं है की उन्होंने ऐसा क्यों किया बल्कि 905 किलोमीटर दूर वो जो घर जिसे वो अपना मानते हैं, उस सफ़र पर पैदल चलते हुये एक परिवार के बारे में है जो हमें बहुत कुछ सिखाता है।

तमाम सोशल मीडिया लोगों की मदद करते हुये फ़ोटो से पटा हुआ है। किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसलिये ऐसी किसी पोस्ट को देखता हूँ जहाँ मक़सद मदद नहीं है तो आगे बढ़ जाता हूँ। इस परिवार की कहानी मुझे पढ़ने को मिली फेसबुक पर जहाँ शिबल भारतीय एवं ग्राष्मी जीवानी ने बताया की कैसे उन्हें ये परिवार NH8 पर पैदल चलता हुआ मिला। छह सदस्यों का ये परिवार बढ़ रहा है रायपुर, छत्तीसगढ़ के पास अपने गाँव की तरफ़। घर पहुँचने में शायद एक हफ़्ता लग जाये। शिबल और ग्राष्मी विज़न अनलिमिटेड संस्था से जुड़े हैं जो इस समय कष्ट झेल रहे लोगों की हर संभव मदद करने की कोशिश कर रहा है।

ये भी पढ़ें: सुन खनखनाती है ज़िन्दगी, देख हमें बुलाती है ज़िन्दगी

जिस तरह के अनिश्चितता से भरे माहौल में हम रह रहे हैं, अगर कभी मार्किट जाने को मिल जाये तो सब भर भर के ले आयें। हमारा काम दो से चल सकता हो लेकिन हम छह उठा लायेंगे। पता नहीं फ़िर कब मौका मिले और अगर मौका मिला लेकिन सामान नहीं मिला तो? भर लो भाई जितना भर सकते हो।

शायद यही प्रवृत्ति हमें और इस परिवार को अलग करती है। जब हॉस्पिटल से लौटते हुये इन दोनों महिलाओं को ये परिवार दिखा तो उन्होंने गाड़ी रोककर पूछा कुछ खाने के लिये या पीने के लिये पानी चाहिये? परिवार की तरफ़ से माता ने बोला नहीं कुछ नही चाहिये। है सब हमारे पास। उन्होंने फ़िर से पूछा तो इस बार पिताजी ने बोला \”दीदी हमारे पास है। आप किसी और को दे दीजिए।\”

ये भी पढ़ें: कच्चे रंग उतर जाने दो, मौसम है गुज़र जाने दो

साथ चल रहे दो बच्चों ने बिस्किट के पैकेट लिये लेक़िन बाकी दो ने मना कर दिया। जितना है वो काफ़ी है। उससे काम चल जायेगा। दो बैग में पूरी गृहस्थी समेटे रोड पर चले जा रहें हैं। और ऐसे भी लोग हैं जो इस समय भी मुनाफाखोरी के बारे में ही सोच रहे हैं। उन परिवारों का क्या करिये जो घर में अनाज भरते जा रहें हैं और सिर्फ़ औऱ सिर्फ़ अपने ही बारे में सोचते हैं।

शायद वक़्त उन्हें कोई सीख दे, शायद उनकी समझ में जल्द आ जाये की संतोष जीवन में कितना आनंद देता है। इस परिवार की फ़ोटो देखिये। हर सदस्य के चेहरे पर मुस्कुराहट देखिये। लगता है कितने दिनों बाद एक असली मुस्कान देखी है।

शिबल भारतीय एवं ग्राशमी जीवानी आपकी इस प्रेरणादायी पोस्ट और फ़ोटो के लिये धन्यवाद। इस पोस्ट को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

आज कहाँ का नेशन, काहे की धरती मैय्या

दो दिनों से महाभारत देखना शुरू किया है। जब ये पहले देखा था तब इतनी समझ नहीं थी की ये क्या है। बस कहानियां सुनते थे और गीता उपदेश के बारे में सुना था। गीता सार का एक बड़ा सा पोस्टर किसी ने दिया था पिताजी को जिसमें बिंदुवार गीता समझाई गयी थी।

बीच में मुझे इस्कॉन के एक प्रभुजी से मिलने का मौका मिला और कुछ दिन उनसे गीता का ज्ञान लेने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। लेकिन फ़िर मेरा तबादला दिल्ली हो गया तो ये सिलसिला ख़त्म हो गया। मुम्बई वापस आने के बाद फ़िर ये मौका नहीं मिला।

लेकिन दो दिनों से महाभारत देख कर लगा की गीता उपदेश के पहले भी काफी कुछ सीखने योग्य है। जैसे हस्तिनापुर नरेश शांतनु ने अपने बड़े पुत्र भीष्म को युवराज पद से हटा कर अपने अजन्मे पुत्र को युवराज बना दिया। मतलब कर्म को नहीं मानते हुये जन्म को ज़्यादा महत्व दिया।

हमारे आसपास भी देखिये यही हो रहा है। फलां का बेटा या बेटी ही किसी कंपनी की कमान संभालेंगी। उनके कर्म कैसा भी हो लेकिन जन्म के आधार पर ही उनके भविष्य का फैसला हो गया। कई राजनीतिक दलों में भी यही हो रहा है। सब एक दूसरे को आईना दिखाते रह जाते हैं लेक़िन कोई खुद अपने को देखना नहीं चाहते।

ऐसी ही एक घटना 2017 में हुई जब एक कंपनी के मालिक के घर नई संतान का आगमन हुआ। कंपनी के तमाम कर्मचारी गिरे जा रहे थे ये बताने के लिये की कंपनी को उसका भविष्य में होने वाला मालिक मिल गया है। बच्चे के जन्म को घंटे ही हुये थे लेकिन उसका भविष्य तय हो गया था।

लेकिन ये तो कंपनी का मामला है। आजकल साधारण माता पिता भी अपने बच्चे का भविष्य खुद ही तय कर लेते हैं। 3 इडियट्स में जो दिखाया है वो कतई ग़लत नहीं है। रणछोड़दास चांचड़ में इंजीनियर बनने की काबिलियत नहीं थी। इसलिये फुँसुक वांगड़ू उनकी जगह वो डिग्री लेते हैं और रणछोड़दास कंपनी में पिता का स्थान। फरहान अख्तर के जन्म से ही उनके इंजीनियर बनने की तैयारी शुरू हो जाती है।

अगर कोई बड़ा व्यवसाय खड़ा करता है लेकिन वो इसको परिवार का व्यवसाय न बनाकर सिर्फ़ व्यवसाय की तरह करता है तो क्या उसके पास सभी अच्छी योग्यता प्राप्त लोगों का अकाल रहेगा? अगर केवल और केवल योग्यता को ही आधार माना जाये तो क्या हम एक अलग देश होंगे? नेता के बेटे को नेता बिल्कुल बनने दिया जाये लेक़िन सिर्फ़ उनका एक उपनाम है इसके चलते उन्हें कोई पद न दिया जाये। पद सिर्फ़ उसे मिले जो उसका सही हक़दार है। जन्म लेने भर से पद का फैसला नहीं हो सकता। लेकिन अगर महत्वकांक्षी व्यक्ति हो तो? महाभारत होना तय है!

सुन खनखनाती है ज़िन्दगी, देख हमें बुलाती है ज़िन्दगी

भोपाल में मेरे एक मित्र हैं राहुल जोशी। इनसे मुलाक़ात मेरी कॉलेज के दौरान मेरे बने दोस्त विजय नारायन के ज़रिये हुई थी। राहुल घर के पास है रहते हैं तो उनसे मुलाक़ात के सिलसिले बढ़ने लगे और मैंने उनको बेहतर जाना।

जोशी जी की एक ख़ास बात है की कोई भी सिचुएशन हो वो उसमें आपके चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। परेशानी की बात हो, दुख का माहौल हो – अगर राहुल आसपास हैं तो वो माहौल को हल्का करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ज़िंदगी में जो भी घटित हो रहा हो उसको वो एक अलग अंदाज़ से देखते हैं। मेरे घर में आज भी उनके एक्सपर्ट कमेंट को याद किया जाता है।

राहुल के दादाजी का जब निधन हुआ तो मैं उनसे मिलने गया था। राहुल उनके बहुत करीब भी थे और जब वो लौट के आये तो मुलाक़ात हुई। राहुल बोले जब आप किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होते हैं तो चंद पलों के लिये ही सही, आपको एहसास होता है अभी तक आप जिन भी चीजों को महत्व देते हैं वो सब पीछे छूट जायेगा। ज़िन्दगी की असली सच्चाई दिख जाती है। लेकिन क्रियाकर्म खत्म कर जैसे जैसे आपके क़दम बाहर की और चलते हैं वैसे वैसे आप वापस इस दुनिया में लौटते हैं। सबसे पहले तो सिगरेट सुलगाते हैं इस बात को और गहराई से समझने के लिये और चंद मिनटों में सब वापस।

आज राहुल और उनके साथ कि ये बातचीत इसलिये ध्यान आयी क्योंकि जिस समस्या से हम जूझ रहे हैं जब ये खत्म हो जायेगा तो क्या हम वही होंगे जो इससे पहले थे या कुछ बदले हुये होंगे? क्या हम महीने भर बाद भी अपने आसपास, लोगों को उसी नज़र से देखेंगे या हमारे अंदर चीजों के प्रति लगाव कम हो जायेगा। शायद आपको ये सब बेमानी लग रहा हो लेक़िन अगर एक महीने हम सब मौत के डर से अंदर बैठे हों और इसके बाद भी सब वैसा ही चलता रहेगा तो कहीं न कहीं हमसे ग़लती हो रही है।

लगभग सभी लोगों ने अपनी एक लिस्ट बना रखी है की जब उन्हें इस क़ैद से आज़ादी मिलेगी तो वो क्या करेंगे। किसी ने खानेपीने की, किसी ने शॉपिंग तो किसी ने पार्टी की तो किसी ने घूमने का प्रोग्राम बनाया है। बस सब थोड़े थोड़े अच्छे इंसान भी बन जायें और अपने दिलों में लोगों के लिये थोड़ी और जगह रखें – इसे भी अपनी लिस्ट में रखें।

https://youtu.be/X_q9IXvt3ro

एक पल तो अब हमें जीने दो, जीने दो

फ़िल्म 3 इडियट्स का एक सीन इन दिनों बहुत वायरल हो रहा है जिसमें तीनों इडियट्स के शराब पीने के बाद उनकी संस्थान के हेड वीरू सहस्त्रबुद्धे जिन्हें वो वायरस बुलाते हैं, उसे धरती से उठाने की प्रार्थना करते हैं। इस सीन को आज चल रहे कोरोना वायरस से जोड़ के देखा जाये तो लगता है किसी भी देश के नागरिक हों सबकी यही प्रार्थना होगी।

ये मेरे जीवन में शायद पहली बार मैंने या हम सभी लोगों के भी जीवन में ऐसा हो रहा है की कोई किसी भी देश में हो सब एक ही दुश्मन से लड़ रहे हैं। इससे पहले भारत में हुई कोई घटना का विश्व पर कोई असर नहीं पड़ता था या विश्व में कोई घटना होती जैसे 9/11 या ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग लगती तो हम उनके लिये प्रार्थना करते। मतलब किसी भी घटना का एक बहुत सीमित और बहुत ही ऊपरी असर दिखता।

लेकिन पिछले लगभग दो महीनों से पूरा विश्व क्या अमेरिका, क्या स्पेन, इटली या भारत, सब बस एक ही बात कर रहे हैं। लोगों से दूरी बनाये, घर से बाहर न निकलें और हाथ धोयें। मैं जिस संस्थान से जुड़ा हूँ वहाँ के सहकर्मी अलग अलग देशों में काम करते हैं। जब कभी हम लोग बात करते हैं इन दिनों तो शुरुआत इसी से होती है की आप के यहाँ कितने दिनों का लॉकडाउन है और क्या आपके पास ज़रूरत का सामान है।

इन बातों से और कुछ नहीं तो सब एक दूसरे की हिम्मत बढ़ाते रहते हैं। ये समय सभी के लिये एक चुनौती की तरह है। इसमें आसपास वाले तो आपके साथ हैं ही लेकिन हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा कोई आपसे आपका कुशलक्षेम पूछता है और आप उनसे उनके हालचाल तो लगता है क्या विकसित और क्या विकासशील देश। सब एक ही नाव में सवार हैं और सब बस इस कठिन समय के निकलने का इंतजार कर रहे हैं।

कई संस्थान ने अपने बहुत से ऑनलाइन कोर्स इस समय फ्री में उपलब्ध कराए हैं। ये समय आपको एक मौका दे रहा है कुछ नया सीखने का, कुछ नया करने का। और जैसा की 3 इडियट्स में आमिर खान शरमन जोशी को अस्पताल में कहते हैं – फ्री फ्री फ्री।

https://youtu.be/HZu3bXWhnX4

रुकावट के लिये खेद है

जो केबल टीवी या अब डिश टीवी देखकर बड़े हुये हैं उन्हें शायद रुकावट के लिये खेद है का संदर्भ नहीं समझ आये। लेक़िन दूरदर्शन की जनता इससे भली भांति परिचित होगी। आज जो माहौल चल रहा है ये वही रुकावट के लिये खेद है वाला है और आज इससे नई पीढ़ी का मिलना भी हो गया।

जब दूरदर्शन पर कोई प्रोग्राम देख रहे होते थे तो अचानक लिंक गायब और स्क्रीन पर रुकावट के लिये खेद है का नोटिस दिखाई देने लगता। ये कई बार होता और अगर मैं ये कहूँ की फ़िर इसकी आदत सी बन गयी तो ग़लत नहीं होगा।

आज अगर आप टीवी देख रहें हो तो ऐसा कोई अनुभव नहीं होता। आज तो ब्रेक होता है और आप चैनल बदल लेते हैं। उन दिनों ऐसा कोई ऑप्शन नहीं हुआ करता था। अगर प्रोग्राम में कोई रुकावट आ जाये तो आप अपनी नज़रें स्क्रीन पर ही गड़ाये बैठे रहते की कब वापस आ जाये। अच्छा ये प्रोग्राम की लिंक या तो दिल्ली से टूट जाती या सैटेलाइट के व्यवधान से। कई बार ऐसा भी होता की जब तक लिंक वापस आयी तो प्रोग्राम ख़त्म। कोई रिपीट टेलिकास्ट का भी ऑप्शन नहीं।

पिछले कुछ दिनों से ऐसा ही हुआ है। रुकावट के लिये खेद है वाला बोर्ड लगा दिया गया है। आप के पास भी कोई ऑप्शन नहीं सिवाय इसके की आप लिंक के फ़िर से जुड़ने का इंतजार करें। इस दौरान आप क्या करते हैं ये बहुत ज़रूरी है क्योंकि आपको इतना पता है लिंक के जुड़ने की संभावना कब है। बजाय इसके की आप एक एक दिन गिन कर इसके ख़त्म होने का इंतज़ार करें, क्यूँ न अपने आप को ऐसे ही कामों में व्यस्त रखें। समय निकल भी जायेगा और आपके कई काम भी निपट जायेंगे।

कहने के लिये तो लिंक टूट गयी है, लेकिन ये समय है लिंक जोड़ने का। अपने आप से, परिवार के सदस्यों से। ट्विटर पर किसी ने सुझाव दिया कि हर दिन अंग्रेज़ी वर्णमाला के एक एक वर्ण से शुरू होने वाले नाम के लोगों को फ़ोन करें। जब तक ये कर्फ्यू हटेगा आपकी फ़ोन लिस्ट में A से Z तक बात हो चुकी होगी।

कच्चे रंग उतर जाने दो, मौसम है गुज़र जाने दो

इन दिनों मौसम बदला हुआ है। बदलते मौसम के अपने नखरे होते हैं और इस बार के नखरे उठाना बड़ा महंगा पड़ सकता है। तो मत उठाइये नखरे। मौसम ही तो है, गुज़र जायेगा। आप क्यूँ खामख्वाह परेशान हो रहे हैं। आपके पास कामों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसे आप समय न होने का बहाना बनाकर टाल रहे थे। ये मान लीजिये आपको समय दिया गया है इन कामों को पूरा करने के लिये ताकि आप इस ब्रेक के बाद जो काम आयेंगे उनके लिये तैयार रहें।

अगर आप एक अच्छे मैनेजर हैं और ऐसा कुछ काम आपका बचा नहीं हुआ है तो आप को सलाम। आप वाकई तारीफ़ के काबिल हैं। आपने ये कैसे किया ये लोगों के साथ साझा करें। अगर आपको पता है किसी को आपके पास जो ज्ञान है उससे फायदा मिल सकता है तो उनके साथ बाँटें। अगर आपको किसी से कोई ज्ञान लेना है तो इससे बेहतर समय क्या हो सकता है?

आज जब पूरा हिन्दोस्तान अपने 24 घंटे घर पर कैसे काटे इसका जवाब ढूंढ रहा है, वहीं दूसरी और कई लोग हैं जिनकी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं हुआ है। आप वाकई में खुशकिस्मत हैं की आपको ऐसा मौका मिला है जिसमें आप स्वस्थ हैं, परिवार वालों के साथ है। अमूमन ऐसे ब्रेक बहुत कम मिलते हैं।

आप अगर इस बदलाव का हिस्सा हैं तो इस समय कुछ ऐसा कर गुज़रिये की मुड़ के देखने पर आप अपने आप को पहचान ही न पायें। टीवी, वेब सीरीज़, इंटरनेट पर कितना समय बर्बाद करेंगे? हम तो हमेशा से ही किसी भी काम को नहीं कर पाने का ठीकरा वक़्त के सर पर ही फोड़ते रहते हैं। आज वक़्त ने हमें वक़्त दिया है। ऐसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा?

मैं कोई भविष्यवक्ता तो हूँ नहीं लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूँ की आने वाले तीन महीनों में सब कुछ बदल जायेगा। और कुछ भी नहीं बदलेगा और। क्योंकि जो बदल गया होगा वो तो गुज़र चुका होगा।

Special Ops: Welcome back, Neeraj Pandey

There are movies you remember watching and there are others you have a faint recollection of watching somewhere – not sure where.

It was in the month of September 2008 when I saw two films on one day. I have not done this many times but that day the first movie I saw was because of the director and second because my father recommended it.

The first movie – Welcome to Sajjanpur – had director Shyam Benegal at the helm and I strongly believed it would be a treat. Sadly, it wasn\’t for various reasons.

The second one was A Wednesday. I had come out of the cinema hall and was talking to my father who asked me not to miss A Wednesday. Now, this recommendation does not come on a regular basis. As I was alone during those days, going back home to empty house was not a very exciting idea.

I booked a ticket for the next available show, which was couple of hours later, to watch this film. The title of the film was very intriguing and the poster also added to the curiosity. I saw the film and fell in love with everything about it. The characters, script, actors, direction – just about everything. This was the beginning of a one sided love affair with Neeraj Pandey\’s movies.

I still find it hard to believe that initially the film had no takers. Like really???

\"A

As someone who grew on cop and spy movies, may be it was a dormant wish to see Indian thrillers. We had very few genuine thrillers. But you watch A Wednesday and you realise a thriller need not have all the elements we had previously associated with it.

Watching Neeraj Pandey\’s films was like prayers have been answered. His next films like Special 26, Baby and MS Dhoni have been on the favourite list and I always end up watching them whenever I catch them on satellite channels. Aiyaary was a surprise disaster and I have barely managed to watch it once.

His latest is a web series – Special Ops with Kay Kay Menon in the lead. It is interesting that Manoj Bajpayee who has been part of so many Neeraj Pandey films is also doing a rather similar role in The Family Man. Though we dont know this – but did the role went to Kay Kay Menon because Manoj had already done The Family Man? We will never know it. But what we do is Kay Kay Menon has completely nailed it in Special Ops. We need to see this gem of an actor more often.

Thrillers need that special touch, that twist and turn, that requires special talent and that is where Special Ops score over The Family Man. The Manoj Bajpayee series was not engaging enough. It all comes down to writing which Neeraj Pandey is so good at. There are so many instances in the series that take you completely by surprise. The biggest complaint against The Family Man is the trivial writing that Raj and DK have to offer. I hope season 2 proves me wrong and I hope Neeraj Pandey is working on season 2 of Special Ops.

If I write anymore I will have to declare spoilers ahead, in case you have not seen it already. If you have – please share your reviews too.

 

बर्बाद हो रहे हैं जी तेरे अपने शहर वाले

तुम्हे पता है मेरे पिताजी कौन हैं? फिल्मों में ये सवाल कोई बिगड़ैल औलाद पूछती ही है। जब सामने अफ़सर को पता चलता है तो अगर वो ईमानदार है तो उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन अगर बेइमान हो तो झट से पहचान हो जाती है। चोर चोर मौसेरे भाई जो ठहरे।

आप इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति जी की पत्नी सुधा मूर्ती जी को जानते ही होंगे। शायद आपने उनका वो किस्सा कैसे उन्हें एयरपोर्ट पर इकोनॉमी क्लास की यात्री बताकर लाइन में पीछे जाने को कहा गया था। शायद आपने स्वर्गीय मनोहर पर्रिकर जी का किस्सा भी सुना होगा कैसे एक विवाह समारोह में वो भी कतार में खड़े रहकर नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद देने के अपने नंबर का इंतज़ार करते रहे। या भारतीय क्रिकेट के महान खिलाड़ी राहुल द्रविड़ जो बच्चों के स्कूल में अपने नम्बर का इंतज़ार करते हैं अपने बच्चों के अध्यापक से मिलने के लिये।

आज मुझे ये किस्से याद इसलिये आ रहे हैं क्योंकि अपने आसपास मैं बहुत सी ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ रहा हूँ, देखरहा हूँ जहाँ लोग जिनकी या तो किसी अफ़सर से पहचान है या उनके परिवार से की कोई ऊंचे पद पर कार्यरत है, उन्होंने उसका फ़ायदा उठा कर बाकी लोगों की जान को मुश्किल में डाल दिया।

दरअसल प्रथम दृष्टया वो दोषी दिखते हैं लेकिन ये असल में एक लंबे समय से हमारे समाज में चली आ रही एक और कुरीति ही है जिसमें जो ऊँचे ओहदे वाले माई बाप का रोल निभाते हैं। हम अपने आसपास ऐसा हमेशा से होता देख रहे हैं लेक़िन ये अब इतना नार्मल सा लगता है की अगर कोई वीआईपी स्टीकर लगी गाड़ी जब ग़लत पार्किंग में नहीं खड़ी हो तो आश्चर्य होता है।

जबसे मैंने होश संभाला है मैं ऐसे ही रसूख़ वालों से घिरा रहा हूं। ये सत्ता का नशा और दुरुपयोग बहुत क़रीब से देखा है। और ऐसे भी सत्ता के पीछे भागने वाले देखे हैं जो अपना प्रोमोशन न होने पर डिप्रेशन में चले जाते हैं। किसी भी तरह जोड़ तोड़ करके बड़े पद से रिटायरमेंट लेना है। इसके लिये जो करना पड़े सब करने को तैयार। इन्हें सिर्फ़ एक बात मालूम है – सब हो सकता है अगर आपके पास पैसा है।

अभी कोरोना वायरस के चलते ऐसे कई किस्से सामने आये जहाँ माता पिता स्वयं ही अपने बच्चों की बीमारी छुपा रहे हैं। कोलकाता में राज्य सरकार की एक बडी अफसर का बेटा लंदन से आने के बाद दो दिन पूरा शहर घुमा। इस नवयुवक ने सभी सरकारी आदेशों की अवेल्हना कर सरकारी अस्पताल में रहने को भी मना कर दिया।

अब इसका उल्टा सोचिये। इन अफ़सर के घर काम करने वाली कोई औरत को ये बीमारी होती और वो छुपाती तो उसका क्या हश्र होता? उस कनिका कपूर का क्या करें जो फाइव स्टार होटल में रहीं और सरकार पर ही आरोप लगा दिये। मैं इस बात से सहमत हूँ की कोई भी देश परफ़ेक्ट नहीं होता। लेकिन उसके नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है की अपने साथ वालों को बर्बाद होने से बचायें।

ऐ ज़िन्दगी, ये लम्हा जी लेने दे

गुलज़ार साहब का गीत आनेवाला पल जानेवाला है देखने से पहले सुना था। जी आपने बिल्कुल सही पढ़ा है। उस समय गाने सुने ज़्यादा जाते थे और देखने को मिल गये तो आपकी किस्मत। गाना है भी बड़ा फिलासफी से भरा हुआ। उसपर किशोर कुमार की आवाज़ और आर डी बर्मन का संगीत।

फरवरी के अंतिम सप्ताह में श्रीमती जी से चाय पर चर्चा हो रही थी की कितनी जल्दी 2020 के दो महीने निकल गये। बच्चों की परीक्षा शुरू हो गयी और उसके बाद समय का ध्यान बच्चों ने रखा। लेकिन होली आते आते कहानी में ट्विस्ट और ट्विस्ट भी ऐसा जो न देखा, न सुना।

पिछले लगभग दो हफ्तों में दो बार ही घर से बाहर निकलना हुआ। अब घर के अंदर दो हफ़्ते और क़ैद रहेंगे। इतनी ज़्यादा उथलपुथल मची हुई है की लगता है जब ये सब ख़त्म हो जायेगा तो छोटे छोटे सुख का फ़िर से अनुभव करूँगा। जैसे पार्क में सैर करने जाना, किसी से बात करना, किसी चाय की दुकान पर बैठकर चाय पीना और अपने आसपास लोगों को देखना।

सोशल मीडिया के चलते सूचना की कोई कमी नहीं है बल्कि ओवरडोज़ है। लेकिन इन सब में एक बात समान है – सब उम्मीद से भरे हैं की ये समय भी निकल जायेगा। सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और एक दूसरे को हिम्मत भी दे रहे हैं। मैंने इससे पहले ऐसी कोई घटना अगर देखी थी तो वो भोपाल गैस त्रासदी के समय थी। उस समय ये नहीं मालूम था हुआ क्या है बस इतना मालूम था लोगों को साँस लेने में तक़लीफ़ थी। उसके बाद कुछ दिनों के लिये शहर बंद हो गया था और हम सब भी ज़्यादातर समय घर के अंदर ही बिताते। कपड़े में रुई भरकर एक गेंद बना ली थी और इंडोर क्रिकेट खेला जाता था।

टीवी उस समय नया नया ही आया था लेक़िन कार्यक्रम कुछ खास नहीं होते थे। दिनभर वाला मामला भी नहीं था। दूरदर्शन पर तीन चार शिफ़्ट में प्रोग्राम आया करते थे। आज के जैसे नहीं जब टीवी खोला तब कुछ न कुछ आता रहता है। अगर कुछ नहीं देखने लायक हो तो वेब सीरीज़ की भरमार है। आपमें कितनी इच्छा शक्ति है सब उसपर निर्भर करता है।

लेकिन गाने सुनने का कोई सानी नहीं है। आप अपना काम करते रहिये और गाने सुनते रहिये। आज जब ये गाना सुना तो इसके मायने ही बदल गये। आनेवाले महीनों में क्या होने वाला है इसकी कोई ख़बर नहीं है। लेक़िन ज़रूरी है आज के ये लम्हे को भरपूर जिया जाये। ऐसे ही हर रोज़ किया जाये। जब पीछे मुड़कर देखेंगे तो वहाँ दास्ताँ मिलेगी, लम्हा कहीं नहीं।

https://youtu.be/AFRAFHtU-PE

सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं

यात्राओं का अपना अलग ही मज़ा है। हर यात्रा का अपना एक अनुभव होता है। अगर वो अच्छा तो भी यात्रा यादगार बन जाती है और अगर बुरा हो तो अगली यात्रा के लिये एक सीख बन जाती है।

मेरी ट्रैन की ज़्यादातर यात्रा में बहुत कुछ घटित नहीं होता क्योंकि मैं अक्सर ऊपर वाली बर्थ लेकर जल्दी ही अपने पढ़ने का कोई काम हो तो वो करता हूँ नहीं तो सोने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। काफ़ी सारी ट्रैन की यात्रा भी रात भर की होती हैं तो बाहर देखने का सवाल ही नहीं होता। कभी कुशल अग्रवाल जैसे सहयात्री मिल जाते हैं जो आपको जीवन का एक अलग अंदाज दिखा जाते हैं।

मैंने अक्सर ट्रैन में बर्थ बदलने की बातचीत होते हुये देखा सुना है। मेरे पास ऐसे निवेदन कम ही आते थे क्योंकि अपनी तो ऊपर वाली बर्थ ही रहती थी और अक़्सर ये मामले नीचे की बर्थ को लेकर रहते थे। कई बार तो उल्टा ही हुआ। भारतीय रेल की बदौलत कभी नीचे की बर्थ मिल भी गयी तो सहयात्री से निवेदन कर ऊपर की बर्थ माँग लेता। बहुत कम ऐसा हुआ है की ऊपर की बर्थ के लिये किसी ने मना किया हो।

ज़्यादातर माता-पिता के साथ भी ऐसा कोई वाक्य हुआ जब उन्हें ऊपर की बर्थ मिल गई हो तो बाकी यात्रियों ने उन्हें नीचे की बर्थ देदी। लेकिन अगर साथ में ज़्यादा आयु वाले यात्री हों तो ऐसा होना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। लेकिन उनके साथ ऐसा भी हुआ है।

कल ट्विटर पर एक चर्चा चल रही थी जिसमें एक महिला यात्री जो की गर्भवती हैं, उनको उनके साथ सफर कर रहे एक संभ्रांत घर के युवक ने नीचे की बर्थ देने से मना कर दिया। उस दिखने वाले पढ़े लिखे युवक के इस व्यवहार से वो काफी दुखी भी हुईं। लेकिन उनके एक और युवा सहयात्री जो शायद किसी छोटे शहर से थे, उन्होंने खुशी खुशी अपनी नीचे की बर्थ उन्हें दे दी। ये महिला यात्री जो भारतीय वन सेवा की अधिकारी हैं, उन्हें दोनों के व्यवहार से यही लगा की हमारी सारी तालीम बेकार है अगर हम जिसे ज़रूरत हो उसकी मदद न करें।

उनके इस वाकये पर एक और ट्विटर की यूज़र ने 1990 की अपनी यात्रा के बारे में बताया की कैसे दो अजनबी पुरुष यात्रियों ने अपनी बर्थ उन्हें देकर खुद रात ट्रैन की फ़र्श पर बिताई थी। दोनों आगे चलकर गुजरात के मुख्यमंत्री बने और उनमें से एक इस समय भारत के प्रधानमंत्री हैं। उनकी यात्रा के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

http://www.thehindu.com/opinion/open-page/a-train-journey-and-two-names-to-remember/article6070562.ece?homepage=true

क्या आपकी भी ऐसी ही कोई यादगार यात्रा रही है जब किसी अनजाने ने आपकी या आपने किसी अनजाने की मदद करी?

मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा

फ़िल्मी संगीत में रमे हमारे परिवार में बहुत कम शास्त्रीय संगीत सुनने को मिला। लेक़िन बाद में ऊपर वाले की मेहरबानी से हमारी हर सुबह शास्त्रीय संगीत से होने लगी। यहाँ ऊपरवाले से मेरा मतलब भगवान से नहीं लेकिन उन्हीं के द्वारा मिलवाये गये हमारे सरकारी मकान में ऊपर वाले घर में रहने वाले सज्जनलाल भट्ट जी का जो की पास ही के सरकारी कॉलेज में शास्त्रीय संगीत के प्रोफ़ेसर थे।

अगर भट्ट अंकल शहर में हैं तो सुबह सुबह उनका रियाज़ शुरू हो जाता। वो गला साफ़ करने के लिये आलाप लगाते और वो हमारे उठने का समय। उसके बाद शास्त्रीय संगीत आया आल इंडिया रेडियो या विविध भारती के सौजन्य से। सुबह संगीत सरिता कार्यक्रम में कोई एक राग और उसके बारे में ज्ञान।

लेकिन हमने कभी भट्ट अंकल के शास्त्रीय संगीत के ज्ञान का लाभ नहीं लिया। उनके पास कभी तबला सीखने गये थे लेकिन कुछ दिन बाद जोश ठंडा पड़ गया और सब धरा का धरा रह गया। दूरदर्शन पर उन दिनों संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम होता था लेकिन उसको देखते नहीं थे। किसी नेता की मृत्यु पर राजकीय शोक के समय यही शास्त्रीय संगीत बजता रहता।

एक लंबे समय बाद शास्त्रीय संगीत की जीवन में वापसी हुई जब भाई ने भीमसेन जोशी और लता मंगेशकर जी के गाये भजन की सीडी दी। इससे पहले लता मंगेशकर जी को जानते थे लेकिन भीमसेन जोशी जो को मिले सुर मेरा तुम्हारा की बदौलत जानते थे। लेकिन जब से वो भजन सुने जोशी जी के फैन हो गये। उनकी गायकी, उनकी आवाज़ आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती है। मैंने अपने इस शास्त्रीय संगीत के प्रेम को बनाये रखने के लिये कई सारे कैसेट और सीडी ख़रीदी।

लेक़िन जीवन में कभी भी ये नहीं सोचा था की साक्षात जोशी जी को सुनने को मिलेगा। मुम्बई में काम के चलते किशोरी अमोनकर जी से बात करने का, उन्हें सुनने का मौक़ा मिला। शायद दिल में कभी इच्छा रही होगी तभी तो एक दिन अचानक पीटीआई में मेरी सहयोगी निवेदिता खांडेकर जी ने बताया की उनके पास पंडितजी के एक शो के पास हैं। बस फ़िर कुछ सोचने के लिये बचता ही नहीं था। हम दोनों पहुँच गये उनके कार्यक्रम में और उनको सामने बैठकर सुना। ये जीवन में याद रखने योग्य क्षण था और इसको आज भी कई बार याद करता हूँ।

पंडितजी को आज भी सुनता हूँ और अक्सर सुबह उनके और लता जी के गाये भजनों से ही होती है। आप भी आनंद लें संगीत के दो दिग्गजों की आवाज़ का।

https://youtu.be/VF8RMZZXlWg

हम हैं राही प्यार के, हमसे कुछ न बोलिये

1993 में आई फ़िल्म हम हैं राही प्यार के घर के नज़दीकी सिनेमाघर में लगी थी। आमिर खान और जूही चावला की फ़िल्म थी और ट्रेलर देख और गाने सुनने में अच्छे थे। मैं जूही चावला का बड़ा फैन कैसे इस फ़िल्म को नहीं देखता। फ़िल्म का एक गाना घूंघट की आड़ से दिलबर का ज़बरदस्त हिट हुआ था। आजकल तो ऐसा बहुत कम होता है पर उन दिनों ऑडियंस स्क्रीन के पास जाकर अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करती। ऐसा पिछली कई फिल्मों के दौरान, जिनके गाने बहुत हिट थे, ऐसा माजरा देखने को मिला था।

जब सिनेमाघर में ये गाना आया तो वही हुआ। पूरे गाने तक सब जमकर नाचे। लेकिन उसके बाद जो हुआ वो उसके पहले और बाद कभी नहीं हुआ। गाना ख़त्म होते ही हॉल में शोर बढ़ गया और शो को रुकवाया गया। फ़िल्म को गाने के पहले से फ़िर से दिखाने की माँग की गई। सिनेमाघर के मैनेजमेंट ने स्थिति को समझते हुये यही बेहतर समझा की गाना फ़िर से दिखाये जाने में ही समझदारी है। बस फ़िर क्या गाना फ़िर से लगाया गया और इस बार सबने बैठकर गाने का आनंद लिया।

मेरे जीवनकाल में ये पहली और अंतिम बार हुआ था। उसके बाद एक से एक हिट गानों वाली फिल्म देखी लेकिन दोबारा ऐसा नहीं हुआ।

ये घटना आज इसलिये याद आयी की एक वीडियो देखा जा रहा है जिसमें एक कश्मीरी महिला आज रिलीज़ हुई फ़िल्म शिकारा को देख बहुत ज़्यादा दुखी हुईं। इस फ़िल्म को देखने फ़िल्म के निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा भी पहुँचे थे फ़िल्म के कलाकारों के साथ। महिला दर्शक ने विनोद चोपड़ा पर आरोप लगाया कि उन्होंने पूरी सच्चाई नहीं दिखाई।उन्होंने कहा उनके परिवारों ने इतना कुछ झेला है लेकिन फ़िल्म में कश्मीरी पंडितों पर हुई ज़्यादतियों को दिखाया ही नहीं गया है। उन्होंने ख़ूब गुस्से में अपनी ये प्रतिक्रिया दी और उसके बाद वो फफककर रो पड़ीं।

https://twitter.com/kashmiriRefuge/status/1225728440248094720?s=19

मैंने ऐसी प्रतिक्रिया भी पहली बार देखी। फ़िल्म देख कर कई बार आँखों से आँसू निकले या फ़िल्म बहुत ही घटिया हुई तो खर्राटे भी निकले लेक़िन इस तरह की प्रतिक्रिया नहीं देखी। शायद अगर मुझे पता होता कि निर्देशक भी साथ में फ़िल्म देख रहे हैं तो मेरी प्रतिक्रिया भी कुछ और होती। लेकिन वो कौन सी फ़िल्म होती?

शादी के कई सालों बाद एक और बात पता चली। जिस हम हैं रही प्यार के शो में ये हंगामा हुआ और गाना दुबारा देखा गया उसी शो में मेरी पत्नी के बड़े भाई भी मौजूद थे। आप एक बार और इस गाने को देखिये।

जीने के इशारे मिल गए, बिछड़े थे किनारे मिल गये

लगता है जैसे कुछ दिन पहले की ही बात थी जब मैं नये साल के बारे में लिख रहा था और आज नये साल के दूसरे महीने के तीन दिन निकल चुके हैं। जनवरी का महीना कई नये अनुभवों की सौगात लाया। जैसे नये लोगों से मुलाक़ात और उनके ज़रिये अपने को नई रोशनी में देखना।

जनवरी में ही अस्पताल में इलाहाबाद/प्रयागराज से आईं एक महिला से मिलना हुआ। वो अपने इलाज के लिये अकेले ही शहर में डेरा डाले हुईं थीं। रुकने के लिये जगह नहीं थी तो अस्पताल को ही अपना घर बना लिया और बाहर से ही खाने का इंतज़ाम भी कर लिया। दिनभर वो अस्पताल के आसपास बिताती और शाम होते होते अस्पताल का एक कोना उनके सोने की जगह बन जाता। निश्चित रूप से कड़ाके की सर्दी में उन्हें कई परेशानियों का सामना भी करना पड़ रहा होगा लेकिन उनसे मिलके आपको इसका अंदाज़ा भी नहीं होगा।

उनकी बातें सुनकर एक तो अपने देश की स्वास्थ्य सेवाओं की ख़स्ता हालत से फ़िर सामना हुआ। दूसरी बात जो बड़ी मायने रखती है वो ये की मुझे जिस बात को सुनकर इतनी परेशानी हो रही थी, उनको इस बात से कोई परेशानी हुई हो इसकी कोई झलक नहीं दिखी। तो क्या मैं आधा ख़ाली ग्लास देख दुखी हो रहा था या वो आधा खाली ग्लास नहीं बल्कि आधा पानी से और आधा हवा ग्लास देख रही थीं?

