माई-बाप संस्कृति के मारे ये नेता बेचारे

आमिर खान की जो जीता वही सिकंदर एक यादगार फ़िल्म है और इसके कई कारण भी है। पहले तो खुद आमिर खान। फिर फ़िल्म के गाने जो एक पीढ़ी के बाद अब दूसरी पीढ़ी की पसंद बन गए हैं। मगर उससे भी जो अच्छी बात उस फिल्म में थी वो थी भारत में व्याप्त माई बाप की संस्कृति का चित्रण।

आज जब बीजेपी के सांसद महोदय ट्रैन किस टाइम पर कहाँ आये इसका निर्देश देते हुए देखे गए तो मुझे इस फ़िल्म की याद आ गयी। आमिर खान जो एक बहुत अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ते हैं पूजा बेदी को ये झूठ बोलकर की वो सबसे अच्छे स्कूल के छात्र हैं, अपने प्रेमजाल में फंसना चाहते हैं। ऐसा होता नहीं है और पोल खुलने पर पूजा बेदी उन्हें छोड़ एक बड़े घर के लड़के के साथ हो लेती हैं।

फ़िल्म में एक सीन है जिसमे आमिर खान आयशा झुलका के वर्कशॉप से गाड़ी लेकर भाग जाते हैं और रास्ते में उन्हें पूजा बेदी मिल जाती हैं। उनके दोस्त उन्हें पूजा बेदी के साथ देख उन्हें अन्नदाता मानते हुए कुछ बख्शीश मांग लेते हैं। आमिर खान भी एक रईस आदमी की तरह बर्ताव करते हैं और कुछ पैसे दे देते हैं।

अब आप ये सोच रहे होंगे कि आज मैं क्यों इस फ़िल्म के सीन बता रहा हूँ। दरसअल मैंने दिल्ली के बड़े बड़े बंगले देखे। जिसमे अलग अलग ओहदे पर बैठे हुए मंत्री व अधिकारी रहते हैं। उन मंत्री महोदय का भी बड़ा सा बंगला देखा जिन्होंने पिछले दिनों कहा कि वो भारतीय नौसेना के अधिकारियों को मुम्बई के पॉश इलाके में ज़मीन नहीं देंगे। किसी ने टिप्पणी करी की फिर मंत्रियों को भी वसई विरार जो कि मुम्बई से काफी दूर हैं, वहां जा कर रहें। यह संभव तो नहीं है क्योंकि राज नेताओं को सिर्फ जनता का सेवक होने का मौका मिलना चाहिए। असल में तो वो अपनी ही रोटियाँ सेकते रहते हैं।

दिल्ली के बंगलों को देख कर यही खयाल आया कि इतने बड़े बड़े ये बंगले जनता के सेवकों के लिये क्यों? कई बंगले तो इतने बड़े लगे कि भारत के कई छोटे छोटे गांव के गाँव उनमे रह सकते हैं। यह अलग बात है कि असली भारत के यह नागरिक कभी ऐसे घरों का आंनद नहीं ले पायेंगे।

लेकिन आज सांसद महोदय ने ये साबित कर दिया कि माई बाप संस्कृति भारत से कहीं नहीं जाने वाली। हम और आप उनके लिए घंटों गर्मी में रास्ता देने के लिए खड़े रहें वो अपनी एयरकंडीशनर वाली गाड़ी से फुर्र हो जायेंगे।

अपूर्व से यादगार मुलाक़ात – पहली और आखिरी

अपूर्व (मनु) से मुलाक़त उनका बारे में काफी किस्से सुनने के बहुत समय बाद हुई। और वो जो मुलाक़ात हुई वो यादगार बन गयी। मनु हमारी पीढ़ी के पहले सैनिक अधिकारी थे। मतलब जिनसे मेरा साक्षात मिलना हुआ। सुनते तो कइयों के बारे में थे कि वो ऑफिसर हैं लेकिन मिलना मनु से हुआ। शायद मनु ही परिवार के कई और बच्चों की प्रेरणा के स्त्रोत भी बने।

मनु जब पहली बार हमारे यहां आए थे तो उनकी बुआ की बेटी का तिलक लेके। भाइयों की फौज भोपाल में इकट्ठा हमारे ही घर हुई थी। हम सब तिलक लेकर गए और कार्यक्रम खत्म कर घर लौट रहे थे। उस रात बहुत तेज़ बारिश हो रही थी और हम सब बड़े चाचा की फ़िएट कार में घर लौट रहे थे।

आप में से जिनका कभी भोपाल जाना हुआ हो तो जानते होंगे कि भोपाल में सड़कें काफी उतार चढ़ाव वाली हैं। रात में बारिश काफी जोर से हो रही थी और सड़क पर पानी भरा हुआ था। सब लड़के मस्ती के मूड में और बारिश। बस गाड़ी दौड़ रही थी और ऐसे ही एक चढ़ाई के एन पहले रोड पर जमा हुए पानी से गाड़ी स्टाइल से निकाली गई। लेकिन ये क्या- चढ़ाई आधी ही चढ़ी थी कि गाड़ी बंद और लुढ़कने लगी वापस।

विवेक वर्मा जो आज भी ऑटो एक्सपर्ट हैं, काफी कोशिश करी की कार ज़िंदा हो जाये लेकिन सभी प्रयास असफल रहे। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो हुआ नहीं करते थे सो मदद कैसे मंगायी जाए इस पर विचार चल रहा था। सभी भाई जो तिलक के लिए तैयार होकर निकले थे कुछ देर में सड़क पर भीगते हुए कार को धक्का लगाते हुए वापस घर पहुंचे। वहाँ सबकी अच्छी ‘खातिरदारी’ हुई।

लेकिन इन सबके बाद भी मनु की आंखों में नींद नहीं। उन दिनों फुटबॉल वर्ल्डकप चल रहा था और मनु को देखना था मैच। बस चाय के साथ मनु मैच देखकर सोए। ये मेरी मनु से पहली मुलाक़ात थी। बीच में मनु की पोस्टिंग के बारे में सुनता रहता लेकिन मिलना नही हुआ।

जब माँ ने कल बताया कि मस्तिष्क ज्वर के कारण मनु नही रहा तो एक धक्का सा लगा और उस रात का वाकया फिर से आँखों के सामने आ गया। अब तुम उस और धमाल करोगे मनु, इसी विश्वास के साथ।

जीवन की सीख: रास्ते खुद ढूँढोगे तो कभी भटकोगे नहीं

फिल्मों में पुलिस कब से देख रहे याद नहीं। लेकिन पहली बार एकदम नज़दीक से पुलिस अफ़सर को देखा था तब मैं बहुत छोटा था। शायद भिलाई शहर था। ख़ैर उस समय ज़्यादा कुछ समझ में भी नहीं आता था। बस यही दिखता की सब सैल्यूट करते हैं।

जब थोड़े बड़े हुए तो पता चला वो जो पुलिस की वर्दी में हैं वो इन दिनों विदेश में हैं किसी केस के सिलसिले में। लौटने पर घर की बेटियों के लिए कुछ न कुछ अवश्य लाते। बीच में कई बार उनके यहां जाने का और रुकने का मौका मिला। जब छोटे शहर में पोस्टिंग थी तो बड़े बंगले मिलते। दिल्ली, जहां उन्होंने अपना सबसे अधिक समय बिताया, वहां आर के पुरम में रहते थे फिर बाद में मोती बाग़ इलाके में घर मिला।

इन मुलाक़ातों में ज़्यादा बातचीत नहीं होती। वो जितना पूछते उतने का ही जवाब। पढ़ाई में वैसे ही फ़िसड्डी तो बचते रहते कहीं उस से संबंधित कोई सवाल न पूछ लें। वो तो जब बारहवीं के बाद कुछ परीक्षा देने दिल्ली आये तब बचने का कोई उपाय ही नहीं था।