हम ऐसे कितने लोगों से मिलते हैं जो मिलते ही अपनी परेशानियों की लिस्ट खोल के बैठ जाते हैं। वहीं ऐसे भी लोगों से भी मुलाक़ात होती है जिनके जीवन में परेशानी तो होती ही होंगी लेकिन तब भी वो उनको अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। पिताजी हमेशा एक फ़िल्म का उदाहरण देते हैं जिसमें एक शॉट है उसमें एक रईस नींद न आने की वजह से परेशान है वहीं उसकी खिड़की के बाहर एक मज़दूर दिन भर की मेहनत कर पत्थरों पर ही सो रहा है। अगर इसकी क्लिप मिली तो ज़रूर शेयर करूँगा।

ऐसे ही फ़िल्म पंगा में जब कंगना रनौत को अपने परिवार को छोड़ कर जाना पड़ता है तो उनके लिये ये बड़ा मुश्किल होता है। वो अपने पति से कहती हैं की अगर वो अपने काम की लिस्ट बनायें तो एक पूरी कॉपी भर जाये। लेकिन एक बार जब वो अपने खेल में व्यस्त हो जाती हैं तब सिर्फ़ खेल पर ही उनका ध्यान रहता है। उस समय न तो उन्हें इस बात की चिंता होती की उनके बेटे ने बाहर का खाना खाया या उनके पति ने दाल पकाने के लिये कुकर की कितनी सीटियाँ बजाई।

मैं ये फ़िल्म देखना चाहता था क्योंकि इसकी काफ़ी शूटिंग भोपाल में हुई है और मैंने बहुत कम भोपाल में शूट हुई फ़िल्म बड़े पर्दे पर देखी हैं। मेरे हिसाब से बाकी फ़िल्म के किरदारों की तरह शहर भी एक किरदार होता है और मुझे ये उत्सुकता थी की भोपाल का क्या किरदार है। लेक़िन ऐसा कुछ खास था नहीं। लेकिन उसकी खामी एक अच्छी कहानी और उम्दा अभिनय ने पूरी कर दी।

अगर आपने फ़िल्म नहीं देखी है तो नज़दीकी सिनेमाघर में परिवार के साथ ज़रूर देखें। आपको अपने आसपास, शायद अपने ही घर में, एक जया निगम मिल जायेंगी।

उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं

मेरी लगभग सभी लंबी दूरी की यात्रा ट्रैन से अथवा उड़नखटोले से हुई हैं। ट्रैन में मैं हमेशा से ऊपर की बर्थ लेकर सीधे सोने चला जाता। ट्रैन चलने के बाद नींद टिकट चेक करने के लिये खुलती। कभी खाने के लिये उठे तो ठीक नहीं तो सोते हुये सफ़र निकल जाता था।

हवाई जहाज की यात्रा में जो सीट नसीब हुई उसी पर थोड़ा बहुत सोकर सफ़र पूरा हो जाता। ट्रैन में तो फिर भी कभी आसपास वालों से दुआ सलाम हो जाती है लेकिन हवाई जहाज में एक अलग तरह के लोग सफ़र करते हैं। वो सफ़र के दौरान या तो कुछ पढ़ना या देखना पसंद करते हैं। ग्रुप में सफर करने वाले बातचीत में समय बिताते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुम्बई की लोकल ट्रेनों में फर्स्ट और सेकंड क्लास में होता है।

इसलिये मुझे अपनी पिछली ट्रैन यात्रा के दौरान थोड़ा आश्चर्य हुआ जब बोरीवली स्टेशन से मेरी सीट के साझेदार कुशल सवार हुये। उन्होंने अपना परिचय दिया और उसके बाद मुझे उम्मीद थी की बाकी ढेरों यात्रियों की तरह वो भी मोबाइल में खो जायेंगे। मैंने फ़ोन से बचने के लिये उस दिन का अख़बार हथिया लिया था। लेकिन अगले पाँच घंटे हमने बमुश्किल कुल 10 से 15 मिनिट ही मोबाइल देखा और बाकी सारा समय बात करते हुये बताया। वो अख़बार मेरे साथ गया और वापस आ गया। अब बासी खबरों को बाचने का कोई शौक नहीं।

हमारे सामने की सीट पर बैठे दंपत्ति और उनके परिचित कुशल के आने के पहले बहुत बात कर रहे थे। लेकिन उनके आने के बाद से हम दोनों की बातों का जो सिलसिला चला तो उनकी आवाज़ कुछ कम आने लगी। जब कुशल वड़ोदरा में उतर गये तो वो जानना चाहते थे की हम दोनों में से कौन उतरा।

जर्मनी से पढ़ाई कर लौटे कुशल का वडोदरा में स्वयं का पारिवारिक व्यवसाय है और वो काम के सिलसिले में ही मुम्बई आये थे। मुझे याद नहीं मैंने पिछली बार अकेले यात्रा करते हुये किसी से कभी इतनी बात हुई हो। उन्होंने जर्मनी के अपने प्रवास के कई अनुभव साझा किये और कैसे वहाँ एक अध्यापक होना एक बहुत बड़ी बात होती है। उनको एक बहुत ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है एक गर्व की बात है।

बहरहाल, कुशल से मिलना और बातचीत करना एक सुखद अनुभव रहा। इस साल की शुरुआत एक बड़े बदलाव से हुई है और उम्मीद है मैं ख़ुद को ऐसे ही चौंकाते रहने वाले काम आगे भी जारी रखूँगा।

आपने 2020 में क्या नया किया? क्या आपकी भी ऐसी ही कोई यादगार यात्रा रही है? कमेंट कर मेरे साथ शेयर करें।

मुस्कुराने की वजह तुम हो, गुनगुनाने की वजह तुम हो

लोग आपकी क्या क्या बातें याद रखते हैं इसका आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा। कल से पहले मुझे भी नहीं था। मैं अपने स्कूल के एक पुराने मित्र से बात कर रहा था। ये हमारी पिछले 25 सालों में, मतलब स्कूल छोड़ने के बाद, पहली बातचीत थी।

दोनों एक दूसरे की अभी तक के सफर के बारे में बात कर चुके थे लेकिन भाईसाहब को मेरी शक्ल याद ही नहीं आ रही थी। जब मैं किसी से मिलता हूँ तो मेरे साथ अक्सर ये परेशानी होती है लेकिन इनके साथ नहीं थी। मुझे इनकी शक्ल और इनके कारनामे सभी याद थे। बात करते करते उन्होंने बोला यार इस नाम के एक लड़के की याद है और फ़िर उन्होंने मेरे बारे में बताना शुरू किया। इस नाम का लड़का जोकि खाते पीते घर का दिखता था और उसके बाल कुछ इस तरह के होते थे। लेकिन जो बात उन्हें बिल्कुल साफ साफ याद थी वो ये की लंच ब्रेक में मैं किस तरीके से अपना टिफिन पकड़ कर खाता था। शायद ये भी मेरे खाते पीते शरीर के पीछे का राज़ था।

जब वो ये बता रहे तो मैं ये सोच रहा था अच्छा हुआ उन्हें ये याद नहीं रहा की मैं कितना खाता था। लेकिन सोचिये याद रहा भी तो क्या। हमें अक्सर लोगों की क्या बातें याद रह जाती हैं? उनके हावभाव, बोलने का तरीका, खाने पीने का तरीका या चलने का तरीका। लेकिन टिफिन पकड़ने का तरीका? मैं सही में वक़्त में वापस जाकर देखना चाहता हूँ की उसमें ऐसा क्या अनोखा था? क्या इन्होंने कभी मेरा टिफिन खाने की इच्छा व्यक्त करी हो और मैंने उन्हें नहीं खाने दिया हो। अब पच्चीस साल बाद सिर्फ़ कयास ही लगा सकते हैं।

जब से लिखना शुरू किया है इन यादों के ख़ज़ाने से ही कुछ न कुछ ढूंढता रहता हूँ। लेकिन किसी के टिफ़िन पकड़ने के अंदाज़ को याद नहीं रखा। लोगों की कंजूसी और दरियादिली याद है और उनका किसी बात पर नाराज़ होना भी। जैसे हमारे एक पड़ोसी हुआ करते थे। उनका हँसने का अंदाज़ एकदम जुदा और इसके चलते हम उनकी न हँसने वालीं बातों पर भी हँस दिया करते थे। लेकिन मुझे उनके या उनके बच्चों का टिफ़िन पकड़ने का अंदाज़ याद नहीं आ रहा।

कुछ ऐसी ही यादों के पुलिंदे खुल गये पिछले गुरुवार की रात जब ख़बर आयी की हमारी एक करीबी रिश्तेदार की अचानक मृत्यु हो गयी है। पहले तो जब ये संदेश पढ़ा तो विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि उनके स्वास्थ्य को लेकर ऐसा कुछ मालूम ही नहीं था। सब कुछ अचानक में हो गया और रह गईं सिर्फ़ यादें। मैं उनके विवाह में भी सम्मिलित हुआ था और जब कुछ समय वो मुम्बई में थीं तब भी उनके यहाँ आना जाना था। कुछ महीनों पहले भोपाल प्रवास के दौरान उनसे मिलना हुआ था। बहुत ही मिलनसार और चेहरे पर हमेशा एक मुस्कुराहट याद रहेगी और याद रहेगा उनकी रसोई से निकलने वाले हर पकवान का स्वाद।

तो आप भी हमेशा हँसते मुस्कुराते मिला करें, ताकि आपकी यादें भी मुस्कुराती हुई ही मिलें। मैं फिलहाल किसी तरह टिफ़िन पकड़ने की याद को किसी और बेहतर व्यवहार से बदलने की कोशिश करता हूँ।

जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल – 2

जहाँ दशक की शुरुआत में एक बहुत बड़े बदलाव का साक्षी बना, दस साल का अंत होते होते एक और कड़वी सच्चाई से पाला पड़ा। एक संस्थान में जाने का मौका मिला जो बदलाव की कगार पर खड़ा है लेकिन बदलाव को अपना नहीं रहा।

इन दस वर्षों में बहुत सी चीज़ें बदलती हुई देखी। जब ये दशक शुरू हुआ था तो किसे पता था हमारी दुनिया एक पाँच इंच की स्क्रीन पर सिमट जायेगी। लेकिन आज मैं ये पोस्ट उसी स्क्रीन पर टाइप कर रहा हूँ। कहने का मतलब है सिर्फ़ और सिर्फ़ बदलाव ही निरंतर है। लेकिन उस संस्थान को देखकर लगा समय जैसे रुक सा गया है। कहाँ हम इंटरनेट क्रांति की बात कर रहे हैं और कहाँ लोगों के पास अच्छी स्पीड वाला इंटरनेट नहीं है जो कि उनके काम को आसान बनाता है। ऐसा नहीं है की पैसे नहीं है, लेकिन जो चला आ रहा है उसको बदलने का डर और फ़िर हमारी माईबाप वाली मानसिकता जो इस बदलाव का सबसे बड़ा रोड़ा बन बैठी है।

ये भी पढ़ें: जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल

ऐसे किसी भी बदलाव को हम सिर्फ़ कुछ समय तक रोक सकते हैं। लेकिन वो बदलाव होगा ये निश्चित है। अगर समय रहते हम नहीं बदले तो पीछे ही रह जायेंगे। चार्ल्स डार्विन ने भी तो यही कहा है। तो क्या ये बेहतर नहीं है कि हम अपने आप को किसी भी बदलाव के लिये तैयार रखें?

इस बीते दशक में दुनिया में कई जगह जाने का मौका मिला। दूसरे देशों के लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिला और उनसे बहुत कुछ सीखने को भी। ऐसे शुभचिंतकों की लंबी लिस्ट भी है जिनसे अब अगले कई दशकों तक मिलने का कोई मन नहीं है और एक छोटी सी लिस्ट उन लोगों की भी जिनसे मुलाक़ात के लिये बस एक बहाने की तलाश रहती है।

कुल मिलाकर इन दस सालों में बहुत कुछ सीखने को मिला। सबसे बड़ी उपलब्धि? ये जो मैं लिख रहा हूँ और जो आप पढ़ रहे हैं। मेरे अंदर का लेखक जो पिछले दो दशकों में कहीं खो गया था वो मिल गया और वो हिंदी में भी लिख सकता है।

पिछली पोस्ट में आप सभी को नये साल की शुभकामनायें देना भूल गया था। आप सभी के लिये ये वर्ष मंगलमय हो और आप सभी स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। नया दशक चुनोतियों से भरा हो और आप हर चुनौती का डट कर मुकाबला करें।

https://youtu.be/IEcYHmAbznE

जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल

ये लेखा जोखा, बही खाते वाला काम तो हम कायस्थों के ही ज़िम्मे है। इसलिये जब कई लोगों का पिछले दशक का लेखा जोखा पढ़ रहा था तो सोचा एक बार अपना भी लिखा जाये। इस फ्लैशबैक में बड़ी खबरें तो आसानी से याद रह जाती हैं, लेकिन छोटी छोटी बातें जिनका असर ज़्यादा समय तक रहता है वो बस ऐसे ही कभी कभार याद आ जाती हैं।

2010 के ख़त्म होते होते ज़िन्दगी को एक नई दिशा मिल गयी। उसके पहले कुछ न कुछ चल रहा था लेकिन भविष्य कुछ दिख नहीं रहा था। और ये जो नई दिशा की बात कर रहा हूँ वो दरअसल कुछ समय बाद दिखाई दी। हम लोग जिस समय हमारे जीवन में ये घटनाक्रम चल रहे होते हैं, उस समय उससे अनजान ही रहते हैं। वो तो थोड़े समय बाद समझ में आता है की क्या हुआ है या हो गया है। थोड़े और समय बाद समझ आता है उसका असर।

ये भी पढ़ें: जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल – 2

2011 से 2019 तक का समय काम के हिसाब से स्वर्णिम रहा। बहुत कुछ नया सीखने को मिला और पिछले दशक के अपने पुराने अनुभवों से जो सीखा उसे अमल करने का मौका मिला। इस दौरान ऐसे कई लोग मिले जिन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। ये मेरे सीनियर जैसे देबाशीष घोष, संदीप अमर, मनीष मिश्रा, नीपा वैद्य और मेरे बहुत से टीम के सदस्य जिनमें प्रमुख रहे आमिर सलाटी, आदित्य द्विवेदी, मोहम्मद उज़ैर, नेहा सिंह। वैसे सीखा सभी से लेकिन जिनके नाम लिये हैं उनसे मिली सीख याद रही।

जो मेरे सीनियर हैं उनसे मैंने काम करने के कई नये गुर तो सीखे ही उनसे जीने का फ़लसफ़ा भी मिला। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय मुझे काम करने का सौभाग्य मिला कुणाल मजूमदार के साथ। जब कुणाल से पहली बार मिला तो इसका अंदाज़ा नहीं था कुणाल का नेटवर्क कितना कमाल का है। उनके ज़रिये आज के कई चर्चित लेखकों ने उस समय हमारे लिये लेख लिखे। कुणाल फ़ोन पर सम्पर्क कर बात करते और स्टोरी या वीडियो तैयार। लेकिन कुणाल से मिल कर आपको इस बात का एहसास ही नहीं होता। इतने समय में कुणाल में कोई बदलाव नहीं आया है। वो आज भी वही हैं या कहूँ समय और अनुभव के साथ और बेहतर इंसान बने हैं तो कुछ ग़लत नहीं होगा।

जिस समय हम लोग ये कर रहे थे उस समय चुनाव की उठापटक शुरू थी। लेकिन इस सबके बीच सभी काम अच्छे से हुये और 16 मई 2014 को जब परिणाम आया तो हमारा ट्रैफिक का रिकॉर्ड बन गया। ये उस समय के हमारे टीम के सभी सदस्यों की मेहनत ही थी जिसके चलते हमारी वेबसाइट को लोग जानने लगे।

लेकिन अगले तीन साल में मैनेजमेंट में हुये बदलाव के चलते सब ख़त्म हो गया। मतलब तीन सालों में मैंने अपनी टीम के साथ मेहनत कर एक ब्रान्ड बनाया और फ़िर उसको ख़त्म होते हुये देखा। ये शायद जीवन की सबसे बड़ी सीख भी थी।

जीवन की दूसरी बडी सीख मिली वो शायद किसी का व्हाट्सऐप स्टेटस था – कॉरपोरेट में कोई किसी का सगा नहीं होता *+#&$#। ये वाली सीख थोड़ी देर से समझ में आई लेकिन अभी भी कभी कभी फ़िर गलती दोहरा देता हूँ। नये लोगों के साथ।

इसका एक और भाग होगा। अब दशक के लिये इतना लिखना तो बनता है।

https://youtu.be/pGYjHQbV1KE

मेरी आदत है अक्सर मैं भूल जाता हूँ…

मैं अपनी नज़रें एक स्क्रीन से दूसरी और दूसरी से तीसरी की तरफ़ बारी बारी से दौड़ा रहा था। श्रीमती जी ने ऐसे ही पूछ लिया अपने किसी लिबास के बारे में। क्या मुझे याद है? अगर आप स्क्रीन पर ही उलझे रहे तो आपको नहीं समझ आयेगा की ये एक ट्रैप है।

अब अगर आप शादीशुदा हैं तो आपको दिख रहा होगा की श्रीमान जी ने कुछ ज़्यादा ही छूट ले ली है। एक तो स्क्रीन पर नज़रें हैं, मतलब ध्यान कहीं और है उसपर \’किसी लिबास\’ कह कर तो बस आगे का सारा मंज़र साफ दिख रहा है।

अब अगर ये कहूँगा की बीवियों को भी ऐसे जाल बिछाना बहुत अच्छे से आता है तो मुझे भी पड़ोसी देशों में शरणार्थी के लिये अर्ज़ी लगानी पड़े। लेकिन ये एक ऐसा खेल है जिसमें आप ने भाग लिया यही आपका बड़प्पन है। इस खेल का विजेता तो उस समय ही तय हो गया था जब आपने बाकायदा कार्ड छपवाकर सबको अपनी आज़ादी के दिन खत्म होने की बड़ी पार्टी दी थी।

इस खेल के नियम भी बिल्कुल साफ हैं। विजेता कभी भी बदलेगा नहीं। कुछ दिन श्रीमती जी सही होंगी और बाकी दिन आप ग़लत। एक बार फ़िर से पढ़ लें। श्रीमती जी कभी ग़लत नहीं होती हैं, कभी भी नहीं। हो सकता है वो हमेशा ही सही हों। सब आपकी किस्मत है, आज़माते रहिये।

अब अगर आपने ऊपर पूछे गये सवाल \’क्या तुम्हें याद है\’ का जवाब सही दिया जैसे डिनो मोरिया ने बिपाशा बसु को दिया था, तो दूसरे सवाल का इंतजार करें। जैसे केबीसी में दसवें सवाल के बाद जैकपॉट प्रश्न खुल जाता है, ठीक वैसे ही आपके ऊपर प्रश्नों की बौछार शुरू हो जायेगी। अगर आपको याद नहीं होता तो बात आगे नहीं बढ़ती। मतलब बढ़ती लेकिन उस दिशा में नहीं जिधर आपका सही जवाब लेकर जायेगा।

बात शुरू एक बहुत ही सादे से प्रश्न से हुई थी। लेकिन दिन चढ़ते चढ़ते ये सबको अपने लपटे में ले लेती है। आप को मालूम है अंत में क्या होने वाला है लेक़िन पूरे जोश खरोश से डटे रहते हैं। कभी घरवालों का तो कभी अपनी ऑफिस की कोई सहयोगी का और उस दिन चहलकदमी करते हुये जो नये पड़ोसी आये थे उनकी श्रीमती से मुस्कुराकर बात करने का – सभी का बचाव करते हुये। लेकिन एक दो मिसाइल अपने ससुराल पक्ष पर दाग देने के बाद।

अगली बार क्या ये नहीं होगा? बिल्कुल होगा जनाब। हाँ इसमें थोड़े बहुत फेरबदल ज़रूर होंगे। वो कोई शायर कह भी गया है, किसी रंजिश को हवा दो, अभी में ज़िंदा हूँ।

https://youtu.be/YkEHvTuoEDU

नोट: ये कहानी या इसके पात्र बिल्कुल भी काल्पनिक नहीं है। ये सब अपने इर्दगिर्द होते घटनाक्रम का ही बयान है। इसमें लिखी घटना एक अलसायी सी दोपहर की \’सूचना के आदान प्रदान\’ प्रक्रिया का हिस्सा थी

चेहरे पे चेहरा लगा लो, अपनी सूरत छुपा लो

टीम मैनेजमेंट के बारे में मैंने जो भी कुछ सीखा या जिसका अनुसरण किया उसमें दो चीजों का बड़ा योगदान रहा। पहली तो अपने सभी पुराने बॉस और दूसरा उसमें से क्या था जो पालन करने योग्य नहीं था। इसके अलावा अपने आसपास – घर पर और बाहरी दुनिया में मिलने जुलने वालों से। चूँकि बाहर वालों से मिलने का समय असीमित नहीं होता था तो घर पर माता-पिता को देखकर काफी पहले से ये मैनेजमेंट की शिक्षा ग्रहण की जा रही थी।

एक अच्छे मैनेजर के लिये सबसे ज़रूरी चीज़ होती है संयम और दूसरी संवाद। जब शुरुआती दिनों में टीम की ज़िम्मेदारी मिली तो मुझमें दोनों ही की कमी थी। किसी और बात पर टीम के किसी सदस्य से नाराज़गी हो लेकिन गुस्सा निकलता काम पर। पीटीआई के मेरे सहयोगियों ने मेरा ये दौर बहुत अच्छे से झेला है। ख़ैर अपनी गलतियों से सीखा और कोशिश करी की टीम को सही मार्गदर्शन मिले।

ये भी पढ़ें: चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जायें हम दोनों

इसमें कितनी सफलता मिली ये तो नहीं बता सकता लेकिन हर बार ऐसे कुछ नमूने ज़रूर मिल गये जो फ़िर से सीखा गये की गुरुजी, अभी भी आपको बहुत कुछ सीखना बाकी है। नमूना इसलिये कह रहा हूँ की वो सैंपल पीस थे।

मेरी टीम के एक सदस्य थे। बहुत मेहनती और अच्छा काम करने वाले। एक दिन अचानक उन्होंने आकर त्यागपत्र देने की सुचना दी। बात करी, पता किया कि ऐसा क्या हुआ की उन्हें ये कदम उठाना पड़ रहा है। उनके परिवार में कुछ आकस्मिक कार्य के चलते उन्हें लंबे अवकाश पर जाना था लेक़िन इतने दिनों की छुट्टी की अर्ज़ी ख़ारिज होने के अंदेशे से उन्होंने संस्थान छोड़ना ही बेहतर समझा। वो पहले भी बहुत छुट्टी लेते थे तो उनका ये डर लाजमी था। ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।

ये भी पढ़ें: काम नहीं है वर्ना यहाँ, आपकी दुआ से बाकी सब ठीक ठाक है

ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।
मेरा ऑफिस में चल रही पॉलिटिक्स या रोमांस दोनों में ज़रा भी रुचि नही रहती। इसलिये मुझे दोनों ही बातें जब तक पता चलती हैं तब तक काफ़ी देर हो चुकी रहती है। जैसे इन महोदय ने बाकी जितने दिन भी रहे सबसे खूब अपने गिले शिकवे सुनाये। तबसे मन और उचट गया। लेक़िन कुछ लोगों को तो जैसे मसाला मिल गया। मुझे नहीं पता उनसे अगर अब आगे मुलाक़ात होगी तो मेरा क्या रुख़ रहेगा।

लेकिन मैं तब भी जानता हूँ की जब हम मिलेंगे तो सब अच्छे से ही मिलेंगे। यही शायद एक अच्छे लीडर की पहचान भी होती है। आप सार्वजनिक जीवन में सब अच्छे से ही व्यवहार करते हैं।

ऐसे ही एक सज्जन हैं जो मुझसे भी बहुत नाराज़ चल रहे हैं। हम साथ में काम करना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों के चलते शुरू करने के बाद काम बीच में ही रुक गया और फ़िर टलता ही रहा। जैसे मुझे अपने टीम के साथी से नाराजगी है वैसे ही कुछ वो भी ख़फ़ा से हैं। मुझे एहसास-ए-जुर्म तो है लेकिन अब सब समय के ऊपर छोड़ दिया है।

ताज़ी ताज़ी लगे हमको रोज़ाना, तेरी मेरी बातें यूँ तो पुरानी है

जब नया साल शुरू होता है तो सब नई नई वाली फीलिंग आ जाती है। जैसे जैसे महीने निकलते जाते हैं, तो गिनने लगते हैं या यूं कहें सोशल मीडिया के चलते गिनाया जाता है इस साल के इतने महीने निकल गये पता ही नहीं चला। दिसंबर तक आते आते तो सब पीछे मुड़कर देखना शुरू कर देते हैं और साल का लेखा जोखा लिखने का काम शुरू हो जाता है। लिस्ट बनने लगती है साल की सबसे अच्छी या सबसे बुरी चीज़ों की। फिल्में, गाने, किताबें, वेब सिरीज़ भी इस लिस्ट में शुमार होते हैं।

दूसरी लिस्ट होती है अगले साल कुछ कर गुज़रने वाले कामों की। इसमें कहाँ घूमेंगे, अपनी कौन सी बुरी आदतों को छोड़ देंगे और मेरा प्रिय – इस साल तो वज़न कम करना है। लेकिन जैसे जैसे दिन निकलते जाते हैं दृढ़ संकल्प कमज़ोर होता जाता है और वज़न लेने वाली मशीन का काँटा आगे नही भी बढ़ता है तो पीछे जाने में भी बहुत नख़रे करता है। एक शख़्स जिन्हें मैंने ये वज़न कम करने वाले प्रण पर टिके रहते देखा है वो हैं मेरे पुराने सहयोगी मोहित सिंह। अगर उनकी इच्छाशक्ति का दस प्रतिशत भी मैं अपने जीवन में फॉलो करूं तो मेरा अच्छा खासा वज़न कम हो जायेगा।

कितना अच्छा हो अगर हम कैलेंडर में बदलते दिन, महीने और साल को न देखकर हर दिन भरपूर आनंद के साथ जियें और अगले दिन का इंतजार ही न करें। साल के 364 दिन निकलने के बाद साल के आखिरी दिन सब चंद घंटों के लिये ही सही जी उठते हैं। और उसके बाद फ़िर वही 364 का इंतजार और एक दिन का जीना।

ये जो इस पोस्ट की हेडलाइन है वो दरअसल ख़ुद से ही रोज़ाना की मुलाक़ात के बारे में है। आपने अगर क्लब 60 फ़िल्म देखी हो तो रघुबीर यादव के सबसे रंगीन क़िरदार की तरह आप भी स्वस्थ रहिये और मस्त रहिये।

और जैसे अमिताभ बच्चन फ़िल्म मिस्टर नटवरलाल के एक गाने में कहते हैं, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू!

हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है

आपकी क्या राय है? ये सवाल बड़ा मुश्किल वाला होता है। मतलब आप जो सच है वो बोल दें या उसको कुछ ओढ़ा पहना कर बोलें। अगर किसी मशीन पर ये फीडबैक दे रहे हैं तो कोई दिक्कत नहीं लेकिन अगर सामने कोई शख्स बैठा हो तो? सब सुंदर पिचाई के बॉस के जैसे नहीं होते।

सुंदर पिचाई का जब इंटरव्यू हुआ तो उनसे नई जीमेल के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बोल दिया उन्होंने इसका ज़्यादा इस्तेमाल नहीं किया है इसलिये इस बारे में वो कुछ ज़्यादा नहीं जानते। इसके बाद भी गूगल में उन्हें नौकरी मिली और आज वो गूगल के सीईओ के पद पर कार्यरत हैं और उनकी ज़िम्मेदारी और बढ़ गयी हैं।

लेकिन सबकी ऐसी किस्मत नहीं होती। जैसा मेरे साथ हुआ था जब मैं भारत में क्रिकेट की शीर्ष संस्था में गया था एक साक्षात्कार के लिये। उन्होंने मुझसे उनके द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम पर लेख लिखने को कहा। मैंने उसके बारे में बिना लाग लपेट के लिख दिया। बस उसके बाद उन्होंने कोई संपर्क नहीं किया।

कई महीनों बाद वहाँ काम करने वाले एक सज्जन मिले तो बोलने लगे भाई उन्हीं के ऑफिस में बैठ कर उनकी बुराई वहाँ लोगों को पसंद नहीं आयी। नहीं तो तुम्हे नौकरी मिल जाती।

अब देखिये राहुल बजाज को। उन्होंने अपने मन की बात कर दी और अब सब खोद खोद कर उनके ख़िलाफ़ खबर ढूंढ रहे हैं। ये अलग बात है ऐसे में हर बजाज जिसका राहुल बजाज से कोई दूर का भी कोई रिश्ता नहीं हो वो भी इसमें घसीटा जा रहा है। गनीमत है इस ब्रिगेड ने राहुल नाम को छोड़ दिया नहीं बहुत मसाला मिल जाता लेकिन किसी काम का नहीं होता।

लेकिन ये सोच और ये एप्रोच घर में आज़माने के नुकसान ही नुकसान हैं। मसलन अगर कुछ खाने में गड़बड़ हो गयी हो तो चुपचाप खा लीजिये। जब इसे बनाने वाले स्वयं खायेंगे तब उन्हें पता ही चल जायेगा की आज क्या हुआ है। आप क्यों अपने लिये मुसीबत मोल ले रहे हैं। राहुल बजाज के पीछे एक पूरी सोशल मीडिया आर्मी लगी हुई है। यहाँ सिर्फ़ एक ही शख्स काफ़ी है और आपके सारे हथियार यहाँ फेल हैं। आपके पास आत्मसमर्पण के सिवा और कोई उपाय है ही नहीं। आपको आख़िर रहना उसी घर में है। जैसा है चलने दें घर में, बाहर वालों को आइना दिखाते रहें। या अपना अंदाज़ बदल दें।

कानून या पीड़ित: कौन ज़्यादा मजबूर है?

हमारी लचर कानून व्यवस्था की बदहाली अगर कोई घटना दर्शाती है तो वो भोपाल गैस त्रासदी है। इतना लंबा समय बीत जाने के बाद भी गैस पीड़ितों को न्याय नहीं मिला। अगर मुआवजा मिला भी तो बहुत थोड़ा। उनकी भावी पीढ़ियों तक को उस भयावह त्रासदी की मार झेलनी पड़ रही है।

जब 1984 में ये घटना घटी तो उस समय ज़्यादा कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन जब पत्रकारिता में काम शुरू किया तो इस मुद्दे को समझा। इसमें बहुत लोगों का योगदान रहा उसमें से एक थे अब्दुल जब्बार भाई जो एक संस्था, भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन, चलाते थे। जब्बार भाई का हफ़्ते में एक दो बार ऑफिस आना होता ही था। कभी फुरसत में रहते तो बैठ कर बातें कर लेते नहीं तो प्रेस रिलीज़ पकड़ाई और बाद में मिलना तय हुआ।

ये भी पढ़ें: एक और रेप? चलिये रोष व्यक्त करते हैं

मृदु भाषी, सरल स्वभाव के जब्बार भाई निःस्वार्थ भाव से लड़ते रहे। भोपाल में भी और दिल्ली में भी। जब पिछले दिनों खबर आई की जब्बार भाई नहीं रहे तो उनका वही मुस्कुराता हुआ चेहरा आंखों के सामने आ गया।

निर्भया मामले को सात साल हो गए। इसमें सभी चीजें साफ हैं – अपराधी कौन, क्या अपराध किया, कैसे किया आदि। लेकिन तब भी ये मामला कोर्ट में लटका हुआ है। फैसला नहीं हुआ की इन दरिंदों को क्या सज़ा दी जाए।

भोपाल गैस त्रासदी में एक विदेशी कंपनी थी लेकिन हमारी तत्कालीन सरकार ने एक समझौता कर लिया जिसके चलते पीड़ितों को सही मुआवजा और सहूलियतें नहीं मिली। अगर यही हादसा किसी विदेशी धरती पर होता तो उस कंपनी की ख़ैर नहीं होती। लेकिन हमारे चुने हुये प्रतिनिधि पहले अपनी तिजोरियों को भरने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं। कुछ बच गया तो बाँट दो आम जनता में। उन्हें लगेगा कुछ तो मिला। इस त्रासदी में अगर कई पीढ़ियां तबाह हो गईं तो कई की पीढ़ियों का भविष्य बन गया।

ये भी पढ़ें: त्रासदी ये है कि पूरा देश भोपाल बनने की कगार पर है और हम सो रहे हैं

लेकिन हमारी फिक्र किसे है? हम आप जिसे वोट देकर चुनते हैं वो संसद में लीनचिंग को सही ठहराते हैं और कहते हैं ऐसे अपराध के आरोपियों को सरे आम सज़ा देनी चाहिये। मतलब सरकार की देखरेख में ऐसा कुछ हो तो वो न्याय व्यवस्था का हिस्सा है लेकिन अगर कोई दस लोग अपनी दुश्मनी निकालने के लिये यही काम करें तो वो ज़ुर्म।

लेकिन ये एक भोपाल गैस त्रासदी या निर्भया, हैदराबाद या कठुआ की बात नहीं है। भोपाल जैसी किसी और घटना के आरोपी को सज़ा इसलिये कम मिले की कम लोगों की मौत हुई है या आने वाली पीढ़ियों पर इसका असर नहीं होगा?

अगर ऐसे किसी मामले में आरोपी ने पीड़िता को ज़िंदा छोड़ दिया तो उसे रियायत मिलनी चाहिये? क्यों उस आरोप की सज़ा सभी के लिये एक जैसी न हो? क्यों एक धर्मगुरु के साथ भी वही सलूक क्यों न किया जाये जैसा इन चारों के साथ करने का हमारे माननीय सांसदों की राय है? क्यों उन सांसद या विधायक महोदय को भी ऐसे ही न न्याय मिले?

हाँ तो सबके लिये हाँ और ना तो सबके लिये ना।

एक और रेप? चलिये रोष व्यक्त करते हैं

एक और बलात्कार? हे प्रभु! हैवानों ने उसके बाद पीड़िता को जला दिया? बहुत गंभीर। चलिये रोष व्यक्त करते हैं। बहुत कड़ी निंदा करते हैं। और क्या कर सकते हैं? चलिये मोमबत्ती मार्च निकालते हैं। सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। अपनी प्रोफाइल फ़ोटो हटा कर एक काला फ्रेम लगा देते हैं। कुछ दिन लगा रहने देंगे। जब मामला शांत हो जायेगा और वही फ़ोटो वापस। हाँ व्हाट्सऐप पर भी कुछ करना पड़ेगा। एक नंबर सब फॉरवर्ड कर रहे हैं उसी को सारे ग्रुप में भेज देते हैं।

सच कहूँ तो आज लिखने का बिल्कुल मन नहीं था। अंदर कुछ ऐसी उथल पुथल मची हुई है जो बाहर पता नहीं किस शक्ल में आये। मुझे उसके डरावने चेहरे से डर नहीं लगता लेकिन उसके सवालों से ज़रूर लगता है जिसके जवाब मेरे पास नहीं हैं। फ़िर लगा नहीं लिखा तो सब अंदर ही दफ़न हो जायेगा।

2018 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर मैं अपनी पुरानी टीम के सदस्यों के साथ एसिड अटैक का शिकार लक्ष्मी से मिल कर वापस लौट रहे थे। मेरी टीम की सहयोगी के साथ दिल्ली मेट्रो से ग़ाज़ियाबाद वापस आ रहे थे और हमें लौटते हुये नौ बजे गये थे। मेरे हिसाब से बहुत ज़्यादा देर नहीं हुई थी लेकिन जो मेरे साथ थीं उनको लग रहा था हम काफी लेट हो गये थे। उन्होंने अपने लिये एक समय निर्धारित कर रखा है और उसके बाद वो घर से बाहर नहीं रहती। इसके चलते उन्होंने कई टीम के साथ बाहर जाने के मौके भी छोड़ दिये। उस शाम लक्ष्मी जी से मिलने की इच्छा के चलते ही वो इतनी देर तक बाहर रहीं। ये एक पढ़ी लिखी प्रोफेशनल मोहतरमा हैं। उन्होंने ऐसे हालात से समझौता कर लिया है।

अब चलते हैं 1994 में। मैं जब पुणे स्टेशन के बाहर बैठा था और ये सोच रहा था अगले तीन दिन इस शहर में कैसे गुज़रेंगे तब उस अनजान शख्स ने मुझे अपने घर चलने को कहा। अनजान शहर, अनजान व्यक्ति। लेकिन सिर्फ़ और सिर्फ़ भरोसा था उन पर जो उनके साथ हो लिया।

आज 2019 में भारत के एक शहर में एक पढ़ी लिखी युवती ने ठीक वैसे ही विश्वास किया था उन युवकों पर। उन्होंने उसकी पंचर गाड़ी को सुधरवाने का भरोसा दिलाया। किसी भी सभ्य समाज में विश्वास, भरोसा ही तो होता है जो आपको जोड़े रखता है। लेकिन उसके बाद जो बर्बरता हुई वो सोच कर ही सर शर्म से झुक जाता है।

दरअसल हमें इससे डील करना नहीं आता है। पहले तो ऐसा नहीं होता था लेकिन अब ऐसी कोई घटना होती है तो सबसे पहले आरोपियों के नाम देखे जाते हैं। किसी समुदाय विशेष का हुआ तो बस सब उस सम्प्रदाय के पीछे पड़ जाते हैं मानो उस समुदाय के सभी लोग वैसी ही सोच रखते हैं। लेकिन बाकी तीन आरोपियों की जाति या धर्म उन्हें नहीं दिखता। आप आज का सोशल मीडिया देख लीजिये। किसी ने ट्विटर पर लिखा ये घटना शमशाबाद इलाके में हुई है और आपको पता है वहां कौन रहता है। हमारी सोच इतनी घटिया हो गयी है की जघन्य अपराध को हमने धर्म का चोला पहना कर असल मुद्दे को ही बदल दिया।

अब ये उस युवती पर हुये अत्याचार नहीं हो कर एक समुदाय विशेष द्वारा किया गया कृत्य हो गया। हम जो भी कर रहे हैं वो सब ऊपरी है। इस समस्या की जड़ है कानून का डर न होना। पिछले दिनों सरकार ने ट्रैफिक के नियम तोड़ने पर होने वाले जुर्माने की रकम में कई गुना बढ़ोतरी कर दी। अगले ही दिन से खबरें आने लगीं लोगों ने मोटी रकम भरी नियम तोड़ने पर। सब कागज़ात साथ लेकर चलने लगे और कुछ दिन सब ठीक चला। लेकिन विरोध शुरू हुआ और कुछ राज्यों ने बढ़े हुये चालान को लागू करने से मना कर दिया। मुम्बई में ऐसे कई इलाके हैं जहां स्पीड राडार लगे हैं। आपकी गाड़ी की स्पीड ज़्यादा हुई तो चालान घर आ जायेगा। ड्राइवर डरते हैं और गति पर नियंत्रण रखते हैं।

इसका दूसरा और ज़्यादा चिंताजनक पहलू है की अपनी रक्षा की सारी ज़िम्मेदारी हमने स्त्रियों पर मढ़ दी है। लेकिन हम पुरुष से ये उम्मीद नहीं कर सकते की वो अपना स्वभाव, आचरण और नज़रिया बदले। हम लड़कियों को तो सब सलाह देते हैं की वो कैसे अपनी सुरक्षा करे, लेकिन हम लड़कों को ये क्यों नहीं सिखाते की क्या ग़लत है और क्या सही है। क्यों वो लड़कियों को सिर्फ़ एक उपभोग की वस्तु ना समझ कर एक इंसान समझें। कहीं न कहीं ऐसी घटनायें हमारी परवरिश की कमी ही है और अपराधियों की ये सोच की कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

इस ताज़ी घटना के बाद मांग हो रही है सबको फाँसी दी जाये। चलिये ये चार को फाँसी दे भी दी तो क्या ये सिलसिला थम जायेगा? निर्भया के बाद जो कानून में बदलाव हुआ उससे भी हमें लगा था अब बेटियां सुरक्षित हैं। काश ये सच होता तो आज हैदराबाद की एक बेटी अपने घर, अपने परिवार के बीच होती।

इतना तो याद है मुझे की उनसे मुलाक़ात हुई

ये गाना चित्रहार की देन है। जिन्हें इस प्रोग्राम के बारे में नहीं पता – बरसों पहले दूरदर्शन पर बुधवार और शुक्रवार को ये कार्यक्रम आता था। मतलब आपके संगीत का हफ्ते का डोज़। फ़िर शुरू हुआ रविवार की रंगोली का सिलसिला जो अभी भी चालू है। वैसे तो चित्रहार अभी भी आता है लेकिन समय का पता नहीं।

चित्रहार में अक्सर ये गाना आता था। देखने में भी अच्छा लगता था और सुनने में भी। फ़िल्म देखी नहीं है। पिछले दिनों लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी के संगीत पर इंडियन आइडल देखा तो फ़िर से पुराने दिनों की याद ताज़ा हो गयी।

हमें गाने क्यों याद रहते हैं? ये क्या उसका संगीत है, किसने गाया है या उसके बोल या उसे कैसा फिल्माया गया है? आपको गाने कैसे याद रहते हैं?

जो कुछ नहीं तो ये इशारे क्यों, ठहर गए मेरे सहारे क्यों

आज जब महाराष्ट्र में पाला बदलने की बात हो रही थी तब एक नेता ने कहा \”वो कल नज़र मिला के बात नहीं कर रहे थे\”। तो ये सदाबहार देव आनंद साहब का गाना उन्हीं आंखों के नाम। वैसे इस फ़िल्म के सभी गाने कमाल के थे और पिताजी के मुताबिक इस फ़िल्म के बाद भुट्टे खाने का चलन बढ़ गया था। किशोर कुमार और लताजी की आवाज़ में मजरूह सुल्तानपुरी साहब के बोल और संगीत सचिन देव बर्मन जी का।

लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना
अगर इसे समझ सको,
मुझे भी समझाना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना

जवाब सा किसी तमन्ना का
लिखा तो है मगर अधूरा सा
अरे ओ
जवाब सा किसी तमन्ना का
लिखा तो है मगर अधूरा सा
हो,
कैसी न हो मेरी हर बात अधूरी
अभी हूँ आधा दिवाना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना
अगर इसे समझ सको,
मुझे भी समझाना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना

जो कुछ नहीं तो ये इशारे क्यों
ठहर गए मेरे सहारे क्यों
अरे ओ
जो कुछ नहीं तो ये इशारे क्यों
ठहर गए मेरे सहारे क्यों
हो, थोड़ा सा हसीनों का सहारा लेके चलना
है मेरी आदत रोज़ाना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना
अगर इसे समझ सको, मुझे भी समझाना
लिखा है…

दो घड़ी वो जो पास आ बैठे, हम ज़माने से दूर जा बैठे

एक पुराना विज्ञापन आज फ़िर से देखा। घर की बहू सुबह से सबकी सेवा में लगी रहती है। अपनी चाय भी पीना भूल जाती है। रात को पति देखता है की सबको गर्म गर्म खाना खिलाने के बाद वो स्वयं अकेले ठंडा खाना खाती है। लेकिन उस बीच में भी उसे कभी सास की दवाई तो कभी बिटिया की किताब ढूंढने के लिये उठना पड़ता है। पति बड़ा आहत होता है और अगले ही दिन से उसमें पत्नी प्रेम जाग उठता है और वो उससे कहता है अबसे पहले तुम, जो की विज्ञापन की थीम भी है।

इस पर लोगों की प्रतिक्रिया ही इस पोस्ट की जननी है। कुछ महिलाओं ने इससे सहमति जताई और कहा की महिलाओं को भी घर में सम्मान मिलना चाहिये। लेकिन कुछ अन्य महिलाओं ने कहा दरअसल अंत में खाने के पीछे कारण है सही अंदाज़ा लगाना की कितनी रोटियां बनाई जायें और कितनी सब्ज़ी बच रही है। इसमें कोई महिला सशक्तिकरण जैसी कोई बात नहीं है और ये एक प्रक्टिकल सोच है।

इस विज्ञापन के बारे में दो विचार थोड़े अलग थे। एक किसी ने पूछा कि सास क्यों नहीं बहु का साथ देती रसोई में। क्या बहु सिर्फ़ काम करने के लिये ही है। शायद जिन महिलाओं को इस विज्ञापन का संदेश पसंद आया उनके साथ ऐसा व्यवहार होता है इसलिये उन्हें कहीं न कहीं अपनी पीड़ा दिखाई दी।

मैं स्वयं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जो पढ़े लिखे हैं। अच्छे पद पर काम कर चुके हैं लेकिन बहु को रिमोट कंट्रोल करते हैं। सास ससुर रहते दूसरे शहर में हैं लेकिन बहु की मजाल है कि वो अपने हिसाब से कोई काम कर सके। उसके कहीं आने जाने पर रोकटोक है और रिश्तेदारों से फ़ोन पर बात करने पर भी पाबंदी।

दूसरी बात जिसने मुझे सोचने पर मजबूर किया वो पति जी का एकदम से जागृत होना। मतलब इतने वर्षों से क्या ये उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था? अच्छी बात है की उन्हें इस बात का एहसास हुआ, देर से ही सही।

https://youtu.be/Sm_tmr7cYQk

दिल मेरा धक धक डोले, दीवाना लिये जाये हिचकोले

जब इस फ़िल्म की घोषणा हुई थी तब सोशल मीडिया नहीं था। लेकिन घर पर घमासान शुरू हो गई थी। एक आमिर खान का खेमा और एक सलमान खान का। चूँकि बहुत ज़्यादा खबरें भी नहीं थीं फिल्मों के बारे में तो इंतज़ार था इसकी रिलीज़ का। हाँ फ़िल्म की घोषणा के समय आमिर-सलमान की दो फ़ोटो ज़रूर सामने आई थीं।

जब 1994 में अंदाज़ अपना अपना आयी तो देखने में बड़ा मजा आया। कौन किस पर भारी पड़ा ये कहना मुश्किल तब भी था और आज भी। सलमान खान का वो सीधा साधा होना या आमिर का चालाक होना – ख़ासकर वो जेल वाला सीन जब आमिर सोचते हैं कि उन्होनें सलमान को मुश्किल में डाल दिया है। उस सिचुएशन में पापा कहते हैं का बैकग्राउंड जैसे सोने पे सुहागा।

https://youtu.be/qIu-ai9Tiu0

सलमान और करिश्मा कपूर का ये रात और ये दूरी पर सलमान के डांस स्टेप्स। मतलब एक अलग ही लेवल की कोरियोग्राफी थी। सलमान को ढ़ोलक बजाते हुये देख लीजिये।

https://youtu.be/1H0vtkIiPbM

जब ये फ़िल्म पहली बार देखी तो सिनेमाघर भरा हुआ नहीं था। लेकिन ऐसे शानदार गुदगुदाने वाले सीन के बाद भी फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर ढ़ेर हो गयी।

https://youtu.be/uImtwJJ9pq4

ये भी लगा कि कई जोक्स लोगों को समझ नहीं आये। जैसे मेहमूद साहब का वाह वाह प्रोडक्शन जिसकी शुरुआत 1966 में बनी फ़िल्म \’प्यार किये जा\’ के समय हुई थी। वही फ़िल्म जिसका ये सीन आज भी आपको हँसा जाता है।

https://youtu.be/JFVH4oSjqOE

या शोले के ज़िक्र पर आमिर का सलमान को देखकर कहना पता है इसके बाप ने लिखी है (शोले सलमान खान के पिता सलीम खान और जावेद अख़्तर ने लिखी थी).