एक दिन सुबह तैयार होकर बोले चलो अपना एग्जाम सेन्टर देख लो कहाँ जाना है। लेकिन वहां से घर अपने आप आना पड़ेगा। दिल्ली के बारे में पता कुछ नहीं था और डर भी लगता था। मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था और आँख से आँसू निकल पड़े। तब मुझे एक सीख उन्होंने दी – रास्ते खुद ढूँढोगे तो कभी भुलोगे नहीं।

ऐसे ही बहुत सी अनगिनत यादें हैं पूज्यनीय मामाजी की। उनका पूरा जीवन ही एक सीख है। पुलिस के सबसे बड़े ओहदे पर रहते हुए भी एकदम सादा जीवन। पढ़ने के बेहद शौक़ीन और भाषाओं के ज्ञानी। इसकी संभावना कम ही थी की आप उनसे मिलें और प्रभावित न हों। ये मेरे लिये निश्चित ही बहुत बड़े सौभाग्य की बात है कि उनको इतने करीब से जानने का मौका मिला। पिछले दिनों फ़िल्म रेड देखी तो उनकी बड़ी याद आयी। कुछ ऐसे ही थे मेरे मामाजी। परिवार में दोनों छोर के सरकारी अफ़सर देखे। एक तो मामाजी जैसे और दूसरे जो बड़े बडे घपले कर पैसे खा कर भी 56 इंच का सीना चौड़ा कर सामने रहते।

उनके व्यक्तित्व के बारे में, मेरे पत्रकारिता करियर में उनका योगदान और मज़ेदार किस्सा कैसे वो मेरे मामा बने फिर कभी। आज उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन।

आध्यात्म और विपासना की ओर

अध्यात्म में रुचि का कोई खास कारण तो याद नहीं पड़ता लेकिन पढ़ने के शौक़ ने थोड़ी बहुत जिज्ञासा जगाई। परिवार के लोग अलग अलग धर्म गुरुओं को मानते हैं और कहीं न कहीं उसका भी असर पड़ा। लेकिन घर में माहौल कुछ ऐसा नहीं था कि कोई किसी धर्म गुरु का ही पालन करे। इसलिए मैंने जब एक धर्म गुरु के प्रति अपनी रुचि दिखाई तो ऐसा माना गया कि हम भी मानने लगेंगे उन्हें। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं।

टीवी पर तो जैसे इन गुरुओं की बाढ़ सी आ गयी है। सुबह अगर आप सबको सुनने बैठ जाएं तो बाकी सभी काम छूट जाएं। विपासना के बारे में पहली बार PTI के मेरे सहयोगी रणविजय सिंह यादव से सुना था। इनके इगतपुरी सेन्टर के बारे में सुना था और वहीं जाने की इच्छा भी थी। लेकिन कोर्स हमेशा ही भरा रहता। पिछले वर्ष मुझे ये कोर्स संस्था द्वारा संचालित नवी मुम्बई के केंद्र में करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

मुझे ये तो पता था कि ये मुश्किल होगा। दस दिन बिना किसी से बात किये, बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं, कुछ लिखना पढ़ना नहीं बस ध्यान करना। और खानपान भी एकदम सादा और शाम 6 बजे के बाद कुछ खाने को नहीं।
लेकिन वो दस दिन कमाल के थे। आपके आस पास लोग थे लेकिन आप उनसे बात नहीं कर सकते। किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो कागज़ की पर्ची पर लिख दें। और जिस मोबाइल पर ये पोस्ट लिख रहा हूँ वही जिसपर जाने अनजाने हर पाँच मिनट में नज़र पड़ ही जाती है और फ़िर अगले 15 मिनट कुछ भी देखते हुए बीत जाते हैं, उसके बिना रहने का अनुभव।

आज भी उन दस दिनों के बारे में सोचता हूँ तो लगता है वो किसी और जन्म की बात है। उस कोर्स का कितना फ़ायदा हुआ? मैं एक बार फिर से उन दस दिनों की राह देख रहा हूँ। शायद यही उस कोर्स की सबसे बड़ी उपलब्धि है। अगर आपको कभी मौका मिले तो ज़रूर जाएं और दस दिन दीजिये अपने आपको।

उम्र के अलग अलग पड़ाव के अलग अलग दोस्त

बीते 14 फरवरी को ऑफिस में टीम के सदस्य ऐसे ही सबको गाने समर्पित कर रहे थे। किसी ने आयुष्मान खुराना और परिणीति चोपड़ा पर फिल्माया गया गाना माना कि हम यार नहीं ये तय है कि प्यार नहीं की फ़सरमेश करी। ये गाना पहले भी कई बार सुना था लेकिन उस दिन जब इसको सुना तो याद आये यार दोस्त।

कहते नही हैं ना कि दोस्त खास होते हैं क्योंकि बाकी रिश्तेदारों की तरह वो आपको विरासत में नहीं मिलते। उन्हें आप चुनते हैं। स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दोस्त ऑफिस के दोस्त और वो आस पड़ोस वाले दोस्त जिनके साथ आप बड़े हुए हैं। इनमे से सबके साथ आपकी ट्यूनिंग अलग अलग होती है।

मैं ये मानता हूँ कि आपके दोस्त तो कई होते हैं लेकिन एक या दो ही ऐसे दोस्त होते हैं जो कि आपको समझते हैं और जिनसे आप कोई भी बात बिना झिझक कर सकते हैं। वो सभी बातें जो आप अपने बाकी सभी दोस्तों से नहीं कर सकते या परिवार के भी किसी सदस्य से नहीं। अंग्रेज़ी में इन्हें 3 AM दोस्त कहते हैं। मतलब आपको उन्हें रात के 3 बजे अगर फ़ोन करना हो तो सोचे नहीं और बस फ़ोन करदें। और दुसरी ओर जो व्यक्ति है वो भी ये ना सोचे कि क्या 3 बजे फ़ोन कोई फ़ोन करता है।

कॉलेज के दिनों में जय कृष्णन मुझे मिले और हमने कॉलेज के अपने छोटे से साथ का बहुत आनंद लिया। क्लास में बैठकर टेबल पीट पीट कर गाने गाना और फिल्में देखना। बहुत ही यादगार रहा जब तक जय ग्वालियर में होटल मैनेजमेंट पढ़ने नहीं चले गए। उसके पहले बीएचईएल की टाउनशिप में जय जहाँ रहते थे, उनके माध्यम से मेरी मुलाकात हुई सलिल से।

जय तो चले गए लेकिन सलिल से मेरी दोस्ती बढ़ती गयी क्योंकि हम लोग एक ही कॉलेज में थे जिसका पता मुझे बाद में चला। ज़्यादा किसी से बात नहीं करते थे लेकिन मेरी उनकी फ्रीक्वेंसी मैच कर ही गयी।

सलिल वही शख्स हैं जिनके बारे मैंने पहले एक बार लिखा था। जिन्हें मैंने भोपाल स्टेशन टाइम बेटाइम बुला कर परेशान किया और सलिल ने दोस्ती का फर्ज निभाते हुए और निश्चित रूप से घरवालों से डाँट खाते हुए ये फ़र्ज़ बखूबी निभाया। आज उनके जन्मदिन पर ढेरों बधाइयाँ और शुभकाननाएँ। और ये गाना भी उनके ही लिये।

एसिड हमले की शिकार लक्ष्मी से एक मुलाक़ात

महिला दिवस पर एसिड अटैक पीड़िता लक्ष्मी से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने इस दर्दनाक घटना के बाद परिवार से मिले सहयोग और कैसे उनके माता पिता ने उनको प्रेरित किया कि वो एक आम ज़िन्दगी जी सकें इस बारे में बताया। उस समय जब लक्ष्मी अपने भविष्य के सपने बुनने में लगी हुई थीं तब किसी ने उनके इंकार का ऐसा बदला लिया। लेकिन माता पिता ने उनके साथ खड़े होकर, कंधे से कंधा मिलाकर इस लड़ाई में उनका साथ दिया।