ये बिल्कुल नहीं लगा था की समय के साथ साथ इसके चाहने वाले भी बढ़ते जायेंगे और पच्चीस साल बाद इसका नाम सबसे बेहतरीन कॉमेडी फिल्मों में शुमार होगा। लेकिन ये समझ में नहीं आया की 25 साल पहले लोगों की समझ को क्या हो गया था? देर आये दुरुस्त आये कहावत को चरितार्थ करता है लोगों का फ़िल्म अंदाज़ अपना अपना के प्रति प्रेम जो अमर है!

हो गया है तुझको तो प्यार सजना, लाख करले तू इन्कार सजना

बचपन में और शायद उसके कुछ समय बाद भी गणपति और दुर्गाउत्सव के दौरान भोपाल में बड़ी रौनक रहती। घर के आसपास कई जगह पर प्रतिमा स्थापित होती और सब जगह कुछ न कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते। उसमें से जिस कार्यक्रम का बेसब्री से इंतज़ार रहता वो था रात का फ़िल्म शो।

बीच रोड पर रात को दिखायी जाने वाली फिल्म का नाम दिन में बोर्ड पर लिखा रहता और रात 10 बजे से सफ़ेद चादर की स्क्रीन तैयार रहती हम लोगों के मनोरंजन के लिये। अक्टूबर की हल्की हल्की ठंडी रात और हाथ में गर्म ताज़ी सीकी हुई मूंगफली के साथ उस फ़िल्म को देखने का आनंद ही कुछ और था।

मुझे याद है शोले फ़िल्म की इस सीजन में बहुत डिमांड रहती। मैंने इसे हॉल में भी देखा है और खुली सड़क पर भी। दोनों के अपने मज़े हैं।

अब पता नहीं ये प्रथा चालू है या नहीं लेकिन आज शाहरुख खान के जन्मदिन पर फ़िल्म स्वदेस का ये गाना देखा तो वो समय याद आ गया। इस सीन/गाने में उन्होंने इस पर्दे के इस पार और उस पार की जो दूरी थी उसको मिटाने की कोशिश करी। गांव के बड़े बूढ़े ये सब देख कर थोड़े सकपकाये हुए से हैं। स्वदेस शाहरुख़ खान की मेरी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से एक है। बहुत कम फिल्में हैं जिसमें शाहरुख खान ने किरदार को बहुत ही सहज रूप में निभाया है।

बरसों बाद ऐसे ही खुले आकाश में फ़िल्म देखने का मौका मिला अहमदाबाद में। वहाँ एक ड्राइव-इन थिएटर हुआ करता था। आप बस अपनी गाड़ी लेकर सीधे मैदान में चले जाइये और अपने साथ लायी हुई दरी, चटाई आदि बिछाकर बैठ जाइये या आराम करने के मूड में हैं तो लेट जाइये। खुले आकाश के नीचे शाहरुख़ ख़ान और काजोल को हो गया है तुझ को तो प्यार सजना देखने का आनंद ही कुछ और रहा होगा।

फ़िलहाल आप रोमांस के किंग के इस गाने का आनंद यहीं उठा सकते हैं।

चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जायें हम दोनों

ट्विटर पर आज एक बड़ा अच्छा संवाद चल रहा था। अगर आपने किसी के सामने अपने दिल के अंदर जो कुछ भी है वो सब निकाल कर रख देते हैं, उसके बाद क्या आप फ़िर से अजनबी हो सकते हैं?

करीब करीब सभी का ये कहना था कि ऐसा उनके साथ हमेशा होता है। और छह महीने बाद यही घटना फ़िर से दोहराई जाती है। मुझे इस पूरे संवाद ने बड़ा विचलित किया। मैंने ऐसे प्रकरण देखे हैं लेकिन ये दोस्तों के बीच नहीं – भाई बहन के बीच, माता पिता और संतान और पति पत्नी के बीच। सालों से बने हुये सम्बन्ध एक झटके में ख़त्म हो जाते हैं और दोनों सामने से बिल्कुल अजनबियों की तरह व्यवहार करते हैं।

मेरे साथ ऐसा बहुत हुआ है ये कहना गलत होगा। मैंने बहुत लोगों के साथ ऐसा किया है। मतलब पूरी तरह से एक अजनबी की तरह पेश आना। जब कुछ दिनों बाद दिमाग शांत होता और अक्ल ठिकाने आती तो फ़िर से चीजें नार्मल हो जाती। इन दिनों ऐसे दौरे कम पड़ते हैं लेकिन पुराने मिलने जुलने वाले जानते हैं उस दौर के बारे में।

दोस्तों से लड़ाई हुई और बातचीत बंद। लेकिन सामनेवाले की उतनी ही चिंता तो किसी माध्यम के ज़रिये मदद करते। लेकिन क्या हो जब सामने वाला भी ऐसा ही हो? इसके बारे में विस्तार से और जल्दी ही।

गुलज़ार साहब ने कहा भी है, कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी एक तस्लीम लाज़मी सी है…

जगजीत सिंह जी की मखमली आवाज़ में आप भी इस ग़ज़ल का आनंद लें और बातचीत चालू रखें क्योंकि बात करने से बात बनती है।

अगर मैं कहूँ

फ़िल्म \’लक्ष्य\’ के इस गीत में गीतकार जावेद अख़्तर साहब ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा फ़लसफ़ा देते हैं। फ़िल्म के हीरो ऋतिक रोशन प्रीति जिंटा से अपने प्यार का इज़हार कर रहे हैं और वो कुछ और ज़्यादा रोमांटिक अंदाज़ की उम्मीद कर रही थीं। जावेद साहब ने इस बात को कुछ इस अंदाज़ में लिखा है \”इस बात को अगर तुम ज़रा और सजा के कहते, ज़रा घुमा फिरा के कहते तो अच्छा होता\”.

फ़िलहाल के लिये हम रोमांस को हटा देते हैं और सिर्फ कहने के अंदाज़ पर बात करते हैं। ये बात शायद नहीं यक़ीनन पहले भी कही होगी की बात करने का एक सलीका होता है, एक तहज़ीब होती है। सही मायने में ये आपकी परवरिश दिखाती है। कई बार ऐसा बोल भी देते हैं की कैसे गवारों जैसी बात कर रहे हो। मतलब सिर्फ़ इतना सा की बातें ऐसे कही जायें की किसी को तक़लीफ़ भी न हो।

मैं अपने आप को अक्सर ऐसी स्थिति में पाता हूँ जब कोई मुझसे अपने लिखे के बारे में पूछने आता है। ऐसी ही स्थिति मैं उन लोगों की भी समझ सकता हूँ जो कभी मेरा लेख पढ़ते हैं लेक़िन टिप्पणी करने से कतराते हैं। कुछ करते हैं लेक़िन सब मीठा मीठा। कुछ बोलने की हिम्मत करते हैं – लेकिन थोड़ा घुमा फिरा कर। मुझे उसमे से समझना होती है वो बात जो कही तो नही गयी लेकिन मुझ तक पहुंचाने की कोशिश करी गयी।

कई बार इसी उधेड़बुन में दिन हफ़्ते बन जाते हैं। लेक़िन अब जो लिखना शुरू किया है तक सब साफ़ है। इसलिये तो बिना किसी लागलपेट के कह रहा हूँ लोगों की सुनना छोड़ें। अपने मन की सुनें और करें। अंत में कम से कम और कोई नहीं तो आप तो खुश रहेंगे। जो आपकी खुशी में शरीक़ होना चाहेँगे वो होंगे और जो नहीं होंगे वो वैसे भी कहाँ ख़ुश थे।

आनंद उठायें इस मधुर गीत का।

आलस से बड़ा रोग नहीं

जब इसकी हैडलाइन लिख रहा था तो सोच रहा था देखो कौन लिख रहा है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल ये ब्लॉग ही है। जब लिखना शुरू किया तो जोश ऐसा की पता नहीं क्या कर जायें। कुछ दिनों तक तो बरकरार रहा ठीक वैसे ही जैसे शादी के बाद का रोमांस। शुरू में तो लगता बस लैला मजनू के बाद ये नव विवाहित जोड़ा ही है। लेकिन समय के जाते जाते ये थोड़ा कम हो जाता है। बस इज़हार के तरीक़े बदल जाते हैं। मेरा ब्लॉग के प्रति प्यार दिखाने का एकमात्र तरीका यही है की में नियमित लिखूँ लेकिन ऐसा होता नहीं। फ़िर \’चाहने वालों\’ की प्रतिक्रिया के बाद थोड़ा सा फ़ोकस गया तो गया।

हर महीने की शुरुआत में ये प्रण लिया जाता है की इस बार ब्लॉग की बहार होगी। लेकिन ऐसा नहीं होता क्योंकि आलस कर जाते हैं। जैसे इस महीने की ये दूसरी पोस्ट है। मतलब वॉर देखने के बाद कुछ भी लिखने को नहीं बचा। वैसे अगर आपने फ़िल्म देखी हो तो सचमुच देखने के बाद कुछ नहीं बचता। हाँ ऋतिक रोशन की बॉडी देखने के बाद अपने को आईने में देखा तो बस यही डायलाग याद आया, \”रहने दो तुमसे न होने पायेगा\”।

ये भी पढ़ें: आओ मीलों चलें, जाना कहाँ न हो पता

इस महीने के ख़त्म होते साल के आखिरी दो महीने बचेंगे। मतलब 2019 खत्म। लगता है जैसे अभी तो साल शुरू हुआ था। ये साल की शुरुआत की कुछ ख़ास याद नहीं सिवाय इसके की बहुत से फ़ोन और ईमेल का इंतज़ार रहा। अक्टूबर के आते आते या कहें जाते जाते एक बहुत बड़ा बदलाव हो गया है मेरे नज़रिये में। इसके बारे में आने वाले दिनों में आपसे साझा करूँगा।

जिस रोमांस के बारे में मैंने शुरुआत में ज़िक्र किया था वो रंग बिरंगी फ़िल्म में बहुत अच्छे से दिखाया गया है। हिंदी फिल्मों में रोमांस के नाम पर इन दिनों जो परोसा जा रहा है उससे मेरा तो मन भर गया है। नौजवानों का रोमांस तो इनके बस का है नही तो शादी शुदा जोड़े का रोमांस तो इन्हें समझ में नहीं आयेगा। लेकिन फ़िल्म रंगबिरंगी में अमोल पालेकर जी और परवीन बॉबी के बीच जो रोमांस है वो कमाल का है और शायद बहुत से जोड़ों की हकीकत। पति-पत्नी के बीच चल रही बातचीत ध्यान से सुने और अपने जीवन में रोमांस को भी बनाये रखें।

https://youtu.be/pRTfJB8_oDY?t=628

रही बात आलस की तो एक बार और लिखने की ठानी है। अब ये सिलसिला चलेगा और अधूरी कहानियां अपने अंजाम तक जायेंगी।

War रिव्यु: स्क्रिप्ट है इतनी भयंकर, लूट जाओगे ये सुनकर, पैसे मत उड़ने दो

वॉर बहुत समय बाद आई एक एक्शन फिल्म है जिसे आप जेम्स बॉन्ड, मिशन इम्पॉसिबल, फेस ऑफ और बॉर्न सिरीज़ का मिश्रण कह सकते हैं। ये सिर्फ फ़िल्म के एक्शन के बारे में ही सही है। लेकिन क्या सिर्फ एक्शन के भरोसे फ़िल्म चल सकती है?

हमारी हिंदी फिल्मों में एक्शन फिल्मों की एक अलग जगह है। पहले की फिल्मों में एक्शन सीन बहुत ज़्यादा कमाल के तो नहीं होते थे लेकिन उनमें कहानी होती थी। मतलब ऐसा नहीं की चार सीन, दो गाने अच्छी लोकेशन ले लो और फ़िल्म बना दो। अब समय बदल गया है। दर्शकों को अच्छी एक्शन फिल्म देखने को मिल रही है तो उम्मीदें भी बढ़ जाती हैं।

वॉर देखने के बाद ऐसा लगता है फिल्मों का बजट ही बढ़ा है और स्क्रिप्ट में उतनी ही गिरावट आई है। जितना पैसा यशराज फिल्म्स ने एक्शन पर खर्च किया है अगर उसका एक छोटा सा हिस्सा स्क्रिप्ट पर और काम करने के लिये खर्च किया जाता तो फ़िल्म कुछ बेहतर बन सकती थी।

कहानी: वैसे तो फ़िल्म की पूरी कहानी ट्रेलर से पता चल ही जाती है। कबीर (ऋतिक रोशन) एक सीक्रेट ऐजेंट है जो अब संस्था के विरुद्ध काम कर रहा है। उसको मारने के लिये ख़ालिद (टाइगर श्रॉफ) ज़िम्मा लेता है। पूरी फिल्म इसी चूहे-बिल्ली के खेल को लेकर है। एक सस्पेंस है जो फ़िल्म के आखिर में ही खुलता है। लेकिन तब तक आपको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आप को बस किसी तरह से फ़िल्म के ख़त्म होने का ईन्तज़ार कर रहे हैं। इस बीच में अगर आप वाणी कपूर को याद कर रहें हो तो वो इंटरवल के बाद तीन सीन और एक गाने के लिये प्रकट होती हैं। यहाँ स्क्रिप्ट लिखने वालों का शुक्रिया क्योंकि इससे ज़्यादा तो  बहुत ही भयंकर हो जाता।

संगीत: फ़िल्म में कुल जमा दो गाने हैं। अब ऋतिक रोशन और टाइगर श्रॉफ हों तो एक गाना बनता है। तो जय जय शिवशंकर उसके लिये बनाया गया है। घुंगरू टूट गये ऋतिक रोशन और वाणी कपूर के बीच रोमांस और डांस के लिये। बाकी फ़िल्म में संगीत का बहुत इस्तेमाल एक्शन सीन में हुआ है जो बहुत ही हास्यास्पद लगता है।

अदाकारी: ऋतिक रोशन को पूरी फ़िल्म में अच्छा दिखने के सिवाय कुछ नहीं करना था। अगर आप डांस हटा दें तो। टाइगर श्रॉफ के लिये भी करतब ही दिखाना था पूरी फ़िल्म में। वो चाहे उनके एक्शन सीन हों या एक गाना। कुल मिला कर दोनों के लिये कुछ नया करने को नहीं था।

चार आने की बात: क्या आपको ये फ़िल्म देखनी चाहिये? अगर आप बिना सिर पैर की फ़िल्म देखना पसंद करते हों तो उस लिस्ट में वॉर को शामिल कर सकते हैं। लेकिन अगर आप अपने चार आने सोच समझ कर खर्च करने में विश्वास रखते हैं तो इस हफ़्ते रिलीज़ हुई दूसरी फ़िल्म देख सकते हैं। फ़िल्म वाकई में है इतनी ही भयंकर।

यादों के मौसम 3

इससे पहले की कड़ी यादों के मौसम 2

जय और सुधांशु शोले के जय-वीरू तो नहीं थे लेकिन दोनों कॉलेज में अक्सर साथ रहते थे। सुधांशु होस्टल में रहता था तो कभी कभार जय उसको घर पर खाने के लिये ले जाता था। सुधांशु जब घर जाता तो जय के लिये अलग से घर की बनी मिठाई का डिब्बा लेकर आता और सबसे बचाते हुये उसे दे देता। कृति दोनों के बीच एक कड़ी थी।

कृति और सुधांशु ने एक ही कॉलेज से ग्रेजुएशन किया था लेकिन कोई ख़ास जान पहचान नहीं थी। वो तो जब पोस्ट ग्रेजुएशन में इनकी दस लोगों की क्लास बनी तब सब का एक दूसरे को ज़्यादा जानना हुआ। जय को कृति शुरू से ही पसंद थी। वो ज़्यादा बात नहीं करती थी, ऐसा उसको लगा था। लेकिन एक दिन कैंटीन जब वो बाकी लोगों के साथ बैठा था तब उसको अपनी गलतफहमी समझ आयी। बहुत ज़्यादा खूबसूरत भी नहीं थी लेकिन उसे ओढ़ने पहनने का सलीक़ा था। जय को उसके बाल बांधने का तरीका बहुत पसंद था।

उस दिन ठंड कुछ ज़्यादा ही थी। जय का मन नहीं था कॉलेज जाने का तो उसने सुबह से ही आलस ओढ़ लिया था। माँ को भी अच्छा लगा की बेटा आज घर पर है नहीं तो सारा सारा दिन गायब रहता और शाम को पढ़ाई में व्यस्त। उन्होंने उसके पसंद के आलू के परांठे बनाये नाश्ते में और दोनों माँ बेटे ने सर्दी की उस सुबह आराम से नाश्ता किया। जय के पिताजी बैंक में मैनेजर थे और उसकी छोटी बहन प्रीति इस साल बारहवीं की परीक्षा देने वाली थी। नाश्ते के बाद रजाई ओढ़ कर जय कब सो गया उसे पता ही नहीं चला।

प्रीति ने स्कूल से लौटकर जय को जगाया तब उसकी आंख खुली। प्रीति को भी जय को घर पर देखकर आश्चर्य हुआ। उसने माँ से भाई की तबीयत पूछने के बाद जय को उठाना शुरू किया। जैसे तैसे जय ने बिस्तर छोड़ा और ड्राइंग रूम में सोफे पर जाकर बैठ गया।

\”भैया आज तुम घर पर हो तो क्यों न मार्केट चला जाये। मुझे कुछ किताबें भी देखनी हैं और फ़िर विजय की चाट भी…\”, प्रीति ने जय से बहुत प्यार से कहा। जय की आज घर से कहीं बाहर निकलने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी।

\”तुम कविता के साथ क्यों नहीं चली गईं\”, जय ने ग्लास में पानी निकालते हुए पूछा। \”उसकी गाड़ी बनने गयी हुई है नहीं तो मेरी इतनी हिम्मत की आपको परेशान करूँ,\” प्रीति ने भाई की टांग खींचते हुये कहा।

वैसे प्रीति अपनी पढ़ाई के संबंध में जय से ज़रूर सलाह लेती। जय भी अपनी बहन को आगे पढ़ने के लिये प्रोत्साहित करता। माता-पिता की भी कोई बंदिश नहीं थी प्रीति पर।

जय को मार्किट जाने से बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा था। लेकिन तैयार होते हुये उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था। घर के गेट पर पहुँचना जय की लिये मुश्किल हो गया था। कदम साथ नहीं दे रहे थे। पीछे से आ रही प्रीति ने उसका हाथ पकड़ लिया नहीं तो क्यारी में लगी ईंट से जय का सिर टकरा जाता। जय प्रीति की गोद में लगभग बेहोश सा पड़ा था।

यादों के मौसम 2

यादों के मौसम – 1

जय और सुधांशु कॉलेज की कैंटीन में चाय की चुस्कियां ले रहे थे तभी वहाँ कृति आ गयी। \”सरकार यहाँ चाय का लुत्फ़ उठा रहे हैं और इधर हम उन्हें ढूंढ के परेशान हुए जा रहे है,\” उसने सुधांशु की तरफ़ देखते हुये कहा। जय को मालूम था की ये ताना उसपर कसा जा रहा है इसलिये वो सर झुकाये सब सुन रहा था। सुधांशु के पास बचने का कोई उपाय नहीं था सो उसने कृति को भी चाय पीने का न्योता दे दिया।

जय उठ कर खड़ा हुआ जाने के लिये तो कृति ने हाँथ में पकड़ी किताबों को देखते हुये कहा, \”कहाँ तुम किताबों के चक्कर में फंसे हुए हो। ज़रा ज़िन्दगी के बाकी मज़े भी लो।\”

\”उसी की तो तैयारी कर रहा हूँ। थोड़ा सा त्याग अभी और बाद में मज़े,\” जय बोला।

\”पर तब उम्र निकल जाएगी,\” सुधांशु ने कहा।

\”भाई मज़े लेने की कोई उम्र नहीं होती,\” जय ने चलते हुए कहा।

सुधांशु हाथ जोड़ते हुए बोला \’बाबा की जय हो\’ और दोनों कृति को वहीं छोड बात करते हुए कॉलेज की तरफ चल पड़े। जय ने एक बार मुड़कर कृति को देखा जो बाकी लोगों से बात कर रही थी और यूँ ही मुस्कुरा उठा। उसे ध्यान आया की कृति से ये पूछना तो रह गया की वो उसे क्यों ढूंढ रही थी। लेकिन अब फ़िर से कौन डाँट खाये। आज का कोटा हो गया था।

जय अपने आप को बड़ा प्रैक्टिकल इन्सान मानता था। उसे इमोशन फ़िज़ूल तो नहीं लेकिन फालतू लगते थे। उसका मानना था भावनाओं में पड़ कर इन्सान बहुत कुछ गवां बैठता है। लेकिन कृति के लिये उसके दिल में एक ख़ास इमोशन था। वो दोस्ती थी, प्यार था या वो उसकी इज़्ज़त करता था ये समझना उसके लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा था।

जय इन्हीं ख़यालों में खोया हुआ था की स्मृति की आवाज़ उसे वापस वर्तमान में ले आयी। वो उसे किसी से मिलवा रही थी। डॉ रायज़ादा के पुराने सहयोगी थे जिनके साथ वो रोज़ सुबह सैर के लिये जाते थे। उस ग्रुप के बाकी सदस्यों से भी जय, स्मृति, सुधांशु और कृति मिले। इस मिलने मिलाने से जय थोड़ा परेशान हो गया था। उसने सुधांशु को ढूंढा और उससे पूछा की उसके पास सिगरेट है क्या। दोनों ने किशन काका से छत की चाबी ली और चल दिये।

जय की तरफ़ सिगरेट बढ़ाते हुये सुधांशु ने पूछा, \”कैसे हो जय?\”। जबसे वो जयपुर आया था तबसे वो और सुधांशु साथ में थे लेकिन पूरे समय डॉ रायज़ादा के अंतिम संस्कार की तैयारी में लगे रहे तो दोनों को समय ही नहीं मिला एक दूसरे से बात करने का।

इस बात को दस बरस हो गये थे लेकिन आज भी जब वो सुधांशु को देखता तो जय को याद आती कृति और सुधांशु की नीचे ड्राइंग रूम में लगी शादी वाली फ़ोटो और कृति का वो फ़ोन कॉल। \”जय मैं शादी कर रही हूँ\”। उसको टूटे फूटे शब्दों में बधाई देते हुये जय ने ये पूछा ही नहीं लड़का कौन है।

यादों के मौसम

\’राम नाम सत्य है\’ बोलते हुये जब डॉ रायज़ादा के पार्थिव शरीर को ले जाने लगे तो जय भी अंतिम संस्कार की रीतियों में शामिल होने के लिये अपने दिवंगत ससुर को कन्धा देेने के लिये आगे बढ़ा। अचानक एक हाँथ उसके कंधे पे आ रुका।

“घर के दामाद कन्धा नहीं देते”, जय ने पलटकर देखा तो कृति का पति और उसका पुराना दोस्त सुधांशु था। जय ने कुछ कहा नहीं और सुधांशु के बगल खड़ा हो गया। इतनी भीड़ में उसने कृति को देखा ही नहीं। कितने साल हो गये उसे देखे हुए। लेकिन लगता जैसे कल की ही बात हो जब उसने पहली बार डॉ रायज़ादा से उसे मिलाया था।

अंतिम संस्कार का काम संपन्न कर सब शाम को जब पाठ के लिए इकट्ठा हुए तो उसकी नज़र कृति पर गयी। बिलकुल वैसी ही दिखती है। थोडा वज़न बढ़ गया है लेकिन इस दुःख के मौके पर भी उसकी आँखें मुस्कुरा रही थीं। उसने भी जय को देखा और नमस्ते किया। जवाब में जय सिर्फ अपने हाथ मिला ही पाया था और यादों का कारवां चल पड़ा।

जय अपने आप को दस साल पीछे जाने से रोक नहीं पाया।

कृति ने उसे मेसेज किया था अर्जेंट मिलना है। वो घर से कॉलेज के लिए निकला ही था। अब कॉलेज में तो मिलना ही था। ऐसा क्या अर्जेंट था ये सोचते हुए वो कॉलेज पहुँच गया पर कृति का कहीं नामोनिशान नहीं था। अपने ग्रुप के बाकी लोगों से पूछने पर भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उसकी खीज बढती जा रही थी की तभी मुस्कुराती हुयी कृति उसे आवाज़ लगाते हुए उसके पीछे आ रही थी। उसे देख वो अपनी सारी झुन्झूलाहाट भूल गया।

\”कहाँ थीं अब तक? पहले तो कहती हो अर्जेंट मिलना है और फिर गायब। लाइब्रेरी जाना था किताबें वापस करना है नहीं तो फाइन लगेगा\”, जय बोलता जा रहा था । कृति ने मानो सब अनसुना करते हुए अपने बैग से एक पेपर कटिंग निकाली। एक नौकरी का विज्ञापन था। जय के हाथ में देते हुए बोली, \”जब बोलना खत्म हो जाये तो पढ़ लेना\”।

जय चुप होकर कटिंग को पढ़ने लगा। एक रिसर्च अस्सिस्टेंट की पोस्ट थी। पैसा ठीक था। उसने कृति को धन्यवाद कहा। कृति ने मेंशन नॉट बोलते हुए हिदायत दी जल्दी भेज देना। \’ओके मैडम\’, कहते हुए जय लाइब्रेरी की ओर चल पड़ा।

लाइब्रेरी जाते हुये उसने सोचा आज कृति से अपने दिल की बात बोल ही देनी थी। लेकिन उसे डर था की अगर कृति ने मना कर दिया तो। वैसे तो वो उसका बहुत ख़याल रखती है और हमेशा आगे बढ़ने के लिये कहती है लेकिन क्या वो जय को अपने जीवन साथी के रूप में पसंद करती है? ये सवाल जय कई बार अपने आप से पूछ चुका है लेकिन इसका जवाब सिर्फ़ कृति के पास था।

इन्हीं विचारों में उलझे हुये जय को सुधांशु की आवाज़ ही सुनाई नहीं दी। वो तो जब पास आकर उसने चिल्लाकर कहा \’जय हो\’ तब जय का ध्यान गया।

\”लगता है किसी लड़की के ख़यालों में खोये हुये थे,\” सुधांशु ने कहा तो जय इधर उधर देखने लगा। \”जैसे हमें नहीं पता वो कौन है\”, सुधांशु ने कहा तो जय थोड़ा झेंप गया और बोलने लगा, \”यार सुबह सुबह क्यूँ मेरे पीछे पड़े हो\”। पीछा छुड़ाने के लिये बोला चाय पियोगे?

\”आपकी चाय\”, ये शब्द जय को वर्तमान में ले आये थे। सामने उसकी पत्नी स्मृति उसकी काली चाय का प्याला लिये खड़ी थी। (क्रमशः)

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के, काँटों पे चलके मिलेंगे साये बहार के

इस कहानी का भी वही अंत न जो कि पिछली कई कहानियों का हुआ है, इसलिये समय मिलते ही लिखना शुरू कर दिया। मुम्बई में या बाकी बड़े शहरों में गाड़ी चलाना अपने आप में एक अवार्ड जीतने जैसा लगता है। नवी मुम्बई में जहां मैं रहता हूँ वहाँ से उल्टे हाथ पर मुम्बई जाने की सड़क है और सीधे हाथ वाले मोड़ से आप मुम्बई से बाहर निकल सकते हैं। मेरी कोशिश यही रहती है की सीधे हाथ की ओर गाड़ी मुड़े लेकिन काम के चलते उल्टे हाथ पर ज़्यादा जाना होता है। अच्छी टैक्सी सर्विस के चलते उन्हीं की सेवा लेते हैं। और ऐसे ही कल मेरी मुलाकात हुई प्रदीप से।

जब भी में टैक्सी में बैठता हूँ तो अक्सर चालक से बात करता हूँ क्योंकि उनके पास कहानियां होती हैं। दिनभर न जाने कितने अनजान लोग उनकी गाड़ी में बैठते होंगे और सबकी छोटी बड़ी कोई तो कहानी होती होगी। लेकिन मुझे सुनाने के लिये प्रदीप के पास दूसरों के अलावा अपनी भी कहानी थी। पुणे से माता-पिता के देहांत के बाद मुम्बई आये प्रदीप ने गाड़ी साफ करने से अपना सफर शुरू किया। फ़िर गाड़ी चलाना सीखी और टैक्सी चलाना शुरू किया। इसी दौरान उनका संपर्क एक चैनल के बड़े अधिकारी से हुआ और प्रदीप उनके साथ काम करते हुये नई ऊंचाइयों को छुआ। अपनी कई गाड़ियां भी खरीदीं लेकिन कुछ ऐसा हुआ की सब छोड़ कर उन्हें फ़िर से एक नई शुरुआत करनी पड़ी। जीवन एक गीत है तो कोरस है अनुभव

इस बार गाड़ी छोटी थी लेकिन तमन्ना कुछ बड़ा करने की थी। फ़िर से टैक्सी चलाना शुरू किया और अब वो एक सात सीट वाली गाड़ी चलाते हैं। बातों ही बातों में प्रदीप ने बताया की अगर उन्हें लॉटरी लग जाये तो वो ज़मीन खरीद कर उसमें फुटपाथ पर रहनेवालों के लिये घर बनवायेंगे और पास ही एक छोटी सी फैक्टरी भी शुरू करेंगे जिससे की ये लोग पैसा भी कमा सकें। सब अपना कुछ छोटा मोटा काम भी करें। इसके लिये वो पैसे भी बचा रहें हैं और उम्मीद है मुम्बई के आसपास उन्हें ज़मीन मिल जायेगी। दूसरा काम जो प्रदीप करते हैं वो सिग्नल पर खड़े भीख मांगने वाले बच्चों को पैसा न देकर कुछ खाने के लिये देना जैसे बिस्किट या टॉफ़ी। प्रदीप को कभी कोई ज़रूरतमंद मिल जाता है तो वो उसको अपने कमरे में रहने खाने के लिये जगह भी देते हैं और ज़रूरत पड़ने पर पैसा भी। अपने इसी व्यवहार के चलते प्रदीप ने अभी शादी नहीं करी है और उनकी गर्लफ्रैंड का भी इस काम के लिये पूरा समर्थन प्राप्त है। जीवन सिर्फ सीखना और सिखाना है

प्रदीप जब ये सब बता रहे थे तो मैं सोचने लगा हम सब अपने ही स्तर पर अगर उनके जैसे ही कुछ करने लगें तो ये समाज कितना बेहतर बन सकता है। लेकिन हम सोचते ही रह जाते हैं और ये प्रदीप जैसे कुछ कर गुज़रने की चाह रखने वाले चुपचाप काम करते रहते हैं। शायद समाज अगर आज कुछ अच्छा है तो इसमें प्रदीप जैसे कईयों का योगदान होगा न कि मेरे जैसे कई जो बस सही वक्त का इंतजार ही करते रहते हैं।

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूँ मैं

कुछ दिनों पहले आलिया भट्ट का एक इंटरव्यू पढ़ा था जिसमें उन्होंने बोला था उन्हें इस बात की चिंता रहती है की लोग उन्हें किसी भी कारण से नापसंद न करें। मुझे ये बीमारी तो नहीं है लेकिन कई पोस्ट इसलिये आप तक नहीं पहुँच पाती क्योंकि लगता फलाँ व्यक्ति को बुरा लग जायेगा (ये इस उम्मीद के साथ की जिस शख़्स के बारे में लिखा है वो मेरी पोस्ट पढ़ेगा ही)। वैसे ऐसा एक भी बार नहीं हुआ है। हाँ बाकी लोगों ने ज़रूर इस बारे में कहा सिवाय उस व्यक्ति के। जैसा की आजकल का चलन है हम फेसबुक पर अभी भी मित्र हैं और उन्होंने मुझे व्हाट्सएप पर मैसेज भेजना भी बंद नहीं किया है। जब लिखना शुरू किया था तो कई लोगों को मेरी कहानी के किरदार पता थे। नहीं होते तो वो पता लगाने की कोशिश करते की कौन है।


जैसे इस पोस्ट की कहानी कुछ और ही चल रही थी लेकिन मैंने इसे बदल ही दिया। अपने घर से निकाले जाने का दुख जीवन में किसी को कभी न भोगना पड़े। मैंने भोगा है और आज उसी के इर्दगिर्द कहानी बुनी थी लेकिन समय रहते उसे बदल दिया। दरअसल इसका रिश्ता कश्मीर से निकाले गये उन परिवारों से है जो रातों रात अपनी जान बचाते हुये भारत के कई हिस्सों में पहुँचे। उनमें से एक परिवार भोपाल भी पहुँचा और उनकी बिटिया मेरी श्रीमती जी की कक्षा में ही पढ़ती थी। उसने अपनी कहानी उन्हें सुनाई थी और अभी जो कश्मीर में उठापटक हो रही है तो श्रीमती जी को उसकी याद आयी और उन्होंने मुझसे उस कश्मीरी लड़की की कहानी साझा करी।

मेरा कश्मीर जाना एक बार हुआ है। वैसे तो कश्मीर की खूबसूरती ही यात्रा को यादगार बनाने के लिये काफी है, मेरी यात्रा इसलिये कभी न भूलने वाली बन गयी क्योंकि हम भोपाल से कार से इस यात्रा पर निकल पड़े थे। उन दिनों कोई गूगल मैप नहीं था। बस रोड मैप और सड़क पर लगे साइनबोर्ड से इसको अंजाम दिया था। पिताजी ने बहुत गाड़ी चलाई है लेकिन हम दोनों को ही घाट पर गाड़ी चलाने का अनुभव नहीं था। आज जब उस यात्रा के रोमांच के बारे में सोचते हैं तो बस ये लगता है एक बार फिर से इसे दोहराया जाये।

आज कश्मीर से जो जुड़ाव है वो आमिर सलाटी की बदौलत है। आमिर खेल के ऊपर लिखते हैं और क़माल का लिखते हैं। हम बीच बीच में संपर्क में रहते हैं। वो मुझे कश्मीर बुलाते रहते हैं और लालच के लिये वो खूबसूरत वादियों की तस्वीरें, बर्फ़ से ढँकी अपनी गाड़ी और दालान की फ़ोटो भेजते रहते हैं। वो मुम्बई आये थे लेकिन मुम्बई की ये भागदौड़ और कश्मीर की वादियों में से किसकी जीत हुई ये जानना बहुत आसान है। देखें आमिर से फ़िर रूबरू कब मिलना होता है।

हर कोई चाहता है एक मुठ्ठी आसमान, हर कोई ढूँढता है एक मुट्ठी आसमान

ये एक बेमानी सी बहस है लेकिन ये उस समय की बात है जब शायद मुझे कला और कलाकारों की पहचान नहीं थी।परिवार में सबकी अपनी अपनी पसंद होती है और मुझे किशोर कुमार की आवाज़ मोहम्मद रफ़ी से ज़्यादा पसंद थी। तो इसको लेकर बहस छिड़ गई और दोनों पक्ष अपने अपने गायक के गानों की लिस्ट लेकर सुनाने लगे। दोनों ही गायक लाजवाब और उनके गाये हुये गीत भी। लेकिन मुझे किशोर कुमार ज़्यादा पसंद हैं और इसमें मैं कुछ श्रेय उन गीतकारों को भी देता हूँ क्योंकि गाने के बोल ही कहीं न कहीं आपको छू जाते हैं और आपके सिस्टम का एक हिस्सा बन जाते हैं। आज जब बहुत दिनों बाद लिखने का मन हुआ तो किशोर दा की याद आ गयी। आज उनका जन्मदिन है तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती से वापस लिखना शुरू करने के लिये।

मौसम प्यार का

कुछ गाने होते हैं जो आपको अपने साथ ले जाते हैं या यूं कहें की आप बह जाते हैं। ये उनमें से एक गाना है। आर डी बर्मन, मजरूह सुल्तानपुरी और किशोर कुमार ने पर्दे के पीछे से प्यार से भरे हुये ये गाने को पर्दे पर बख़ूबी से निभाया ऋषि कपूर और पूनम ढिल्लों ने। जब पिछले दिनों पूनम जी से एयरपोर्ट पर मुलाक़ात हुई तो ये गाना ही याद आ गया था।

मेरी भीगी भीगी सी

https://youtu.be/3JsbLjT-HPI

संजीव कुमार और जया भादुड़ी की ये फ़िल्म दूरदर्शन पर देखी थी। गाने की समझ बहुत बाद में आई। मजरूह सुल्तानपुरी साहब, आर डी बर्मन और किशोर दा।

आये तुम याद मुझे

कई यादें हैं इस गाने के साथ। आज भी रात में ये गाना सुन कर एक सुकून से मिलता है। फ़िल्म में अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी के बीच चल रही उधेड़बुन इस गाने में दिखती है। इसी फिल्म का बडी सूनी सूनी है भी किशोर कुमार का एक बेहतरीन गानों में से एक है।

मेरे महबूब क़यामत होगी

ये भी दूरदर्शन पर देखी फ़िल्म से याद है। एक बहुत ही उम्दा गाना जिसके बोल हैं आनंद बक्शी और संगीत है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी का

हर कोई चाहता है

https://youtu.be/G891E7LzCoQ

इस गाने के दो भाग हैं। एक खुशी वाला जिसमें ये जीवन का फ़लसफ़ा हल्के अंदाज़ में है और दूसरा थोड़ा संजीदा तरीके का है। दोनों के माने एक ही हैं बस कहने का अंदाज़ अलग है और क्या खूबसूरती से गाया है किशोर कुमार ने मदन मोहन की इस धुन को। बोल हैं

https://youtu.be/lIOhSl9CDsw

ज़िन्दगी आ रहा हूँ मैं

बहुत ही आशावादी गाना जिसके बोल लिखे हैं जावेद अख्तर साहब ने और संगीत है हृदिय्नाथ मंगेशकर जी का

ज़िन्दगी के सफ़र में

ज़िन्दगी का फलसफा जिसे लिखा आनंद बक्शी साहब ने और जिसे अमर बना दिया किशोर दा की आवाज़ नें

मुसाफ़िर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना

गुलज़ार साहब का लिखा गीत और एक बार फ़िर आर डी बर्मन और किशोर दा साथ में।

मुझे आज भी आश्चर्य होता है की किशोर कुमार मुम्बई एक हीरो बनने आये थे लेकिन वो गायक बन गये। अगर सच में उन्हें हीरो ही बनने का मौका मिलता जाता तो क्या हम इस आवाज़ से मेहरूम हो जाते। बिना किसी तालीम के उन्होंने ऐसे ऐसे गाने गाए हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते जा रहे हैं। इसका उदाहरण आप स्पॉटीफाई के विज्ञापन में देख सकते हैं।

कुछ ऐसे ही दिन थे वो जब हम मिले थे

1988 में आई फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक की नायिका जूही चावला मुझे बेहद पसंद आयीं। इसका श्रेय फ़िल्म में उनके क़िरदार, उनके बोलने का ढंग या उनका एक आम लड़की की तरह ओढ़ना पहनना -इन सबको जाता है। उसके बाद भी उनकी काफी फिल्में देखीं लेक़िन ऐसी कोई फ़िल्म जिसमें लगता उनके रोल के साथ न्याय नहीं किया होगा, मैं नहीं देखता। मतलब फैन तो हैं लेकिन अपनी शर्तों पर।

उनकी एक फ़िल्म आयी थी राधा का संगम। जब ये फ़िल्म बन रही तो ऐसा बताया जा रहा था की ये दूसरी मदर इंडिया या मुग़ल-ए-आज़म होगी। फ़िल्म को बनने में समय भी लगा और लता मंगेशकर जी और अनुराधा पौड़वाल की लड़ाई भी हुई गानों को लेकर। चूंकि संगीत टी-सीरीज़ पर था तो निर्माता के पास सिवाय इसके की अनुराधा पौड़वाल से भी गाने गवायें, कोई दूसरा विकल्प नहीं था। फ़िल्म का संगीत अच्छा है। अन्नू मलिक की कुछ फिल्मों में से जहां वो किसी से प्रेरित नहीं हैं। मौके मिले तो नीचे ज्यूक बॉक्स की लिंक पर सुनें।

जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो अंदर का जूही फैन जाग उठा। आजकल के जैसे उन दिनों फिल्मों के रिव्यु इतनी पहले नहीं आते थे और अगर आते भी तो सिर्फ़ अख़बार में छपते। बहरहाल फ़िल्म देखने घर के नज़दीक सिनेमाघर पहुँच गये। जो मुझे छोड़ने गये थे वो पूछने लगे की बाकी कौन आ रहा है। झूठमूठ बोल दिया एक दो दोस्त और आयेंगे। लेकिन कोई आने वाला नहीं था। कौन अपने पैसे ऐसी फिल्म पर खर्च करेगा। मुझे ये फ़िल्म अकेले ही देखनी थी। टिकट खिड़की भी लगभग खाली ही थी। लेक़िन हमने हिम्मत दिखाई और फ़िल्म देखी। उसके बाद किस हाल में घर पहुंचे ये नहीं पता लेकिन सही सलामत पहुंच गये।

जिस हॉल में मैंने ये हिम्मत दिखाई थी, ये वही हॉल है जहाँ मेरे छोटे भाईसाहब ने मुझे ज़ोर का झटका दिया था। जी हाँ ये वही किस्सा है जिसका ज़िक्र पहले हुआ है। राधा का संगम आयी थी 1992 में और एक साल बाद आयी थी यश चोपड़ा की डर। इस फ़िल्म से बड़ी उम्मीदें थीं। फ़िल्म का ट्रेलर कमाल का था। गाने जितने देखे सुने थे सब बढ़िया। बस गुरुवार को पहले शो के लिये पहुँच गये सिनेमाघर भाई के साथ। लेकिन वहाँ ज़बरदस्त भीड़। जूही चावला के फैन को बड़ी खुशी हुई लेकिन पहले शो के टिकट मिलना नामुमकिन था। बुझे दिल से घर वापस आने का मन बनाया तो देखा भाई ग़ायब। ढूंढने पर भी नहीं मिला। बाद में पता चला की पुलिस के लाठीचार्ज के बाद मची अफरातफरी में वो हॉल के अंदर पहुँच गये और फ़िल्म का आनंद लेने के बाद घर लौटे। जब भी इस फ़िल्म का ज़िक्र आता है तो अब पहले जूही चावला नहीं छोटे भाई की हँसी याद आती जो उनके चेहरे पर थी उस दिन फ़िल्म देखने के बाद। मुझ से पहले फ़िल्म देखने के बाद। मैंने सपरिवार उसी रात फ़िल्म देखी लेकिन…

https://youtu.be/vMZTAVzg6qk

शनिवार की शाम हंसी, कल  छुट्टी इतवार की, सोमवार को सोचेंगे, बातें सोमवार की

आज छुट्टी का दिन और काम की लंबी लिस्ट। लेकिन काम नहीं होने का मतलब अगले हफ्ते तक की छुट्टी। जबसे ये पाँच दिन का हफ़्ता आया है जिंदगी में, एक बड़ी बोरिंग सी ज़िन्दगी लगती है (है नहीं), सिर्फ़ लगती है। पहले जब पीटीआई और हिन्दुस्तान टाइम्स में काम किया था तब हफ़्ते में एक रोज़ छुट्टी मिल जाती थी। जब डिजिटल की दुनिया में प्रवेश किया तो वहाँ पाँच दिन काम होता। पिछले नौ सालों से ये आदत बन गयी है। हालांकि ऐसा कम ही होता जब छुट्टी पूरी तरह छुट्टी हो। समाचार जगत में तो ऐसा कुछ होता नहीं है। जैसे आज ही शीला दीक्षित जी का निधन हो गया। ऐसे बहुत से मौके आये हैं जब ये सप्ताहांत में ही बड़ी घटनायें घटी हैं। मतलब कोई घटना सप्ताह के दिन या समय देख कर तो नहीं होती। जैसे पीटीआई में एक मेरे सहयोगी थे। उनकी जब नाईट शिफ़्ट लगती तब कहीं न कहीं ट्रैन दुर्घटना होती। बाकी लोग अपनी शिफ़्ट रूटीन के काम करते उन्हें इसके अपडेट पर ध्यान रखना पड़ता।