माता-पिता की हमारे जीवन में एक खास जगह होती है। हमारे पहले शिक्षक और आगे दोस्त भी बन जाते हैं। हाँ पहले बच्चों और पिता के बीच संवाद कम होता था तो ऐसे दोस्ती नहीं हो पाती थी। लेकिन धीरे धीरे ये दूरियां भी कम हुई और अब दोनों अच्छे दोस्त बनते हैं या बनने की कोशिश करते हैं।

माता पिता किस परेशानी का सामना करते हैं अपने बच्चों को अपने से बेहतर ज़िन्दगी देने के लिए इसका एक साक्षात उदाहरण पिछले दिन देखने को मिला। एयरपोर्ट से घर जिस टैक्सी में आ रहे थे उसके ड्राइवर राजकुमार ने थोड़ी देर चलने के बाद पूछा कि अगर मैं आपको बीच में कहीं उतार दूँ तो चलेगा। टैक्सी ड्राइवर कभी ईंधन भरवाने के लिए बोलते हैं लेकिन बीच में उतारे जाने का प्रस्ताव पहली बार आया था। राजकुमार इस बीच दो तीन बार पानी पी चुके थे। बीच बीच में धीमी आवाज़ में फ़ोन पर बात भी कर रहे थे।

जब पूछा तो उन्होंने बताया उनकी चार वर्ष की बिटिया एक घंटे से नहीं मिल रही थी। जब मैंने ये सुना तो समझ नहीं आया कि उनसे क्या कहूँ। बोला तो सब ठीक होगा, कहीं खेल रही होगी। लेकिन बीते दिनों ऐसी घटनाएँ हुई हैं कि एक डर भी था। फिर भी मैंने उनसे बात करने की कोशिश जारी रखी। राजकुमार घबराये हुए थे। उनकी जगह मैं होता और अगर दूर होता तो पता नहीं कैसे बर्ताव करता। लेकिन राजकुमार की ड्राइविंग बढ़िया चलती रही।

मानखुर्द से वाशी की तरफ चलते हुए उन्होंने ये बताया था। तय हुआ मुझे वाशी उतार कर वो अपने घर चले जायेंगे। वाशी नाके के ऐन पहले फ़ोन आया और राजकुमार धीरे धीरे बात करते रहे। जब हम आगे बढ़े तो जहाँ मुझे उतारना था उस रास्ते से आगे निकल गए। मैंने उन्हें बोला तो उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा ही मेरा जवाब था। बिटिया मिल गयी है। कहीं खेल रही थी। सब ठीक है।

लक्ष्मी के शब्दों में – हमारे माता पिता का जीवन ही हम सबके लिए बहुत बड़ी प्रेरणा है। बशर्ते हम उसके बारे में जाने और उनसे सीखें। राजकुमार की बिटिया की तरह शायद हम भी कितनी ही रातों या दिनों के बारे में अनजान रहते हैं जब घरवालों पर हमारी हरकतों के चलते पता नहीं क्या बीतती है। पूछेंगे तो पता चलेगा।

होली के नमूने और नमूनों की होली

होली हमारे घर में बड़ी ज़ोर शोर से मनाई जाती है। जब छोटे थे तब कोई भी माँ को रंग लगता तो बहुत रोना गाना होता था। भले ही लगाने वाले घर के जान पहचान वाले ही हों लेकिन उस समय जो झूमाझटकी होती उसे देख बड़ा गुस्सा आता। फिर सभी लोग किसी को उठा कर पानी की टंकी में डाल देते। धीरे धीरे समझ आया कि होली ऐसे ही खेली जाती है।

परिवार में त्यौहार बंटे हुए थे। होली हमारे घर ही होती थी। शायद इसका एक और कारण खेलने के लिए खुली जगह थी। परिवार में बहुत से जोड़ों की पहली होली हमारे घर पर ही खेली गई। जो नई बहू आती उन्हें अंदाज़ भी नहीं होता कि होली वाले दिन क्या होने वाला है।

इसकी शुरुआत होली जलने वाली रात से शुरू होती है। पूरा परिवार एक जगह इकट्ठा होता है और खाने पीने के बाद घर के बड़े सबका टीका कर रंग डालते हैं। इस पूरी रस्म का यही मतलब है कि आपको होली खेलने की अनुमति है। होली खेलने का एक दौर उसी समय हो जाता है। लेकिन अपने सारे चुनिंदा रंग, पेंट और न जाने क्या क्या, निकलता है अगले दिन। मैंने फ़ोटो कॉपी मशीन कि इंक से लेकर आलता तक सबका इस्तेमाल होते हुए देखा है।

रंगों से परे होली की जो दूसरी याद है वो है इस अवसर पर बनने वाले तरह तरह के पकवान। इस लिस्ट में चीज़े जुड़ती ही जाती हैं। और एक बार कुछ शुरू हुआ तो अगले साल पूछा जाता वो फलानी चीज़ इस बार नहीं है क्या? माँ के जिम्मे ही ये सारी चीज़ें बनाने का काम रहता। हम भाई बहन उनकी मदद कर देते।

जो गुजिया वो बनाती हैं उसका मसाला कुछ अलग ही होता हैं। लेकिन एक दो बार ऐसा हुआ कि मसाला पहले तैयार हो गया और जब गुजिया बनाने का समय आया तब तक वो मसाला खत्म हो गया। तबसे गुजिया सबसे आखिर में बनती हैं और रात में ये कार्यक्रम होता है जब सब सोने की तैयारी कर रहे होते हैं ताकि कुछ बचा रहे मिलने वालों के लिये।

होली की यादें भी बड़ी मज़ेदार। जैसे एक बार मैं किसी के ऊपर पानी डालने जा रहा था लेकिन फर्श पर फिसला और सारा पानी खुद के ऊपर। और वो कपड़े फाड़ होली। खेलते खेलते ये कब हुआ पता नहीं लेकिन उसी हालत में शहर घूमते रहे। और वो किसी गाने पर अजीब अजीब से नाचना।

जब 1 मार्च को ऑफिस से मुम्बई आने के लिये निकला था तो थोड़ा बहुत रंग गुलाल खेला था टीम के साथ। लेकिन उसके बाद जो धमाल हुआ है उसका नमूना घर पहुंच कर देखा। क्या करें। होली होती ही नमूना बनने के लिए। #असीमित #भोपाल #दिल्ली #मुम्बई#होली

परीक्षा की घड़ी और सालाना मिलने वाले दोस्त

कॉलेज में अटेंडेंस को लेकर ज़्यादा मुश्किल नहीं हुआ करती थी उन दिनों। इसलिये जब परीक्षा का समय आता तब पता चलता कि अरे क्लास में इतने सारे लोग हैं। नहीं तो नियमित रूप से कॉलेज की शक्ल देखने और दिखाने वाले कुछ गिने चुने ही रहते।

ऐसे ही सालाना मिलने वाले एक थे विजय नारायण। उनसे मुलाकात परीक्षा के समय ही होती थी। विजय कंप्यूटर का कोई कोर्स भी कर रहे थे और उनका घूमना फिरना भी काफी था। ग्रेजुएशन के समय विजय से इतनी ज्यादा बातचीत नहीं थी। हाँ उन्हें कुछ नोट्स वग़ैरह चाहिये होते तो मिल जाते थे।

जब पत्रकारिता का रुख किया तब लगा कि लिखने का काम किया जा सकता है। ऐसा इसलिये क्योंकि परीक्षा में जहां बाकी सब के लिए 22 पेज की कॉपी भरना मुश्किल होता था मैं उसके ऊपर 4-5 सप्लीमेंट्री शीट भी भर देता। बाहर निकल के सभी का एक ही सवाल रहता कि मैंने लिखा क्या है। खैर, जब रिजल्ट आता तो पता चलता कि मेरी मेहनत बेकार ही गयी। लेकिन मुझे किसीने बताया था कि कॉपी का वज़न मायने रखता है।

पाँच साल की कॉलेज की पढ़ाई में मैंने ये बात पूरी तरह फॉलो करी। हालांकि नंबर एक अलग ही कहानी कहते थे। बहरहाल विजय से घनिष्ठता फाइनल में आते आते हो गयी और परीक्षा की तैयारी साथ में करने लगे। हम सभी बाकी गतिविधियों में इतने व्यस्त रहते की साल कब निकलता पता ही नहीं चलता। और सिर पर जब परीक्षा आती तब सिलेबस की सुध ली जाती।

परीक्षा की तैयारी का रूटीन भी बिल्कुल फिक्स्ड। सोमवार की सुबह 7 बजे के पेपर की तैयारी रविवार शाम से होगी। सुबह 5.30 बजे तक पढ़ाई और उसके बाद जो होगा देखा जायेगा के इरादे के साथ कॉलेज पहुँच जाते। उसमे पहले पढ़ाई की कोई बात करना मानो घोर पाप था। लेकिन कॉलेज बिना अटके पास किया ऐसे ही पढ़ाई करके।

2007 ने सिखाया लड़ना ज़िन्दगी से और कैंसर से

साल 2007 ने सही मायनों में पूरी ज़िन्दगी बदल के रख दी। इसकी शुरुआत हुई थी अप्रैल के महीने में जब PTI से मुझे वापस मुम्बई के लिए बुलावा आया। सभी बातें मन के हिसाब से सही थीं तो एक बार फ़िर भोपाल को अलविदा कहने का समय आ चुका था। इस बार सीधे मुम्बई की ओर। जून में PTI जॉइन किया तब नहीं पता था कि एक महीने में क्या कुछ होने वाला है।

जब आपके सामने कोई विपत्ति आती है तो उस समय लगता है इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। लेकिन जब आप उससे बाहर निकलकर कोई दूसरी विपत्ति का सामना करते हैं तब फिर यही लगता है – इससे बडी/बुरी/दुखद बात कुछ नहीं हो सकती। ये एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है।

कैंसर के बारे में सुना था। परिवार में मौसी को था लेकिन ज़्यादा मालूम नहीं था क्योंकि उनका निधन तभी हो गया था जब मैं छोटा था। बाकी जो इस बीमारी का डर था उसका पूरा श्रेय हिंदी फिल्मों को जाता है। कुल मिलाकर कैंसर का मतलब मौत ही समझ आया था।

छोटी बहन यशस्विता दोबारा माँ बनने जा रही थी। ये खुशखबरी मई में आई थी। जुलाई आते आते ये खुशी मायूसी में तब्दील हो गई। उनके शरीर में कैंसर पनप रहा था और इसकी पुष्टि टेस्ट के माध्यम से हो गई थी। दिल्ली के डॉक्टर्स ने तो अगले ही दिन एबॉर्शन करवा कर कैंसर के इलाज की समझाईश दी।

भोपाल से मुम्बई आने का कोई प्लान नहीं था। 2005 में जब मुम्बई छोड़ा था तो नही पता था 2007 में वापसी होगी। जो मैंने 2017 में दिल्ली आकर पहली पोस्ट लिखी थी उसमें कहा था ये जीवन एक चक्र है। आज फिर वही बात दोहराता हूँ। जो होता है उसके पीछे कोई न कोई कारण होता है। कई बार कारण जल्द पता चल जाते हैं कई बार समय लग जाता है।

दिल्ली के डॉक्टर्स के ऐसा कहने के बाद ये निर्णय लिया कि मुम्बई के टाटा हॉस्पिटल में भी एक बार दिखाया जाये और फिर कोई निर्णय लिया जाए। इस उम्मीद के साथ कि शायद पहले टेस्ट की रिपोर्ट गलत हो, यशस्विता, बहनोई विशाल और भांजी आरुषि मुम्बई आ गए। मेरी उस समय की PTI की सहकर्मी ललिता वैद्यनाथन ने टाटा हॉस्पिटल में बात कर जल्दी मिलने का समय दिलवाया। लेकिन टाटा के डॉक्टर्स ने भी शरीर में कैंसर की मौजूदगी कन्फर्म करी।

जो पूरा समय एक होने वाली माँ के लिए खुशी खुशी बीतना चाहिए था उसकी जगह चिंता और निराशा ने ले ली थी। सभी एक दूसरे को हिम्मत दे रहे थे। लेकिन चिंता सभी के लिये ये थी कि आगे क्या होगा। इस पूरे समय यशस्विता जो शायद हम सबसे कमज़ोर स्थिति में थीं दरअसल हम सबको हिम्मत दे रही थीं। एक या दो बार ही मेरे सामने मैंने उन्हें कमज़ोर पाया। नहीं तो उनके लड़ने के जज़्बे से हम सबको हिम्मत मिल रही थी।

आज विश्व कैंसर दिवस पर सलाम है टाटा हॉस्पिटल के डॉक्टर्स को जो मरीज़ो की इस लड़ाई में हर संभव सहायता देते है और सलाम है यशस्विता जिन्होंने कैंसर से लड़ते हुए एक पुत्र को जन्म दिया और आज इस बीमारी से लड़ने की प्रेरणा बन गयी हैं।

हमारा जीवन और इन्टरनेट की क्रांति

मुम्बई में अगर आपके रहने और खाने का बंदोबस्त है तो इस शहर में रहना बहुत आसान है। रहने का बंदोबस्त PTI ने कर दिया था और खाने का हमने खुद। इस वजह से कुछ पैसा बचा और जब थोड़ा बहुत पैसा इकट्ठा कर लिया तो सोचा मोबाईल लिया जाए।

आज के जैसे उन दिनों फ़्री काल जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी। और आपको दोनो इनकमिंग और आउटगोइंग दोनो के लिए पैसा देना पड़ता था। लेकिन मुझे टेक्नोलॉजी में शुरू से ही बडी रुचि रही है। इसलिए ये खर्चा कम और निवेश ज़्यादा लगा।

उसके बाद से तो जैसे रिलायंस ने मोबाइल क्रांति ले आया अपने धीरूभाई अंबानी ऑफर से। परिवार में सबने ये फ़ोन लिया और दिलवाया भी ये सोच कर की पैसा कम खर्च होगा। लेकिन उन्ही दिनों मेरी सगाई हुई थी तो बातों का सिलसिला काफी लंबा चला करता था। नतीज़न पैसे बचने की कोई उम्मीद सबने छोड़ दी थी सिवाय रिलायंस के। उन्हें तो मेरे जैसों ने ही खूब बिज़नेस कराया।

वो जो उठा पटक वाली बात मैंने एक पोस्ट में कही थी वो आज के इंटरनेट के बारे में थी। कंप्यूटर से मेरा साक्षात्कार बड़ी जल्दी हो गया था। जहां बाकी लोगों की तरह में भी उसमे पहले खेल खेलता था मेरा प्रयास यह रहता था कि कुछ और सीखने को मिल जाये। उस समय फ्लॉपी हुआ करती थी तो कुछ तिकड़म कर एक संस्थान का मासिक तनख्वाह का प्रोग्राम बना दिया।

उसके बाद आगमन हुआ इंटरनेट का। ये तो तय था ये कुछ बड़ा बदलाव लाएगा लेकिन कितना बड़ा इसका अंदाज़ा नहीं था। हाँ अपने उस समय के दोस्तों से मैं भी ये ज़रूर कहता कि एकदिन देखना सब ऑनलाइन मिलेगा। न अमेजान और न ही फ्लिपकार्ट के बारे में कुछ मालूम था। ये भी नहीं मालूम था कि एक दिन इसमें मेरा करियर बनेगा।

एक बड़ा तबका आज व्हाट्सएप और वीडियो देखने की क्षमता को ही इंटरनेट की बड़ी सफलता मानता है। लेकिन सही मायने में इसे इंटरनेट की जीत तब माना जायेगा जब उन लोगों के जीवन में एक ऐसा परिवर्तन लाए जिसकी कल्पना भी करना मुश्किल हो।