विषय पर वापस आते हैं। वीकेंड पर पढ़ने और टीवी देखने का काम ज़रूर होता। अख़बार इक्कट्ठा करके रख लेते पढ़ने के लिये। हाई कमांड की इसी पर नज़र रहती है की कब ये पेपर की गठरी अपने नियत स्थान पर पहुँचायी जाये। काउच पटेटो शब्द शायद मेरे लिये ही बना था। जिन्होंने रूबरू देखा है वो इससे सहमत भी होंगे। मुझे टीवी देखने का बहुत शौक़ है और शुरू से रहा। जब नया नया ज़ी टीवी शुरू हुआ था तब उसके कार्यक्रम भी अच्छे होते थे। उसके पहले दूरदर्शन पर बहुत अच्छे सीरियल दिखाये जाते थे। लेकिन वो सास-बहू वाले सीरियल नहीं पसंद आते। हाँ सीरियल देखता हूँ लेकिन जिनकी कहानी थोड़ी अलग हो। जब नया नया स्टार टीवी आया था, जब उसके प्रोग्राम सिर्फ़ अंग्रेज़ी में होते थे, तब बोल्ड एंड द ब्यूटीफुल भी देखा।

अभी तक गेम ऑफ थ्रोन्स नहीं देख पाया। उसके शुरू के कुछ सीजन लैपटॉप में रखे हैं जो मनीष मिश्रा जी ने दिये थे लेक़िन थोड़ी देर देखने के बाद बात कुछ बनी नहीं तो आगे बढ़े नहीं। देवार्चित वर्मा ने तो इसको नहीं देखने के लिये बहुत कुछ बोला भी लेक़िन आज भी मामला पहले एपिसोड से आगे नहीं बढ़ पाया। उन्होंने मुझे और नीरज को इस शो को नहीं देखने को अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया है। शनिवार, इतवार थोड़ा बहुत टीवी ज़रूर देखा जाता है। लेकिन चूंकि लोकतंत्र है तो रिमोट \’सरकार\’ के पास रहता है। सरकार से मतलब श्रीमतीजी और बच्चों के पास। उसमें भी बच्चों के पास ज़्यादा क्योंकि उनकी नज़रों में बादशाह, अरमान मलिक, सनम जैसे कलाकार ही असली हैं।

इन दिनों मैं बिटिया के साथ सोनी टीवी का पुराना सीरियल माही वे देख रहे हैं। वैसे सोनी ऐसे अलग, हट के सीरियल के मामले में बहुत आगे है। पाउडर भी बहुत ही ज़बरदस्त सीरियल था। ये दोनों नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध हैं। मौका मिले तो ज़रूर देखें। जो नई वेब सीरीज बन रही हैं हमारे यहाँ उनमें एडल्ट सीन में कहानी होती है और बाकी भाषाओं में कहानी में एडल्ट सीन होते हैं। इसलिये कई अच्छी सीरीज़ देखने के लिये समय निकालना पड़ता है।

सोनी पर इन दिनों दो और सीरियल चल रहे हैं – पटियाला बेब्स और लेडीज़ स्पेशल। दोनों की कहानी आम सीरियल से अलग हैं और इसलिये जब देखने को मिल जाये तो कहानी अच्छी लगती है। पटियाला… एक तलाक़शुदा औरत और उसकी बेटी के समाज में अपना स्थान बनाने की लड़ाई को लेकर हैं। दोनों सीरियल ने कई जगह कहानी या कॉमन सेंस को लेकर समझौता किया है। लेकिन कुछ बहुत अच्छे सवाल भी उठाए हैं – विशेषकर पटियाला…। श्रीमतीजी का ये मानना है कि दोनों सीरियल में शायद रोमांस का तड़का है इसलिये मैं बड़े चाव से देखता हूँ। वो बहुत ज़्यादा गलत नहीं हैं वैसे।

काम भी ऐसा है की सबकी ख़बर रखनी पड़ती है। तो सीरियल में क्या हो रहा है इसका पता रखते हैं। आपके पास अगर कोई सीरीज़ देखने का सुझाव हो तो नीचे कमेंट में बतायें। आपका वीकेंड आनंदमय हो।

दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन

गुलज़ार साहब के लिखे गानों को सुना था, उनकी लिखी फिल्मों को देखा था। जब आप किसी का लिखा पढ़ते हैं या उनका काम देखते हैं तो एक रिश्ता सा बन जाता है। शुरुआत में तो किसने लिखा है ये पता करने की कोशिश भी नहीं करते। बाद में ये जानने की उत्सुकता रहती की किसने लिखा है।

\"\"
दिल ढूंढता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन। फ़िल्म-मौसम, संगीतकार-मदन मोहन (फोटो: यूट्यूब)

गुलज़ार साहब का लिखने का अंदाज़ अलग है ये भी समझते समझते समझ में आया। उसके बाद से तो उनकी लिखाई के ज़रिये उनसे एक रिश्ता बन गया। जब पता चला की वो भोपाल किसी कार्यक्रम के सिलसिले में आये हुये हैं तो मैंने उनके होटल के बारे में पूछताछ कर फ़ोन लगा दिया। थोड़ी देर में उनकी वही भारी सी आवाज़ लाइन पर सुनाई दी।

पहले तो विश्वास नहीं हुआ। लेक़िन उन्होंने ऐसे बात करनी शुरू की जैसे हमारी पुरानी पहचान हो। मैं नया नया पत्रकार ही था। बहरहाल उन्होंने थोड़ी देर बात करने के बाद होटल आने का न्योता दिया। मेरा होटल जाना तो नहीं हुआ लेक़िन गुलज़ार साहब से मायानगरी में फ़िर मुलाक़ात हो गयी। इस बार वो अपनी एक किताब के विमोचन के लिये मुम्बई के चर्चगेट इलाके में स्थित ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर में आये थे।

मैं ऑफिस से अपने पुराने सहयोगी समोद को साथ ले गया था। समोद वैसे तो बहुत बात करते हैं लेकिन ऐसी कोई शख्सियत सामने आ जाये तो वो बस सुनने का काम करते हैं। समोद ने जल्दी से उनकी एक किताब खरीदी और उसपर उनका ऑटोग्राफ़ भी लिया। समोद के साथ और भी कई प्रोग्राम में जाने को मिला। एक बार अमोल पालेकर जी से मिलना हुआ। समोद को भी कुछ पूछने की इच्छा हुई। लेकिन बस वो उस फिल्म का नाम भूल गये जिससे संबंधित प्रश्न था। उन्होंने ने मेरी तरफ देखा लेकिन मुझे जितने नाम याद थे बोल दिये। लेकिन वो फ़िल्म कोई और थी। अब ये याद नहीं की वो अमोल पालेकर साहब की ही फ़िल्म थी या कोई और लेकिन वो कुछ मिनट पालेकर साहब और मैं दोनों सोचते रहे समोद का सवाल क्या था।

ख़ैर, उस दिन गुलज़ार साहब से लंबी तो नहीं लेक़िन अच्छी बातचीत हुई। बातों बातों में उन्होंने बोला आओ कभी फुरसत में घर पर। बाद में और भी कई मौके आये जहाँ गुलज़ार साहब के करीबी निर्देशक के साथ मिलने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया। मजरूह के बाद अगर कोई शायर पसंद आया तो वो थे गुलज़ार साहब। दोनों का लिखने का अंदाज़ बहुत अलग है लेक़िन क़माल का है।

मेरा कुछ सामान के बारे में आर डी बर्मन ने क्या कहा था वो कहानी सबने सुनी ही होगी। श्रीमतीजी के भाई एक बार मेरे साथ फँस गये। उनकी संगीत की पसंद कुछ दूसरी तरह की है। टीवी पर गुलज़ार हिट्स आ रहे थे। मैं बड़ी तन्मयता के साथ गाने को देख रहा था और आशा भोंसले जी के इसी गीत का आनंद ले रहा था। मेरा कुछ सामान आधा ही हुआ था की उन्होंने मुझसे पूछा ये सामान वापस क्यों नहीं कर देता। उसके बाद से जब उन्हें पता चला तो अब बस चुपचाप देख लेते हैं बिना किसी विशेष टिप्पणी के।

काम नहीं है वर्ना यहाँ, आपकी दुआ से बाकी सब ठीक ठाक है

मैं जब लिखने बैठता हूँ तो कोई सेट एजेंडा लेकर नहीं चलता। उस दिन जो भी पढ़ा, देखा, सुना उसका निचोड़ होता है और उसमें से कोई कहानी निकल जाती है। पिछले तीन हफ्तों से कुछ ऐसा देखा, पढ़ा, सुना की बहुत लिखने की इच्छा होते हुये भी एक शब्द नहीं लिख पाया। कई दिन इसी में निकल गये। आज तीन ड्राफ्ट को लिखा फ़िर कचरे में डाल दिया। ये एक और प्रयास है। देखें किधर ले जाता है।

अब ये बात बहुत पुरानी हो चुकी है। वैसे हुये कुछ दस दिन ही हैं लेकिन जिस रफ़्तार से समय निकलता है लगता है बहुत लंबा समय हो गया है। कबीर सिंह के निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा का एक इंटरव्यू जिसमें उन्होंने उनके हिसाब से प्यार क्या होता है ये बताया। बस लोग तो जैसे इस फ़िराक़ में थे की कैसे उन पर हमला बोला जाये। संदीप से मैं सहमत या असहमत हूँ मुद्दा ये नहीं है। क्या संदीप को अपने हिसाब से कुछ कहने का अधिकार है? अगर उनके हिसाब से लड़का या लड़की एक दूसरे पर अधिकार रखते हैं तो उन्हें उसकी अभीव्यक्ति की भी छूट मिलनी चाहिये। अगर आप उनसे सहमत नहीं है तो आप अपने पैसे उनकी फ़िल्म पर मत ख़र्च करिये। अपने जानने पहचानने वालों को भी अपने तर्कों से सहमत करिये की वो उनकी फ़िल्म न देखें।

आपके हिसाब से जो प्यार की अभिव्यक्ति हो वो मेरे लिये शायद एक अपमानजनक कृत्य हो। या जो मेरा अभीव्यक्त करने का तरीका हो उसे देख आप हँसने लगे। तो क्या मेरा तरीका ग़लत है? क्या मुझे आपके हिसाब से या आपको मेरे हिसाब से अपने सभी कार्य करने चाहिये?

हम लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात तो करते हैं लेकिन किसी दूसरे को ऐसा करता देख उससे सवाल पूछना शुरू कर देते हैं। अंग्रेज़ी में एक कहावत है – The right to be right belongs to everyone. लेकिन हम संदीप को ये अधिकार नहीं दे रहे क्योंकि उनकी सोच अलग है।

अब चूँकि सभी के पास अपने विचार व्यक्त करने के लिये अलग अलग प्लेटफार्म हैं तो कोई मौका भी नहीं छोड़ता। अपने आसपास ही देखिये। व्हाट्सएप, फ़ेसबुक और ट्विटर के पहले भी लोग राय रखते थे लेक़िन व्यक्त करने का ज़रिया सीमित था। आपके आसपास के कुछ लोग जानते थे आपके विचार। आज तो न्यूयॉर्क में प्रियंका चोपड़ा के कपड़ों के बारे में गौहरगंज के सोनू लाल भी राय रखते हैं और उसे इन्हीं किसी प्लेटफार्म पर शेयर भी करते हैं।

कभी मुझे वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने में बहुत अच्छा लगता था। दूसरों के विचार सुन कर कुछ नया तर्क सीखने को मिलता। छठवीं कक्षा में रामधारीसिंह दिनकर की कविता कलम या तलवार से प्रेरित वादविवाद में मैंने जब तलवार का पक्ष लिया था तब शायद ये नहीं पता था की एक दिन पाला बदल कर में क़लम की हिमायत करूँगा। लेकिन आज ये जो बेतुकी बहस चलती है उसका हिस्सा बनने से परहेज़ है। वादविवाद के चलते एक चीज़ समझ में आई की तर्क का अपना महत्व है। आसमां से चाँद तोड़ लाने का वादा तो हर आशिक़ करता है।

https://youtu.be/NykVp7qG_Ss

भीड़ से भरे रेलवे स्टेशन पर रोमांस?

पापा हमेशा से यह कहते रहे हैं की जो भी काम करना है उसे उसी समय कर दो। बाद के लिये छोड़ कर मत रखो। ये पढ़ाई से लेकर बिल भरने तक और अपनी ट्रैन या फ्लाइट पकड़ने के लिये भी लागू होता है। लेक़िन उस समय समझ में नहीं आता था तो सब काम ऐन वक्त के लिये छोड़ देते और आखिरी समय में बस किसी तरह से काम होना है। कुछ समय पहले वो मुम्बई आये थे तो उनको छोड़ने VT स्टेशन जाना था। लेकिन टैक्सी मिलने में थोड़ी देर हो गयी और बाकी काम ट्रैफिक जाम ने कर दिया। देरी होते देख उन्हें दादर से ट्रेन पकड़वाने का निर्णय लिया। किसी तरह से प्लेटफार्म पर पहुंच कर ट्रैन पकड़ी। तबसे वो समय का मार्जिन बढ़ा दिया है। अब पूरे दो घंटे पहले घर से निकल ही जाते हैं।

उस दिन जब मुझे वापस आना था तो मैंने भी भरपूर मार्जिन रख जल्दी स्टेशन पहुंच गया। लेकिन ट्रैन का कोई नामोनिशान नहीं। तो बस आसपास सबको देखते रहे। दरअसल रेलवे स्टेशन से बचपन से ऐसा लगाव रहा है और इससे बहुत सारी यादें जुड़ी हुई है। स्टेशन घर के नज़दीक था तो कई बार सुबह की सैर भी वहीं हो जाती। फ़िर लाने लेजाने का काम भी। नौकरी लगी तो ट्रैन से ही आना जाना होता। अगर ये कहूँ की रेलवे स्टेशन पर आपको साक्षात भारत दर्शन होते हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। एसी, फर्स्ट क्लास से लेकर जन साधारण डिब्बे के यात्री सब साथ में खड़े रहते हैं। और उनके साथ उन्हें छोड़ने वाले। अभी भी पिताजी हम लोग कोई घर पहुंचने वाले हों तो स्टेशन लेने आ जाते हैं हम सभी के मना करने के बावजूद।

ख़ैर बात करनी थी स्टेशन के रोमांस की और कहाँ आपको लाने छोड़ने के काम में उलझा दिया। जब मेरी सगाई हुई तो कुछ समय के लिये पिताजी ने स्टेशन पर छोड़ने का काम बंद कर दिया। मामाजी ने उन्हें स्टेशन के बाहर तक ही छोड़ने की समझाइश भी दी और कारण भी बताया। कारण वही जो आप सोच रहे हैं। भावी श्रीमती जी अपनी सखी के साथ मुझे स्टेशन छोड़ने आती और हमे थोड़ा साथ में समय बिताने को मिलता। सगाई के ठीक दूसरे दिन श्रीमतीजी को स्टेशन बुला लिया छोटे भाई को छोड़ने के लिये। उन्हें ये पता नहीं था की दस लोगों की पूरी फौज उनको छोड़ने के लिये गयी हुई है। आज भी मुझसे पूछा जाता है की इतनी महत्वपूर्ण जानकारी उन्हें क्यों नहीं दी गयी।

एयरपोर्ट की अपेक्षा मुझे स्टेशन का प्लेटफार्म ज़्यादा रोमांटिक लगता है। एयरपोर्ट पर तो बस दरवाज़े तक का साथ रहता है। उसके बाद के ताम झाम वाले काम में रोमांस नहीं बचता। लेकिन स्टेशन पर ट्रैन की सीट पर बैठने तक आपका ये अफ़साना चलता रहता है।

जब कॉलेज में पढ़ रहे थे और उसके बाद भी जब नौकरी करनी शुरू करी तो सलिल और मैं अकसर हबीबगंज स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठकर घंटों बिता देते। बात करते हुए और आती जाती ट्रैनों को और उनसे उतरते यात्रियों को देखते समय का पता नहीं चलता था। अभी पिछले हफ़्ते भी जब उसी स्टेशन पर दो घंटे ट्रैन की राह देखी तो लगा कुछ नहीं बदला है लेकिन बहुत कुछ बदल गया था। अब सब बात से ज़्यादा मोबाइल फ़ोन में खोये हुये थे। ट्रैन आ जाये तो सीन वैसा ही होता है जैसा राजू श्रीवास्तव ने बताया था। सारी ज़रूरी बातें ठीक ट्रैन चलने के पहले। आप स्लीपर क्लास में हों तो बात करना आसान होता है। मगर एसी कोच में दरवाजे पर खड़े होकर सिर्फ निहारते रहने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। नज़रों से पैग़ाम दे भी दीजिये और ले भी लीजिए। और मीठी यादों के साथ मुस्कुराते हुये स्टेशन से घर वापस।

एक दौर वो भी था, एक दौर ये भी है

इन दिनों फ़िल्म कबीर सिंह को लेकर बवाल मचा हुआ है। जहाँ कुछ लोगों को इसकी कहानी बहुत ही दकियानूसी, बहुत गलत लगती है वहीं कुछ लोग अपने आधार कार्ड पर ग़लत उम्र दिखाकर फ़िल्म देखने की कोशिश करते हुये पकड़े गये हैं। मतलब फ़िल्म की कमाई में कोई कमी नहीं है। मतलब ये की हमारी जनता, जिसमें महिला वर्ग भी शामिल है, को इन सबसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कबीर सिंह के बाद आई एक और अच्छी फ़िल्म आर्टिकल 15 चार दिन में अपना दम तोड़ चुकी है। लोगों ने अपनी पसंद साफ साफ बता दी है।

मैंने अभी तक कबीर सिंह देखी नहीं है क्योंकि मैंने इसकी ओरिजनल अर्जुन रेड्डी देखी है और मुझे यही डर है कि मैं दोनों फिल्मों की तुलना करने में ही अपना समय न बिता दूं। लेक़िन इस पोस्ट को लिख़ने के पीछे न तो क्यों कबीर सिंह महान है और बाकी सब बक़वास और न ही कुछ और। कबीर सिंह दरअसल हमारी हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में आये बदलाव को दर्शाता है। इसका पहला नमूना है इसका पोस्टर।

बरसों पहले करिश्मा कपूर और गोविंदा की फ़िल्म आयी थी खुद्दार। उसमे एक गाना था जिसके बोल थे सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें। इसको लेकर बहुत हंगामा हुआ और अंततः बोल सेक्सी से बेबी हुये और तब जाके फ़िल्म रिलीज़ हो पाई। आमिर ख़ान की सीक्रेट सुपरस्टार में भी एक गाना था मैं सेक्सी बलिये और ये एक पारिवारिक फ़िल्म थी। कहने का मतलब है अब बहुत सी ऐसी बातें जो आज से 15-20 साल पहले आपत्तिजनक लगती थीं आज वो सब मान्य हैं। चाहे वो इस तरह का किस करने वाला पोस्टर ही क्यों न हो। फ़िल्म अगर एडल्ट है तो क्या, फ़िल्म का पोस्टर सभी अखबारों में छपा और बच्चे बूढ़े सभी ने देखा भी। और शायद यही देखकर लोग फ़िल्म देखने भी पहुँचे हों इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेक़िन फ़िल्म भी लोगों को पसंद आई होगी नहीं तो सनी लियोनी आज हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में सबसे ज़्यादा कमा रही होतीं।

\"\"

एडल्ट फ़िल्म देखने का मज़ा ही कुछ और होता है। वो दोगुना हो जाता है जब आप देखने के लिये योग्य नहीं हों। जिन दिनों राजकपूर की सत्यम शिवम सुंदरम आयी तो घर के बड़ों ने उसे देखने का प्लान बनाया। दादाजी जो सभी फिल्में साथ में देखते थे, उनसे कहा गया कि ये फ़िल्म आपके देखने की नहीं है। अब ये सबके लिये थोड़ी परेशानी वाली बात थी कि पिताजी के साथ शशि कपूर और ज़ीनत अमान के उपर फिल्माये गये कैसे देखे जा सकते हैं। आजकल तो लगभग सभी फिल्मों में ऐसे सीन रहते हैं। कबीर सिंह में भी हैं लेक़िन ये एक कारण फ़िल्म को 200 करोड़ की कमाई नहीं करा सकता।

लेकिन मुझे न तो पद्मावत और न ही कबीर सिंह का विरोध समझ आता है। अच्छी बात है कि जो विरोध कर रहे हैं उन्हें इसमें जो किस सीन हैं उससे कोई परेशानी नहीं है। बस फ़िल्म की कहानी बहुत कुछ ग़लत दिखा जाती है। प्रीति जैसी लड़कियाँ असल जिंदगी में नहीं होती हैं। ये एक फ़िल्म है। आपके मनोरंजन के लिये है। पसंद आये तो देख आयें, नहीं तो घर पर रहें। जैसे उस रात मेरे दादाजी ने माँ को घर पर छोड़ फ़िल्म देखने की अपनी इच्छा पूरी करी।

आओ मीलों चलें, जाना कहाँ न हो पता

हमारे जमाने में साइकिल तीन चरणों में सीखी जाती थी , पहला चरण कैंची और दूसरा चरण डंडा तीसरा चरण गद्दी……..
तब साइकिल चलाना इतना आसान नहीं था क्योंकि तब घर में साइकिल बस पापा या चाचा चलाया करते थे.

तब साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी चलाना मुनासिब नहीं होता था।

\”कैंची\” वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे।

और जब हम ऐसे चलाते थे तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और \”क्लींङ क्लींङ\” करके घंटी इसलिए बजाते थे ताकी लोग बाग़ देख सकें की लड़का साईकिल दौड़ा रहा है।

आज की पीढ़ी इस \”एडवेंचर\” से मरहूम है उन्हे नही पता की आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना \”जहाज\” उड़ाने जैसा होता था।

हमने ना जाने कितने दफे अपने घुटने और मुंह तोड़वाए है और गज़ब की बात ये है कि तब दर्द भी नही होता था, गिरने के बाद चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा पोंछते हुए।

अब तकनीकी ने बहुत तरक्क़ी कर ली है पांच साल के होते ही बच्चे साइकिल चलाने लगते हैं वो भी बिना गिरे। दो दो फिट की साइकिल आ गयी है, और अमीरों के बच्चे तो अब सीधे गाड़ी चलाते हैं छोटी छोटी बाइक उपलब्ध हैं बाज़ार में।

मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर संतुलन बनाना जीवन की पहली सीख होती थी! \”जिम्मेदारियों\” की पहली कड़ी होती थी जहां आपको यह जिम्मेदारी दे दी जाती थी कि अब आप गेहूं पिसाने लायक हो गये हैं।

इधर से चक्की तक साइकिल ढुगराते हुए जाइए और उधर से कैंची चलाते हुए घर वापस आइए !

और यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी।

और ये भी सच है की हमारे बाद \”कैंची\” प्रथा विलुप्त हो गयी।

हम लोग की दुनिया की आखिरी पीढ़ी हैं जिसने साइकिल चलाना तीन चरणों में सीखा !
पहला चरण कैंची
दूसरा चरण डंडा
तीसरा चरण गद्दी

पिछले दिनों जब व्हाट्सएप पर ये संदेश मिला तो पढ़ कर यादों के सफर पर निकल पड़े और याद गयी अपनी पहली साईकल। लेक़िन इसपर लिखने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन कल बरसों बाद साईकल चलायी तो बस…

भोपाल में सरकारी घर में नया गेट लग रहा था। सरकार ने अपने हिसाब से साइड से एक छोटा सा गेट लगा दिया था। उससे एक स्कूटर आराम से निकल सकता था। लेकिन मैंने उसे शुरुआत से ही बंद देखा था। हमने सामने के तरफ से गेट बनाया था जिससे कार अंदर रखी जा सके।

ये जो दरवाज़ा था वो लकड़ी का हुआ करता था। लेकिन बारिश शुरू होते वो लकड़ी फूलने लगती और गेट झूलने लगता। इससे जानवर आने का हमेशा अंदेशा रहता। इसको ख़त्म करने के लिये ये निर्णय लिया की लोहे का दरवाज़ा लगवाया जाये। डिज़ाइन का ज़िम्मा मैंने ले लिया। चूंकि डिज़ाइन में रुचि थी इसलिये लगा कोई बड़ा काम नहीं है। डिज़ाइन दरअसल कुछ थी ही नहीं। चारों तरफ से पाइप था बीच में जाली और ऊपर एवं बीच में क्रमशः बंद करने और ताला लगाने की सुविधा।

नया गेट बन गया और उस पर पेंट भी कर दिया। लेकिन काफ़ी सारा पेंट बच भी गया। अब उस बचे पेंट का सदुपयोग कैसे हो? मैं उन दिनों जो कभी पिताजी की साईकल रही थी, उससे स्कूल जाता था। उसका पेंट वगैरह काफ़ी खराब था। बस बचे हुए पेंट से साईकल सफेद रंग से रंग दी गयी। उस समय साईकल मुख्यतः काले रंग वाली ही होती थी। ऐसे में मेरी सफ़ेद साईकल बहुत ही अजीब लगती थी। घर पर कुछ पुरानी टेबल थीं तो वही पेंट उनपर भी कर दिया। आज भी हमलोग इस घटना को याद करके हंसते हैं।

आजकल जैसे रंगबिरंगी साईकल उस समय मिलना शुरू ही हुई थीं और काफी महँगी थीं। कुछ समय बाद मेरी नई साईकल आयी। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं। मुझे एक नार्मल साईकल नहीं मिली थी बल्कि पूरे भोपाल में कहीं भी जाने का ज़रिया मिला था।

नवी मुम्बई में नई सेवा शुरू हुई है जिसमें आठ-दस जगहों पर सायकिल खड़ी रहती हैं। आप एप्प के ज़रिये किराया भरिये और निकल जाइये घूमने। सच में स्कूटर, कार से भरी सड़कों पर सायकिल चलाने का मज़ा ही कुछ और है। अपने यहाँ साईकल चलाने के लिये प्रोत्साहित नहीं करते लेकिन विदेशों में खास ट्रैक रहता है। अपने यहाँ भी हैं लेकिन उसमें मोटरसाइकिल चलते देखने को मिलती है। और फ़िर आप उसे पार्क कहाँ करें?

आपको मौका मिले तो ज़रूर चलायें। कुछ अलग ही मज़ा है सायकिल चलाने का। एक अजीब सी आज़ादी, आसपास देखने का समय और ये गाना गुनगुनाते हुये आनंद लें।

कब तक गिने हम धड़कने, दिल जैसे धड़के धड़कने दो

समय को जैसे पर लग गये हैं। एक दिन में साल के छह महीने गुज़र जायेंगे। वैसे समय तो उसी रफ्तार से चल रहा है लेक़िन हम इस रफ़्तार से भी तेज चलना चाहते हैं और चौबीस घंटे के दिन में तीस घंटे गुज़ारना चाहते हैं। थोड़ा रुक कर, इत्मीनान से आसपास का मंजर देखने का भी समय नहीं निकालते। लेक़िन क्या हम एक अच्छी ज़िन्दगी जी रहे हैं?

अब ये फलसफे झाड़ने में तो महारत मिली हुई है। लेक़िन आज मैं यही सोच रहा था। हम काम से कब फुरसत पाते हैं। एक ख़त्म तो दूसरा शुरू और ऐसे ये सिलसिला चलता रहता है। कुछ दिनों के लिये कहीं घूम आये लेकिन वापस फ़िर वही दौड़भाग। और ये सब किस के लिये? उस कल के लिये जिसका कोई अता पता भी नहीं है। लेकिन हम अपना आज रोज़ उसके लिये दाँव पर लगा देते हैं।

छोटे शहर से बड़े शहर जाते हैं। अच्छा पैसा कमाने के लिये ताकि ज़िन्दगी अच्छी हो, बच्चों की सारी ख्वाहिशें पूरी कर सकें। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में जो आप होते हैं वो कहीं खो जाते हैं। और फ़िर धीरे धीरे आप भी इस पुराने आप से मिलने से कतराते हैं। सब काम एक व्यवस्था के जैसे चलते रहते हैं। आप उसका एक हिस्सा और यही आपकी ज़िंदगी बन जाती है।

लेक़िन ये सब करके आपको क्या मिला जो आपके पिताजी या उनके पिताजी के पास नहीं था? ऑटोमेटिक कार? बिजली से भी तेज इंटरनेट? मैं ये इसलिये पूछ रहा हूँ क्योंकि कल एक टैक्सी ड्राइवर मिला था। उसकी अमेठी में ख़ुद की दुकान है लेकिन वो ये सब छोड़ मुम्बई आया है और यहाँ आकर 14-16 घंटे टैक्सी चलता है। कोई छुट्टी नहीं लेता क्योंकि वो छुट्टी लेकर क्या करेगा। मैं हम दोनों में फ़र्क समझने की कोशिश कर रहा हूँ।

ये मौसम का जादू है मितवा

ये मौसम बदलता है और फरमाइशों का दौर शुरू हो जाता है। गर्मी रहती तो कुछ ठण्डे की फ़रमाइश रहती लेकिन कल से बारिश ने दस्तक दी है तो अब भजिये, पकौड़ी के लिये दरख्वास्त डाली है। हमारा कितना सारा खाना पीना मौसम के इर्दगिर्द घूमता है। अगर ये मौसम ही न हों तो?

सर्दियों में श्रीमती जी के साथ ढ़ेर सारी मटर लायी गयी और सबने मिलके छीली भी। लेकिन जब खाने की बात आई तो हम दोनों ही बचते। बच्चों को हर चीज़ में मटर कुछ ज़्यादा पसंद नहीं आया। इसलिये मैंने भी मटर के हलवे की फ़रमाइश को ठंडे बस्ते में डाल दिया और गरमा गरम छौंका मटर कई शाम खाया। लेकिन एक बार इस हलवे का स्वाद लेने की बड़ी इच्छा है। अगली सर्दी निश्चित रूप से सबसे पहले यही बनेगा।

लेकिन सर्दी की बात हो और गाजर का हलवा का ज़िक्र न हो तो मुझे सर्दी सर्दी नहीं लगती। बाज़ार में पहली गाजर की खेप आते ही हलवे की तैयारी शुरू। ये थोड़ा मेहनत और सब्र वाला काम रहता है लेक़िन उसके बाद जो मीठा फल मिलता है उसके लिये सारे कष्ट चलेंगे। भोपाल में एक मिठाई की दुकान है जहाँ बहुत ही कमाल का गाजर का हलवा मिलता है। जब कभी सर्दी में जाना हो तो कोशिश रहती की स्वाद ले लिया जाये।

इन दिनों आम की बहार है लेक़िन मुझे आम की कोई ख़ास समझ नहीं है। श्रीमती जी को है और स्वाद भी है। तो बस वो बाज़ार से ख़रीद कर सबको खिलाती रहती हैं। कभी लंगड़ा तो कभी दशहरी। लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है आमरस पूड़ी खाने में। ठंडा आमरस और गरमा गरम पूड़ी। जिसने भी ये कॉम्बिनेशन बनाया है उनको धन्यवाद।

गर्मियों में एक और चीज़ जिसके बिना गर्मी अधूरी लगती है – ऑरेंज बार। तपती गर्मी में ठंडी ठंडी ऑरेंज बार। अभी तक ये तो बताया नहीं की क्या हुआ आज जो ये खाने के ऊपर लिखना शुरू है। क्या श्रीमती जी ने भोजन नहीं दिया या बात कुछ और है?

इसके पीछे ये फ़ोटो है जिसे किसी ने ट्विटर पर शेयर किया था। आज मुम्बई में ज़ोरदार बारिश हुई और कई जगह लोग फँस गए थे। उन्हीं लोगों के लिये चाय और पारले-जी का इंतजाम किया था।

क्या??? आपने गरमा गरम चाय के साथ पारले-जी डूबा डूबा कर नहीं खाया है??? अभी भी देर नहीं हुई है। कल सुबह ही ट्राय करें। हाँ बिस्किट को सिर्फ दो सेकंड या ज़्यादा से ज़्यादा चार सेकंड तक डूबा कर रखें नहीं तो आपकी प्याली की तह में उसका हलवा मिलेगा। अदरक की चाय के साथ स्वाद कुछ और ही आता है।

खाने पर चर्चा जारी रहेगी। आप बतायें बरसात की आपकी पसंदीदा खाने की चीज़ क्या है।

अपने रंग गवायें बिन मेरे रंग में रंग जाओ

दरअसल ये कहना जितना आसान है उसका पालन उतना ही मुश्किल है। हम सबको अपने हिसाब से ढालना चाहते हैं लेकिन हम अपने आप को बदलना नहीं चाहते। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारी अर्धांगिनी यानी पत्नियाँ होती हैं।

भोपाल प्रवास के दौरान परिवार में एक विवाह की स्वर्णजयंती समारोह में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मतलब साथ रहते हुये पचास साल। बाकी सारे रिश्ते आते जाते रहे जैसे माता-पिता, भाई-बहन, बच्चे। लेकिन ये दो प्राणी साथ में रहे पूरे पचास साल। इस लंबे सफ़र की शुरुआत थोड़ी अजीब सी होती है।

वो ऐसे की एक लंबे समय तक लड़की अपने माता-पिता के घर पर अपने हिसाब से रहती थी। लेकिन एक दिन सब बदल जाता है और एक नये रिश्ते, परिवार के बीच एक शुरुआत होती है। जो काम करने ऑफिस जाते हैं अगर उन्हें बताया जाये कि अगले दिन से ऑफिस नई जगह लगेगा और सब नये सहयोगी होंगे। कपड़े भी नये तरीक़े से पहनने होंगे। ये बदलाव कैसा होगा?

अच्छा है संभल जायें…

2017 में जिस कंपनी में काम करता था उसने अपना ऑफिस नई जगह शिफ्ट करने का निर्णय लिया। ये काफ़ी समय से चल रहा था। कुछ लोग इससे बहुत खुश थे तो कुछ लोग खासे परेशान थे। अच्छा इसमें आपके पास इस बदलाव को गले लगाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। ठीक उस दुल्हन की तरह जो किसी दूसरे प्रान्त से आती है और अपने अभी तक के सीखे सभी तौरतरीकों को भुलाकर नये को अपना लेती है।

आज जब भोजन कर रहा था तो श्रीमती जी ने जो सब्जी बनाई थी उसको उन्होंने विवाह पूर्व देखा तक नहीं था। लेकिन उन्होंने बनाना भी सीखा और खाना भी शुरू किया। मैं कितना अपना रंग बिना गवायें उनके रंग में रंगा इसका पता नहीं लेकिन उन्होंने यहां के काफी सारे रंगों को अपना लिया है।

हर मायने में राम मिलाय जोड़ी

बरसों पहले अभिनेता अजय देवगन का एक इंटरव्यू पढ़ा था जिसमें उन्होंने यही बात कही थी अपनी पत्नी काजोल के बारे में। वो विवाह पूर्व जैसी थीं वैसी ही हैं। उन्होंने एक दूसरे को पसंद ही उनकी इन खूबियों के कारण किया था। तो अब बदलने का मतलब की अब हम उन्हें पसंद नहीं करते।

हम पति-पत्नी के रिश्ते को सफल भी तभी मानते हैं जब हम उन्हें पूरी तरह से बदल लेते हैं। अब चाय का ही उदाहरण ले लें। हम चाय ऐसी पीतें हैं, आप ऐसी बनाना सीख लें। थोड़े समय बाद दोनों एक जैसी चाय पीने लगते हैं। पचास साल बाद साथ में खड़े होते हैं तो क्या दोनों ही ये कहते हैं तुम कितना बदल गये हो?

https://youtu.be/p6oOyK1h7Zs

तुम्हारा नाम क्या है…

सभी ने शोले देखी होगी ऐसी उम्मीद नहीं। ऐसा इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि जब राजेश खन्ना का निधन हुआ तो ये सवाल पूछा गया था की वो कौन हैं और उन्होंने क्या काम किया था।

शोले में जो जय, वीरू और बसंती के बीच तांगे में हो रहा था लगभग वैसा ही नज़ारा ट्रैन में मेरे सामने था। बस फ़र्क ये था कि बसंती तो थी लेकिन जय, वीरू की जगह ठाकुर साहब और मौसीजी थीं।

ट्रैन में जो सामने महिला और दोनों वरिष्ठ नागरिकों के बीच जो संवाद चल रहा था उससे मुझे युवती के परिवार के बारे में सब कुछ पता चल गया था। उनके पिताजी को क्या बीमारी थी और अगर आप उनका पुश्तैनी घर खरीदना चाहें तो उसके साथ आपको क्या क्या मिलेगा ये सब मेरी जानकारी में आ चुका था। उसके बाद तो लग रहा था कि अब आधार कार्ड और भीम एप्प का पासवर्ड शेयर होना ही बाकी है।

मगर ये नहीं हुआ। युवती ने अपनी किताब निकाल ली थी औऱ उनका सारा ध्यान उस पर ही था। बीच बीच में वो और वरिष्ठ महिला समसामयिक विषयों पर बात कर लेते। जैसे आजकल के बच्चों से कुछ कहना कितना मुश्किल है। वो कुछ सुनते ही नहीं है। बच्चे मतलब जिनकी उम्र पंद्रह तक हो। दोनों महिलायें अपने अपने अनुभव के आधार पर बात कर रही थीं। एक कि ख़ुद की बेटी थी और दूसरी की शायद पोता-पोती रहे हों।

बातों को बीच में रोकने का काम फ़ोन का होता। जबसे डाटा सस्ता हुआ है तो लोग फ़ोन कम वीडियो कॉल ज़्यादा करते हैं। युवती को किसी रिश्तेदार का फ़ोन आया तो बात हो रही है आज खाने में क्या बना है। इस पूरी यात्रा में मैंने लोगों द्वारा इस डेटा का सिर्फ़ और सिर्फ़ दुरुपयोग ही देखा। और चलती ट्रेन में बीच में नेटवर्क ठीक न मिले तो मोबाइल कंपनी को कोसना भी ज़रूरी है।

लौटते समय रेलवे के एक कर्मचारी हमारे डिब्बे में चढ़े तो लेक़िन उनका सारा काम ऐसे जैसे वो अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठें हों। उनको किसी तीसरे व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति की दावत का न्यौता दिया था। लेकिन फ़िर उन्हें कोई जानकारी नहीं मिली प्रोग्राम के बारे में। आनेवाले दो घंटे हम सब ने उनको दूसरे और तीसरे व्यक्ति को लताड़ते हुये सुना। कैसे उन्होंने एक होटल से खाना मंगाया और कैसे सामने वाला उनसे माफ़ी मांगता रहा की वो उन्हें बता नहीं पाया की पार्टी आगे बढ़ा दी गयी है। एक बार तो इच्छा हुई की उनकी पार्टी का प्रबंध करवा दें। लेक़िन ये ख़्याल अपने तक ही रखा।

लोग इतनी जल्दी कैसे किसी से घुलमिल जाते हैं? क्या ये एक कला है? कैसे आप दस लोगों के बीच में ऐसे बात कर सकते हैं जैसे आप अपने घर पर बैठें हों? क्या घर में भी इन सज्जन की इतनी ही बुलंद आवाज़ रहती होगी जितनी ट्रैन में थी या वहाँ नहीं बोलने का मौका मिलने की भड़ास ट्रैन में निकल रही थी? लेकिन ऐसे ही चुप रहकर हम कैसे गुनाह को बढ़ावा देते हैं – इसका बयां कल।

उड़ती हुई वक़्त की धूल से, चुन ले चलो रंग हर फूल के

ट्रैन के सफ़र का एक अलग ही आनंद है। पिछले काफ़ी सालों से ट्रैन से चलना कम हुआ है लेक़िन यदा कदा जब भी मौक़ा मिलता है (जब फ्लाइट का किराया बहुत ज़्यादा हो तो) भारतीय रेल की सेवायें ली जाती है।

जबसे ट्रैन का सफ़र याद है, तबसे लेकर अभी तक बहुत सारे बदलाव देखें हैं। पहले सफ़र स्लीपर क्लास में ही होता था मौसम कोई भी हो। मुझे फर्स्ट क्लास में भी सफ़र करना याद नहीं है। पहली बार एसी कोच अंदर से देखा था तो किसी परिचित को छोड़ने गये थे। उस समय ये नहीं मालूम नहीं था कि रात के अँधेरे में अगर अंदर की लाइट जली हो तो बाहर से सब दिखता है। अब पर्दा खींच कर ही रखते हैं।

जब पीटीआई ने दिल्ली से मुम्बई भेजा था तब पहली बार राजधानी में सफ़र किया था और शायद एसी में भी। मेरे सहयोगी रणविजय के साथ उस सफ़र का बहुत आनन्द लिया। अब राजधानी में पता नहीं है की नहीं पर उन दिनों सैटेलाइट फ़ोन हुआ करते थे। मैंने उससे माता पिता को कॉल भी किया था।

पिछले हफ़्ते भोपाल जाने का मौका मिला तो ट्रैन को चुना। अब स्लीपर में सफ़र करने का मन तो बहुत होता है लेक़िन हिम्मत नहीं होती। लेकिन इस बार की एसी से यात्रा भी स्लीपर का आनंद दे गई। आसपास बात करने वाले बहुत सारे लोग थे तो विचारों का बहुत आदान प्रदान हुआ। मैं सिर्फ एक श्रोता बन उसको सुन रहा था।

एक माता पिता अपने बेटों से मिल कर वापस लौट रहे थे तो एक महिला यात्री कुछ दिनों के लिये भोपाल जा रहीं थीं। लेकिन दोनों ने भोपाल से जुड़ी इतनी बातें कर डालीं की बस ट्रैन के पहुंचने का इंतज़ार था। अगर आप एक ऐसी ट्रैन से यात्रा कर रहे हों जो उसी शहर में खत्म होती है जहाँ आप जा रहें है तो सबकी मंज़िल एक होती है। ऐसे मैं ये सवाल बेमानी भी हो जाता है कि आप कहाँ जा रहे हैं। उनकी बातें सुनकर भोपाल के अलग अलग इलाके आंखों के सामने आ गये। ये बातचीत ही दरअसल ट्रैन और फ्लाइट की यात्रा में सबसे बड़ा अंतर होता है।

ऐसे ही एक बार मैं भोपाल जा रहा था फ्लाइट से। ऑफिस के एक सहयोगी भी साथ थे। उन्हें कहीं और जाना था। हम दोनों समय काटने के लिये कॉफी पी रहे थे की अचानक मुझे कुछ भोपाल के पहचान वाले नज़र आ गए। चूंकि दोनों आमने सामने थे तो मेरा बच निकलना मुश्किल था। दुआ सलाम हुआ और हम आगे बढ़ गए। मेरे सहयोगी से रहा नही गया और वो बोल बैठे लगता है तुम उनसे मिलकर बहुत ज़यादा खुश नहीं हुये। बात खुश होने या न होने की नहीं थी। उन लोगों के भोपाल में रहने पर कोई मुलाक़ात नहीं होती तो 800 किलोमीटर दूर ऐसा दर्शाना की मैं उनका फैन हूँ कुछ हजम नहीं होता। मेरे इन ख़यालों को भोपाल में उतरने में बाद मुहर भी लग गयी जब हम दोनों ने ही एक दूसरे की तरफ़ देखना भी ज़रूरी नहीं समझा औऱ अपने अपने रास्ते निकल गये।