मुझे समय समय पर इस दिशा में कुछ करने का फितूर चढ़ता है और फिर वापस वही ढ़र्रे वाली ज़िन्दगी पर। हमको इस इंतज़ार का कुछ तो सिला मिले…

ज़िन्दगी का आनंद लें बेशक, बेफिक्र, बिंदास

फ़िल्म इंगलिश-विंगलिश में श्रीदेवी पहली बार अकेले विदेश यात्रा पर अपनी बहन के पास अमेरिका जाने के लिये हवाई जहाज से सफ़र कर रही होती हैं। अमिताभ बच्चन, जो उनके सहयात्री होते हैं उनसे पूछते हैं कि क्या वो पहली बार जा रहीं हैं और बातों बातों में एक अच्छी समझाईश उन्हें और हम सबको दे देते हैं।

\”पहली बार एक ही बार आता है। उसका भरपूर आनद लें। बेशक, बेफिक्र, बिंदास\”।

हम भी अपनी बहुत सारी पहली बातें याद रह जाती हैं। क्योंकि पहली बार की बात ही कुछ और होती है। ज़्यादातर ये मोहब्बत तक ही सीमित नहीं होती हैं। हाँ उसको याद रखने के बहुत सारे कारण हो सकते हैं। जैसे मुझे अपनी पहली तनख्वाह याद है और मैंने उसे कैसे खर्च किया ये भी।

ठीक उसी तरह मुझे हमेशा याद रहेंगे अपने पहले बॉस नासिर क़माल साहब। पत्रकारिता से दूर दूर तक मेरा कोई लेना देना नहीं था। इसकी जो भी समझ आयी वो उन्ही की देन है। चूंकि ये मेरी पहली नौकरी थी और अनुभव बिल्कुल भी नहीं था तो उनके लिए और भी मुश्किल रहा होगा। लेकिन उन्होंने एक बार भी ऊँची आवाज़ में बात नहीं करी और न मेरी लिखी कॉपी को कचरे के डब्बे में डाला।

उन दिनों टाइपराइटर पर लिखना होता था। वो उसी पर एडिट कर कॉपी को पढ़ने लायक बनातेे। वो खुद भी कमाल के लेखक। भोपाल के बारे में ऐसी रोचक कहानियाँ थीं उनके पास जिसका कोई अंत नहीं। कब वो बॉस से दोस्त बन गए पता नहीं चला। उनके जैसे सादगी से जीवन जीने वाले बहुत कम लोग देखें हैं।

भोपाल छुटा लेकिन हम हमेशा संपर्क में रहे। वो कुछ दिनों के लिये बैंगलोर भी गए लेकिन पत्रों का सिलसिला जारी रहा। बीच में एक ऐसा भी दौर आया कि मैंने पत्रकारिता छोड़ने का मन बना लिया और नासिर भाई को बताया। उन्होंने एक अच्छा ख़ासा ईमेल मुझे लिख कर समझाया और अपने निर्णय के बारे में पुनः विचार करने के लिये कहा।

आज उनका जन्मदिन है लेकिन वो मेरी बधाई स्वीकार करने के लिए हमारे साथ नहीं हैं। वो अपने जन्मदिन को लेकर भी थोड़े परेशान रहते। कहते सब लोग गांधीजी की पुण्यतिथि मना रहे हैं तो मैं कैसे अपना बर्थडे मनाऊं।

मुझे इस बात का हमेशा मलाल रहेगा कि उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। लेकिन साथ ही इसका फक्र भी रहेगा कि उन्होंने मुझ जैसे को भी लिखना सीखा ही दिया। मेरी खुशनसीबी की नासिर भाई मुझे मेरे पहले बॉस के रूप में मिले।

जिस तरह अच्छी टीम बनती नहीं बन जाती है उसी तरह अच्छे बॉस मिलते नहीं मिल जाते हैं।

पद्मावत भव्य लेकिन एक जिस्म जिसमें जान नहीं

पिछले साल इन्हीं दिनों करणी सेना और उनके सदस्यों ने पद्मावती को लेकर हंगामा शुरू किया था। इतिहास में या रानी पद्मावती के बारे में बहुत ज़्यादा तब।भी नहीं मालूम था। बस इतना जानते थे कि ख़िलजी उनको देखना चाहते थे और पद्मावती ने अपने आप को आग के हवाले कर दिया था।

दिसंबर 2017 से जनवरी 2018 के बीच पद्मावती पद्मावत हो गयी और दीपिका पादुकोण की कमर को स्पेशल इफ़ेक्ट के साथ ढांक दिया गया। मेरा इतिहास की इस घटना के बारे में ज्ञान में इतने दिनों में कोई ज़्यादा इज़ाफ़ा नहीं हुआ। यूं कहें कि किया नहीं। बहरहाल, ये पोस्ट फ़िल्म के बारे में हैं तो उस पर वापस आते हैं।

फ़िल्म ख़िलजी से शुरू होती है और पद्मावती और रतन सिंह बाद में आते हैं। संजय लीला भंसाली अपनी फिल्मों की भव्यता के लिए जाने जाते हैं और पद्मावत उसी श्रृंखला की एक और कड़ी है। शायद यही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। कहीं न कहीं क़िरदार भव्यता के चक्कर में पीछे छूट जाते हैं। ये फ़िल्म के लेखन की सबसे बड़ी विफलता कही जा सकती है।

इस फ़िल्म में भंसाली संगीत में भी कहीं चूक ही गये। घूमर देखने में अच्छा होने के कारण याद रह जाता है लेकिन बाकी गाने याद भी नहीं रह पाते। ये वही भंसाली हैं जिनकी ख़ामोशी और हम दिल दे चुके सनम के गाने आज भी पसंद किये जाते हैं।

बात करें अदाकारी की तो रनबीर सिंह सबको याद रह जाते हैं। लेकिन सही कहें तो इस किरदार में जिस पागलपन की ज़रूरत थी वैसे वो असल ज़िंदगी में हैं। दीपिका को रानी पद्मावती के जैसा सुंदर होना था लेकिन वो वैसी अलौकिक सुंदरता की धनी नहीं दिखती हैं। शाहिद कपूर रतन सिंह के रूप में थोड़े से छोटे लगते हैं।
अगर कोई मुझसे इसके लिए नाम सुझाने के लिए कहता तो मेरे लिए हृतिक रोशन होते रतन सिंह, रणबीर कपूर होते ख़िलजी और ऐश्वर्या राय बच्चन होतीं पद्मावती।

कुशल नेतृत्व आपके जीवन की राह बदल सकता है

फ़िल्म कयामत से कयामत तक में जूही चावला गुंडों से पीछा छुड़ाते हुए जंगल में गुम जाती हैं और जैसा कि फिल्मों में होता है उसी जंगल में आमिर खान अपने दोस्तों से बिछड़ जाते हैं। बात करते हुए जूही चावला बड़ी मासूमियत से आमिर खान कहती हैं “हम पर आप का बहुत अच्छा इम्प्रेशन पड़ा है”।

अपने इस छोटे से जीवन में ऐसे कितने लोग हैं जिनके लिए हम ये कह सकते हैं? हम बहुत से लोगों से मिलते जुलते हैं लेकिन उनमें से बहुत कम लोग आप के ऊपर अपनी छाप छोड़ जाते हैं।

कार्य के क्षेत्र में आपको ऐसे लोग मिलें तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। ऐसे बॉस कम ही मिलते हैं जिन्हें आप याद तो करते हों लेकिन इसलिये क्योंकि आपको उनके साथ काम करने में आनंद आया। इसलिये नहीं कि उन्होंने आपको बहुत परेशान किया और जीना मुश्किल कर दिया – जैसा कि अक्सर लोग याद किया करते हैं।

जब मैंने 2010 में डिजिटल जर्नलिज्म में वापस कदम रखा तो ये सफ़र और इसमें जुड़ने वाले साथीयों का कुछ अता पता नहीं था। लेकिन कुछ ही महीनों में जिस कम्पनी के लिए काम कर रहा था उसमें कुछ बदलाव होना शुरू हुए और फिर एक दिन सीनियर मैनेजमेंट में बड़े बदलाव के तहत एक नए शख्स ने हमारे COO के रूप में जॉइन किया।

डिजिटल जर्नलिज्म उन दिनों बढ़ना शुरू हुआ था और ये एक बहुत ही अच्छा समय था इससे जुड़े लोगों के लिये। लेकिन ये जो बदलाव हुए कंपनी में इससे थोड़ी अनिश्चितता का दौर रहा। लेकिन अगर कुशल नेतृत्व के हाथों में कमान हो तो नौका पार हो ही जाती है।

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कुछ ऐसा ही रहा Sandeep Amar का उस कंपनी और मेरे जीवन में आने का असर। ऐसे बहुत से मौके आते हैं जब आप को पता नहीं होता कि ये किया जा सकता है लेकिन आप के आस पास के लोगों का विश्वास आपका साथी बनता है और आप कुछ ऐसा कर गुज़रते हैं जिसकी मिसाल दी जाती है। ठीक वैसे ही जैसे दंगल के क्लाइमेक्स में आमिर खान अपनी बेटी को समझा रहे होतें हैं। गोल्ड मेडलिस्ट की मिसाल दी जाती है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी संदीप से आप किसी भी विषय पर बात करलें आप को निराशा नहीं होगी। ओशो से लेकर सनी लियोन सभी पर कुछ कहने के लिये है। उनसे झगड़े भी बहुत हुए, कहा सुनी भी लेकिन फिर एक दोस्त की तरह बात फिर से शुरू। अगर आज मेरी डिजिटल जर्नलिज्म की समझ बढ़ी है तो इसका एक बहुत बड़ा श्रेय संदीप को ही जाता है। काम से अलग उनके साथ न्यूयॉर्क की यादगार ट्रिप आज भी यूँही एक मुस्कुराहट ले आती है।

संदीप मेरे फेसबुक पोस्ट लिखने से बहुत ज़्यादा खुश नहीं हैं लेकिन अगर आज मैं ये पोस्ट लिखकर उन्हें जन्मदिन की बधाई नहीं देता तो कुछ अधूरा सा लगता। जन्मदिन मुबारक संदीप सर।
और टैक्सी में ये गाना सुनते हुए क्या करें क्या न करें ये कैसी मुश्किल हाय, नमस्ते मुम्बई।

हमारी धारणाएं और सच

तुम्हारी सुलु देखने का मौका मुझे पिछले हफ्ते ही मिला। जब फ़िल्म रिलीज़ हुई थी तब देखने का प्रोग्राम किसी न किसी कारण से मुल्तवी होता रहा और फ़िल्म सिनेमा हॉल से उतर गई। फ़िल्म बहुत से कारणों से अच्छी लगी।

जो सबसे अच्छी बात लगी वो थी हम कैसे धारणाएँ बना लेते हैं। लोगों के बारे में, उनके काम के बारे में। अक्सर ये धारणाएँ गलत ही होती हैं क्योंकि हम अपनी धारणा सुनी सुनाई बातों के आधार पर बनाते हैं। किसी ने कह दिया कि फलां व्यक्ति तो बहुत बुरा है। बस हम ये मान बैठते हैं कि वो व्यक्ति वाकई में बुरा है। हमारा अपना व्यक्तिगत अनुभव कुछ नहीं है लेकिन हमने सुना और मान लिया।

फ़िल्म में विद्या बालन के किरदार को एक रेडियो जॉकी का काम मिल जाता है और वो देर रात का शो होता है। उनको सुनने वाले मर्द उनकी आवाज़ और अदा पर फ़िदा। चूँकि उनको सुनने वाले उटपटांग बाते करते हैं, सुलु के परिवार वालों को ये बात बिल्कुल नागवार गुज़रती है। उनका ये मानना है कि ये काम अच्छे घर की औरतें नहीं करतीं। लेकिन सुलु ने ऐसा कोई काम किया ही नहीं जिससे उनके परिवार को शर्मिंदा होना पड़े। लेकिन ये धारणा की ये काम बुरा है ये बात घर कर गयी है।

जैसे फ़िल्म इंडस्ट्री को हमेशा से ही एक बुरी जगह बोला गया है। लेकिन क्या ये उन सभी बाकी काम करने की जगह से वाकई में बुरी है? क्या और काम करने की जगहों पर वो सब नहीं होता जिसके लिए फ़िल्म इंडस्ट्री बदनाम है? क्या बाकी जगहों पर औरतों के साथ कोई अनहोनी घटना नहीं होती हैं? लेकिन फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में ये धारणा बन गयी है।

इसका एक कारण ये भी है कि फ़िल्म इंडस्ट्री और उनसे जुड़े लोगों के बारे में लिखा बहुत जाता है। लेकिन ये बातें सभी इंडस्ट्री के लिए उतनी ही सच और सही हैं। अगर हम अपने अनुभव के आधार पर भी किसी के बारे में कोई धारणा बनाते हैं तो भी वो सिर्फ हमारे ही लिए होना चाहिए। लेकिन हमारे आस पास के लोग भी हमारे इन विचारों से प्रभावित हो कर अपनी धारणा बना लेते हैं।

जैसे आमिर खान के बारे में ये कहा जाता है कि वो बहुत ज़्यादा हस्तक्षेप करते हैं और अपनी फिल्मों को डायरेक्ट भी करते हैं। अगर ये सही है तो विद्धु विनोद चोपड़ा जैसे निर्देशक उनके साथ दो फिल्में करते? आपने अगर नहीं देखी है तो ज़रूर देखें तुम्हारी सुलु।

दुनिया समझ रही थी कि वो नाराज़ मुझ से है,
लेकिन वो जब मिला तो मुझे सोचना पड़ा

चाय पर चर्चा कोई जुमला नहीं है

दिल्ली में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ रही है। चूंकि मेरा इस ठिठुरती ठंड से सामना पूरे 15 साल के लंबे अरसे बाद हो रहा है तो और भी ज़्यादा मज़ा आ रहा है। ऐसी ठंड में अगर कोई आग जलाकर बैठा हो तो उसके इर्दगिर्द बैठने का आनंद कुछ और ही होता है। उसमें अगर आप एक कप गरमागरम कप अदरक की चाय और जोड़ दें तो ठंड का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है।

चाय पीने के सबने अपने अपने तरीके होते हैं। कुछ लोग बिलकुल गरमागरम पतीली से निकली हुई चाय पसंद करतेे हैं तो कुछ उसको ठंडा कर पीना। दिल्ली के जिस इलाके में मैं इन दिनों रहता हूँ वहाँ कुल्हड़ में चाय पिलाने वाले कई ठिकाने हैं। सबका अपना अपना स्वाद है। हाँ वैसे सौंधी सौंधी खुशबू वाले कुल्हड़ नही हैं।

आजकल तो अजीबोगरीब चाय पिलाने वाले ठिकाने भी खुले हुए हैं जो पता नहीं कितनी ही विचित्र तरह की चाय पिलाते हैं। लेकिन जो स्वाद टपरी चाय का होता है वैसा कहीं नहीं। जब मुम्बई PTI में नाईट शिफ्ट हुआ करती थी तो अक्सर रात की आखिरी लोकल छूट जाती थी और रात ऑफिस में ही गुज़ारनी पड़ती थी।