एक वो यात्रा थी, एक ये यात्रा थी।

ये न थी हमारी किस्मत…

मुम्बई या कहें नवी मुंबई में जहां में रहता हूँ वहाँ इन दिनों ट्रैफिक पुलिस काफी सक्रिय है ग़लत तरह से पार्क हुई गाड़ियों के खिलाफ कार्यवाही करने में। ये एक अच्छा प्रयास है। लेकिन जिस जगह वो ये सब कर रहे हैं वहाँ से ट्रैफिक कभी भी बाधित नही होता। जहाँ से गाड़ी उठायी जाती हैं उसके बिल्कुल सामने गाड़ियां बहुत ही बेतरतीब तरीक़े से खड़ी रहती हैं लेकिन उस पर इस पूरी टीम की नज़रें ही नहीं पड़ती। इसी एरिया में थोड़ी दूर पर ऑटोरिक्शा वाले ग़लत तरीक़े से ऑटो खड़े कर ट्रैफिक बाधित करते है लेकिन कुछ कार्यवाही होती हुई नहीं दिखती।

चलिये इसको भी मान लेते हैं। लेकिन उसी रोड पर थोड़ा आगे चलकर एक भारत सरकार के उपक्रम का कार्यलय है और उसमें काम करने वालों के वाहन, उनको मुम्बई से लाने वाली मिनी बस जैसे कई वाहन ग़लत लेन में पार्क रहते हैं। लेकिन उसपर कोई कार्यवाही इतने दिनों में होती हुई नहीं देखी है। आगे भी होगी इसकी गुंजाइश कम ही लगती है।

ज़्यादातर लोग अपनी ऊर्जा ऐसे छोटे छोटे काम में गवां देते हैं जो समय का भी नुकसान करते हैं। दो ऐसे समय गवाने वाले काम जो अक्सर काफ़ी लोग करते है उनमें से एक है सोशल मीडिया पर और दूसरा चैनल पर घूमते रहना। लेकिन रोज़ मैं जब अपनी बालकनी से ये नज़ारा देखता हूँ तो गुस्सा भी आती है लेक़िन ये भी लगता है कि उस टीम को जो ज़िम्मेदारी दी गयी है वो उसको पूरा करते हैं। हाँ अगर वो बाकी आड़ी तिरछी गाड़ियों की पार्किंग भी सुधारवाते तो और अच्छा होता। अग़र वैसे ही हम अपना ध्यान अपने लक्ष्य पर रखें और उसी पर आगे बढ़ते जायें तो हमारे सफ़ल होने की गुंजाइश और बढ़ जाती है।

इस पूरे प्रकरण का दूसरा पहलू ये है कि किसी भी व्यवस्था को सफल या विफल होने में आम जनता का सहयोग बहुत ज़रूरी होता है। जिस समय ट्रैफिक पुलिस ये मुहिम चला रही होती है तो वाहन चालकों को एक हिदायत देने के लिये वो वाहन नम्बर बताते हैं और उनसे कहते हैं कि वो गाड़ी वहाँ से हटालें। लेकिन एक ड्राइवर महाशय जैसे ही ये मुहिम शुरू होती है तेज़ी से अपनी गाड़ी दूसरी और ले जाते हैं। जब तक अमला वहाँ रहता है वो इंतज़ार करते हैं। उसके बाद गाड़ी वहीं वापस। दोबारा ऐसा होने पर वो फ़िर से ऐसा करते हैं। शायद ट्रैफिक पुलिस की टीम भी ये समझ चुकी है और इसलिए कोई कार्यवाही नहीं होती। मुझे तो इस पूरी मुहिम से सिर्फ़ एक सीख मिलती है – नियम, कायदों का पालन करना। वो चाहे पार्किंग के लिये हो या किसी और काम से संबंधित।

लेकिन हमारा यानी जनता के बर्ताव से सिर्फ यही पता चलता है – हम नहीं सुधरेंगे।

दिल का हाल सुने दिलवाला, सीधी सी बात न मिर्च-मसाला

भारत-पाकिस्तान के मैच के बाद सबसे ज़्यादा जो चर्चा में पाकिस्तान टीम की परफॉर्मेंस के अलावा कुछ है तो वो है रणवीर सिंह का परिधान जो उन्होंने उस दिन पहना था। आपने रणवीर सिंह की अजीबोगरीब कपड़ों में तस्वीरें ज़रूर देखी होंगी। उनके जैसे कपड़े पहनने के लिये बड़ी हिम्मत चाहिये। उससे भी ज़्यादा चाहिये ऐसा attitude की आपको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मतलब कपड़े या स्टाइल ऐसा की हम और आप पूरे जीवन ऐसे कपड़े न पहनें। ऐसा इसलिये क्योंकि हम अपना पूरा जीवन इस बात पर ही ध्यान रखते हुए बिताते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं। जो हम पहनते हैं वो इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा होता है।

ये सिर्फ परिधानों तक ही सीमित नहीं है। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि मुझसे किसी मामले में राय माँगी जाती है और मैं वही बोल देता हूँ जो लोग सुनना नहीं चाहते। मतलब की बोलना हो तो उस पर कुछ मीठी वाणी का लाग लपेट कर बोला जाए। चूँकि ऐसा करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल होता है इसलिए लोग कम ही पसंद करते हैं मेरी राय।

मेरा ये मानना है कि एक बार ही सही जो सही है वो बोल दो। कम से कम सामने वाला कोई दुविधा में न रहे। ऐसा नहीं है कि मैंने हर बार यही रास्ता अपनाया है। कई बार मुझे सिर्फ आधी सच्चाई ही बतानी पड़ी और उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। उसके बाद लगता की काश पहले ही सब सही बोल दिया होता तो बात वहीं ख़त्म हो जाती।

सच कहने का साहस और सलीका – याद नहीं किस पेपर का कैंपेन है लेकिन बिल्कुल सही बात है। सच कहने के कई तरीक़े होते हैं। एक तो जैसा है वैसा बोल देना। दूसरा उसको थोड़ा मीठा लगा के बोलना। मुझे ऐसी ही एक ट्रेनिंग में भाग लेने का मौका मिला था। द आर्ट आफ गिविंग फीडबैक। इसमें हमें ये बताया कि कैसे बतायें आपकी टीम के सदस्यों को उनके काम के बारे में।

ये सिर्फ ऑफिस के लिये लागू नहीं होता। अपने परिवार वालों को हम लोग ये फीडबैक देने का काम करते ही हैं। ये एक बहुत ज़रूरी ट्रैनिंग है जो पति शादी के कुछ साल बाद सीख ही जाते हैं। लेकिन जैसा फीडबैक वो अपनी श्रीमतियों को देते हैं वैसा वो अपने कार्यक्षेत्र में नहीं करते। अब कार्यस्थल में तो उनका हुक्का पानी बंद होने से रहा। लेकिन श्रीमती जी के साथ ये जोखिम कौन मोल ले। क्या रणवीर सिंह अपनी पत्नी दीपिका को राय भी इतनी ही बेबाक तरीक़े से देते हैं?

क्या मुझमें रणवीर सिंह जैसी हिम्मत है? अगर किसी भी समारोह में कुर्ता पायजामा पहने के जाने को हिम्मत कह सकते हैं, तो हाँ। मुझमें हिम्मत है। क्या मैं अपनी राय भी उतने ही बेबाक तरीक़े से देता हूँ? ये मैं अपनी दीपिका पादुकोण से पूछ कर कल लिखूंगा।

देखें किसको कौन मिलता है

सलमान खान की भारत में पहले प्रियंका चोपड़ा जोनास को कुमुद का रोल अदा करना था। लेकिन निक जोनास से शादी करने के निर्णय के चलते उन्होंने फिल्म को छोड़ दिया। सलमान खान शायद इससे ख़ासे नाराज़ भी हैं।

जब भारत देख रहा था तो रह रह कर बस कैटरीना कैफ की जगह कुमुद के रूप में अगर प्रियंका चोपड़ा होतीं तो क्या फ़िल्म कुछ और होती, यही ख़याल आता। ये पता नहीं लेकिन कुमुद का क़िरदार प्रियंका चोपड़ा को ध्यान में रख कर लिखा गया था। इसलिये शायद बार बार प्रियंका ही दिखाई दे रही थी। लेकिन कुछ एक सीन देख कर लगा की प्रियंका चोपड़ा ज़्यादा अच्छा कर सकती थीं। प्रियंका ने बर्फी में बहुत अच्छा काम किया था शायद इसके चलते उनका पलड़ा भारी है।

ऐसे ही फ़िल्म थी फितूर। अभिषेक कपूर द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में बेग़म का किरदार पहले रेखा निभाने वाली थीं। लेकिन एक हफ्ते की शूटिंग करने के बाद उन्होंने इसको करने से मना कर दिया और उनकी जगह तब्बू ने ले ली। मज़ेदार बात तो ये है कि अभिषेक कपूर ने काफ़ी पहले फ़िल्म का यही रोल तब्बू को ऑफर किया था। लेकिन उस समय बात कुछ बनी नहीं और अभिषेक ने भी दूसरी फ़िल्म बनानी शुरू कर दी थी। मैंने ये फ़िल्म पूरी तो नहीं देखी लेक़िन जितनी थोड़ी बहुत देखी उसमें मुझे तब्बू की जगह रेखा ही नज़र आईं। शायद डायरेक्टर के दिलोदिमाग पर रेखा के किरदार ने ऐसी छाप छोड़ी थी कि सिर्फ़ जिस्मानी तौर पर तब्बू थीं लेकिन ओढ़ने पहनने से लेकर हाव भाव सब रेखा।

असल जिंदगी में अगर हमें किसी के असली क़िरदार की पहचान हो जाये तो उनका सभी व्यवहार हम उसी दृष्टि से देखते हैं। जैसे अगर कोई आपका विश्वास तोड़ दे तो फ़िर से उनपर विश्वास करना मुश्किल होता है। मेरी तरह आप भी ऐसे बहुत से लोगों से मिले होंगे जिनका असली रूप उस समय सामने आ जाता जब आपको उम्मीद ही नहीं होती।

जैसे प्रेम चोपड़ा, रंजीत, शक्ति कपूर, गुलशन ग्रोवर से आप एक विलेन वाले काम की ही उम्मीद करते हैं। फ़िल्म दिलवाले में ऐन इंटरवल के पहले काजोल का असली चेहरा सामने आता है। शाहरुख खान के लिये ये विश्वास करना मुश्किल होता है। दोनों सालों तक इस अविश्वास के चलते अलग रहते हैं लेकिन फ़िल्म है असल जिंदगी तो नहीं। अंत में सब वापस साथ में आ ही जाते हैं।

असल ज़िन्दगी में कोई है जो फिर से विश्वास जीतने का प्रयास कर रहा है। लेकिन पुराने अनुभव ऐसा होने से रोक रहे हैं। क्या उनके प्रयास की जीत होगी या मेरे डर की – ये समय के साथ पता चलेगा।

बधाई हो, आप पापा बन गए हैं

ऑफिस में मेरी सहयोगी ऐसे ही मेरे परिवार के बारे में बात कर रही थीं। बच्चों की बात आई तो उनका ये मानना था की बिटिया तो मुझे उंगलियों पर नचाती होगी।

ऐसा शुरुआत से माना जाता है। आप पिता के ऊपर सोशल मीडिया पर चलने वाले बहुत सारे मैसेज ही देख लें। कई को पढ़ कर आंखें भर आती हैं। लेकिन इनमें से ज़्यादातर बेटियों की तरफ से होते हैं। बहुत कम सिर्फ पिता के लिये होते हैं – न कि बेटी या बेटे के पिता।

पिता पुत्र का संबंध इतना अलग क्यों होता है

पिता का क़िरदार फिल्मों में या असल जिंदगी में कहाँ पर सच्चाई के करीब होते हैं? ज़्यादातर फिल्मों में पिता का क़िरदार लगभग एक विलेन जैसा ही होता है। फ़िर चाहे वो मैंने प्यार किया के राजीव वर्मा हों या आलोक नाथ या क़यामत से कयामत तक के दलीप ताहिल या गोगा कपूर या हालिया रिलीज़ धड़क के आशुतोष राणा। ये पिता तो हैं लेकिन हैं अपनी औलाद के दुश्मन।

ज़ाकिर खान का ये विडियो कमाल का है। उन्होंने अपने पिता के बारे में बहुत सारी बातें बताई हैं। लेकिन उस रिश्ते के बारे में बताया है जो वो अपने पिता के साथ शेयर करते हैं। ज़रूर देखिये ये वीडियो।

दूसरा वीडियो है फ़िल्म अकेले हम अकेले तुम का। फ़िल्म के आख़िर में कोर्ट रूम में आमिर ख़ान जज को बताते हैं उनके बेटे के साथ उनका रिश्ता उनकी पत्नी के जाने के बाद।

जिस रिश्ते को आप रोज जी रहे हों उसके लिये सिर्फ एक दिन कैसे काफ़ी हो सकता है? इस रिश्ते को बनने में सालों लग जाते हैं।लेक़िन आज के उपलक्ष्य में मैंने भी पिताजी को फ़ोन कर बधाई दी।

पिताजी के साथ एक बहुत पुरानी फोटो है। किसी पिकनिक की है। बच्चों के साथ हैं। और सब उनके साथ उस समय का आनंद ले रहे हैं। बस ऐसे ही सारे पिता आनंद लें अपने पिता होने का।

हँसते हँसते कट जायें रस्ते, ज़िन्दगी यूँ ही चलती रहे

फेसबुक पर फेल वीडियो की भरमार है। ऐसे बहुत से मज़ेदार वीडियो देखने को मिलते हैं जिसमें लोग करने तो कुछ और निकलते हैं लेकिन हो कुछ और जाता है। ये वीडियो देख कर हँसी भी आती है और याद आते हैं अपने ही कुछ फेल होने वाले पल जिनकी कोई रिकॉर्डिंग तो नहीं है लेकिन वीडियो जब चाहें रिप्ले होता रहता है।

गर्मी का मौसम आते ही सब वाटर पार्क की तरफ भागते हैं। हमारे समय में ऐसा कुछ नहीं था। अब बच्चों की गर्मी की छुट्टियों में ये एक ज़रूरी काम हो गया है। भले ही उसके बाद आपकी स्किन एक महीने तक परेशान करती रहे। ऐसे ही तीन-चार बरस पहले भोपाल के वाटर पार्क पर एक राइड लेने का शौक चढ़ा। सबको करता देख लगा इसमें कुछ ज़्यादा कठिनाई तो नहीं है।

ऐ ज़िन्दगी, ये लम्हा जी लेने दे

उस राइड का एक बड़ा हिस्सा पाइप के बीच से गुज़रता था। श्रीमती जी और मैंने हृतिक रोशन के डर के आगे जीत है वाले विज्ञापन को याद करके शुरू किया। लेकिन थोड़ी देर ठीक चलने के बाद मामला गड़बड़ हो गया और जिस फ्लोटर पर हम बैठे थे वो कहीं और और हम पाइप के अंदर सिर और चेहरे पर ठोकर खाते हुये बाहर निकले।

होली पर मेरा वो रंग डालने के ऐन पहले फ़िसल जाने किस्सा आपको बता ही चुका हूँ। हमारे पड़ोस में रहने वाले परिवार के साथ भी एक ऐसी ही घटना हुई थी जो अनायास ही मुस्कान ले आती है। जैसा की हमारे देश में अक्सर होता है, घर के सामने केबल डालने का काम चल रहा था। चूंकि घर के अंदर गाड़ी ले जाने का एकमात्र रास्ता सामने की तरफ से था तो जैसे तैसे गाड़ी निकालने भर की जग़ह मिट्टी डाल दी। लेकिन उसी दौरान ज़ोरदार बारिश हो गयी। बगल के घर से कोई स्कूटर लेकर निकला तो लेकिन गाड़ी कीचड़ में फँस गयी और सवार केबल वाले गड्ढे में।

अच्छा है संभल जायें…

ऐसा ही एक किस्सा है माँ और बुआ का जब वो मेले में गयीं थी। छोटे छोटे लकड़ी के झूले पर दोनों झूलने बैठीं। दीदी उस समय जो क़रीब एक बरस की रही होगी झूले के चलते ही ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। झूला चलाने वाले से बुआ और माँ ने चिल्ला कर झूला रोकने के लिये कहा। लेकिन शोर के चलते शायद उसने सुना नहीं और एक दो चक्कर लग ही गये। उसके बाद माँ ने जो किया वो पूरा फिल्मी है। जैसे ही उनकी पालकी नीचे आयी उन्होंने दोनों हाथ से झूले वाले के बाल पकड़ लिये और झूला फौरन रोकने को कहा। क्या उसने हेड मसाज के लिये शुक्रिया कहा?

आपके पास हैं ऐसे किस्से? तो साझा करिये मेरे साथ और कमेंट में बतायें।

मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे

अगर आप रेडियो सुनने का शौक़ रखते हैं तो क्या आपने वो देर रात वाले लव गुरु वाले शो सुने हैं? ये अमूमन रात 11 या उसके भी बाद होते हैं और ज़्यादातर इसमें पुरूष RJ रहते हैं। इसमें श्रोता अपने दिल/प्यार से जुड़ी परेशानी रखते हैं।

मैंने आखिरी बार तो नहीं लेकिन जो याद है वो पीटीआई के चेम्बूर गेस्ट हाउस में अपने पुराने फिलिप्स के टू-इन-वन पर देर रात इस शो को सुनना। चूंकि शिफ़्ट देर से ख़त्म होती तो घर पहुंचने में भी समय लगता। मनोरंजन के लिये बचता सिर्फ़ रेडियो। मोबाइल फ़ोन उन दिनों रईसी की निशानी होता। इनकमिंग के लिये भी पैसे देने पड़ते थे।

तो ये रेडियो शो जो नये नये FM चैनल पर शुरू हुये थे, रह देकर यही साथ देते रात में। अच्छा ये जो समस्याएँ हैं दिल वाली इनमें कोई बदलाव नही हुआ है। पहले भी लड़का लड़की को पसंद करता था लेकिन लड़की की सहेली लड़के को पसंद करती थी। लड़के का दोस्त उसकी बहन को बहुत चाहता है लेकिन दोस्ती के चलते बोल नहीं पाता। या क्लासिक प्रॉब्लम वो मुझे सिर्फ अपना अच्छा दोस्त मानती है। हाँ इसमें से कुछ अजीब अजीब से किस्से भी आते।

इन समस्याओं के क़िरदार भर बदलते रहते हैं। बाकी सब वैसा का वैसा। अमीर लडक़ी, ग़रीब लड़का जिसके ऊपर परिवार की ज़िम्मेदारी है। उसके बाद ये सुनने को मिले की आप ये बातें नहीं समझोगे तो सलमान ख़ान का भारत वाला डायलाग बिल्कुल सही लगता है।

जितने सफ़ेद बाल मेरी दाढ़ी में है उससे कहीं ज़्यादा रंगीन मेरी ज़िंदगी रही है

मैं अभी 70 साल से सालों दूर हूँ इसलिये वापस रेडियो के शो पर। दरअसल रेडियो इतना सशक्त माध्यम है और इतनी आसानी से एक बहुत बड़ी जनसंख्या में पास पहुंच सकता है। उससे भी बड़ी ख़ासियत ये की आपकी कल्पना शक्ति को पंख लगा देता है रेडियो। अगर आप कोई गाना सिर्फ सुन सकते हैं तो आप सोचना शुरू कर देते हैं कि इसको ऐसे दिखाया गया होगा। एक अच्छा RJ तो आपको सिर्फ़ अपनी आवाज़ के ज़रिये उस स्थान पर ले जा सकता है जहाँ कुछ घटित हो रहा हो। जैसे एक ज़माने में बीबीसी सुनने पर होता था।

आज रेडियो की याद दिलाई मेरे पुराने सहयोगी अल्ताफ़ शेख ने। हम दोनों ने मिलकर पॉडकास्ट शुरू किया था पुरानी कंपनी में। उसको करने में बड़ा मजा आता। पिछली संस्थान में मेघना वर्मा, आदित्य द्विवेदी और योगेश सोमकुंवर के साथ ये प्रयोग जारी रहे। योगेश को देख कर आपको अंदाजा नहीं होगा की इनके पास दमदार आवाज़ है।

घर में दो रेडियो थे। टेलीक्राफ्ट और कॉस्सिर। दोनों बिल्कुल अलग अलग सेट थे लेकिन बड़े प्यारे थे। सुबह से लग जाते और जब एनाउंसर सभा ख़त्म होने का ऐलान करती तब बंद हो जाते। उन दिनों चौबीस घंटे रेडियो प्रसारण नहीं होता था। दिन को तीन से चार सभाओं में बाँट दिया था।

इस धुन को तो सभी पहचान गए होंगे। अधिकतर सुबह इसी के साथ होती थी।

जहाँ आज के FM सिर्फ़ मनोरंजन का साधन हैं सूचना के नहीं (वो भी सरकार के नियमों के चलते), आल इंडिया रेडियो मनोरंजन के साथ ढ़ेर सारी जानकारी भी देता है। बस हुआ इतना है की हम उस चैनल तक पहुँचते पहुँचते रेडियो बंद ही कर देते हैं। न तो विद्या बालन जैसी अदा के साथ बोलने वाली RJ होंगी न टूटे दिलों को जोड़ने वाले लुवगुरु।

कभी मौका मिले तो लवगुरु वाले शो और आकाशवाणी के शो को सुनें।

बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी

ये पोस्ट मेरा तीसरा प्रयास होगा आज का। दो काफ़ी लंबी लिखी हुई पोस्ट ड्राफ्ट में रखी हैं। लिखना शुरू कुछ और किया था लेकिन पता नहीं ख़याल कहाँ पहुँच गये उड़ते उड़ते। इससे पहले की फ्लाइट क्रैश होती, उसको सुरक्षित उतार कर ड्राफ्ट में बचा लिया। अब जब सर्जरी होगी तब काँट छाँट करी जायेगी।

लेकिन क्या उड़ान होती है ख़यालों की। वो मेहमूद साहब का गाना है जिसकी शुरुआत में वो कहते हैं ख़यालों में, ख़यालों में। मसलन जब आप को बहुत भूख लगी हो और आप किसी ऐसे इलाके से गुज़रे जहाँ दाल में बस अभी अभी तड़का डाला गया हो और शुद्ध घी के उस तड़के की खुशबू आप तक पहुंच जाए। आप के सामने स्वाद भरी थाली आ जाती है। ख़यालों में ही सही।

जिन दिनों में दिल्ली में अकेला रहता था तब ऐसे ख़याल लगभग रोज़ ही आ जाते थे जब कभी आसपड़ोस में कुछ भी पकता। हम उसकी खुशबू का आनंद उठाते हुये अपने लिये भोजन का प्रबंध करते। घर के खाने की बात मैं पहले भी कर चुका हूँ तो इसलिये इस बारे में ज़्यादा नहीं लिखूँगा।

लेकिन आज भोजन में बारे में इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों एक मेसैज आया था। खाना खाने बैठो तो भगवान, किसान और इतनी गर्मी में खाना बनाने वाली का धन्यवाद करना मत भूलना। सच भी है। गर्मी कितनी ही तेज क्यों न हो खाना भले ही सादा हो लेकिन बनाना तो पड़ता है। स्वाद में कोई कमी हमें बर्दाश्त नहीं होगी, गर्मी हो या सर्दी। लेकिन अधिकतर हम इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि जो किसान मौसम की मार झेलकर हमतक ये अन्न पहुंचाता है और उसके बाद वो गृहणी जो उससे स्वादिष्ट व्यंजन बना के खिलाती है उनको उनके हिस्से की कृत्यगता व्यक्त करने में कंजूसी कर देते हैं।

जो खाना हमारे सामने खाने की मेज़ पर सजा रहता है उसके बनने के पीछे एक कहानी होती है। लेकिन हम उसमें बिल्कुल रुचि नहीं रखते। जैसे कि ये पोस्ट। इसको मैंने तीन बार बनाने की कोशिश करी लेकिन सफल नही हुआ। आप जो इसे पढ़ रहे हैं आपको इन कहानियों के पीछे की कहानी बताने लगूँ तो बात दूर तलक जायेगी। फ़िलहाल उंगलियों और मोबाइल के कीपैड को आराम। ढेर सारा धन्यवाद किसान भाइयों का जो बारिश की राह देख रहे हैं और उन सभी का जो रसोईघर में सबकुछ झेलते हुये भी मुस्कुराते हुए ये पूछते हैं स्वाद तो ठीक है ना। कुछ कम ज़्यादा तो नहीं।

कैसी ये नगरिया, कैसे हैं ये लोग

आज ट्विटर पर एक बहस चल रही थी। रोज़ जो फालतू की बहस चलती रहती है उससे ये कुछ अलग थी। बहस बहुत ही सभ्य थी क्योंकि इसमें किसी नेता या अभिनेता को उनकी ट्वीट के लिये ट्रोल नहीं किया जा रहा था।

इस बहस की शुरुआत हुई एक वेबसाइट की ट्वीट से। जानेमाने फ़िल्म और रंगमंच के कलाकार गिरीश कर्नाड का आज सुबह निधन हो गया। वेबसाइट ने इसकी हैडलाइन दी \”टाइगर ज़िंदा है फ़िल्म में अभिनय करने वाले गिरीश कर्नाड का निधन\”। बस ट्विटर सबने मिलकर इस वेबसाइट की क्लास ले ली। सभी ने इसका मज़ाक उड़ाया की स्वर्गीय कर्नाड ने काफ़ी सारी अच्छी फिल्में करी हैं, बहुतेरे नाटकों का निर्देशन किया लेकिन उस फिल्म से उनको जोड़ा जा रहा है जिसमें उनका काम कुछ ऐसा नहीं था कि उनकी याद को उसके साथ जोड़ा जाये।

लेकिन इसमें क्या गलत है? आप अगर किसी को उनके पुराने काम का हवाला देंगे और अगर कहें की फ़िल्म स्वामी या मंथन या मालगुडी डेज में काम करने वाले गिरीश कर्नाड का निधन तो सबको थोड़ी अपनी याददाश्त पर ज़ोर देना होगा कि ये किसकी बात हो रही है। पत्रकारिता में आप सूचना दे रहे हैं। सामने वाले तक जो संदेश पहुंचा रहे हैं वो पहुंच जाए। अब अगर टाइगर ज़िंदा है का हवाला दिया गया है तो वो उनकी शायद आखिरी बड़ी हिट फिल्म थी तो इसमें क्या गलत है? एक बहुत बड़े तबके के पास जिन्होंने ये सलमान खान की फ़िल्म देखी होगी, वो गिरीश कर्नाड साहब को सलमान के बॉस वाले क़िरदार को फ़ौरन पहचान गये होंगे।

अब इसमें बड़ी सी भूमिका, वैसे इस नाम की भी उन्होंने फ़िल्म करी थी, बांधने की क्या ज़रूरत है। जिस शख़्स ने उन्हें टाइगर ज़िंदा है के साथ याद किया और जिसने उन्हें मालगुडी डेज से जोड़कर याद किया दोनों में कोई अंतर है क्या? मैं ये निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि गिरीश कर्नाड साहब को अपने दोनों ही काम प्रिय होंगे। नहीं तो वो टाइगर ज़िंदा है जैसी घोर कमर्शियल फ़िल्म नहीं करते।

जैसा ट्विटर पर अक्सर होता है, लोगों ने लाइन लगादी कैसे कुछ नामीगिरामी लोगों को याद किया जायेगा। इन सबके पीछे एक ही कारण है – मेरे हिसाब से ये सही है। लेकिन सब आपके या मेरे हिसाब से ही तो सही नहीं हो सकता। आप राजेश खन्ना को कैसे याद करेंगे? उनकी वो डांस स्टेप के लिये या चिंगारी कोई भड़के या मेरे सपनों की रानी वाले गानों के लिये? अगर मैं उनको अगर तुम न होते के गाने के लिये या आ अब लौट चलें में उनके अभिनय के लिये याद करूं तो क्या ग़लत है? ये सिर्फ़ इसलिये तो गलत नहीं हो सकता क्योंकि ये आपके उनको याद रखने के मापदंडों से अलग है।

गिरीश कर्नाड साहब को उनकी बहुत सारे किरदारों के साथ तो याद रखूँगा लेकिन एक गाना जो उनपर फ़िल्माया गया था वो भी मुझे बहुत प्रिय है। सुभाष घई की मेरी जंग में उनपर और नूतन पर एक गीत फिल्माया था – ज़िन्दगी हर कदम एक नई जंग है। ये गाना उनकी याद में और उस शख्स के लिये जिसने उस स्टोरी की हैडलाइन दी।

https://youtu.be/3qgbp8z0cnc

दरिया ने ली है करवट तो, साहिलों को सहने दे

सलमान खान को निजी जिंदगी में भले ही प्यार न मिला हो लेकिन स्क्रीन पर तीनों खान में वो सबसे अच्छे लवर बॉय लगते हैं। ये मेरा जवाब था श्रीमती जी को उस सुबह जब चाय का आनंद लेते हुये उन्होंने पूछ लिया कि तीनों खान में से कौन सबसे अच्छा रोमांटिक हीरो है। आमिर खान और शाहरुख खान ने भी रोमांटिक फिल्में करी हैं और शाहरुख को किंग ऑफ रोमांस भी कहा जाता है। लेकिन मेरे लिये सलमान से अच्छा रोमांटिक खान कोई नहीं।

भोपाल में हम आपके हैं कौन केवल एक सिनेमाघर में लगी थी। फ़िल्म के निर्माता राजश्री ने फ़िल्म को सिर्फ़ डॉल्बी में रिलीज़ किया था। ये टेक्नोलॉजी नई थी और बहुत कम सिनेमा मालिक पैसा खर्च करने को तैयार थे। ध्यान रहे उस समय सिंगल स्क्रीन ही हुआ करते थे।

चूंकि एक ही सिनेमाघर था, तो काफी भीड़ रहती थी। परिवार में सभी को इसे देखने का मन था। सलमान खान और माधुरी दीक्षित साथ में और सूरज बड़जात्या का निर्देशन। फ़िल्म के गाने तो सभी ने सुन रखे थे। चित्रहार में गानों की झलक भी मिल गई थी। ये भी पता था कि नदिया के पार का मॉर्डन एडिशन था।

आख़िरकार वो दिन आ ही गया जब फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बन गया। एडवांस बुकिंग के लिये मैं औऱ बड़ी बहन गये थे। bookmyshow, paytm की पीढ़ी को न इसका अनुभव होगा न इससे जुड़ी खुशी का अनुभव। टिकट मिल गये और बस ऐसे ही घूमते हुये अंदर पहुँच गए। शो बस शुरू ही हुआ था। जब अंधेरे में फ़िल्म का टाइटल शुरू हुआ तो बस नज़रें जम गयीं स्क्रीन पर। सलमान खान और माधुरी दीक्षित पर ब्लैक एंड व्हाइट में उस गाने की बात ही कुछ और थी। हम दोनों ने पूरा गाना देखा और घर वापस क्योंकि दोपहर में शो देखने जो आना था।

उसके पहले मैंने सलमान खान की इक्का दुक्का फिल्में ही देखी होंगी। मैंने प्यार किया और अंदाज़ अपना अपना तो याद है लेकिन इसके अलावा शायद साजन। मैं ठहरा आमिर खान का फैन और भाई वैसे भी कुछ अलग ही तरह की फिल्में करते। लेकिन उस दिन हॉल के अंधेरे में जब सलमान खान ने हम आपके हैं कौन गाना शुरू किया तो दीदी की मानो लॉटरी लग गयी थी।

हम दिल दे चुके सनम और लव दोनों ही फिल्मों में उनका किरदार बहुत बढ़िया था। हम दिल…में उनकी और ऐश्वर्या की जोड़ी बस एक फ़िल्म में आके रह गयी। लेकिन दोनों की जोड़ी कमाल की थी। शायद वैसे जैसे वरुण आलिया या दीपिका रनबीर की जोड़ी है इन दोनों। सलमान की आलिया भट्ट के साथ इंशाल्लाह का इंतज़ार रहेगा क्योंकि बहुत समय बाद वो एक लव स्टोरी में दिखाई देंगे और उसपर संजय लीला भन्साली का निर्देशन। देखना ये है कि भंसाली अपने चहेते अरिजीत सिंह की जगह किस को सलमान खान की आवाज़ बनायेंगे।

पिछले कुछ सालों से सलमान खान की फिल्में नियमित देखी जा रही हैं। बजरंगी भाईजान हो या ट्यूबलाइट या बुधवार को रिलीज़ हुई भारत। फ़िल्म में कई खामियाँ हैं लेकिन सलमान और कैटरीना की जोड़ी अच्छी लगती है। सलमान खान की तरह कैटरीना कैफ को भी हिंदी बोलने में खासी परेशानी होती है और ये इस फ़िल्म में साफ़ पता चलता है। निर्देशक स्क्रिप्ट में जो इमोशनल कनेक्ट होना चाहिए था उस पर ज़्यादा ध्यान न देकर सलमान खान को हीरो बनाने में ध्यान दे बैठे। जैसी सलमान खान की फिल्में होती हैं, भारत एक साफ सुथरी फ़िल्म है।

क्यूँ इस क़दर हैरान तू, मौसम का है मेहमान तू

पिछले दो दिनों से पुराने टीम के सदस्यों से बातचीत चालू है। इसका मतलब ये नहीं कि वो बंद हो गयी थी। वो बस मैं ही संपर्क काट लेता हूँ तो सबके लिये और आश्चर्य का विषय था कि मैंने फ़ोन किया।

बातों में बहुत सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। दिसंबर 2016 में एक पार्टी हुई थी। शायद टीम के साथ आखिरी बार। ये पार्टी बहुत लंबे समय से टलती आ रही थी। हमेशा ऐन मौके पर कैंसिल हो जाती। लेकिन दिसंबर में ये निर्णय हुआ कि 2016 का पार्टी का बहीखाता उसी साल बंद कर दिया जाये। बस एक दिन सुनिश्चित हुआ और जो आ सकता है आये वाला संदेश भेज दिया।

हर टीम में एक दो ऐसे सदस्य होते हैं जो पार्टी कहाँ, कैसे होगी, खानेपीने का इंतज़ाम करने में एक्सपर्ट होते हैं। मेरी टीम में ऐसे लोगों की कोई कमी नही थी। बस उन्होंने ये ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। और क्या पार्टी हुई थी। उस शाम वहाँ दो गायक भी थे। चूंकि हमारी फौज बड़ी थी तो नज़रंदाज़ करना भी मुश्किल था। खूब गाने सुने उनसे और थोड़ी देर बाद उन्हें सुनाये भी। अच्छा हम लोगों की पार्टी तो ख़त्म हो गयी लेकिन कुछ लोगों की उसके बाद किसी के घर पर देर रात तक चलती रही।

लेकिन अगले दिन ऑफिस में बवाल मचा हुआ था। हमारी पार्टी की ख़बर ऊपर तक पहुंच गई थी। काफ़ी सारे सवालों के जवाब दिये गये। एहसास-ए-जुर्म बार बार कराया जा रहा था। उसके पीछे की मंशा कब तक छुपी रहती। तब तक चीज़ें बदलना शुरू ही चुकी थीं और अगले सात महीने तक तो पूरी कायापलट हो गयी थी और फ़िल्मी सीन \’मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ\’ वाली स्थिति हो गयी थी। लेकिन इस पूरे समय जो साथ रहे ये वही टीम के सदस्य थे। नहीं, वही सदस्य हैं।

ये पूरी की पूरी टीम के सभी सदस्यों से मेरा मिलना 2012 से शुरू हुआ था। आज भी मुझे बड़ा अचरज होता है की कॉलेज से निकले युवाओं के साथ और कुछ अनुभवी लोगों की टीम ने क्या शानदार काम किया। ये जानकर और अच्छा लगा कि उनमें से कई अब बड़ी टीम को लीड कर रहे हैं। उनकी तरक़्क़ी देख कर खुशी भी होती है और गर्व भी। उन सभी के जज़्बे को सलाम।

बारिश का बहाना है, ज़रा देर लगेगी

गोआ के कैंडोलिम बीच पर सारी रात बैठ कर बात करके जब सुबह वापस होटल जाने का समय आया तो कहीं से बादल आ गये और बारिश शुरू। बचने की कोई गुंजाइश नहीं थी तो बस बैठे बैठे बारिश का आनंद लिया।

ये बादलों का भी कुछ अलग ही मिजाज़ है। अगर आप मुम्बई में हैं तो आपको इनके मूड का एहसास होगा।ऐसा पढ़ा है कि इस हफ़्ते मुम्बई में बारिश दस्तक दे सकती है। बारिश में मुम्बई कुछ और खूबसूरत हो जाती है। वैसे बारिश में ऐसा क्या खास है ये पता नहीं लेकिन अगर किसी एक मौसम पर सबसे ज़्यादा गाने लिखे गये हैं तो वो शायद नहीं यक़ीनन बारिश का मौसम ही होगा।

वैसे बारिश मुझे भोपाल के दिनों से पसंद थी। दिल्ली के प्रथम अल्प प्रवास में कुछ खास बारिश देखने को नहीं मिली। बाद में पता चला कि अन्यथा भी बारिश दिल्ली से दूर ही रहती। जब दिल्ली से मुम्बई तबादला हुआ तो वो ऐन जुलाई के महीने में। उस समय मुम्बई की बारिश के बारे में न तो ज़्यादा पता नहीं था न ही उसकी चिंता थी। मेरे लिये मुम्बई आना ही एक बड़ी बात थी। उसपर पीटीआई ने रहने की व्यवस्था भी करी थी तो बाक़ी किसी बात की चिंता नहीं थी।

मरीन ड्राइव पर गरम गरम भुट्टे के साथ बारिश की बूंदों का अलग ही स्वाद होता है। और उसके साथ एक बढ़िया अदरक की गरमा गरम चाय मिल जाये तो शाम में चार चाँद लग जाते हैं। वहां से दूर तक अरब सागर पर बादलों की चादर और बीच बीच में कड़कड़ाती बिजली। अगर मुम्बई में ये नज़ारा रहता तक अब पहाड़ों घर से दिखते हैं। गर्मी में बंजर पहाड़ बारिश के आते ही हरियाली से घिर जाते हैं। इन्हीं पहाड़ों के ऊपर बादल और बारिश दूर से आते दिख जाते हैं। सचमुच बहुत ही सुंदर दृश्य होता है।

कुछ लोग इस मौसम को बेहद रोमांटिक मानते हैं वहीं कुछ लोग काले बादल और बारिश में भीगने से खासे परेशान रहते हैं। मुझे इस मौसम से या किसी औऱ मौसम से कोई शिकायत नहीं है। हर मौसम की अपनी ख़ासियत होती है और उसका आनंद लेने का तरीका। जैसे अगर आप ऐसे मौसम में लांग ड्राइव पर निकल जायेँ जैसा मैंने पिछले साल किया था। भीगी हुई यादों को अपने साथ समेट कर दिल्ली ले जाने के लिये।

जो न समझे वो अनाड़ी हैं

विज्ञापन देखने का मुझे बड़ा शौक है। अगर मैं ये कहूँ की इस चक्कर में मैंने कई सारे प्रोग्राम देख डाले तो कुछ गलत नहीं होगा। जब लोग उस विज्ञापन में ब्रेक में टीवी की आवाज़ बंद कर देते हैं, मैं उसी दो मिनट के लिये 22 मिनट का प्रोग्राम झेलता हूँ। आज भी मैं अखबार या मैगज़ीन में विज्ञापन देख उसकी एजेंसी जानने की उत्सुकता रहती है। मुझे इस क़दर इस क्षेत्र में काम करने की ललक थी कि अपनी कंपनी का नाम भी सोच लिया था।

मेरे खयाल से अपनी बात 10 सेकंड से एक मिनट में ऐसे कहना की आपको पसंद भी आये और याद भी रहे, अपने आप में एक कला है। ख़ैर, वहाँ तो मेरी कोशिश सफ़ल नहीं हुई लेकिन उसी से थोड़ी बहुत जुड़ी हुई पत्रकारिता में जगह मिल गयी। यहाँ भी आपको अपनी हैडलाइन को लेकर बहुत क्रिएटिव होना पड़ता है। जैसे ये

उस दिन जब चुनाव के परिणाम आये तो सभी अखबारों को यही ख़बर देनी थी। लेकिन कोलकाता से प्रकाशित द टेलीग्राफ ने बख़ूबी ये काम किया। कम से कम शब्दों में। वैसे इस पेपर में ऐसा अक्सर होता है। अगर आप भी ऐसे ही कुछ क्रिएटिव देखना चाहें तो सोशल मीडिया पर इनका एकाउंट ज़रूर चेक करें।

अभी कुछ दिनों से एक फ़ोटो लोगों के द्वारा शेयर की जा रही है। उसमें 40 अपने समय के बेहतरीन विज्ञापन छुपे हैं। कैडबरी के विज्ञापन \’क्या स्वाद है जिंदगी में\’ बड़े अच्छे थे। वैसे ही सर्फ की ललिता जी या धारा की जलेबी का लालच करता बच्चा।

मेरी पुरानी संस्थान में मेरे एक साथी ने मुझे समझाइश दी थी कि अपनी कला को बेचना सीखो। इसके लिये उन्होंने मुझे कई सेमिनार, नेटवर्किंग इवेंट्स में जाने की सलाह भी दी। लेकिन मुझे घर से बाहर निकालना एक मुश्किल काम है। ऐसा मैं मानता हूँ और अब इतने वर्षों के बाद श्रीमती जी भी मान चुकी हैं। तो नतीजा ये होता कि फ़ीस तो भर दी जाती इन प्रोग्राम में जाने के लिये लेकिन जाना नहीं हो पाता।

खुद को बेचना एक कला है। आपको अपने आसपास ऐसे लोग मिल ही जायेंगे। काम कुछ करेंगे नहीं लेकिन बातें आप करवा लीजिये। अगर आपने सई परांजपे की कथा देखी हो तो जैसा उसमें फारुख शेख़ का क़िरदार रहता है। वही लोग बहुत बार आगे भी बढ़ते हैं। मेरी टीम में एक बहुत ही शांत, सौम्य स्वभाव वाले मोहम्मद उज़ैर। उनकी लेखनी के बारे में तो आपको बता ही चुका हूँ। लेकिन बहुत ही कमाल के इंसान। जितना समय उनके साथ काम किया उसमें एक बार ही मैंने उन्हें गुस्से में देखा है। अगर मुझे किसी को अपनी टीम में रखने का गर्व है तो मोहम्मद उस लिस्ट में टॉप 3 में शामिल होंगे।

वापस विज्ञापन की रंगबिरंगी दुनिया में लौटते हैं। वैसे तो आपका काम ही बोलना चाहिये लेकिन कई बार इसकी आवाज़ लोगों के कानों तक नहीं पहुँचती है। तो थोड़ा सा विज्ञापन का सहारा लेने में क्या बुराई है। जैसे सलमान खान और कैटरीना कैफ़ इन दिनों हर चैनल पर भारत को बेचते हुये दिख जाते हैं।

अपडेट: घोर आलस्य के बाद मैंने पहला पत्र लिख ही दिया और वो अब अपने गंतव्य के लिये रवाना हो चुका है। अब दूसरे पत्र की बारी है। उसका मुहूर्त भी जल्द ही निकाल लेंगे।

ये भी ठीक, तो वो भी ठीक, अपना अपना नज़रिया

ज़ाहिर सूचना: आज की पोस्ट जो उम्र में मार्क जुकरबर्ग को झूठी जानकारी देकर चकमा दे गये हों उनके लिये नहीं है। जो उम्र से न सही विचारों से वयस्क हों वही आगे पढें।

धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता में मुख्य क़िरदार चन्दर और सुधा की बुआ की लड़की बिनती के बीच सुधा की शादी के बाद बातचीत हो रही है प्यार और शारिरिक संबंध को लेकर। चन्दर को बहुत आश्चर्य होता है जब बिनती उन्हें बताती है कि गाँव में ये सब उतना ही स्वाभाविक माना जाता है जितना खाना-पीना हँसना-बोलना। बस लड़कियाँ इस बात का ध्यान रखती हैं कि वो किसी मुसीबत में न पड़ें।

दरअसल इस विषय पर मेरी पुरानी टीम की साथी मेघना वर्मा ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी है उनके साथ पीजी में रहने वाली मोहतरमा के बारे में। मेघना उनके व्यवहार/विचार से बिल्कुल अलग राय रखती हैं। पहले जानते हैं मेघना ने क्या कहा। ये उस पोस्ट का सार है।

उनकी रूममेट का नौ वर्षों से किसी के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा है लेकिन उन्होंने शादी के लिये किसी दूसरे ही व्यकि को चुना है। इसमें जो समस्या है जिसे मेघना ने परेशान कर रखा है वो ये की इन देवीजी को अपनी ज़िंदगी में दोनों पुरुष चाहिये। मतलब शादी के बाद भी वो अपना प्रेम प्रसंग चालू रखना चाहती हैं।

इस पोस्ट पर कई लोगों ने टिप्पणी करी। कुछ ने ऐसे व्यवहार के लिये इंटरनेट और टेक्नोलॉजी को दोषी ठहराया। ज़्यादातर लोगों का यही मत था कि उन मोहतरमा को ऐसा नहीं करना चाहिये। कम से कम उस लड़के को जिसे उनके माता पिता ने चुना है उसे सब सच बता देना चाहिये। लगभग सबका यही मानना था कि इस पूरे प्रक्रण्ड का अंत दुखद ही होगा।

मेघना की पूरी पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

एक्स्ट्रामैरिटल अफेयर कोई नई बात नहीं है और निश्चित रूप से जो रास्ता इन मोहतरमा और उनके आशिक़ ने अपनाया है उस राह पर कई और भी चलें होंगें। मैं स्वयं ऐसे कई शादी शुदा लोगों को जनता हूँ जो इसमें लिप्त हैं और उनको इससे कोई ग्लानि नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिन लडकियों से उनके अफेयर चल रहे हैं उन्हें उनके शादीशुदा होने के बारे में नहीं मालूम। लेकिन फ़िर भी दोनों ही इस राह पर चलते हैं।

इरफान खान ने 2013 में एक इंटरव्यू में कहा था

I would respect a marriage where the man and woman have the freedom to sleep with anyone. There is no bondage.

बक़ौल इरफ़ान खान: मैं उस शादी की ज़्यादा इज़्ज़त करूंगा जहां पति और पत्नी को किसी के भी साथ सोने की आज़ादी हो। किसी तरह का कोई बंधन न हो।

इस इंटरव्यू को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

क्या वो मोहतरमा गलत हैं? शायद। लेकिन हमें ये लाइसेंस किसने दिया कि हम लोगों को मॉरल लेक्चर दें। लेकिन क्या हम उन्हें इसलिये ग़लत कहें कि वो जो भी करना चाहती हैं वो डंके की चोट पर करना चाहती हैं? क्या वो और उनके प्रेमी यही काम छुप छुप कर करते तो हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता?

ये सब बातें हम आज 2019 में कर रहे हैं। 1949 में पहली बार प्रकाशित चन्दर और बिनती की ये बातें इस बात की गवाह हैं कि इन 70 सालों में बदला कुछ नहीं है।

उसने कहा मुमकिन नहीं, मैंने कहा यूँ ही सही

आज से कुछ पाँच महीने पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी चिट्ठियों के बारे में। कैसे ये चिट्ठि पढ़ने का मज़ा कुछ सालों बाद दुगना हो जाता है। इस पोस्ट के बाद सभी उत्साहित। मेरी पुरानी टीम के कुछ सदस्यों के साथ पत्राचार के लिये पतों का आदान प्रदान भी किया। लेकिन इसके बाद न मैंने पत्र लिखने का कष्ट किया न किसी और ने। दोष घूम फिरकर समय पर ही आ जाता है। बिल्कुल ऐसा आज होने वाला था। सुबह से कुछ न कुछ काम चलते रहे और समय नहीं मिला। उसके बाद लिखने के काम को बस प्राथमिकता नहीं दी।

लेकिन कितना आसान होता है समय को दोष देना। जिस चौबीस घंटे को हम कम समझते हैं उन्हीं चौबीस घंटों में जिनकी प्रबल इच्छा होती है वो सारे काम भी कर लेते हैं और उसके बाद अपने आगे बढ़ने के प्रयास के तहत कुछ नया सीखते भी हैं और पढ़ते भी हैं। मैं और मेरे जैसे कई और बस समय ही नहीं निकाल पाते। सब काम टालते रहते हैं। फ़िर कभी कर लेंगे।

ऐसे ही मैंने करीब दो साल पहले गिटार लिया था अपने जन्मदिन पर। मुझे गिटार पता नहीं क्यूँ शुरू से बड़ा अच्छा लगता। जवानी में समय सीख लेता तो कुछ और किस्से सुनाने को रहते। ख़ैर। सीखने के बाद श्रीमती जी को अपनी बेसुरी आवाज़ से परेशान ही कर सकते हैं। जबसे आया है तबसे कुल जमा एक दर्ज़न बार उस गिटार ने कवर से बाहर दर्शन दिए होंगे। सोचा था क्लास लगायेंगे लेकिन क्या करें समय नहीं है। जब भी श्रीमती जी पूछती हैं कि क्या ये घर की शोभा ही बढ़ायेगा तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता। सोचता हूँ अच्छा हुआ किसी जिम की फ़ीस भरकर वहाँ जाना नहीं छोड़ा नहीं तो नसीरुद्दीन शाह के शब्दों में बहुत बड़ा गुनाह होता और इसका एहसास मुझे कई बार करवाया जाता।

जिस किसी दिन सुबह से सारे काम एक के बाद एक होते जायें उस दिन तो लगता है चलो कुछ और करते हैं। समय भी मिल जाता है लेकिन पत्र लिखने या गिटार सीखना अभी तक नहीं हो पाया है। शायद इस हफ़्ते उन दोनों मोर्चों पर काम शुरू हो जाये। पुनः पढ़ें। शायद। अगले हफ़्ते दो पत्रों का टारगेट रखा है। वो कौन खुशनसीब होंगे? उनके बारे में तभी जब उनका जवाब आयेगा।

आप अगर सोच रहें हो कि इस पोस्ट का टाइटल मैंने कहाँ से लिया है तो वो ये क़व्वाली। है। लिखा मज़रूह सुल्तानपुरी पूरी साहब ने है।

मैं भी राहुल गाँधी

वाशी के बीएसईएल टॉवर की 12वीं मंज़िल के हमारे ऑफिस को छोड़ हम नये ऑफिस में शिफ़्ट होने वाले थे। शिफ़्ट होने के पहले वाली रात कम्पनी के वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे फ़ोन किया और जानना चाहा कि विंबलडन के मैच जो उस समय चालू था, उसे कौन कवर कर रहा था। मैंने उन्हें बताया मोहतरमा का नाम। वो कवरेज से काफी नाराज़ थे क्योंकि अंग्रेज़ी ठीक नहीं थी कॉपी में। मैं उनके विचारों से सहमत था की बहुत ही ख़राब कॉपी थी। हम दोनों की इस पर बहस हुई और मैंने उन्हें अपना त्यागपत्र भेज दिया ये कहते हुये की आप और अच्छा संपादक ले आयें।

अगले दिन नये ऑफिस के उद्घाटन से पहले हम दोनों और साथ में एक और सीनियर ने ठंडे दिमाग से इस मुद्दे पर फ़िर बात करी। उन्होंने मुझे काफी समझाया कि त्यागपत्र देना सबसे आसान काम है। चीजों को बेहतर सिस्टम में रहकर किया जा सकता है बाहर रहकर नहीं।

लोकसभा चुनाव के परिणाम से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी काफ़ी आहत हैं। उन्हें इस तरह के नतीजों की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। उन्हें लगा था कि लोग मोदी का नहीं उनका साथ देंगे। लेकिन लोगों के फैसले से काफ़ी दुखी राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ने का मन बना लिया है। कांग्रेसी नेताओं का एक बड़ा तबका चाहता है को वो ऐसा न करें लेकिन राहुल ने न सिर्फ अपना पद छोड़ने का बल्कि अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को भी इससे दूर रखने का एलान कर दिया है।

राहुल का दर्द समझ आता है। उन्होंने सचमुच काफी मेहनत करी लेकिन परिणाम ठीक नहीं मिले। जब आप एक टीम के लीडर बनते हैं तो कई चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। जैसे सचिन तेंदुलकर जब कप्तान बने तो उन्हें लगा की इससे उनके खेल पर फर्क पड़ रहा है। इसलिए उन्होंने कप्तानी छोड़ दी। वहीं आप धोनी को देख सकते हैं। कैप्टन कूल का ख़िताब उन्हें यूं ही नहीं मिला।

राहुल गांधी कांग्रेसी नेताओं से गुस्सा हैं टिकट वितरण को लेकर। उन्होंने तीन वरिष्ठ पार्टी सदस्यों पर इल्ज़ाम भी लगाया कि अपने बेटों के टिकट के लिये उन्होंने बहुत जोर दिया। ये सही हो सकता है। लेकिन अंतिम निर्णय तो राहुल का ही था। ऐसे में वो अपनी ज़िम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं। अगर यही उम्मीदवार जीत कर आते तो कोई बहस का मुद्दा ही नहीं बनता। ये बिल्कुल सच है और सही है कि आप उतने ही अच्छे हैं जितनी अच्छी आपकी टीम है। और बजाए ये की आप त्यागपत्र दें, क्यों न उस टीम को बदला जाये और उन सभी से त्यागपत्र मांगा जाये जिनकी कोशिशें अधूरी थीं।

हार से हताशा जायज़ है लेकिन ये हमारे प्रयास ही हैं जो इस हार को जीत में बदल सकते हैं। जो हो गया उसे बदला तो नहीं जा सकता सिर्फ सीख ली जा सकती है।

मैंने त्यागपत्र वापस लेकर काम जारी रखा और टीम ने उसके बाद नई ऊंचाइयों को छुआ। रणभूमि में रहकर संघर्ष काफी कुछ सीखा जाता है। उन मोहतरमा को अंग्रेज़ी भी न सीखा सका न उनसे पीछा छुड़ा सका। हाँ, आगे के लिये उनसे बहुत कुछ सीख ज़रूर मिल गयी। उस पर फ़िर कभी।

डांस फ्लोर को देखते रहने से अगर सब को नाचना आता तो आज मैं गोविंद जैसे मटक रहा होता। लेकिन अभी तो लगता है सनी देओल भी अच्छा डांस कर लेता है।

ज़िंदगी फ़िर भी यहाँ खूबसूरत है

ये परीक्षा परिणाम का मौसम है। ट्विटर, फेसबुक पर कुछ लोगों ने अपनी हाई स्कूल और हायर सेकंडरी की मार्कशीट शेयर कर छात्रों को ये बताने की कोशिश करी है कि नंबर अगर कम आयें तो निराश न हों। जिन्होंने ये शेयर किया है वो आज आईएएस हैं या किसी कंपनी में किसी बड़े ओहदे पर।

आजकल परीक्षा के परिणाम देखने की कई सहुलियत हैं। आप नेट पर देख सकते हैं नहीं तो sms कर भी परिणाम जान सकते हैं। जिस समय हमारे परिणाम आते थे उस समय ये सब सुविधा उपलब्ध नहीं थी। रिजल्ट चार बजे बोर्ड/यूनिवर्सिटी ऑफिस के बाहर चस्पा कर दिये जाते थे और आप भी भीड़ में शामिल हो ढूंढिये अपना रोल नम्बर। मेरा घर यूनिवर्सिटी के नज़दीक हुआ करता था तो रिजल्ट की अफवाहों के चलते साईकल दौड़ानी पड़ती थी और सही न होने पर एक रुपये के सिक्के वाले पीसीओ से फ़ोन कर समाचार देना होता था।

ग्रेजुएशन तक तो यही नियम रहता कि अख़बार में आ जाता फलां तारीख़ को रिजल्ट आयेगा। आप साईकल उठा कर पहुँच जाइये। आ गया तो ठीक नहीं तो वापस घर। चूँकि पिताजी स्कूल शिक्षा विभाग से जुड़े हुए हैं तो स्कूल के रिजल्ट की पक्की तारीख़ उन्हें पता रहती और शायद रिजल्ट भी। जहाँ हमारे कुछ जानने वाले अपना \’एड़ी-चोटी का जोड़\’ लगा देते के उनकी बच्चों के नंबर अच्छे आयें, पिताजी सब जानते हुये भी की कॉपी कहाँ जाँची जा रही हैं ऐसा कुछ नहीं करते।

ग्रेजुएशन के बाद पत्रकारिता में प्रवेश किया तो रिजल्ट की कॉपी मेरी टेबल पर होती। चूँकि शुरुआती दिनों में मेरी बीट शिक्षा हुआ करती थी तो सभी रिजल्ट मुझे ही देखने को मिलते। जब जानने वालों को ये पता चला तो कुछ लोगों ने पूछना शुरू कर दिया। लेकिन पूछने का तरीक़ा थोड़ा अलग। अपना रोल नम्बर देने के बजाय या तो 1-4 का रिजल्ट पूछते या 1,4,8,5 इन चार रोल नंबर का परिणाम। अपना रोल नंबर नहीं बताते। आज माता-पिता बच्चों के इम्तिहान के परिणाम को अपनी इज़्ज़त से जोड़ लेते हैं। अगर व्हाट्सएप पर शेयर करें तो समझिये उनको इस पर गर्व है। अगर पूछने पर नहीं बतायें तो समझ लीजिये उन्हें शर्म आ रही है। लेकिन ऐसे भी कइयों को जानता हूँ जो जैसा है वैसा बताने में कोई।संकोच नहीं करते। अच्छा या बुरा।

आपको अगर आमिर ख़ान की 3 इडियट्स का सीन याद हो जब परीक्षा के रिजल्ट आते हैं और आर माधवन एवं शरमन जोशी क्लास के टॉपर का नाम देखकर सकते में हैं। बिल्कुल वैसा तो नहीं लेकिन लगभग वैसा हुआ जब पिताजी परिवार के तीन लोगों के फर्स्ट ईयर के परिणाम देखने गए। ये करीब 40-45 साल पुरानी बात है। घर लौटे तो दादी ने पूछा पहले का नाम लेकर तो पापा ने कहा नहीं है रोल नंबर, दूसरे का परिणाम पूछने पर भी यही उत्तर मिला। तीसरे का परिणाम पूछने तक पिताजी पलंग पर लेट चुके थे और सिर्फ हाथ उठा कर बता दिया कि उनका नंबर भी लिस्ट में नहीं था।

मेरे दसवीं के परिणाम से पिताजी बहुत दुखी थे। उन्हें लगा था मैं कुछ अच्छे नंबर से पास होऊंगा। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। और बंदे की मार्कशीट भी कमाल की। उसमें डिस्टिंक्शन के साथ ग्रेस नंबर भी। बारहवीं तक आते आते ये नंबर और ज़्यादा अच्छे तो नहीं हुये। लेकिन ग्रेजुएशन में सब ठीक चला और फाइनल ईयर में तो मैं कॉलेज का टॉपर रहा। बस उसके बाद पीजी वाला किस्सा तो मैं पहले ही बता चुका हूँ।

जब अपनी संतान हुई तो मैंने बहुत कोशिश करी की उसको भी इस असेंबली लाइन में न डालूँ। लेकिन मेरी नहीं चली। बच्चों को हर साल सेशन शुरू होने से पहले पूछता हूँ अगर वो न जाना चाहें और घर बैठकर कुछ सीखें। फ़िलहाल तो उन्हें स्कूल प्यारा लग रहा है।

कोशिश यही है कि नंबर पर ज़्यादा ज़ोर न हो। जो करें उसका आनंद लें। कुछ न कुछ हो ही जाता है। सेकंड डिवीजन और दो बार लगभग फेल होने से बचने वाले इस पोस्ट के लेखक को ही ले लीजिए।

भारत में बसे इस दूसरे भारत से क्या आपकी मुलाकात हुई है?

\’इस देश में दो भारत बसते हैं\’, ऐसा मैं नहीं कह रहा लेकिन अमिताभ बच्चन ने प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फ़िल्म आरक्षण में कहा था। हाल ही में सम्पन्न हुऐ आम चुनाव में ये बात बिल्कुल सही साबित हुई। चुनाव से पूर्व सब ये मान बैठे थे कि किसानों की समस्या, रोज़गार, महंगाई और ऐसे कई मुद्दों के चलते सरकार का वापस आना नामुमकिन था।

ऐसा मानने वाले कौन? मेरे और आप जैसे शहरों में रहने वाले। हम अपने सोशल मीडिया, मिलने जुलने वालों का जो कहना होता है वही मान लेते हैं और वही सच्चाई से परे बात को आगे भी फॉरवर्ड कर देते हैं। हम ज़मीनी सच्चाई से बिल्कुल अलग थलग हैं। अगर ये कहा जाए कि परिणामों से कइयों की पैरों तले ज़मीन खिसक गई तो कुछ ग़लत नहीं होगा।

मुम्बई में जहाँ में रहता हूँ वहाँ पिछले दो महीनों से पानी की समस्या शुरू हो गयी है। समस्या क्या? दिन में अब चौबीस घंटे पानी नहीं मिलेगा। अब से सिर्फ सुबह-शाम चार घंटे ही पानी आयेगा और सभी रहवासियों को इससे काम चलाना पड़ेगा। इस को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ। कुछ लोगों को सप्लाई के समय से दिक्कत थी तो कुछ इस बात को पचा नहीं पा रहे थे कि नल खोलने पर पानी नहीं मिलेगा। एक दो दिन में पता चला कि चार घंटे की सप्लाई बिल्डिंग के एक हिस्से में दो घंटे में समाप्त। पता चला कुछ लोग अपने फ्लैट में छोटे छोटे पानी स्टोर करने वाले टैंक में पानी भरकर रख लेते। बाकी किसी को मिले न मिले इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं। उन्हें सख्त हिदायत दी गयी कि ऐसे टैंक ज़ब्त कर लिये जायेंगे तब कुछ मामला ठीक हुआ। ये सब पढ़े लिखे महानुभाव हैं जो अच्छी जगह नौकरी कर रहे हैं।

बाहर की दूसरी सोसाइटी भी कुछ कम नहीं। पानी का सप्लाई कम होने के बाद उन लोगों ने बूस्टर पंप लगा लिये। हमारे पास तो पानी होना चाहिये आस पास वालों की वो जाने। ये तब की पानी रोज़ाना आ रहा है बस उसकी मात्रा थोड़ी कम है। लेकिन महाराष्ट्र के कई इलाकों में तो पानी हफ़्ते में एक बार और वो भी सिर्फ आधे घंटे के लिये। मतलब महीने में कुल दो घंटे पानी की सप्लाई। लेकिन हम शहरों में रहने वाले लोग अपनी समस्याओं से ज़्यादा नहीं सोचते हैं। शायद इसी वजह से हमें बहुत सी सच्चाई दिखाई नहीं देती।

आपने अगर वो सुनयना वाला कार्यक्रम नहीं देखा हो तो ज़रूर देखें। वो हम सबके गाल पर एक तमाचे की तरह है। हम बड़ी बड़ी बातें ही करते रह जाते हैं और ये बालिका इतनी कठिनाई के बाद भी डॉक्टर बनने की चाह रखती है। और वो बन भी जायेगी बिना किसी अच्छी कोचिंग के या ताम झाम वाली पढ़ाई के। इसी एपिसोड में छिपी है सरकार की जीत की कहानी।

अगर आप परीक्षा परिणाम पर नज़र रखते हों तो कौन है जो इसमें अव्वल आ रहे हैं? वो छात्र जो आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवारों से नहीं आते। हम अपने बच्चों पर लाखों रुपये खर्च देते हैं की वो कुछ बन जायें लेकिन ये सामान्य सी परिस्थितियों से आने वाले उनको पछाड़ देते हैं।

अगर सूरत के केतन जोरावड़िया भी उस दिन जब वो बिल्डिंग में लगी आग के वीडियो बनाने में लग जाते तो? लेकिन उन्होंने बच्चों की जान बचाने को ज़्यादा महत्व दिया। हम शहरों में रहने वालों को लगता है इतना इनकम टैक्स, रोड टैक्स, प्रॉपर्टी टैक्स दिया है तो सुविधाओं पर हमारा हक़ है। जब हमारा पेट भरने वाले किसान अपने हक़ ही बात करते हैं तो हम चैनल क्यों बदल देते हैं?

घर के खाने के स्वाद का है कोई मुकाबला

पिछले दिनों श्रीमती जी प्रवास पर थीं तो खानेपीने इंतज़ाम स्वयं को करना था। कुछ दिनों का इंतजाम तो वो करके गईं थीं तो कोई परेशानी नहीं हुई लेकिन जब वो जब खत्म हो गया तो दो ही विकल्प बचते – या तो स्वयं कुछ करें या बाहर से ले आयें।

आज से क़रीब दस वर्ष पहले या कुछ और पहले घर पर अकेले रहने का मतलब होता था आप को खाना बनाना है। बाहर खाने का मतलब जेब पर बड़ी मार और फ़िर उस समय बाहर खाने का इतना चलन भी नहीं था। मुझे याद है जन्मदिन हो या कोई और त्यौहार, सारा खाना घर पर ही बनता। दोस्तों के साथ भी बाहर खाना कॉलेज के दौरान शुरू हुआ। जय कृष्णन के साथ कभी न्यू मार्केट जाना होता तो पाँच रुपये के छोले भटूरे की दावत होती। परिवार के साथ इंडियन कॉफ़ी हाऊस ही जाते क्योंकि सभी को दक्षिण भारतीय व्यंजन पसंद थे। लेकिन ये ख़ास मौके हुआ करते थे। साल में ऐसे मौके इतने कम की एक उंगली भी पूरी न हो।

इन दिनों बाहर खाना एक आदत बन गया है। सोमवार से शुक्रवार किसी तरह घर की रसोई चलती है लेकिन सप्ताहांत आते आते सब बस बाहर के खाने का इंतज़ार करते। मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जहाँ बड़े गर्व से ये सबसे कहते फ़िरते हैं कि शनिवार-रविवार को तो हम बाहर ही खाते हैं।

लेकिन जब पिछले दिनों मुझे ये मौका मिला तो समझ ही नही आये की क्या खाया जाए। मासांहारी लोगों के लिये कई सारे विकल्प लेकिन शाकाहारी व्यक्ति के लिये कुछ अच्छे खाने की शुरुआत पनीर से शुरू और खत्म होती है। और फ़िर ये मसाला जो लगभग एक जैसा ही होता है। हर बार मैं अपना समय ऑनलाइन कुछ खाने के लिये ढूंढता और फ़िर आख़िर में दाल खिचड़ी ही बचती आर्डर करने के लिये। ऐसा ही कुछ जब बाहर खाने जाते हैं तब भी होने लगा है।

रसोई में घुसना और कुछ पकाने का आनंद ही कुछ और होता है। मुझे याद है जब मैं पिछले साल दिल्ली में था तो टीम के पुरुष सदस्य घर से कुछ बना कर लाते। रोज़ रोज़ बाहर का खाना खाते हुये बोर हो चुकी ज़बान को आदित्य, रामदीप के बनाये हुए खाने का बड़ा स्वाद आता। भोपाल में तो और ही सुख – रिश्तेदारों या अड़ोसी पड़ोसी के यहाँ से या तो खाना आ जाता या न्यौता। मुंबई के अपने अलग ढ़ंग हैं तो इस पर कोई टिप्पणी नहीं।

बच्चों को भी बाहर का खाना जैसे पिज़्ज़ा, बर्गर सब पसंद हैं लेकिन पिछले दिनों हम लोग एक होटल में रुके थे। नाश्ते में पोहा था और बेटे ने खाने से मना कर दिया। कारण? मम्मी जो पोहा बनाती हैं उसमें ज़्यादा स्वाद होता है।

अब जब श्रीमती जी वापस आ गयीं हैं तो पूछती रहती हैं मेरी कुछ खाने की फरमाइश और मेरा सिर्फ एक जवाब – घर का बना कुछ भी चलेगा। सादी खिचड़ी, आलू का सरसों वाला भर्ता और पापड़ भी। आख़िर घर का खाना घर का खाना होता है। स्वाद बदलने के लिये बाहर खाया जा सकता है लेकिन घर के खाने जैसी बात कहाँ।

आप कितना बाहर खाने का मज़ा लेते हैं? क्या आपको भी शाकाहारी के विकल्प कम लगते हैं? कमेंट करें और बतायें।

अच्छा है संभल जायें…

चुनाव की इस गहमा गहमी के बीच आज मजरूह सुल्तानपुरी साहब की याद आ गई। आज ही के दिन वो अपने लिखे गीत, गज़ल और नज़्मों का खज़ाना हम को सौंप कर अलविदा कह गये। दरअसल लिखने वाला तो कुछ और था लेकिन सोचा आज गुमनाम लोगों के बारे में लिखा जाये। वो जिनको हम गुनगुनाते तो रहते हैं लेकिन उन बोल के पीछे छिपे वो गीतकार को भूल जाते हैं।

हम लोग अगर औसतन अपनी आयु 70 वर्ष की मान लें तो इस दौरान हम कुछ एकाध ऐसा काम करते हैं जिनके लिये हम या तो मिसाल बन जाते हैं या सबके प्रिय पंचिंग बैग। हम आम लोगों के लिये वो क्या काम है जिससे हमें याद रखा जायेगा वो हमारे परिवार और कुछ ख़ास आसपास वाले जानते हैं। शायद आपके कुछ सहकर्मी भी।

कुशल नेतृत्व आपके जीवन की राह बदल सकता है

कलाकारों के जीवन में ऐसा होता है जो उनके जीवनकाल की पहचान बन जाती है। जैसे यश चोपड़ा साहब की दीवार, सलीम-जावेद के लिये शोले, दीवार, शाहरुख खान के लिये डर, सलमान खान के लिये शायद दबंग या मैंने प्यार किया। ये सब मेरे अनुसार हैं। आप शायद इन्हीं शख्सियतों को उनके किसी और काम से याद रखते हों। जैसे 1983 में भारत की जीत। सब कहते हैं उसके सामने जो जीत भारत ने बाद में हासिल करी उसका कोई मुकाबला नहीं है।

बहरहाल, फ़िलहाल रुख वापस मज़रूह सुल्तानपुरी साहब की तरफ़। उनके लिखे कई गाने एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे गये नये परिवेश में ही सही। लेकिन उनका लिखा ये शेर

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग जुड़ते गये कारवाँ बढ़ता गया।

ये कुछ ऐसा लिखा गया है जो आज भी लोग बोलते रहते हैं। अगर आपने शाहरुख खान की ज़ीरो देखी हो तो उसमें भी जावेद जाफरी सलमान खान की एंट्री के समय यही शेर कहते हैं। अगर आपने नई कारवां देखी हो तो इरफ़ान खान की नीली रंग की गाड़ी पर भी यही शेर लिखा हुआ है। इसके पीछे छिपा संदेश दरअसल बहुत महत्वपूर्ण है। ये सच भी है। आपके जीवन की बहुत सारी यात्रायें अकेले ही शुरू होती हैं और लोग उससे जुड़ते जाते हैं।

काली कार की ढेर सारी रंगबिरंगी यादें

मेरा और मज़रूह साहब का रिश्ता क्या आमिर ख़ान-जूही चावला की क़यामत से क़यामत तक के कारण और मजबूत हुआ? शायद। लेकिन उसके पहले मैं उनके लिखे यादों की बारात के गानों को बहुत पसंद करता था। उनका लिखा आजा पिया तोहे प्यार दूँ मेरा सबसे प्रिय है। गाने के बोल सुख मेरा ले ले, मैं दुख तेरे ले लूँ, मैं भी जियूँ, तू भी जिये…

संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अभिन्न हिस्सा है और ये फिल्मों की ही देन है। लेकिन आज के हुक उप, ब्रेक अप और ख़लीफ़ा सुन के जब मज़रूह साहब का लिखा क्या मौसम है सुनने को मिलता है तो एक सुकून सा मिलता है।

और चुनाव का मौसम है, तो जो आगे की तैयारी कर रहे हैं उनके लिये मज़रूह साहब कह गए हैं (वैसे जो सरकार बना रहे हैं ये उनके लिये भी उतना ही सही है)

खोये से हम,
खोई सी मंज़िल,
अच्छा है संभल जायें,
चल कहीं दूर निकल जायें।

आप कहीं मत जाइए। यहीं मिलेंगें। जल्दी।

क्या आप के पास है काम करवाने की कला?

रविवार के दिन जब बाकी घरों में अमूमन थोड़ा आराम से कामकाज होता है, सुबह से घर में अजीब सी हलचल थी। श्रीमती जी फ़ोन पर किसी से बड़ी देर तक बात कर रहीं थीं। वैसे तो उनके सारे काम व्हाट्सएप पर संदेश के आदान प्रदान के साथ हो जाते हैं लेकिन आज मामला कुछ और था। पहले तो लगा फ़िर से तारीख़ों का घपला हुआ है और मैं कुछ भूल गया हूँ।

ख़ैर ख़बर निकलवाने के लिये ज़्यादा पापड़ नहीं बेलने पड़े। अब श्रीमतीजी हैं कोई सरकारी मुलाज़िम थोड़े ही जो ख़बर के लिये खर्चा पानी देना पड़े। यहां तो उल्टा ही होता है। आप चाय की अर्ज़ी के साथ बोल दीजिये क्या हुआ तो गरम चाय पक्की और जब कहानी चालू रहे तो थोड़ी हूँ हाँ करते रहिये।

श्रीमतीजी की परेशानी काम वाली की अचानक छुट्टी थी। एक दिन पहले तबियत ठीक न होने का ज़रूर बोला था लेकिन छुट्टी की कोई पूर्व घोषणा नहीं थी। जिनसे इनका वार्तालाप हो रहा था वो भी इस बात सेकाफी परेशान थीं। इससे मुझे ऑफिस के अपने टीम के कई सदस्य याद आये। वो भी कुछ ऐसा ही करते थे। जब पूछो की कहाँ गायब थे तो जवाब मिलता आपको बताया तो था तबियत ठीक नहीं है। मतलब आप समझ लें अगर आपको बताया है तो। वैसे बाद में बातों बातों में तबियत ठीक नहीं होने वाले सदस्य बाकी लोगों को गोआ की यात्रा संस्मरण सुनाते हुये मिले।

श्रीमतीजी आहत थीं कि अब जब फ़ोन काल फ्री है तब भी उनको बताया क्यों नहीं गया। जिस तरह से कामवाली का इंतज़ार होता है उसे देख अपनी क़िस्मत पर बड़ा दुख होता है। और जिस प्यार से बात होती है वो सुनने के बाद आपको मैनेजमेंट का बड़ा पाठ सीखने को मिलता है। काम निकलवाना एक कला है। ये सबके बस की बात नहीं है।

इस पोस्ट को लिखने में चाय का बड़ा योगदान रहा। हर महीने की शुरुआत में एक प्रण लिया जाता है कि नियमित लिखा जायेगा लेकिन किसी न किसी कारण से छूट जाता है। इस महीने फ़िर से वही प्रण और उसके अंतर्गत ये पोस्ट। मेरा नियमित होने का प्रयास चलेगा। आप कमेंट कर हौसला अफजाई करें।

वो हमसफ़र था – एक ग़ज़ल जो बयां करती है दिल और देशप्रेम की दास्ताँ

बहुत से गीत, ग़ज़ल और उससे जुड़ी कहानी सुनने, पढ़ने में बड़ा मजा आता है। मसलन वीर-ज़रा के गीत जो मदन मोहन जी की लाइब्रेरी से लिये जो करीब पच्चीस साल पुराने हैं। 1942-A Love Story का गाना एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा महज पांच मिनिट में तैयार हो गया था। गुलज़ार और आर डी बर्मन के गाने बनाने वाले किस्से भी कम नहीं हैं। लेकिन आज जिस ग़ज़ल के बारे में मैं बात कर रहा हूँ वो मैंने सबसे पहले सुनी 2016 में।

उस समय ज़ी टीवी के एक चैनल पर पाकिस्तानी सीरियल दिखाये जाना शुरू हुए थे और हमसफ़र शीर्षक वाला ये सीरियल मुझे बेहद पसंद आया। फवाद खान और माहिरा का ये सीरियल क्यों पसंद आया कि लिस्ट में एक कारण था उसका शीर्षक गीत – वो हमसफर था। ग़ज़ल के अल्फ़ाज़ कमाल के थे और गायकी भी। कुरैतुलैन बलोच ने इस ग़ज़ल से काफी नाम कमाया था।

\"Humsafar\"

जब आप ये ग़ज़ल सुनते हैं तो सीरियल के क़िरदार अशर और ख़िरद और उनकी ज़िंदगी के उतार चढ़ाव ही ध्यान में आते हैं। ग़ज़ल के बोल भी किरदारों का हाल-ए-दिल बयान करता सा लगता है। मसलन:

अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

इसको पढ़कर लगता है जैसे शायर नसीर तुराबी साहब ने क्या बखूबी बयाँ किया है किरदारों के दिल की हालत। सीरियल में दोनों क़िरदार किसी कारण से अलग हो जाते हैं और ये शेर उसको बखूबी बयान करता है।

हम ऐसे कितने ही गीत, ग़ज़ल सुनते हैं और लगता है उस सिचुएशन को वो शब्द बिल्कुल सही बयाँ करते हैं। लेकिन बाद में पता चलता की उन शब्दों की कहानी ही कुछ और है।

कुछ ऐसा ही हुआ इस सीरियल की ग़ज़ल के साथ। जब सीरियल देखा तो लगा ग़ज़ल के बोल इसके लिए ही लिखे गए थे। लेकिन पिछले दिनों ऐसी ही ये ग़ज़ल YouTube पर सुन रहा था तो पढ़ा की कहानी कुछ और ही है। दरअसल नसीर तुराबी साहब ने ये ग़ज़ल लिखी थी 1971 में और ये किसी प्यार में टूटे दिल के लिये नहीं बल्कि एक अलग हुए देश के लिये लिखी गयी थी। 1971 में पाकिस्तान से अलग होकर बना था बांग्लादेश और शायर ने इससे दुखी हो कर ये ग़ज़ल लिखी थी। जिस हमसफ़र की वो बात कर रहे हैं वो असल में बांग्लादेश है।

इस विडियो में खुद नसीर तुराबी सुना रहे हैं अपनी ग़ज़ल:

https://youtu.be/UqNjcjaXaYE 

कितनी क़माल की बात है कि जो शब्द कुछ देर पहले तक दो किरदारों की ज़िंदगी से जुड़े लगते थे वो दरअसल एक देश के लिए लिखे गये थे। इसे शब्दों की जादूगरी ही कहेंगे कि देश और दिल के हालात एक ही शेर बयाँ कर देते हैं। सलाम है नसीर तुराबी साहब को उनके इस कलाम के लिये।

वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी 

अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल
शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी

मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था
शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता-पाई न थी

अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी

किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन
सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी

कभी ये हाल कि दोनों में यक-दिली थी बहुत
कभी ये मरहला जैसे कि आश्नाई न थी

अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख \’नसीर\’
वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी

ये सीरियल के लिये रिकॉर्ड हुई ग़ज़ल का विडियो:

हर मायने में राम मिलाय जोड़ी

कॉलेज के दिन थे और भविष्य की बातों में एक रात सलिल, विजय और मैं उलझे थे। बात धीरे धीरे गंभीर से हल्की हो रही थी। हम तीनों इस बारे में अपने विचार कर रहे थे की हमारा भावी जीवनसाथी कैसा हो। उन दिनों हम तीनों में से किसी एक का दिल कहीं उलझा हुआ था। किसका ये मैं नहीं बताऊंगा क्योंकि बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जाएगी।

हम सभी ने अपनी अपनी पसंद बताई। कैसा जीवन साथी चाहते हैं, उनमें क्या खूबियाँ हों आदि आदि। मैं हमेशा से शादी अरंजे ही चाहता था। ठीक ठीक याद नहीं बाकी दोनों क्या चाहते थे लेकिन शायद लव मैरिज के पक्षधर थे। ये कॉलेज के दिनों की बात हो रही है और हम तीनों को नहीं पता था कि भविष्य में क्या होने वाला है।

जब मैं पहले दिल्ली और फ़िर मुम्बई आया तो परिवार में तो नहीं लेकिन रिश्तेदारों ने ये मान लिया थे कि लड़का तो हाँथ से गया। दिल्ली में अपनी मित्र वाली घटना के बारे में तो बता ही चुका हूँ। लेकिन इससे ज़्यादा कुछ हुआ नहीं या कहें होने नहीं दिया। इस बारे में ज़्यादा नहीं। दिल्ली जाने से भोपाल में मेरी नादानियों का ज़िक्र भी किया जा चुका है। माता-पिता ने सिर्फ ये हिदायत ही दी थी कि अगर तुम्हें कोई पसंद हो तो बाहर से पता चले उसके पेजले हमको बताना। जब कभी मेरी कोई महिला सहकर्मी को मिलवाता तो क्या माजरा होता होगा आप सोच सकते हैं।

मेरी लिस्ट कोई बहुत लंबी नहीं थी लेकिन अपने जीवनसाथी से सिर्फ दो एक चीजों की अपेक्षा थी। पढ़ी लिखी तो हों ही इसके साथ बाहर के कामकाज के लिये मुझ पर निर्भर कम से कम रहें। मुम्बई में इसकी ज़रूरत बहुत ज़्यादा महसूस हुई इसलिए इसको मैंने सबसे ऊपर रखा। लेकिन इसके चलते रिश्तेदारों के साथ बड़ी मुश्किल भी हो गयी जिसका असर अभी तक बरक़रार है।

जब बहुत सारी लड़कियों से मिलकर अपनी होने वाली पत्नी से मिला तो शायद पहली बार मैंने किसी के पक्ष में कुछ बात करी थी। माता पिता ने इसे पॉजिटिव माना और फ़टाफ़ट आगे बढ़कर बात पक्की कर दी। हमारी जोड़ी को मैं सही में राम मिलाय जोड़ी कहता हूँ क्योंकि श्रीमतीजी के पिता के पास भी कुछ और विवाह प्रस्ताव थे। लेकिन मेरे स्वर्गीय ससुर साहब ने अन्य प्रस्तावों को मना कर दिया और मुझे चुना। पत्नी जी ने भी अपने पिता, जिन्हें घर में राम बुलाते हैं, के निर्णय से सहमति जताई। तो ऐसे हुई हमारी राम मिलाय जोड़ी।

गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!

1979 में आयी हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म एक बेरोज़गार युवक के बारे है जो नौकरी पाने और फ़िर उसी नौकरी को बचाने के लिये एक के बाद एक झूठ बोलता है।

फ़िल्म में अमोल पालेकर ने राम प्रसाद का किरदार निभाया था। उनके बॉस भवानी शंकर के रूप में उत्पल दत्त थे और उनकी बेटी बनी बिंदिया गोस्वामी। राम प्रसाद नौकरी के लिये पूरे हिंदुस्तानी बन सिर्फ कुर्ता-पाजामा ही पहनते हैं। सिर में ढेर सारा तेल और मूछें रखते हैं। उन्हें खेल में कोई दिलचस्पी नहीं है और वो बहुत ही धार्मिक बनते हैं। ये सब वो सिर्फ और सिर्फ एक नौकरी के लिये करते हैं।

झूठ बोल कर मैच देखने पर पकड़े जाते हैं और फ़िर जन्म होता है उनके छोटे भाई लक्ष्मण प्रसाद का जिसे बिंदिया गोस्वामी अपना दिल दे बैठती हैं। ऐसे ही और झूठ बोलते हुये अमोल पालेकर और उनकी बहन अपनी दिवंगत माता को भी जीवित कर देते हैं दीना पाठक के रूप में। ये सब एक नौकरी बचाने के लिये होता है औऱ इसमें अमोल पालेकर की बहन, दोस्त परिवार के बड़े सब शामिल होते हैं।

आप में से अधिकांश लोगों ने ये फ़िल्म देखी होगी। रोहित शेट्टी ने इसी शीर्षक से चार फिल्में बना डाली हैं लेकिन उनका पहली आयी फ़िल्म से कोई रिश्ता नहीं है। सभी फिल्में कॉमेडी हैं और

कल से अमोल पालेकर का एक वीडियो चल रहा है जिसमें एक समारोह में उन्हें मंत्रालय के खिलाफ बोलने पर टोकने को लेकर बवाल मचा हुआ है। वीडियो में पालेकर मंत्रालय के कुछ निर्णय के ख़िलाफ़ बोलना शुरू करते हैं और उनसे कहा जाता है कि आप विषय से भटक रहे हैं और आप जिस कलाकार की प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आये हैं उस बारे में बोलें। पालेकर जी ने पूछा कि क्या उन्हें बोलने की स्वतंत्रता नहीं है? इस पर उन्हें फ़िर से बताया आप बोल सकते हैं लेकिन इस मंच पर आप अपने विचार सिर्फ़ उसी विषय तक सीमित रखें जिसका ये आयोजन है।

बस। तबसे सब ने इसे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन अर्थात विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर एक वार बताया है। इसके पक्ष और विपक्ष में सब कूद पड़े। बाद में पालेकर जी ने बताया कि उन्हें विभाग के कुछ निर्णय से ऐतराज़ था जिसे उन्होंने उस मंच से उठाना चाहा।

1970-80 के दशक में अमोल पालेकर ने गोलमाल, चितचोर, बातों बातों में, रंगबिरंगी, छोटी सी बात, रजनीगंधा, दामाद आदि जैसी कई फिल्में करीं जो दर्शकों को काफ़ी पसंद आई। उसके बाद बतौर निर्देशक भी उन्होंने काफी सारी फिल्में बनायीं।

मेरी पालेकर जी से कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं है पर मुझे लगता है उस मंच का उपयोग उन्हें मंत्रालय से संबंधित अपनी शिकायतों के लिये नहीं करना चाहिए था। जिन बातों का ज़िक्र वो कर रहे हैं वो नवंबर की हैं। अगर वाकई उन्हें इस विषय पर कोई शिकायत थी तो उन्हें इतना समय क्यों लगा। वो इस विषय पर पत्रकार वार्ता भी कर सकते थे। अगर आपने दीपिका पादुकोण और रनवीर सिंह की शादी के मुम्बई रिसेप्शन का वीडियो देखा हो तो उसमें मुकेश अम्बानी के आने पर एक फोटोग्राफर ने चिल्ला कर कहा सर यहाँ नेटवर्क नहीं आ रहा।

अमोल पालेकर का मंच का उपयोग उस फोटोग्राफर के जैसे लगा। मैं उनके सारे विषय से सहमत हूँ लेकिन मंच की और कार्यक्रम की मर्यादा रखना उनका धर्म है। अगर शाहरुख खान उनकी फिल्म पहेली में रानी मुखर्जी के साथ फ़िल्म चलते चलते के गाने तौबा तुम्हारे ये इशारे पर थिरकने लगते तो क्या अमोल पालेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इसे चलने देते?