मुझे शुरू से आफिस में सोना पसंद नहीं था। बस दो कुर्सी जोड़कर आराम से सुबह 4 बजने का इंतज़ार करते और पहली लोकल से चेम्बूर वापस। जिस समय मेरी घर वापसी होती उस समय बहुत से लोगों के दिन की शुरुआत हो रही होती। चेम्बूर स्टेशन के बाहर एक चाय बनाने वाला सुबह सुबह कमाल की चाय पिलाता। जब भी नाईट शिफ्ट से वापस आता तो उसके पास कभी एक तो कभी दो कप चाय पीकर फ्लैट पर वापस आता।

दिल्ली की सर्दियों में उसकी वो अदरक की कड़क चाय की आज ऐसे ही याद आ गयी। आपकी आदतें कैसे बदलती हैं चाय इसका अच्छा उदाहरण है। जैसे मेरी चाय का स्वाद मेरी पत्नी अब बखूबी समझ गयी है और मुझे भी कुछ उनके हाथ की चाय की ऐसी आदत लग गयी है कि कहीं बाहर जाते हैं तो वो जुगाड़ कर किचन से मेरी पसंद की प्याली मुझ तक पहुंचा देती हैं।

अगर आपने इंग्लिश विंग्लिश देखी हो तो उसमें श्रीदेवी अपनी चाय की प्याली और अखबार से सुबह की शुरुआत करती हैं। बहुत से घरों में ऐसा ही होता है। मैं ऐसे जोड़ों को जानता हूँ जो सुबह की पहली चाय का आनंद अखबार के पीछे नहीं बल्कि साथ में बैठ कर बातचीत कर लेते हैं। अगर चाय का प्याला हो और बातचीत न हो तो चाय का स्वाद कुछ कम हो जाता है। जैसे उस शनिवार की रात जनार्दन, आदित्य और मेरी बातचीत जो शुरू हुई चाय के प्याले पर और खत्म हुई गाजर के हलवे के साथ। चाय पर चर्चा कोई जुमला नहीं है!!!

समस्या हैं तो हल निश्चित रूप से होगा

पिछले दिनों जब सोनाक्षी सिन्हा और सिद्धार्थ मल्होत्रा की इत्तेफ़ाक़ रिलीज़ होने वाली थी तब शाहरुख खान और करन जौहर ने वीडियो पर ये अपील करी थी दर्शकों से की वो फ़िल्म का सस्पेंस नहीं बताएं। बात सही भी है। अगर सस्पेंस ही खत्म हो जाये तो फ़िल्म देखने का सारा मज़ा ही किरकिरा हो जाता है।

ठीक वैसे ही जैसे हमें अपने जीवन के सस्पेंस पता चल जाये तो क्या मज़ा आयेगा। कुछ भी हो अच्छा या बुरा, सही या गलत उसके होने का अपना एक अलग ही स्थान होता है अपने अनुभव की लिस्ट में।

खैर इत्तेफ़ाक़ की अपील से मुझे पिताजी द्वारा सुनाया गया एक किस्सा याद आया। वो भी उनके समय की बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म वो कौन थी से जुड़ा हुआ है। आज के व्हाट्सएप उस समय तो थे नहीं तो सस्पेंस कैसे बताया जाए? कॉलेज का नोटिस बोर्ड जो हम कभी कभार ही देखा करते हैं उसकी मदद ली गयी और किसी शख़्स ने वहां एक कागज लगा दिया जिसपर सिर्फ इतना लिखा था – भाईयों खूनी रमेश था। अब आप जाइये और वो कौन थी के गानों का आनंद लीजिये क्योंकि बाकी कहानी और उसके अंत में आपको अब कोई रुचि नहीं रहेगी।

कॉलेज के नोटिस बोर्ड से संबंधित एक घटना मेरे साथ भी हो गयी। MA प्रीवियस के इम्तिहान थे। साथ में नौकरी भी कर रहे थे। दूसरे पेपर के दिन तैयार होकर कॉलेज पहुँचे और अपना रूम तलाशने लगे जहां बैठकर पेपर लिखना था। लेकिन बोर्ड पर इस पेपर का कोई जिक्र ही नहीं। ऐसी कोई खबर भी नहीं थी कि पेपर आगे बढ़ गया हो।

किसी प्रोफेसर से पूछा तो पता चला पेपर तो दो दिन पहले ही हो चुका है। अब क्या करें? पिताजी की डाँट से बचने का कोई उपाय ही नहीं था। घर पहुँचे तो वहां पहले से ही किसी बात को लेकर हंगामा मचा हुआ था। मुझे एक घंटे में वापस देख सभी अचरज में थे। मेरे पुराने पढ़ाई के रिकॉर्ड से सभी वाकिफ भी थे। जैसे तैसे हिम्मत कर बता दिया कि आज होने वाला पेपर तो हो चुका है। उसके बाद अच्छा सा एक डोज़ मिला। समस्या का हल ढूंढा गया और मेरे अख़बार के सहयोगी की मदद से इसको सुलझाया गया।

एक गुरु मंत्र और मिल गया: समस्या हैं तो हल निश्चित रूप से होगा। बस थोड़े धैर्य के साथ ढूँढे। मिलेगा ज़रूर।

गुलज़ार से ग़ालिब तक

जो ये लंबे लंबे अंतराल के बाद लिखना हो रहा है उसका सबसे बड़ा कष्ट ये हो रहा है कि जब लिखने बैठो तो समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करें। आज बात ग़ालिब और गुलज़ार साब की।

संगीत तो जैसे हमारे घर में एक सदस्य की तरह था। उन दिनों रेडियो ही एकमात्र ज़रिया था। और सारे घर ने अपना पूरा रूटीन भी उसके ही इर्दगिर्द बना लिया था। वैसे उस ज़माने में टेप भी हुआ करता था लेकिन बहुत से कारणों के चलते हमारे घर पर इसका आगमन हुआ बहुत समय के बाद। उन दिनों घर में किसी नई खरीदी का बड़ा शोर शराबा रहता था। तो जब वो फिलिप्स का two-in-one आया तो एक जश्न का माहौल था।

ग़ालिब से मुलाक़ात भी रेडियो के ज़रिए हुई। फ़िल्म थी मिर्ज़ा ग़ालिब और प्रोग्राम था भारत भूषण जी के बारे में। सिर्फ ये ना थी हमारी किस्मत याद रहा। लेकिन ग़ालिब से जो असल मुलाकात हुई वो गुलज़ार साब के बनाये मिर्ज़ा ग़ालिब, नसीरुद्दीन शाह द्वारा निभाया गया किरदार और जगजीत सिंह के संगीत के साथ। बस उसके बाद ग़ालिब के दीवाने हुए और होकर रह गए। सुने और भी कई शायर लेकिन ग़ालिब के आगे कोई और जँचा नहीं। या यूं कहें कि हमारी हालत का बयाँ ग़ालिब से अच्छा और कोई नहीं कर सका।

कई बार सोचता हूँ कि अगर गुलज़ार साब ये सीरियल नहीं बनाते तो क्या ग़ालिब से मिलना न हो पाता। ठीक वैसे ही जैसे कल जनार्दन और आदित्य से बात हो रही थी और हम तीनों अपने जीवन में अभी तक कि यात्रा को साझा कर रहे थे। आदित्य ने बताया कि उनके पास दो जगह से नौकरी के आफर थे और उनमें से एक PTI का था लेकिन उन्होंने दूसरा ऑफर लिया और इस तरह से उनसे मिलना हुआ।

जनार्दन से भी काफी समय पहले बात हुई थी लेकिन उस समय बात बनी नहीं। लेकिन अंततः वो साथ में जुड़ ही गये। शायद ग़ालिब से मुलाक़ात भी कुछ ऐसे ही होती। कोई और ज़रिया बनता और हमारी मुलाकात करवा ही देता। जैसे मैत्री ने करवाई थी मोहम्मद उज़ैर से। अगर गुलज़ार साब का शुक्रगुजार रहूंगा ग़ालिब से मिलवाने के लिये, मैत्री का रहूंगा मोहम्मद से मिलवाने के किये।