मौके पर मौजूद मंत्रालय के अधिकारी भी राम प्रसाद की तरह अपनी नौकरी ही बचा रहे थे। हाँ उसके जैसे झूठ नहीं बोल रहे थे।

जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा…

कल जगजीत सिंह के जन्मदिन पर लिखने का विचार आया, जैसा किसी न किसी के बारे में रोज़ आता है, लेकिन उनके गीत, ग़ज़ल सुनने में इतना खो गये की विचार ही त्याग दिया।

आप सभी ने जगजीत सिंह को सुना तो होगा ही। मेरा उनसे मिलना बिल्कुल सही समय पर हुआ – मतलब जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था। बहुत से उनके शेर समझ में नहीं आते थे लेकिन उनकी आवाज़ ने दिल में जगह बना ली थी। कॉलेज पहुँचते पहुँचते इश्क़-मुश्क का किताबी ज्ञान हो गया था तो जगजीत सिंह साहब की आवाज़ में दिल की दास्ताँ कुछ और भाने लगी।

भोपाल में उनके काफी सारे प्रोग्राम होते लेकिन मेरा कभी जाना नहीं हुआ। उनको एक बार देखा था चित्रा सिंह जी के साथ मुम्बई में जब हम दोनों एक ही होटल में दो अलग अलग कार्यक्रम के लिये गए थे। उस समय सेलफोन तो हुआ नहीं करते थे (मतलब अपने पहुँच के बाहर थे) तो सेल्फी का सवाल नहीं था। बस उनका वो मुस्कुराता हुआ चेहरा याद है।

जगजीत सिंह साहब को इसलिये और ज़्यादा चाहता हूँ क्योंकि उनके ज़रिये मेरी मुलाक़ात हुई ग़ालिब से। नाम सुना था लेकिन कलाम नहीं। गुलज़ार के मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल देखिये तो लगता है जैसे जगजीत सिंह की आवाज़ बनी ही थी ग़ालिब सुनाने के लिए।

ज़िंदगी के अलग अलग मुकाम पर जगजीत सिंह जी ने बहुत साथ दिया है। उस समय बाकी भी कई सारे ग़ज़ल गायक थे लेकिन जगजीत सिंह ग़ज़ल के मामले में पहला प्यार की तरह रहे। उन दिनों एक और सीरियल आया था सैलाब जिसमें भी जगजीत सिंह की गायी हुई ग़ज़ल थी – अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं।

ये ग़ज़ल सीरियल में किरदारों की ज़िंदगी में चल रहे कशमकश को बयां करती। सचिन खेड़ेकर और रेणुका शहाणे मुख्य भूमिका में थे और सीरियल शायद 30-35 एपिसोड में ख़त्म हो गया था। उस पूरे सीरियल को जगजीत सिंह साहब की इस एक ग़ज़ल ने बाँध रखा था।

वैसे तो मुझे उनकी सभी ग़ज़लें पसंद हैं लेकिन प्यार का मौसम है तो फ़िलहाल के लिये जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा।

वाशी में एक होटल है \’चिनाब\’ जो सिर्फ और सिर्फ जगजीत सिंह साहब की ग़ज़लें ही सुनाता है। मतलब पूरा माहौल रहता है। मौका मिले तो रात में तब्दील होती शाम के साथ खाट पर आराम से पसरे हुए लुत्फ़ उठायें जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ का।

सालगिरह मुबारक ग़ज़ल सम्राट।

देश प्रेम और गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस की मेगा सेल

पिछले कुछ सालों से 26 जनवरी और 15 अगस्त हमारे राष्ट्रीय पर्व के साथ साथ खरीदारी करने के बड़े दिन बन गये हैं। चूँकि ग्राहक को छूट बड़ी लुभाती है, पिछले लगभग दस सालों से इन दो दिनों के आगे पीछे महा सेल का ही इंतज़ार रहता है- न कि उन दो दिनों का जो किसी भी राष्ट्र के लिये बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।

सही मायनों में अमेज़ॉन और फिल्पकार्ट के आने के बाद से इन दिनों की महत्ता और बढ़ गयी है। अगर आप शॉपिंग मॉल की भीड़भाड़ से बचना चाहते हैं तो अपना देश प्रेम आप इस ऑनलाइन सेल के ज़रिये दिखा सकते हैं। अब तो हालत ये है कि बच्चे भी ये जान गये हैं कि दीवाली के अलावा इन दो दिनों में भी जमकर डिस्काउंट मिलता है तो वो भी इसका इंतज़ार करते हैं। हमारे गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस की इससे अच्छी मार्केटिंग क्या हो सकती है।

लेकिन ये भी अच्छा है। कम से कम इन दो दिनों को ही सही हम अपना देश प्रेम तो दिखाते हैं। हाँ ये बात जरूर है कि इससे इस सेल से जुड़े लोगों की अच्छी खासी कमाई हो जाती है। लेकिन देश के नाम पर सब चलता है।

वो लोग भी जो किसी राज्य के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री बताते हैं या जिन्हें हमारे उत्तर पूर्वी राज्यों की राजधानियों के बारे में नहीं पता हो, उन्हें इन सेल के बारे में सब कुछ पता होता है।

अगर गलती से आप कहीं मॉल चले जायें, जैसा कि इस बार मैंने किया, तो आपको बदहवास से लोग घूमते दिखेंगे। जो सेल के पहले दिन चले गये वो एक्सपर्ट बन जाते हैं और अपने जानपहचान वालों को बताते हैं कहाँ क्या अच्छा है। जो देश से बहुत ज़्यादा प्यार करते हैं वो ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों जगहों की तुलनात्मक स्टडी भी कर देते हैं और ट्विटर पर आपको इसका ज्ञान भी मिल जाता है।

इस पूरे प्रकरण में सबसे ज़्यादा परेशान, दुखी, मायूस होते हैं पति। नहीं सेल से उन्हें तो वैसे कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि उनका पैसा ऐसे या वैसे तो निकलेगा ही। लेकिन सामान चुनने और बिलिंग काउन्टर पहुंचने के बीच उनकी मानों आधी ज़िंदगी निकल जाती है। उसपर ट्रायल रूम का नाटक। कई बार मैं और मेरे जैसे कई पति अपनी पत्नी छोड़ दूसरों की बीवियों को निहारते रहते हैं। इसको अन्यथा न लें। जब आप बाहर खड़े हों और इंतजार कर रहे हों तो ये एक मजबूरी होती है। हाँ फिल्मों के जैसे आप इस पर अपनी कोई राय नहीं दे सकते क्योंकि उसके बाद जो होगा उससे आपकी शॉपिंग अधुरी रह जायेगी।

मोबाइल फ़ोन और व्हाट्सएप का इससे अच्छा इस्तेमाल मैंने नहीं देखा। दुकानें अलग अलग फ्लोर पर हैं? ड्रेस पहन कर देखी जाती है और फ़ोटो व्हाट्सएप कर दी जाती है। आप उसे देख टिप्पणी कर सकते हैं। अगर आपकी पत्नी या गर्लफ्रैंड ज़्यादा समय लेती हैं तो आप कहीं सुस्तालें। आपको फ़ोन करके बुला लिया जायेगा।

कल जब मैं ये नज़ारा देख रहा था तो देश प्रेम के दो नज़ारे दिख रहे थे। एक जो 26 जनवरी की सुबह राजपथ पर देखा था और दूसरा जिसका मैं भी एक हिस्सा था। भारत हमको जान से प्यारा है…

2019 के अनुभव अविस्मरणीय हों…

ये नये शब्द का जादू ही कुछ और होता है। इसका अगर आपको सबसे अच्छा उदाहरण देखना हो तो किसी छोटे बच्चे को देखें। जब वो बड़ा हो रहा होता है तो उसके लिये हर चीज़ नई। और जब वो चलना सीख रहा होता है तो उसका उत्साह देखते ही बनता है। दो पैरों पर पहले धीरे धीरे चलना, फ़िर दौड़ना, गिरते रहना लेकिन फ़िर उठना और फ़िर से चलना और दौड़ना।

कल रात घड़ी ने 11.59 के बाद जब 12.00 का समय दिखाया तो हम सिर्फ एक नये दिन, एक नये महीने में ही नहीं बल्कि एक पूरे नये वर्ष में भी प्रवेश कर गये। कहने को तो सिर्फ एक दिन ही बदलता है लेकिन ये \’नया\’ शब्द हम सब में एक नई उम्मीद, एक नई आशा जगा देता है।

इस वर्ष आपके अनुभव जैसे भी हों, अविस्मरणीय हों और हम सब थोड़े ही सही लेकिन एक बेहतर इंसान बनें, ऐसी शुभकामनाएं आप सभी के लिये।

समस्या है तो समाधान भी होगा

सुबह से श्रीमती जी थोड़ी सी विचलित सी दिखीं। मैंने अपने दिमाग़ में सुबह का पूरा सीक्वेंस दोहराया कि कहीं इसमें मेरा कोई योगदान तो नहीं है। मैंने उनके कार्यक्षेत्र (रसोईघर) में किसी तरह का कोई उल्टा पुल्टा काम भी नहीं किया था। चाय के बारे में भी सब कुछ अच्छा ही बोला था मतलब अच्छी चाय के बारे में अच्छा ही बोला जायेगा और वही ग़ुलाम ने किया था।

मैं निश्चिंत था आज न किसी का जन्मदिन है जिसे मैं भूल गया हूँ। वैसे उनकी सखियों की शादी की सालगिरह और जन्मदिन याद रखने का ज़िम्मा मुझे दिया गया है। अगर चूक हुई तो दोनों ही तरफ से सुनने को मिलता है। जब तक व्हाट्सएप पर था तो वहाँ सबके सहयोग से ये कार्य बहुत ही आसानी से सम्पन्न हो जाता था। जबसे व्हाट्सऐप से हटा हूँ तो अपनी कमज़ोर होती याददाश्त पर ही निर्भर रहता हूँ।

जिस समय ये विचारों की रेल 180 की मि की रफ्तार से दौड़ रही थी श्रीमती जी अपने व्हाट्सऐप पर दुनिया के कोने कोने में बसे रिश्तेदारों और अपनी सखियों को गुड मॉर्निंग मैसेज के आदान प्रदान में लगी हुईं थीं। मेरे बाद आता है नम्बर बच्चों का तो बच्चों के स्कूल की भी छुट्टी थी तो वहाँ से किसी शिकायत की गुंजाइश नहीं थीं। अगर होती भी तो उसका निवारण फ़टाफ़ट पिछले दिन ही हो जाता। अब ये कोई सरकारी दफ्तर तो है नहीं कि फ़ाइल घूमे। सिंगल विंडो क्लीयरेंस सरकार अभी अमल में ला पाई है। घरों में ये अनन्त काल से चल रहा है। खैर, छुट्टी के चलते बच्चों ने अपने से ही पढ़ाई की भी छुट्टी घोषित कर दी थी तो रोजाना होने वाला एक सीन भी इन दिनों नदारद था।

जितना पतियों को सवाल नापसंद हैं, पत्नियों को अच्छा लगता है कि उनसे सवाल पूछे जायें। मतलब आप इशारे समझ लीजिये और एक छोटा सा सवाल पूछ लें – क्या हुआ। बस जैसे किसी बाँध के दरवाज़े खुलते हैं वैसे ही जानकारी का बहाव शुरू। आप उसमे से काम की बात ढूंढ लें। मैंने वही किया। सुबह सुबह उन्हें ख़बर मिल गयी कि आज काम करनेवाली ने छुट्टी घोषित कर दी है।

कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी मेरे हिसाब से क्योंकि जैसे में वैसे हर काम करने वाला छुट्टी का हक़दार होता है। और फ़िर आप अपनी ऊर्जा, समय इसके ऊपर फ़ोन और व्हाट्सएप कर क्यों बर्बाद कर रहे हो? ऐसा मैंने सोचा लेकिन बोला नहीं। जब सामने से तूफान निश्चित दिखाई दे रहा है तो क्यों अपनी नाव उतारी जाये। ऐसे समय ख़ामोश रहना बेहतर है। कोई सुझाव हो तो आप उसको दुनियाभर को बता दें। श्रीमती जी को न बतायें। सो नहीं बताया।

बस यही गलती कर दी। कल मैं फ़ोन पर किसी को उनकी समस्या के लिये कुछ सुझाव श्रीमती जी के सामने दे दिये थे। आपके पास इसके लिये कुछ सुझाव नहीं है? उन्होंने पूछ ही डाला और उसके बाद जैसा सैफ अली खान का दिल चाहता है में सीन था वैसा ही कुछ होता। मतलब की, वो, तो, मैं जैसे चार शब्द मेरे हिस्से में आते।

लेकिन मैंने उनसे दूसरा प्रश्न पूछ लिया समस्या पता है। उन्होंने कहा हाँ। तो अब इसका समाधान ढूँढते हैं।

अपने जीवम में हम अक्सर समस्या पर ही उलझ जाते हैं। वो तो हमें पता होती है लेकिन समाधान नहीं। उसपर ध्यान दें और जो भी दो-तीन समाधान दिखें उसपर काम करना शुरू करें। बात सिर्फ फ़ोकस बदलने की है।

श्रीमती जी इस सलाह के बाद व्हाट्सएप पर कुछ और संदेश का आदान प्रदान किया, एक दो फ़ोन भी लगा लिये और उनका काम हो गया। वैसे श्रीमती जी और बाकी गृहणियों से एक बहुत अच्छी मैनेजमेंट की सीख भी मिलती है। उसपर चार लाइना कल। फ़िलहाल गरम चाय की प्याली इस सर्द सुबह का आनन्द दुगना करने का आमंत्रण दे रही है।

अम्माँ

शाहरुख खान की फ़िल्म स्वदेस में कावेरी अम्माँ की तरह उन्होंने हमें पाला तो नहीं था लेकिन फ़िर भी हम सब उन्हें अम्माँ कहते हैं। उनको ऐसा कैसे बुलाना शुरू किया ये याद नहीं लेकिन घर के सभी सदस्य उन्हें अम्माँ ही बुलाते। शायद उनके माँ के जैसे प्यार करने के कारण ही उनको अम्माँ बुलाना शुरू किया होगा। आज अचानक अम्माँ की याद वो भी इतने लंबे समय बाद कैसे आ गयी?

दरअसल ट्विटर पर एक चर्चा चल रही थी कि कैसे हम अपने घर में काम करने वालों के साथ भेदभाव करते हैं। जैसे उनके खाने पीने के अलग बर्तन होते हैं, शहरों में कई सोसाइटी में काम करने वालों के लिये अलग लिफ़्ट होती है और रहवासियों के लिये अलग। काम करनेवाले उस लिफ़्ट का इस्तेमाल नहीं कर सकते।

इस सब को पढ़ते हुये अम्माँ का चेहरा सामने आ गया। याद नहीं कबसे उन्होंने हमारे घर काम करना शुरू किया। अम्माँ के पति की मृत्यु हो चुकी थी और उनकी कोई संतान नहीं थी। रिश्तेदार आस पास ही रहते थे लेकिन अम्माँ को भी ये पता था कि उनकी नज़र उनके पैसों पर है। शायद इसलिये एक दिन उन्होंने आकर बोला कि उनका एक बैंक खाता खुलवा दिया जाए। घर के पास वाले बैंक में जहाँ हमारा खाता था वहीं उनका भी खाता खुलवा दिया।

उनसे पहले भी कई काम करने वाले आये लेक़िन वो बस काम करती और निकल जातीं। अम्माँ कब सिर्फ़ एक काम करने वाली न होकर घर की एक सदस्य बन गयीं पता नहीं चला। उन्होंने भी कब हमको अपना मान लिया इसकी याद नहीं। उनके हाथ की बनी ज्वार की रोटी का स्वाद कुछ और ही था। अक्सर उनके डिब्बे से अदला बदली कर लेते और वो खुशी खुशी इसके लिये तैयार हो जातीं।

आज ट्विटर पर काफी सारे लोगों ने बताया कि कैसे लोग अपने घरों में काम करनेवालों के साथ व्यवहार करते हैं, कैसे दूसरी जाति के लोगों को सुबह सुबह देखना अपशकुन माना जाता है, कैसे काम करनेवाले जिस स्थान पर बैठते हैं उसको उनके जाने के बाद धो कर साफ किया जाता है इत्यादि।

मुम्बई में जो घर में काम करती हैं वो दरअसल बड़ी विश्वासपात्र हैं। कई बार उनके काम करने के समय हम लोग घर पर नहीं होते लेकिन वो पड़ोसियों से चाबी लेकर काम करके चली जाती हैं। कभी कोई विशेष आयोजन रहता है तो सबसे पहले वो ही भोजन ग्रहण करती हैं क्योंकि उन्हें जल्दी घर जाना होता है।

बाहर निकलिये तो अक्सर ऐसे जोड़े दिख जाते हैं जिनके बच्चों को संभालने के लिये आया रखी होती है। होटल में वो आया अलग बैठती है और उसका काम साहब और मेमसाब को बिना किसी परेशानी के खाना खाने दिया जाये यही होता है। अम्माँ तम्बाकू खातीं थीं तो उनको ऐसे ही चिढ़ाने के लिये मैं बोलता मसाला मुझको भी देना और वो मुझे डाँट कर भगा देतीं।

पिताजी जब रिटायर हुये तो अम्माँ का साथ भी छूट गया। हम सरकारी घर छोड़ कर नये घर में रहने आ गये। अम्माँ के लिये नया घर बहुत दूर हो गया था। शायद एक बार वो नये घर में आईं लेकिन उसके बाद से उनसे कोई संपर्क नहीं रहा। वो अभी भी भोपाल में हैं या महाराष्ट्र वापस आ गईं, किस हाल में हैं पता नहीं लेकिन यही प्रार्थना है कि स्वस्थ हों, प्रसन्न हों और वो मुस्कुराहट उनके चेहरे पर बनी रहे।

पत्र अपडेट: काफी लोगों से पतों का आदान प्रदान हुआ है और दोनों ही पार्टीयों ने जल्द ही पत्र लिखने का वादा किया है। पहले पत्र का बेसब्री से इंतज़ार है।

जब एक पोस्टकार्ड बना पार्टी की सौगात

चलिये पत्र लिखने की बात से ये तो पता चला कि ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने आज तक न तो पत्र लिखा है ना उन्हें कभी किसी ने। इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि इन लोगों के समझते समझते मोबाइल फ़ोन का आगमन हो चुका था और हम सबको संपर्क में रहने के लिये एक नया तरीका मिल गया था। जिन्होंने कभी पत्रों का आदान प्रदान नहीं किया हो वो इससे जुड़े जज़्बात शायद न समझें। और अगर आने वाली पीढियां इस पर पीएचडी कर लें कि पत्र लिखने की कला कैसे विलुप्त हुई, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

बदलाव का बिल्कुल स्वागत करना चाहिये लेकिन इस बदलाव ने भाषा बिगाड़ दी। एक तो लोग पहले से लिखना छोड़ चुके थे और उस पर ये छोटे छोटे मैसेज। रही सही कसर व्हाट्सएप ने पूरी कर दी। अब तो लिखना छोड़ कर सिर्फ 🙏, 👍,🤣 जैसा कुछ कर देते हैं और बस काम हो गया। मुझे अपने काम के चलते ऐसे बहुत से युवा पत्रकार मिले जो भ्रष्ठ भाषा के धनी थे।

ऐश्वर्या अवस्थी ने पोस्टमेन की याद दिला दी। हमारे यहाँ जो पोस्टमेन आता था उसको हमसे कोई खुन्नस थी। शायद उसका होना भी वाज़िब था क्योंकि हमारे यहां ढ़ेर सारे ख़त तो आते ही थे साथ में पत्रिकाओं का आना लगा रहता। जब मेरा पीटीआई में चयन हुआ तो इसका संदेश भी डाक के द्वारा मिला। हाँ आदित्य की तरह प्रेम पत्र नहीं लिखे। काश फ़ोन के बजाय लिख दिया होता तो आज दोनों अलग अलग ही सही पढ़ कर मुस्कुरा रहे होते।

ऐसा ही एक संदेश एक सज्जन के पास उनकी बहन ने पहुँचाया। उनकी पत्नी जो गर्भावस्था के अंतिम चरण में थीं उन्होंने पुत्र को जन्म दिया है। अब ये बात एक पोस्टकार्ड पर लिख कर बताई गई थी। ज़ाहिर सी बात है की पत्र कई लोगों द्वारा पढ़ा गया और नये नवेले पिता से पार्टी माँगी गयी और उन्होंने खुशी खुशी दे भी दी। समस्या सिर्फ इतनी सी थी की ऐसा कुछ हुआ नहीं था। डिलीवरी में अभी भी समय था। बहन ने भाई को यूँ ही लिख दिया था। फ़िर तो बहन को जो डाँट पड़ी।

भोपाल के एक सांसद महोदय ने भी इस पोस्टकार्ड का बहुत ही अनोखे तरीक़े से इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने पते के साथ पोस्टकार्ड अपने क्षेत्र में लोगो को दे दिये। कोई समस्या हो तो बस मुझे लिख भेजिये। मतदाताओं को ये तरीका बहुत भाया।

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आज भी किसी को उनकी अदाकारी या किसी और काम के लिये बधाई या धन्यवाद अपने एक छोटे से स्वयं के लिखे नोट से करते हैं। नोट की क़ीमत इस लिए तो है ही कि इसे बच्चन साहब ने भेजा है। लेकिन उनके हाथ से लिखा हुआ है तो ये अमूल्य हो जाता है।

इस विषय पर थोड़ी रिसर्च भी कर डाली तो सब जगह यही पढ़ने को मिला। हज़ारों साल पुरानी ये परंपरा को लोगों ने लगभग छोड़ ही दिया है। हाँ जैसा आदित्य द्विवेदी ने कहा, फौज में आज भी ये चलन है। उतने बड़े पैमाने पर शायद नहीं लेकिन फौजी के घरवाले आज भी पत्र लिखते हैं।

फ़ोन पर आप बात करलें तो आवाज़ सुनाई देती है और दिल को चैन आ जाता है। सही मायने में जब आप पत्र लिख रहे होते हैं तो जाने अनजाने आप अपने बारे में कुछ नहीं बताते हुए भी बहुत कुछ बता जाते हैं। वैसे ही पत्र पढ़कर आप एक तस्वीर बना लेते हैं लिखने वाले के बारे। जैसे फ़िल्म साजन में माधुरी दीक्षित बना लेती हैं संजय दत्त की और उनसे प्यार करने लगती हैं। लेखक, कवि, शायर से बिना देखे बस इसलिये तो प्यार हो जाता है।

काफ़ी लोगों की तरह मैंने भी प्रण तो लिया है कि अब पत्र लिखा जायेगा। लेकिन इस पर कितना कायम रहता हूँ ये आप को तब पता चलेगा जब आपके हाथ होगा मेरा लिखा पत्र जिसका जवाब आप भी लिख कर ही देंगे। तो फ़िर देर किस बात की। मुझे sms करें अपना पूरा पता (पिनकोड के साथ)। व्हाट्सएप से मैं हट गया हूँ तो वहाँ कुछ न भेजें।

यादों का खज़ाना

आज ऐसे ही सफ़ाई के मूड में अपनी कुछ पुरानी फ़ाइल और कागज़ात निकाले। इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत होती कुछ इस तरह से की मैं परिवार के अन्य सदस्यों को बोलता हूँ कि वो पुराना सामान निकाले और जिसकी ज़रूरत नहीं हो वो निकाल कर रद्दी में रख दें। ये मेरा सेल्फ गोल होता है क्योंकि फिर मुझे ही सुनने को मिलता है श्रीमती जी से की आप का भी बहुत सारा पुराना सामान रखा है उसे भी देख लीजियेगा।

मैं सिर्फ इसी उद्देश्य से इस काम में जूट जाता हूँ। लेकिन बस शुरू ही हो पाता है कि फिर एक एक कर कुछ न कुछ मिलता रहता है। जैसे इस बार मुझे मिले कुछ पत्र जो करीब 18 साल पुराने हैं। कुछ दोस्तों के द्वारा लिखे हुए और कुछ परिवार के सदस्यों के द्वारा। परिवार वाले पत्र तो उस समय क्या चल रहा था उसके बारे में होते हैं लेकिन दोस्तों के पत्र होते हैं अधिकतर फ़ालतू जानकारी से भरे हुए लेकिन मज़ेदार। अगर उनको अठारह वर्ष बाद पढ़ा जाये तो उसका मज़ा ही कुछ और होता है।

लेकिन अब आजकल जो ये ईमेल और व्हाट्सएप का चलन शुरू हुआ है तो कागज़ पर अपने विचारों को उतारना ख़त्म सा हो गया है। अब तो जन्मदिन या बाकी अन्य आयोजन के उपलक्ष्य में भी फेसबुक या व्हाट्सएप पर बधाई दे दीजिये। बस काम हो गया। इससे पहले दोस्त, घरवाले कार्ड दिया करते थे। दूर रहनेवाले रिश्तेदार भी कार्ड चिट्ठी भेजा करते थे।

लेकिन जैसा कि फ़िल्म नाम के चिट्ठी आयी है गाने में आनंद बक्शी साहब ने लिखा है,

पहले जब तू ख़त लिखता था कागज़ में चेहरा दिखता था, बंद हुआ ये मेल भी अबतो ख़त्म हुआ ये खेल भी अब तो।

वैसे हिंदी फिल्मों में ख़त का इस्तेमाल अमूमन प्यार के इज़हार के लिये ही होता रहा है फ़िर चाहे वो सरस्वतीचंद्र का फूल तुम्हे भेजा है ख़त में हो या मैंने प्यार किया का कबूतर जा या संगम का ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर। लेकिन अब ऐसे गीत बनेंगे नहीं और अगर मेरे जैसे किसी ने ऐसा कर दिया तो सब हंसेंगे की अब कौन पत्र लिखता है।

जब आजकल के नये संपर्क साधन नहीं थे तो नई जगह पहुंच कर वहाँ से पिक्चर पोस्टकार्ड भेजने का भी चलन था। ऐसे ही कुछ मुझे अपने ख़ज़ाने में मिले जब भाई विदेश गया था और जब माता पिता धरती पर स्वर्ग यानी कश्मीर गए थे। अब तो बस सेल्फी खींचो और शेयर करो। विपशना के जैसे कहीं बाहर जाओ तो फ़ोन के इस्तेमाल पर रोक लगा देना चाहिये।

इस डिजिटल के चलते एक और चीज़ छूट रही है और वो है फ़ोटो। सबके मोबाइल फ़ोन फ़ोटो से भरे हुए हैं लेकिन अगर आप और मोबाइल बिछड़ जायें तो… पिछले दिनों जब व्हाट्सएप मोबाइल से हटा रहा तो श्रीमती जी ने आगाह भी किया कि फ़ोटो भी चली जायेंगी। ख़ज़ाने में मुझे बहुत सारी पुरानी फ़ोटो भी मिलीं। ढूँढने पर एक पुराना एल्बम भी मिल ही गया। बस इस सबके चलते यादों का कारवाँ निकल पड़ा लेकिन जिस काम के लिये बैठे थे वो नहीं हुआ।

इस नये चलन को बढ़ावा मैंने भी दिया लेकिन अब जब पुराने पत्र पढ़ रहा हूँ तो लगता है इस सिलसिले को फ़िर से शुरू करना चाहिये। तो बस कल पास के पोस्टऑफिस से कुछ अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड लेकर आयेंगे और पहुँचाते हैं आप तक। अगर आप भी इसका हिस्सा बनना चाहते हैं तो अपना पता छोड़ दें कमेंट्स में। वो क्या है ना कि हम फ़ोन नंबर से शुरू कर अपनी दोस्ती सिर्फ फ़ोन तक ही सीमित कर लेते हैं। जब तक मिलने का संयोग न हो तो पते का आदान प्रदान नहीं होता है।

मेरी आवाज़ ही पहचान है

पिछले दो दिनों से घर में माहौल थोड़ा अलग सा है। श्रीमती जी एक मित्र हमारी सोसाइटी छोड़ नई जगह चली गयीं। दोनों की मुलाक़ात दस साल पहले हुई थी जब हम इस सोसाइटी में रहने आये थे। शुरुआत में वो हमारी ही फ्लोर पर रहती थीं लेकिन मुझे उस समय के बारे में कुछ भी याद नहीं है। वो तो जब बारिश होती और उनके पति अपनी कार से बच्चों को छोड़ने जाते, तब उनसे मिलते और यही मुझे याद है। इन दोनों की अच्छी दोस्ती के चलते उनके पति और मेरा भी कभी कभार मिलना हो ही जाता था। लेकिन दोनों सखियों की रोज़ फ़ोन पर बात एक नियम था और संभव हुआ तो मिलना भी। अब ये सब ख़त्म होने जा रहा था और श्रीमती जी इससे बहुत दुखी थीं।

ये जो घटनाक्रम चल रहा था उससे मुझे फ़िल्म दिल चाहता है का वो सीन याद आ गया जब तीनों दोस्त गोआ में एक क़िले से दूर समंदर में एक जहाज़ को देखते हैं। आमिर खान कहते हैं उन तीनों को साल में एक बार गोआ ज़रूर आना चाहिये। सैफ इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हैं। लेकिन अक्षय खन्ना जो शायद सबसे ज़्यादा प्रैक्टिकल होते हैं, आँखों से ओझल होते जहाज़ का हवाला देते हुये कहते हैं कैसे एक दिन उस जहाज़ के जैसे तीनों दोस्त अपनी अपनी मंज़िल की तलाश में निकल पड़ेंगे और साल में एक बार तो दूर दस साल में एक बार मिलना भी मुश्किल हो जायेगा।

श्रीमती जी और उनकी मित्र ने जल्द मिलने का वादा किया तो है लेकिन दोनों जानते हैं मुम्बई जैसे शहर में इस वादे को निभाना कितना मुश्किल है। मुझे तो कई बार फ़्लोर पर ही रहने वाले सज्जनों से मुलाक़ात किये हुए महीनों गुज़र जाते हैं। लेकिन मैं इस मिलने मिलाने के कार्यक्रम का अपवाद हूँ, ऐसा मानता हूँ। बहरहाल दोनों अपनी अगली मुलाक़ात को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं।

ऐसे ही मिलने के वादे मैं भी करता रहता हूँ। कोई इंतज़ार कर रहा है कब मैं दिल्ली आऊँ और उसके साथ समय बिताऊँ। इस वादे पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने बहुत ही शानदार लिखा भी है:

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता

ऐसे ही बहुत से मिलने के वादे बहुतों से किये हुए हैं लेकिन एक भी वादा झूठा नहीं है। पता नहीं कब मिलना होता है। वैसा भी मेरा इस मामले में रिकॉर्ड बहुत ही ख़राब रहा है। मिलना तो दूर लोग मुझे फ़ोन पर मिल जाने की बधाई देते हैं।

यादों से भरी सालगिरह

भोपाल में पिताजी को जो सरकारी घर मिला था उसकी लोकेशन बड़ी कमाल की थी। हबीबगंज स्टेशन के बारे में आपको बता ही चुका हूँ। दो सिनेमाघर भी हमारे घर के पास ही हुआ करते थे ज्योति और सरगम। जो भी बड़ी नई फिल्म रिलीज़ होती वो इन दो में से किसी सिनेमा हॉल में ज़रूर लगती।

चूंकि मेरा घर इनके समीप था तो हर गुरुवार को मेरी ड्यूटी रहती टिकट खिड़की पर खड़े होने की। उन दिनों आज की बुकमाईशो जैसी सुविधा तो थी नहीं तो बस सुबह से यही एक काम रहता की लाइन में लगो और धक्के खाते हुए टिकट निकालो। टिकट न मिलने की स्थिति मे कई बार खाली हाथ भी लौटना पड़ता। उन दिनों टिकट खिड़की से टिकट लेकर फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का मज़ा आज की एडवांस बुकिंग में कहाँ। और उस दौरान हो रहे हंगामे की क्या बात।

महिलाओं की लाइन में भीड़ कम होती तो लड़के किसी भी अनजानी लड़की को बहन बना टिकट लेने की गुज़ारिश करते। उन लड़कियों के परिवार वाले इन लड़कों पर नज़र रखते के कोई बदतमीजी न करें।

मेरे कॉलेज जाने का रास्ता ज्योति टॉकीज से ही जाता था। नई फिल्म रिलीज़ होते ही मैं बाहर खड़ी भीड़ से अंदाज़ा लगता कि फ़िल्म हिट होगी या फ्लॉप। जब यश चोपड़ा की लम्हे रिलीज़ हुई तो सिनेमा हॉल खाली था। फ़िल्म देखी तो समझ में नहीं आया कि आखिर क्यों लोगों ने इसको पसंद नहीं किया। ऐसा ही कुछ हाल था अंदाज़ अपना अपना का। एक किस्सा शाहरुख खान की फ़िल्म डर का भी है लेकिन उसका ज़िक्र फिर कभी।

हमारे घर की एक ख़ासियत और थी। घर के सामने ही था गर्ल्स हायर सेकंडरी स्कूल, थोड़े आगे जाने पर वुमेन्स पॉलीटेक्निक और उसके बाद गर्ल्स कॉलेज। जिन दिनों विवाह के लिए लड़की ढूंढी जा रही थी उस समय दूर दराज से रिश्ते आ रहे थे। कुछ लोग मेरे दिल्ली और उसके बाद मुम्बई जाने के बाद ये मान चुके थे कि मैं लव मैरिज ही करूँगा। खैर ये हुआ नहीं और खोज चलती रही। लेकिन ये पता नहीं था कि मेरी भावी जीवन संगिनी कई वर्षों से मेरे घर के सामने से ही आ जा रही थीं।

इस तलाश को खत्म हुए आज पंद्रह वर्ष हों गये हैं। दिखता एक लंबा समय है लेकिन लगता है इस बात को अभी ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ।

त्रासदी ये है कि पूरा देश भोपाल बनने की कगार पर है और हम सो रहे हैं

कुछ दिन पहले दिल्ली और इन दिनों मुम्बई में शहर की हरियाली पर सरकार की नज़र है। इनके नुमाइंदे खुद तो बढ़िया हरियाली से घिरे घरों में रहते हैं और आम आदमी को विकास का हवाला देकर सब कुछ बेचने को तैयार रहते हैं। कुछ गलती हमारी भी है कि हम खुद उदासीन बने रहते हैं और सब सरकार भरोसे छोड़ देते हैं।

आज से 34 साल पहले हम भोपाल के निवासीयों ने भी सरकार के एक फैसले की बहुत बड़ी कीमत दी थी, शायद आज भी दे रहे हैं।

सर्दी के दिन थे और उन दिनों सर्दी भी कुछ ज़्यादा ही होती थी तो खाना खाने के बाद सब सो ही गये थे कि अचानक लगातार घंटी बजने लगी और ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा पीटने की आवाज़ आने लगी। पहले तो समझ नहीं आया इतनी रात में कौन है और क्या हुआ है।

पुराने भोपाल में रहने वाले हमारे रिश्तेदार दरवाज़े पर खड़े थे। सब अस्तव्यस्त हालत में थे, कुछ को साँस लेने में तक़लीफ़ हो रही थी। लेकिन हुआ क्या था ये किसीको नहीं पता था। शुरुआत में उन लोगों को लगा की बहुत बड़ी आग लगी है क्योंकि सब जगह सफेद धुआं था और लोगों के मुँह से झाग निकल रहा था।

जिसको जैसे समझ में आया अपने घर से निकल गया। ताला लगाया तो ठीक नहीं तो पहली चिंता जान बचाने की थी। नवजात शिशुओं को छोड़ माता पिता घर से निकल गए। उस ठिठुरती सर्दी की रात में कोई बिना किसी गरम कपड़े के तो कोई पायजामा बनियान में घर छोड़ कर भागा। पापा के एक छात्र 5-6 किलोमीटर दौड़े फिर रास्ते में एक आदमी गिरा हुआ था। उसकी साईकल उठा कर वो हमारे घर आये थे। लोगों ने बताया सड़क पर भागते हुये के लोग गिर पड़े और फ़िर वहीं उनके प्राण निकल गए।

उन दिनों 24 घंटे के चैनल नहीं हुआ करते थे। टीवी 1982 के एशियन गेम्स में आ गया था लेकिन प्रसारण का समय बहुत ही सीमित था। इसलिये जानकारी के लिये बचता सिर्फ रेडियो और अखबार।

अफवाहों का बाज़ार भी गर्म की गैस फ़िर से रिस सकती है। अनिश्चितता के माहौल के चलते घर के लिये राशन लेने पापा-मम्मी बाज़ार गये थे जहां भगदड़ मच गई। किसी ने बोल दिया फिर से गैस रिस रही है और सामने चौराहे तक आ गयी है। सबका भागना शुरू। सब्जी-फल के ठेले वाला ऐसे ही भाग खड़ा हुआ।

इस हादसे के बारे में आने वाले सालों में कभी मैं भी लिखूंगा इसका कोई इल्म नहीं था। जब भोपाल में नौकरी करना शुरू किया तो भोपाल गैस कांड भी कवर किया। लेकिन धीरे धीरे गैस पीड़ित और उनकी समस्याएं सालाना याद करने वाला एक मौका हो गईं।

कई लोगों ने अगर सही में उनके लिये काम किया तो अधिकतर ने इसमें अपना फायदा देखा। सरकारें आईं और गईं लेकिन गैस पीड़ितों के साथ न्याय नहीं हुआ। ये ज़रूर हुआ कि भोपाल में रहने वाले उन कई लोगों को सरकार से पैसा मिला जो इस हादसे से अछूते रहे।

लेकिन जिस तरीके से सरकार ने यूनियन कार्बाइड से हाथ मिलाया उससे ये बात तो साबित हो गयी कि भारत में जान की कोई कीमत नहीं। आज भी हालात बदले नहीं हैं। भोपाल अगर सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना थी तो अपने आसपास देखिये। महानगर ही नहीं छोटे शहर भी विकास की बलि चढ़ रहे है। अगर समय रहते नहीं चेते तो पूरा भारत ही भोपाल बन जायेगा…बहुत जल्दी।

पिता-पुत्र का सम्बंध इतना अलग क्यों होता है?

आज की इस पोस्ट के प्रेरणास्रोत हैं आनन्द श्रीवास्तव। इलाहाबाद निवासी आनन्द से फ़ेसबुक पर ही दोस्ती हुई है। पिछले दिनों इन्होंने एक पोस्ट शेयर करी अपने पिताजी के बारे में। बीते समय को याद करते हुए आनन्द ने लिखा की कैसे उन्होंने पिताजी को गले लगाने का अपना प्रण पूरा किया और ये पूछा भी की क्यों बेटे अपने पिता से ऐसे दूर रहते हैं। माता, भाई, बहन सबसे तो हम अपना स्नेह दिखा देते हैं लेकिन बड़े होने के बाद पिता-पुत्र के बीच कुछ हो जाता है और दोनों ही पक्ष इसके लिये ज़िम्मेदार हैं। पिता अपनी बेटियों पर तो लाड़ बरसाते हैं लेकिन पुत्रों पर इतने खुले तौर पर नहीं।

पापा और मैं

आनन्द की पोस्ट पढ़ने के बाद मैं पिताजी और अपने रिश्ते के बारे में सोचने लगा जो बहुत से कारणों से अलग रहा और इसका पूरा पूरा श्रेय उनको ही जाता है। मेरा फिल्मों, किताबों और संगीत के शौक उन्ही की देन है। लेकिन उनकी और कई अच्छी आदतें मैं नही अपना पाया।

पूरे ख़ानदान में पिताजी सबसे ज़्यादा स्टाइलिश माने जाते हैं जिन्हें पहनने ओढ़ने के साथ खाने पीने, घूमने फिरने और खेलने का बेहद शौक़। अपनी बहनों को कार में बिठाकर घुमाना हो या इंदौर की बेकरी पर कुछ खाना हो – सबके लिए पिताजी हाज़िर। अच्छे कपड़ों की ज़रूरत हो तो उनके भाई पिताजी की अलमारी पर ही धावा बोलते।

अपने स्वभाव के चलते पापा सभी रिश्तेदारों से भी नियमित संपर्क में रहते हैं। हम लोगों को भी समझाते रहते हैं कि कोई शहर में हो तो उससे मिलो। इस डिपार्टमेंट में मुझे बहुत काम करने की गुंजाइश है।

स्क्रीन पर पिता-पुत्र

अगर फिल्में समाज का आईना होती हैं तो समाज में पिता पुत्र के रिश्ते भी कुछ ऐसे ही होते होंगे। पिता पुत्र के दोस्त होने की बात तो करते हैं लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है। पुराने समय के समाज में पिता का अपनी संतानों से इतना ज़्यादा संपर्क ही नहीं रहता था। ठीक वैसा ही जैसा काजोल और अमरीश पुरी का था दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे फ़िल्म में। दोनों के बीच एक दूरी रहती और जितनी बात होती वो पूरे अदब के साथ और एक बार फ़रमान जारी हो गया तो अगली फ्लाइट से सीधे पंजाब।

मुझे याद आयी फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक जो कई बार देखी है। ये फ़िल्म कई मायनों में यादगार है। फ़िर चाहे वो इसके गाने हों या कलाकार या लव स्टोरी का नया अंदाज़। लेकिन एक और चीज़ जो मुझे बहुत अच्छी लगी फ़िल्म में वो थी पिता-पुत्र का रिश्ता। इसके पहले की और इसके बाद कि भी कई फिल्मों में पिता और बच्चों के बीच रिश्ते में एक दूरी है।

फ़िल्म में आमिर खान जूही चावला की सगाई से लौटते हैं और गुस्से से भरे उनके पिता दिलीप ताहिल उनका इंतज़ार कर रहे हैं। घर के सभी सदस्य डरे हैं कि कहीं वो अपने बेटे की पिटाई न कर दें। लेकिन टूटे हुये आमिर को देख वो उसे गले लगा लेते हैं और रोते हुये अपने बेटे से कहते हैं बाद में बात करेंगे।

मॉडर्न पिता-पुत्र

मैंने अपने आसपास अनुपम खेर और शाहरुख खान फ़िल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे वाले पिता पुत्र देखे हैं जो साथ बैठ सिगरेट, शराब साथ में पीते हैं। क्या वाकई में वो दोस्त हैं या ये दोस्ताना सिर्फ इस काम तक ही सीमित है? इसका जवाब शायद उनके पास होगा। मैं तो सिर्फ उम्मीद कर रहा हूँ कि अपने गुस्से की तरह वो अपने प्यार का भी इज़हार करते होंगे। इस पोस्ट को पढ़ने वाले सभी पिता पुत्र से ही नहीं सभी से निवेदन – अगर प्यार करते हैं तो दिखाने से परहेज़ क्यों। वो अंग्रेज़ी में कहते हैं ना – If you love somebody show it. तो बस गले लगाइये और गले लगिये और प्यार बांटते रहिये।

आनंद श्रीवास्तव की फेसबुक पोस्ट की लिंक।

जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन – 2

दरअसल जो पोस्ट मैंने पहले लिखी थी उसकी पृष्ठभूमि बता दूँ। उस रविवार की सुबह याद रह गया तो सुबह से रंगोली कार्यक्रम देखा। वैसे तो मुझे इसकी ज़रूरत नहीं लगती क्योंकि मुझे लगता है मेरी पीढ़ी वाले और उसके बाद वाले भी जानते ही होंगे मैं किस रंगोली की बात कर रहा हूँ। फिर भी, ये एक कार्यक्रम है जो दूरदर्शन पर हर रविवार सुबह आता है और कुछ बहुत ही अच्छे गाने देखने और सुनने को मिलते हैं।

चाय की प्याली, अखबार, रंगोली और परिवार के सभी सदस्य – कभी ऐसी भी रविवार की सुबह हुआ करती थीं। आँख मलते हुए टीवी के सामने जा बैठते। पुरानी, नई फिल्मों के गाने देखते सुनते चाय भी हो जाती और आलस भी। उसके बाद का कार्यक्रम ठीक वैसे ही जैसा मैंने पिछली बार बताया था। जब पानी की किल्लत शुरू हुई तो रंगोली शुरू होने के पहले गाडी धुलाई का कार्यक्रम सम्पन्न हो जाता था। क्योंकि उनदिनों आज की तरह न तो म्यूजिक चैनल होते थे और न ही यूट्यूब की जब मन चाहा तो देख लिया। लेकिन उस सस्पेंस का अपना मज़ा है।

ठीक वैसा जैसा इस हफ़्ते मैंने और श्रीमती जी ने लिया। उनके पसन्दीदा एक्टर या गायक का गाना आया तो साथ में गुनगुना लेतीं और मुझे चिढ़ातीं। लेकिन अगले गाने पर मेरी बारी होती ये सब करने की। बचपन में हम भाई बहन के बीच भी कुछ ऐसा ही था। अपने पसन्दीदा गाने के आने पर मानो पर लग जाते। लेकिन बाकी गाने भी सुनते। शायद इसका ये फायदा हुआ कि पुराने गाने भी पसंद आने लगे। 90s के गाने तो हैं ही अच्छे लेकिन 60-70 के दशक के गाने भी उतने नहीं तो भी ठीक ठाक पसंद थे। अब चूंकि जो टीवी पर दिखाया जायेगा वही देखने को मिलेगा तो कोई विकल्प भी नहीं था। इंतज़ार रहता था रंगोली का, रविवार के ख़ास कार्यक्रम का। महाभारत, रामायण और भारत एक खोज जैसे कार्यक्रम सचमुच पूरे देश का रविवार ख़ास बनाते थे।

आजकल बहुत से घरों में दो या इससे अधिक टीवी रखने का चलन है। सब अपने अपने कमरे में बैठ क्या देखते हैं तो पता नहीं चलता किसको क्या पसंद है। अपनी पसंद का कुछ देखना सुनना हो तो अपने कमरे के टीवी में देख लेते हैं। रही सही कसर इस मोबाइल ने पूरी करदी। अब रविवार को टीवी देखना एक पारिवारिक कार्यक्रम नहीं रह गया है। लेकिन कार्यक्रम वैसे ज़रूर हैं (सिर्फ दूरदर्शन पर)।

ये अलग अलग पसन्द को लेकर अब हमारे घर में भी बहस होने लगी है। बच्चे बड़े हो रहे हैं और अब उन्हें इस समय के गाने पसंद हैं और मैं और श्रीमती जी पुराने हो चले हैं। कार से कोई यात्रा करो तो ये एक बड़ा मुद्दा बन जाता है। बादशाह और हनी सिंह के बेतुके बोल के आगे कहाँ साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी चलेंगे। इसलिए पहले से ही सबके टाइम स्लॉट दे दिये जाते हैं। वो हमारी पसंद सुनें और हम उनकी। ये अलग बात है की अपने गाने वो पुरे जोश के साथ सुनते हैं और हमारे टाइम पर वो सोना पसंद करते हैं।

जब हम भोपाल से कश्मीर गये तो गानों की खूब तैयारी करी थी। सीडी पर नये, पुराने, गाने, भजन, गज़ल सब लेकर रवाना हुये इस यात्रा पर। रविवार की रंगोली के जैसे ये यात्रा कई मायनों में ख़ास थी और वैसा ही सस्पेंस भी की आगे क्या है। मतलब एडवेंचर की हद कर दी थी पापा और मैंने। पूरा परिवार कार में भर कर निकले थे बिल्कुल ही अनजान रास्ते पर।

जब तक भोपाल और उसके आसपास चलते रहे तो लगता सब तो पता है। अनजानी राहों पर चलके ही आप जानते हैं अपने बारे में कुछ नया। अपने आसपास के बारे में और लोगों के बारे में। आपके व्यक्तित्व में आता है एक अलग ही निखार क्योंकि वो अनुभव आपको बहुत कुछ सीखा और बात जाता है। इस बार चलिए कुछ नया करते हैं श्रेणी में अपने आसपास (१०० किलोमीटर) के अन्दर जाएँ एक बिलकुल नए रस्ते पर, जहाँ आप पहले नहीं गए हों। शर्त ये की अपना गूगल मैप्स इस्तेमाल न करें बल्कि लोगों से पूछे रास्ता और उस इलाके में क्या ख़ास है।

जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन

जब हम पढ़ रहे थे तब दूसरे और चौथे शनिवार स्कूल की छुट्टी रहती थी। पिताजी का साप्ताहिक अवकाश रविवार को ही होता था। मतलब रविवार का केवल एक दिन मिलता था जब सब घर पर साथ में रहते थे। लेकिन उन दिनों रविवार का मतलब हुआ करता था ढेर सारा काम। गाड़ियों – स्कूटर, सायकल और हमारी रामप्यारी अर्थात ऑस्टिन – की धुलाई एक ऐसा काम होता था जिसका हम सब इंतज़ार करते थे।

पिताजी ने हमेशा गाड़ी का खयाल रखना सिखाया। हमारे पास था भी एंटीक पीस जिसका रखरखाव प्यार से ही संभव था। गाड़ी चलाने से पहले गाड़ी से दोस्ती का कांसेप्ट। उसको जानिये, उसके मिज़ाज को पहचानिये। गाड़ी तो आप चला ही लेंगे एक दिन लेकिन गाड़ी को समझिये। इसकी शुरुआत होती है जब आप गाड़ी साफ करना शुरू करते हैं। एक रिश्ता सा बन जाता है। ये सब आज लिखने में बड़ा आसान लग रहा है। लेकिन उन दिनों तो लगता था बस गाड़ी चलाने को मिल जाये किसी तरह।

गाड़ी से ये रिश्ते का एहसास मुझे दीवाली पर भोपाल में हुआ। चूंकि कार से ये सफ़र तय किया था तो गाड़ी की सफ़ाई होनी थी। उस दिन जब गाड़ी धो रहा था तब मुझे ध्यान आया कि एक साल से आयी गाड़ी की मैंने ऐसे सफाई करी ही नहीं थी। मतलब करीब से जानने की कोशिश ही नहीं करी। कभी कभार ऐसे ही कपड़े से सफ़ाई कर दी। नहीं तो बस बैठो और निकल पड़ो। कभी कुछ ज़रूरत पड़ जाये तो फ़ोन करदो और काम हो जायेगा।

जब तक नैनो रही साथ में तो उसके साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया। लेकिन नई गाड़ी आते ही दिल्ली निकल गये इसलिये गाड़ी चलाने का भी कम अवसर मिला। लेकिन दिल्ली में भी गाड़ी को बहुत याद ज़रूर करता और इसका दुख भी रहता कि नई गाड़ी खड़ी रहती है। यहां आकर उसको थोड़ा बहुत चला कर उस प्यार की खानापूर्ति हो जाती। बस उसको पार्किंग में देख कर खुश हो लेते। श्रीमती जी की लाख ज़िद के बाद भी अभी उन्हें इससे दूर रखने में सफल हूँ। लेकिन जब कार से लंबी यात्रा करनी हो तब लगता है उन्हें भी कार चलाना आ जाये तो कितना अच्छा हो। हम लोगों को कार से घुमने का शौक भी विरासत में मिला है। जिससे याद आया – मैंने आपसे मेरी अभी तक कि सबसे अनोखी कार यात्रा जो थी झीलों की नगरी भोपाल से धरती पर स्वर्ग कश्मीर के बीच – उसके बारे कुछ बताया नहीं है। फिलहाल उसकी सिर्फ एक झलक नीचे। दस साल पुरानी बात है लेकिन यादें ताज़ा हैं।

अगर हम गाड़ी की जगह इन्सान और अपने रिश्ते रखें तो? हम कितना उनको सहेज कर रखते है? क्या वैसे ही जैसे कभी कभार गाड़ी के ऊपर जमी धूल साफ करते हैं वैसे ही अपने रिश्तों के साथ करते हैं? या फिर हमने उनके रखरखाव की ज़िम्मेदारी एक कार साफ करने वाले के जैसे अपने लिये खास मौके छोड़ दिये हैं? समझें क्या कहा जा रहा है बिना कुछ बोले।

पिताजी और ऑस्टीन के बारे में अक्सर लोग कहते कि वो उनसे बात करती हैं। कई बार लगता कि ये सच भी है क्योंकि जब ऑस्टीन किसी से न चल पाती तब पिताजी की एंट्री होती जैसे फिल्मों में हीरो की होती है और कुछ मिनटों में ऑस्टीन भोपाल की सड़कों पर दौड़ रही होती। क्यों न हम भी अपने रिश्ते बनायें कुछ इसी तरह से।

चलिये नया कुछ करते हैं कि श्रेणी में आज अपना फ़ोन उठाइये और किन्ही तीन लोगों को फ़ोन लगायें। कोई पुराने मिलने वाले पारिवारिक मित्र, कोई पुराना दोस्त या रिश्तेदार। शर्त ये की आपका उनसे पिछले तीन महीनों में किसी भी तरह से कोई संपर्क नहीं हुआ हो। जैसा कि उस विज्ञापन में कहते हैं, बात करने से बात बनती है तो बस बात करिये और रिश्तों पर पड़ी धूल को साफ करिये। सिर्फ अपनी कार ही नहीं अपने रिश्तों को भी चमकाते रहिए। बस थोडा समय दीजिये।

चलिये शुरू करते हैं कुछ नया

दिल्ली का छूटना कई मायनों में बहुत दुखद रहा लेकिन मैं इस बात को लेकर ही खुश हो लेता हूँ कि मैंने लिखना शुरू किया। वो भी हिंदी में।

मेरा पूरा पत्रकारिता का करियर अंग्रेज़ी को समर्पित रहा है। जब भी कभी लिखने का प्रयास किया तो अंग्रेज़ी में ही किया। उसपर ये बहाना बनाना भी सीख लिया कि मेरे विचार भी अंग्रेज़ी में ही आते हैं और इसलिए उनको हिंदी में लिखना थोड़ा मुश्किल होता है।

अपने इस दकियानूसी तर्क पर कभी ज़्यादा सोचा नहीं क्यूंकि अंग्रेज़ी में ही लिखते रहे। लेकिन जब हिंदी में लिखना शुरू किया तब लगा कि मैं अपने को इस भाषा में ज़्यादा अच्छे से व्यक्त कर सकता हूँ। अटकता अभी भी हूँ और पहला शब्द दिमाग़ में अंग्रेज़ी का ही आता है। लेकिन शरीर के ऊपरी हिस्से में मौजूद चीज़ को कष्ट देते हैं तो कुछ हल मिल ही जाता है।

टीम के एक सदस्य जो भोपाल से ही आते थे, उनको अंग्रेज़ी का भूत सवार था। उनका ये मानना है कि अंग्रेज़ी जानने वालों को ही ज़्यादा तवज्जों मिलती है। हमारे देश के अधिकारीगण भी उन्हीं लोगों की सुनवाई करते हैं जो इस का ज्ञान रखते हों। मैं इससे बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखता लेकिन उनको इसका विश्वास दिला नहीं पाया।

अच्छा मेरी भी अंग्रेज़ी जिसका मुझे अच्छे होने का गुमान है, लेकिन असल में है नहीं, वो भी बहुत ख़राब थी। उसको सुधारने का और मुझे इस लायक बनाने का मैं ठीक ठाक लिख सकूँ, पूरा श्रेय जाता है तनवानी सर को। उन्होंने बहुत धैर्य के साथ मुझे इस भाषा के दावपेंच समझाये। बात फिर वहीं पर वापस। आपके शिक्षक कैसे हैं। अच्छा पढ़ाने वाले मिल जायें तो पढ़ने वाले अच्छे हो ही जाते हैं।

मैंने पहले भी इसका जिक्र किया है और आज फ़िर कर रहा हूँ। घर में पढ़ने लिखने की भरपूर सामग्री थी और इसका कैसा इस्तेमाल हो वो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। अख़बार पढ़ने की आदत धीरे धीरे बनी। शुरुआत में सब बक़वास लगता। फिर रुचि बढ़ने लगी। उनदिनों नईदुनिया के लिये मेहरुनिस्सा परवेज़ साहिबा लिखती थीं और मुझे उनके कॉलम पढ़ने में काफी आनन्द आता। उनसे तो नहीं लेकिन उनके आईएएस पति से कई बार मिलना हुआ। कई बार सोचा कि एक बार उनके बारे में भी पूछलूँ लेकिन संकोच कर गया।

इंटरव्यू के लिये कई बार ऐसे ऐसे नमूने मिले जो सपना पत्रकार बनने का रखते हैं लेकिन अख़बार पढ़ने से तौबा है। लेकिन दिल्ली में कई पढ़ने के शौक़ीन युवा साथी मिले। इनसे मिल के इसलिये अच्छा लगता है क्योंकि वो मुझसे कुछ ज़्यादा जानते हैं। जैसे आदित्य काफी शायरों को पढ़ चुके हैं और मैं उनसे पूछ लेता हूँ इनदिनों कौन अच्छा लिख रहा है। इतनी बडी इंटरनेट क्रांति के बावज़ूद बहुत से लेखकों से हमारा परिचय नहीं हो पाता। जो चल गया बस उसके पीछे सब चल देते हैं। इसके लिये हम सब को ये प्रयास करना चाहिये कि अगर कुछ अच्छा पढ़ने को मिले तो उसको अपने जान पहचान वालों के साथ साझा करें। तो अब आप कमेंट कर बतायें अपनी प्रिय तीन किताबें, उनके लेखक और क्या खास है उसमें।

जीवन सिर्फ सीखना और सिखाना है

मैंने अपना पत्रकारिता में करियर अंग्रेज़ी में शुरू किया और उसी में आगे बढ़ा। हिंदी प्रदेश का होने के कारण हिंदी समझने में कोई परेशानी नही होती है और ख़बर हिंदी में हो तो उसको अंग्रेजी में बनाने में भी कोई दिक्कत नहीं। इन सभी बातों का फायदा मिला और वो भी कैसे।

नासिर भाई ने अगर लिखना सिखाया तो दैनिक भास्कर के मेरे सीनियर और अब अज़ीज दोस्त विनोद तिवारी ने सरकारी दफ्तरों, अफसरों से ख़बर कैसे निकाली जाये ये सिखाया। विनोद के साथ भोपाल में नगर निगम और सचिवालय दोनों कवर कर मैंने बहुत कुछ सीखा। उन दिनों मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था लेकिन विनोद ने एक दिन चाय पीते हुये एलान कर दिया था कि मुझे पत्रकारिता का कीड़ा लग चुका है और मैं अब यहीं रहूँगा।

हिंदी के पाठक उस समय भी अंग्रेजी से ज़्यादा हुआ करते थे लेकिन मुझे अंग्रेज़ी में लिखना ही आसान लगता। उस समय ये नहीं मालूम था कि पन्द्रह साल बाद मैं भी हिंदी में अपना सफ़र शुरू करूंगा। थोड़ा अजीब भी लगता क्योंकि मेरे नाना हिंदी के लेखक थे और पिताजी भी हिंदी में कवितायें लिखते थे।

इंडिया.कॉम को जब हमने हिंदी में शुरू करने की सोची तो मेरे बॉस संदीप अमर ने पूछा कौन करेगा। मैंने हामी भर दी जबकि इससे पहले सारा काम सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी में ही किया था। लेकिन \”एक बार मैंने कमिटमेंट कर दी तो उसके बाद मैं अपने आप की भी नहीं सुनता\” की तर्ज़ पर मुंबई में लिखने वालों को ढूंढना शुरू किया। इसमें मुझे मिले अब्दुल कादिर। वो आये तो थे अंग्रेज़ी के लिये लेकिन वहाँ कोई जगह नहीं थी और उन्हें जहाँ वो उस समय काम कर रहे थे वो छोड़नी था। समस्या सिर्फ इतनी सी थी कि उन्होंने हिंदी में कभी लिखा नहीं था। लेकिन उन्होंने इसको एक चुनौती की तरह लिया और बेहतरीन काम किया और आज वो हिंदी टीम के लीड हैं।

\"img_20181118_16145193019437.jpg\"

आगे टीम में और लोगों की ज़रूरत थी तो कहीं से अल्ताफ़ शेख़ का नाम आया। अल्ताफ़ ने डिजिटल में काम नहीं किया था और हिंदी में लिखने में थोड़े कच्चे थे। शुरुआती दिनों में उनके साथ मेहनत करी और उसके बाद एक बार जब उन्हें इस पूरे खेल के नियम समझ में आ गए तो उन्होंने उसमें न केवल महारत हासिल कर की बल्कि उन्होंने अपना एक अलग स्थान बना लिया। हाँ शुरू के दिनों में अल्ताफ़ ने बहुत परेशान किया और शायद ही कोई ऐसा दिन जाता जब अल्ताफ़ पुराण न हो। लेकिन उनकी मेहनत में कोई कमी कभी नहीं आई और नतीजा सबके सामने है। इनके किस्सों की अलग पोस्ट बनती है!

अल्ताफ़ इन दिनों एक मनोरंजन वेबसाइट के कंटेंट हेड हैं और आये दिन फिल्मस्टार्स के साथ अपनी फोटो फेसबुक पर साझा करते रहते हैं। आज वो जिस मुकाम पर हैं उन्हें देख कर अच्छा लगता है। उनके चाहने वाले उन्हें लातूर का शाहरुख कहते हैं। लेकिन जिस तरह एक ही शाहरुख खान हैं वैसे ही एक ही अल्ताफ़ हैं। सबसे अलग, सबसे जुदा। जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें। हिंदी के टीम के बारे में विस्तार से फिर कभी।

काली कार की ढेर सारी रंगबिरंगी यादें

ऑफ़िस में एक नई कार आयी थी टेस्ट ड्राइव के लिए। टीम के सदस्य बता रहे थे कि कैसे उन्होंने कार चलाना सीखा। सुवासित ने बताया कि कैसे वो जब मारुती 800 सीख रहे थे तो चप्पल उतारकर गाड़ी चलाते थे की गलती से कहीं पैर ब्रेक के बजाए एक्सीलेटर पर स्लीप न हो जाये। प्रतीक्षा ने बताया कि उनको सीखने के दौरान डाँट पड़ी तो उन्होंने सीखना ही छोड़ दिया।

हमारे परिवार में एक विंटेज कार है। ऑस्टिन 10 जिसे मैं बचपन से देखता आ रहा हूँ। मेरा कार चलाना सीखना उसी पर हुआ। काले रंग की कार के चलते हमारा घर काली कार वाला घर के नाम से जाना जाता था। जब सीख रहा था तब सिर्फ ऑस्टिन में ही फ्लोर गियर थे। बाकी सभी गाड़ियों में स्टीयरिंग से लगे हुए गियर थे। तब लगता था इसी गाड़ी में गियर अलग क्यूँ हैं। आज सभी गाड़ियों में फ्लोर गियर देख कर लगता है ऑस्टिन ने अच्छी तैयारी करवा दी थी।

बहरहाल, गाड़ी सीखते समय पिताजी से काफी मार खाई। गियर और स्टेयरिंग का तालमेल बिठाना एक अलग ही काम लगता था। आजकल के पॉवर स्टेयरिंग के जैसे आराम से घूमने वाले स्टेयरिंग बहुत बाद में चलाने को मिले। ऑस्टिन का स्टेयरिंग बहुत ही मुश्किल से चलता था शुरुआत में। पूरी ताकत लग जाती गाड़ी घुमाने में।

जब पिताजी घर पर नहीं तो सामने जो छोटी सी जगह थी उसमें गाड़ी घुमाते। कई बार दीवार या गैरेज से कार टकराई। लेकिन ऑस्टिन की बॉडी मतलब लोहा। मजाल है एक ख़रोंच भी आये। जब कभी गाड़ी रोड पर निकलती तो नये ज़माने की नाज़ुक कारों के लिए डर लगता की कहीं ऑस्टिन से टकराकर वो चकनाचूर न हो जाएं।

एक बार देर रात परिवार के सदस्य और कुछ मेहमान कहीं से लौट रहे थे। सुनसान सड़क पर ज़ोर से आवाज़ हुई जैसे कुछ बड़ी सी चीज कहीं गिरी हो। पापा ने कार रोकी देखने के लिए। लेकिन रोड खाली। कहीं किसी जीव जंतु का नामोनिशान नहीं। ऑस्टिन स्टार्ट करी लेकिन कार आगे नहीं बढ़े। उतरकर देखा तो ड्राइवर साइड का जो बाहर निकला हुआ टायर का कवर था वो अंदर धंसा हुआ था। लोहे की बॉडी वाली ऑस्टिन के साथ क्या हुआ था ये एक सस्पेंस अभी भी बरकरार है। जब ये ठीक हो रही थी तो मेकैनिक भी परेशान की ये हुआ कैसे। उनका ये मानना था कि ज़रूर किसी खंबे से टकरा गई होगी।

आजकल की गाड़ियों के बॉंनेट खोलें तो समझ में नहीं आता कहाँ क्या है। अगर गाड़ी कहीं खड़ी हो जाये तो आपके पास हेल्पलाइन को फोन करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं बचता। लेकिन ऑस्टिन के इंजन जैसा बिल्कुल सिंपल सा इंजन मैंने आजतक नहीं देखा। गाड़ी कहीं खड़ी हो जाये तो आप कोशिश कर सुधारकर आगे चल सकते हैं।

ऑस्टिन में अनुज की बिदाई

ऑस्टिन के साथ बहुत सारी यादें हैं। बहुत ही मज़ेदार भी। जैसे जब हम कहीं से लौट रहे थे तो स्टेयरिंग जाम हो गया। गाड़ी मोड़ रहे थे उल्टे हाथ की तरफ लेकिन गाड़ी सीधे चली जा रही थी। या जब हमारी गाड़ी के बगल से किसी गाड़ी का एक टायर निकला। सब बोले अरे देखो ये क्या है। वो तो जब ऑस्टिन का पिछला हिस्सा तिरछा हुआ तो समझ में आया कि ये तो अपनी कार का टायर निकल गया है।

आखरी बार ऑस्टिन चलाने की याद है जब छोटे भाई की शादी की बिदाई हुई। दोनों भाई अपनी पत्नी के साथ ऑस्टिन का आनद ले रहे थे कि पेट्रोल खत्म हो गए। शेरवानी पहने दूल्हे राजा गए थे पेट्रोल लाने। लोगों ने बहुत दिए लेकिन ऑस्टिन ने कभी धोका नहीं दिया।

आज भी जब कभी गाड़ी चलाते हैं तो काली कार की याद आ ही जाती है।

दिवाली के बहाने कुछ अन्दर की, कुछ बाहर की सफाई

बीते दिनों दीवाली पर घर जाना हुआ। चूंकि इन दिनों समय ही समय है तो ज़्यादा आनन्द लिया भोपाल यात्रा का। अब चालीस पार हो गए हैं तो हमारे समय में लिखना अटपटा नहीं लगता। जब हम पिताजी को मिले सरकारी मकान में रहते थे तो हर साल दीवाली के पहले घर में सरकार की तरफ से रंगरोगन करवाया जाता था।

उस समय स्कूलों की दीवाली की छुट्टियां दशहरे से शुरू होती थीं और दीवाली तक चलती थीं। तो इस रंगरोगन या पुताई के कार्यक्रम के समय हम चारों भाई बहन घर पर रहते थे। जिस दिन ये काम होना होता था उस दिन सुबह से माँ रसोई में खाने की तैयारी करतीं और हम लोग सामान बाहर निकालने का काम। कुछ बडी अलमारियों को छोड़ कर बाकी पूरा सामान घर के बाहर। किताबों को धूप दिखाई जाती। चूंकि इसके ठीक बाद सर्दियों का आगमन होता तो गर्म कपड़े भी बाहर धूप में रखे जाते।

इस सालाना कार्यक्रम में बहुत सी सफाई हो जाती। रंगरोगन तो एक दिन में हो जाता लेकिन सामान जमाने का कार्यक्रम अगले कुछ दिनों तक चलता। कुछ सालों बाद सरकार जागी तो ये कार्यक्रम दो साल में एक बार होने लगा और जब हमने वो मकान छोड़ा तो सरकार ने इसका आधा पैसा रहवासियों से वसूलना शुरू कर दिया था।

अपने आसपास सरकारी घर ही थे और बहुत थोड़े से लोग थे जिनके खुद के मकान थे तो ये पता नहीं चलता था उनके यहाँ रंगरोगन का अंतराल क्या है। वो तो जब दिल्ली, मुम्बई में रहने आये तो पता चला कि ये पाँच साल में या उससे अधिक समय में होता है।

पिताजी की सेवानिवृत्त के बाद अपने मकान में रहने लगे तो सालाना रंगरोगन का कार्यक्रम पूरे घर का तो नहीं बस भगवान घर तक सीमित हो गया है। चूँकि पहुंचते ही एन दीवाली के पहले हैं तो माता-पिता सफ़ाई वगैरह करवा के रखते हैं। उसपर पिताजी की हिदायत उनके किसी समान को उसकी जगह से हिलाया न जाये। हाँ, दीवाली की सफाई ज़रूर होती है लेकिन उतनी व्यापक स्तर पर नहीं जब आप घर पेंट करवा रहे हों। सामान सब वहीं रखे रहते हैं और हम बस उसके आसपास सफाई कर आगे बढ़ जाते हैं।

सरकारी घर में कुछेक बार तो ऐसा भी हुआ कि हम लोग सुबह से सामान बाहर निकाल कर तैयार और पता चला काम करने वाले उस दिन छुट्टी पर हैं। इन दिनों भारत के क्रिकेट मैच भी चलते थे तो टीवी को उसकी जगह से हिलाया नहीं जाता। घर में पेंट हो रहा है और मैच का आनंद भी लिया जा रहा है। जितने भी बल्ब और ट्यूबलाइट लगे होते उन्हें अच्छे से धो कर लगाया जाता। नये रंगे कमरे की चमक साफ किये बल्ब की रोशनी में कुछ और ही होती। आजकल त्योहार मनाने का तरीका बदल गया है। होता सब कुछ वही है लेकिन लगता है कुछ कमी है।

सोचिये अगर हम हर साल कुछ दिन निकाल कर अपने अंदर की ईर्ष्या, द्वेष, भय, अभिमान और अहंकार की भी सफ़ाई कर लें तो न सिर्फ हमारे संबधों में बल्कि स्वयं हमारे व्यकितत्व में भी कितनी ख़ालिस चमक आ जायेगी।

क्या सोचते हैं लोग आपके बारे में

पिछले दिनों रिलीज़ हुई फ़िल्म ठग्स ऑफ हिन्दोस्तां बॉक्सऑफिस पर ढ़ेर हो गयी। और ऐसी ढ़ेर की अब उसकी मिसाल दी जायेगी। लेकिन इस फ़िल्म की विफलता दरअसल एक बहुत बड़ी सीख दे गई जो है तो बहुत पुरानी लेकिन आज भी उतनी सही।

कान के कच्चे कहावत आपने सुनी होगी। लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं। हम अपने जीवन का एक बहुत लंबा समय इसी सोच में लगा देते हैं। मसलन मैंने अगर अच्छे कपड़े पहने हैं और अगर मुझे एक भी वाह वाह नहीं मिली या मेरी किसी पोस्ट को किसी ने पसन्द नहीं किया तो मैं दुखी। दुखी इसलिए कि सामने वाले ने मेरे प्रयास को सराहा नहीं।

ऐसा इसलिये की हम शुरू से ही ऐसी सोच बना लेते हैं कि अगर कोई तारीफ़ करे, वो भले ही झूठी हो, तभी सब अच्छा है। हमारे आसपास ऐसा ही माहौल रहता है। इसका ये मतलब कतई न निकालें की किसी की झूठी तारीफ़ न करें। पतियों के लिए फ़िर तो जीना मुश्किल हो जायेगा।

हम चाहते हैं कि समाज या उसमे रहने वाले लोग हमें अपनाये लेकिन उनकी शर्तों पर। और हम हर बार ये शर्त मान लेते हैं बिना किसी सवाल के। इस पूरे प्रकरण से मुझे कोई परेशानी नहीं। लेकिन तब परेशान हो जाता हूँ जब हम अपने काम दूसरे लोगों के हिसाब से करने लगते हैं क्योंकि उसके करने से सब खुश होते हैं और हम भी उसमे ही अपनी खुशी तलाशते हैं।

आप में से कितने लोगों ने ठग्स ऑफ हिन्दोस्तां सिनेमाघरों में जाकर देखी और फ़िर अपनी राय बनाई? जितने लोगों से मुझे फ़िल्म के बारे में सुनने को मिला वो ठीक ठाक ही था। लेकिन जिस तरह का कैंपेन फ़िल्म के खिलाफ चलाया गया लगा उससे बुरी फ़िल्म तो बनी ही नहीं है। लेकिन लोग अपने मिशन में कामयाब रहे – फ़िल्म के ख़िलाफ़ धारणा बनाने में।

मतलब ये की फ़िल्म देखी हो या नहीं बस बोल दो खराब है। कुछ वैसा ही जैसा लोगों के साथ होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है फ़िल्म मिली। अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी की फ़िल्म में पूरी सोसाइटी अमिताभ बच्चन की एक नेगेटिव इमेज बनाने की कोशिश करती है। इसमें सभी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं लेकिन असल में अमिताभ बच्चन कैसे हैं ये सिर्फ मिली को उनसे मिलने के बाद पता चलता है।

कुछ वैसा ही हमारे साथ होता है और हम भी बाकी लोगों के साथ इस कर्मकांड में जाने अनजाने इसका हिस्सा बन जाते हैं। लेकिन अगर हम यही सोचते रहे तो अपना काम कैसे कर पायेंगे? हम अक्सर सही करने के बजाये वो कर बैठते हैं जिसको लोगों की सहमति प्राप्त हो।

मुम्बई जैसी कोई दूसरी जगह नहीं

मुम्बई-पुणे की पहली यात्रा के बारे में पहले बता चुका हूँ। जब दूसरी बार इसको कार्यस्थल बनाने का मौका मिला तो बिना कोई मौका गवाएँ मैंने हामी भर दी। एक बार भोपाल छुटा तो फिर सब जगह बराबर ही थीं। जुलाई 2000 में PTI ने मुंबई तबादला कर दिया और थोड़ा सा सामान और ढेर सारी यादों के साथ मायानगरी के लिये प्रस्थान कर दिया।

जो भी कोई मुम्बई आ चुका या रह चुका है वो ये समझेगा की मुम्बई जैसी कोई दूसरी जगह नहीं। आप शिकायत करते करते भी इसके तौर तरीके अपना लेते हैं और इसका एहसास आपको तब होता है जब आप कहीं और जाते हैं। मसलन यहाँ सुबह सब के लिये जल्दी होती है और दुकाने भी जल्दी खुल जाती हैं। कुछ दिनों बाद भोपाल गया तो लगा वहां सब चीज़ें स्लो मोशन में चल रहीं हैं।

मुम्बई पर वापस आते हैं। PTI ने चेम्बूर में एक फ्लैट को गेस्ट हाउस का नाम दे दिया था लेकिन ऐसी कोई सहूलियतें नहीं दिन थी। खाने का इंतज़ाम आपकी ज़िम्मेदारी थी। जल्द ही यहां कुछ नए प्राणी आने वाले थे और एक नीरस सा गेस्ट हाउस एक हंगामे वाली जगह बनने वाली थी।

मुम्बई लोकल में घुसना एक कला है जो आप धीरे धीरे सीख लेते हैं या यूँ कहें रोज़ रोज़ की धक्कामुक्की आपको सीखा देती हैं। शुरुआती हफ्ता थोड़ा समझने में गया। लेकिन फिर कौन सा डिब्बा पकड़ना है से लेकर कौन सी लोकल पकड़नी है सब सीखते गये। चेम्बूर के पास ही है तिलक नगर स्टेशन जिसने मुझे फिर से भोपाल से जोड़े रखा।

चेम्बूर में एक रेस्टॉरेंट है जहां प्रसिद्ध कलाकार, निर्माता, निर्देशक राज कपुर जी आते थे। एकाध बार खुद खा कर अपने आप को काफी गौरान्वित महसूस करने लगें लेकिन फिर ये भी सोचा कि आखिर ऐसा खास क्या हैं यहां के खाने में। लेकिन कोई मुम्बई आता तो उसको ज़रूर लेके जाते। इस उम्मीद पर की शायद वो बताएं। लेकिन सभी मेरे खयाल से मुझ जैसा ही रियेक्ट कर रहे थे।

PTI मुम्बई में काफी बदलाव हो रहे थे जब हमारा तबादला यहाँ किया गया। यह एक अलग चुनौती थी जिसका सामना करने के अलावा और कोई चारा नही था। लेकिन यहां के डेस्क और रिपोर्टिंग स्टाफ के सदस्यों ने बहुत ध्यान रखा। और ये इसका ही नतीजा है आज भी इन सभी से संपर्क बना हुआ है।

मुम्बई की बारिश का तब तक सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर देख कर आनंद ही लिया था। उसके कहर को झेला नहीं था। लेकिंन वो दिन भी जल्दी आ गया जब ज़ोरदार बारिश के चलते मुम्बई ठप्प हो गयी थी। कैसे सामना किया इसका?

जीवन एक गीत है तो कोरस है अनुभव

एक बार फिर मुम्बई। आज कार में सफ़र करते समय रेडियो पर ज़माने को दिखाना है फ़िल्म का गाना दिल लेना खेल है दिलदार का चल रहा था। इस गाने के बीच में कुछ कोरस गाता है जिसका कोई मतलब इतने वर्षों मे समझ ही नहीँ आया। ये कोई अकेला गाना नहीं है जिसमे ऐसा कुछ है। आर डी बर्मन के बहुत से ऐसे गाने हैं जिनमे ऐसा कुछ सुनने के लिए अक्सर मिलता है। इसमें कितना योगदान RDB का हैं और कितना फ़िल्म से जुड़े अन्य लोगों का ये शोध का विषय हो सकता है। लेकिन ये कहना कि इस उटपटांग कोरस को सिर्फ RDB ने ही इस्तेमाल किया है तो गलत होगा।

हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है। सब एक सुर, ताल में बँधे चलते रहते हैं और अचानक एक अलग सा कोरस शुरू हो जाता है जिसका कोई मतलब समझ में तो नहीं आता। लेकिन ये कोरस गाने में इस तरह से गुंथा जाता है कि आपको वो गाने से अलग नहीं लगता। जीवन में ये कोरस को आप अनुभव कह सकते हैं। अच्छे और बुरे सभी अनुभव हमारी इस यात्रा को यादगार बना देते हैं।

अब ये आप पर निर्भर है कि आप उस कोरस को अलग से निकाल कर उसका सुक्ष्म परीक्षण कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं या उसको गुनगुनाते हुए अपने गाने पर वापस आना चाहते हैं। कई बार हम लोग गाना भूल कोरस पर ही अपना ध्यान रखते हैं।

अगर हम किशोर कुमार के गाये हुए फ़िल्म शालीमार के गीत हम बेवफा हरगिज़ न थे कभी सुने तो ये बात औऱ अच्छे से समझ सकते हैं। गाना दिल टूटने की दास्तां बयाँ कर रहा है और उसका कोरस उतना ही ज़्यादा मज़ेदार। कभी फुरसत में सुनियेगा। अब अगर मैं इसके बाकी बैकग्राउंड को ध्यान में रखूं तो गाने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है।

वैसे आजकल के ज़्यादातर गाने बिना किसी मतलब के ही होतें है। क्या यही कारण है कि आज भी लोग उन पुराने गीतों को पसंद करते हैं या रीमिक्स कर बिगाड़ देते हैं?

वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है

आज से ठीक एक महीने पहले दिल्ली से जब ट्रेन में बैठा था तो वो शाम भी कुछ अजीब थी और आज की ये शाम भी कुछ उस शाम जैसी ही है। 29 सितंबर को जब मैं हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर अपनी ट्रैन की ओर कदम बढ़ा रहा तो जो समान दिख नहीं रहा था उसका बोझ सबसे ज़्यादा था और वो थीं अनगिनत यादें। समेटना भी मुश्किल और सहेज कर रखना भी मुश्किल।

दिल्ली और 15 नवंबर से शुरू हुई नई पारी।का अंत होने जा रहा था। लेकिन ये बीता समय कमाल का था। कुछ नए प्रतिभावान टीम के सदस्यों के साथ काम करने का मौका मिला। हमारी नई शुरुआत को सराहा गया, गलतियों को बताया गया और जोश एवं उल्लास के साथ कुछ अच्छा और अलग करने का निरंतर प्रयास किया।

इस पूरे प्रवास की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कलम में सुखी हुई स्याही को बदलने की और फिर से लिखने की। हालांकि ये प्रक्रिया की शुरुआत काफी अच्छी रही लेकिन जैसे जैसे काम तेजी पकड़ने लगा लिखना कम होता गया। प्रयास होगा कि इसे पुनर्जीवित कर निरंतरता कायम रहे।

नाम और उसमें छिपे धर्म को तलाशती दुनिया

मेरे नाम को लेकर मुझे सिर्फ परीक्षा के समय छोड़कर कभी कोई परेशानी नहीं हुई। परीक्षा में इसलिए कि मेरा नंबर पहले 10 में आता ही था और परीक्षक के लिए मैं जैसे उसकी प्रार्थना का उत्तर था। अलबत्ता लोगों को ज़रूर हैरानी होती की असीम नाम होते हुए भी मैं कड़ा, अंगूठी और कलावा बाँधे रहता था।

जब कभी किसी को मेरे मन्दिर या मस्जिद जाने का ख़याल आता तो पूछ लेते नाम का मतलब। मैं उन्हें कभी आसमान का हवाला देता जो असीमित है या जुआ खेलने की उस टेबल का जिसमे पैसे लगाने की कोई सीमा नहीं होती या फिर शादी के कार्ड का हवाला देता जहाँ अकसर मेरा ज़िक्र होता – परमात्मा की असीम कृपा से …। चूंकि अधिकतर ऐसे संशय अच्छे पढ़े लिखे लोगों की तरफ से व्यक्त किये जाते तो थोड़ी निराशा भी होती।

अच्छा मज़ेदार बात ये की दोनो तरफ के लोग मुझे अपनी बिरादरी का मानते। जब नौकरी के लिये एक संस्था जॉइन करी तो वहां के एक वरिष्ठ पत्रकार ने भी पूछ ही लिया – मौलाना हो क्या। चूँकि वसीम और असीम में खासा अंतर नाही दिखाई और सुनाई देता है, तो मेरी ये मुश्किल ताउम्र रहने वाली है। मेरे से ज़्यादा उनकी जो मेरे नाम के पीछे छिपे मेरे धर्म को ढूंढना चाहते हैं। अब अंगूठी, कड़ा पहनना छोड़ दिया तो मुश्किल और बढ़ जाती है।

ऐसे ही लोगों की परेशान बढ़ाने के लिये मैं अक्सर अपना पहला नाम ही इस्तेमाल करता हूँ। पिछले दिनों ऑफिस जाने के लिये गाड़ी में बैठने लगा तो ड्राइवर दुआ सलाम करने लगा। मैंने भी शुक्रिया कहते हुए उसका वहम बनाये रखा।

जब शादी की बात हुई और तय हुई तो मुझे तो अपने नाम को लेकर कोई सफाई नहीं देनी पड़ी लेकिन मेरी होने वाली जीवनसंगिनी की सहेलियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनकी शादी असीम नाम के व्यक्ति से हो रही है। उनसे पूछा गया की लव मैरिज कर रही हो। ये सवाल उनसे आज भी पूछा जाता है।

आसीम, अशीम, आशिम या असीम किसी भी नाम से बुलायें लेकिन मेरे नाम के पीछे कुछ ढूंढने की कोशिश मत करें।

दिल्ली के मौसम के मिज़ाज़ और कुल्फी की मीठी यादें

जब नवंबर में दिल्ली आया था तो यहाँ की सर्दी को लेकर थोड़ा सा चिंतित था। दिल्ली में पहले भी रह चुका था और उससे पहले भोपाल में था तो सर्दियों से परिचय काफी पुराना था और सच कहिए तो बारिश के बाद मुझे सर्दियां बहुत पसंद हैं। गर्मियों से ऐसी कोई नाराज़गी भी नहीं है लेकिन \’खाते पीते\’ घर से हैं तो शरीर गर्मी कम बर्दाश्त कर पाता है।

बहरहाल, सर्दियों की उस समय शुरुआत ही थी और एक दो दिन छोड़ दें तो पूरी सर्दी दिल्ली की सर्दी का इंतज़ार करते गुज़र गयी। जब मार्च खत्म होने को था तो मेरी सहयोगी प्रतीक्षा ने कहा आप गर्मी का इंतज़ार करिये। आपकी हालत खराब हो जायेगी। पंद्रह साल से मुंबई की उमस भरी गर्मी झेली थी और उससे पहले भोपाल की, तो लगा इसमे क्या है।

खैर जैसे जैसे गर्मी बढ़ती गयी प्रतीक्षा की बात सच होती गयी। उसपर सोने पर सुहागा वो घर जिसमें इन दिनों रह रहे हैं। वो है टॉप फ्लोर पर और पंखा चलाइये तो सही में आग बरसती है।

मुम्बई की उमसी गर्मी को छोड़ दें तो भोपाल की गर्मियों की यादें बड़ी ही मीठी हैं। सभी बुआओं का बच्चों समेत भोपाल आना होता और पूरी मंडली की धमाचौकड़ी चलती रहती। गर्मी उन दिनों भी रहती थी लेकिन पंखे से ही काम चलता था।

पहला कूलर जो गुलमर्ग नाम से था वाकई में बहुत ठंडक देता था। उस सेकंड हैंड कूलर की दो खास बातें और थीं। एक तो वो कभी कभार पानी भी फेंकने लगता लेकिन गर्मी थी तो कोई शिकायत नहीं करता। दूसरी बात थी उसकी बॉडी। आजकल तो सब फाइबर का है। गुलमर्ग की बॉडी खालिस लोहे की। चलते में हाथ लग जाये तो बस बदन नाच उठे। लेकिन तब भी एक कूलर में ही गर्मी कट जाती थी।

जो मीठी यादें कहा उसका एक और कारण है। कुल्फी। ठेले की कुल्फी जो भरी दोपहरी में खाई जाए। शुरू में फ्रिज तो था नहीं इसलिए खरीदो और खाओ। मस्ताना कुल्फी के नाम से वो ठेले वाला जब घंटी बजाता हुआ आता हम लोग दरवाज़े के बाहर। वैसी कुल्फी का स्वाद आज भी नहीं मिला। जब फ्रिज आया तो शाम के लिये कुल्फी रखी जाने लगीं। अब ये जगह आइस्क्रीम ने ले ली है।

प्रतीक्षा ने पहले से डरा रखा है कि जून और खराब होगा। लेकिन मुम्बई में तब तक बारिश शुरू हो चुकी होगी। इस बार मुम्बई की बारिश में भीगने का मौका कब मिलता है इसका इंतज़ार रहेगा।