मोहम्मद बहुत ही कमाल के शख्स हैं और ये मैं इसलये नहीं कह रहा कि उन्होंने पिछली पोस्ट पढ़ कर मेरी तुलना प्रेमचंद और दिनकर से करी थी। फिल्मों को छोड़कर बाकी लगभग सभी विषयों की अच्छी समझ और पकड़। लेकिन जब प्रत्युषा बनर्जी ने अपने जीवन का अंत कर लिया तो मोहम्मद ही थे जिन्होंने फटाफट स्टोरीज़ लिखी थी। मुझे किसी मुद्दे के बारे में कुछ पता करना होता तो मोहम्मद ही मुझे बचाते। अब वो एक नई जगह अपने हुनर का जादू बिखेरेंगे।

ठीक वैसे ही जैसे रात के सन्नाटे में जगजीत सिंह अपनी आवाज़ में ग़ालिब का जादू बिखेर रहे हैं।

देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक ब्राह्मण ने कहा है कि ये साल अच्छा है।

हमें ऐसे ही गुलज़ार मिलते रहें और ज़िन्दगी ऐसे ही गुलज़ार करते रहें।

असीमित संभावनाओं से भरा हुआ हो २०१८

जब आप कोई काम रोज़ कर रहे हों और अचानक वो बंद करदें तो फिर से शुरुआत करने में थोड़ी मुश्किल ज़रूर होती है। मेरी हालत उस बहु जैसी है जो कुछ दिनों के लिए मायके होकर आयी है और ससुराल लौटने पर वही दिनचर्या उसका इंतज़ार कर रही है। लेकिन अच्छी बात ये है कि आज साल का लेखा जोखा लिया जा रहा है और इसी वजह से मेरे लिए यादों के इस काफ़िले को आगे बढ़ाना थोड़ा आसान हो गया है।

1 जनवरी 2017 के बाद इस साल जो बहुत कुछ घटित हुआ इसका न तो कोई अनुमान था न कोई भनक। कुछ बहुत अच्छी बातें हुईं इस साल। जो कुछ मन माफिक नहीं हुआ उसको मैं इसलिए बहुत ज़्यादा महत्व नहीं दे रहा क्योंकि इस साल बहुत लंबे अंतराल के बाद मैंने लिखना शुरू किया। मेरे लिए इससे बड़ी उपलब्धि कोई नहीं है। और ये इस साल की ही नहीं पिछले कई वर्षों की उपलब्धि कहूँगा।

ये की मैं ये पोस्ट मुंबई में नहीं बल्कि दिल्ली में बैठ कर लिखूंगा इसके बारे में दूर दूर तक कुछ नहीं मालूम था। आज जब ये लिख रहा था तो ये खयाल आया कि अगर ये मालूम होता तो क्या मैं कोई जोड़ तोड़ करके मुम्बई में ही बना रहता और दिल्ली के इस सफ़र पर निकलता ही नहीं। शायद कुछ नहीं करता क्योंकि अगर यहां नहीं आता तो कलम पर लगे बादल छंट नहीं पाते और विचारों का ये कारवाँ भटकता ही रहता। ये नहीं कि इसको मंज़िल मिल गयी है, लेकिन एक राह मिली जो भटकते मुसाफिर के लिये किसी मंज़िल से कम नहीं है।

पीछे मुड़ के देखता हूँ तो हर साल की तरह ये साल भी उतार चढ़ाव से भरा हुआ था। और सच मानिये तो अगर ये उतार चढ़ाव न हों तो जीवन कितना नीरस हो जाये। जो कुछ भी घटित हुआ मन माफ़िक या विपरीत, कुछ सीखा कर ही गया। हाँ इस साल बहुत नए लोगों से मिलना हुआ। कुछ बिल्कुल नए और कुछ पुराने ही थे जो नए लिबास में सामने आए। वैसे मुझे ये मिलने जुलने से थोड़ा परहेज़ ही है क्योंकि अक्सर मैं सच बोल कर सामने वाले को शर्मिंदा कर देता हूँ और बाद में खुद को कोसता हूँ कि क्यों अपनी ज़बान को लगाम नहीं दी।

वैसे ऐसी ही समझाईश मुझे फेसबुक पर लिखने के लिए भी मिली। क्यों मैं गड़े मुर्दे उखाड़ रहा हूँ। क्यों मैं चंद लोगों की लाइक के लिए ये सब कर रहा हूँ। हाँ ये सच है लिखने के बाद देखता हूँ कि प्रतिक्रिया क्या आयी लेकिन उसके लिए लिखता नहीं हूँ।

तो बस इसी एक प्रण के साथ कि इस वर्ष कलम को और ताक़त मिले और बहुत सी उन बातों के बारे में लिख सकूँ जो बताई जाना जरूरी हैं, आप सभी को नूतन वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं। हम सभी के लिए है 2018 कें 365 दिन जो भरे हुए हैं असीमित संभावनाओं से।

घर जाने की बात ही कुछ और

उस दिन जब शाम को एयरपोर्ट के लिए निकल रहा था तो टीम की एक मेम्बर बोलीं देखिए चेहरे की रौनक। लगता है घर जा रहे हैं। पता नहीं ऐसा क्या हो जाता है जब घर जाने का मौका आता है एक अलग ही उत्साह। जब PTI से दौड़ते भागते ट्रेन पकड़ता था 18 साल पहले तब भी और आज जब ट्रैफिक जाम से लड़ते हुए टैक्सी से एयरपोर्ट जाता हूँ तब भी।

दरअसल ये कहना ये खुशी घर जाने के कारण है सही नहीं है। घर तो यहाँ भी है दिल्ली में जिसमे मैं इन दिनों सोने जाता हूँ। ये असल में घरवाले हैं जो घर को रहने लायक बनाते हैं। फिर हम चाहे 2 कमरे के फ्लैट में हों या एक बड़े बंगले में।

वैसे बंगले में रहा नहीं हूँ तो इसलिए ज़्यादा नहीं जानता वहां रहना कैसा होता है। पला बढ़ा सरकारी घर में जो बहुत बड़े तो नहीं थे लेकिन उसमें रहते हुए ही परिवार की कई शादीयाँ हुई। मेहमानों से घर भरा हुआ है लेकिन सब मज़े में और आराम से। आज जब शादी में जाना होता है तो सबके अलग अलग कमरे हैं और सब किसी रस्म के दौरान या खाने पीने के समय मिल जाते हैं। खैर इस पर कभी और।

एक परिचित को किसी ने अपना नया घर देखने के लिए बुलाया। उन्हें बोला गया उस घर में अलग क्या होगा। ऐसी ही दीवारें होंगी, ऐसे ही खिड़की दरवाज़े होंगे। कोई ज़रूरत नहीं जाने की। अब ये बात भले ही मज़ाक कही हो लेकिन है तो सच। ईंट पत्थर की दीवारें होती हैं। घर तो घरवालों से बनता है। आप आलीशान घर में चले जाइये। सारी सुख सुविधाओं से लैस। लेकिन सुकून दूर दूर तक नहीं। और एक कमरे का घर आपको इतनी शांति देता है।

एक समय था जब ये गूगल देवी आपको अपने या किसी और के घर का रास्ता नहीं बता रही होतीं थी। तब घर ढूँढने के अलग मज़े थे। पता पूछते हुये कुछ ऐसे ही बातचीत हो जाती और चाय पीते पिलाते आप के नए दोस्त बन जाते। अब गूगल देवी तो आपको घर के बाहर तक छोड़ती हैं तो ऐसी चाय का मौका नहीं मिलता।

अगर मैं ये कहूँ की इस बहाने लड़की भी देख ली जाती थी तो? किसी का घर ढूँढने के बहाने लड़की देखी भी गयी और शादी पक्की भी हुई। परिवार में किसी की शादी की बात चल रही थी लेकिन लड़के ने ये ज़िम्मेदारी अपने परिजनों को दी। चूँकि बार बार लड़की के घर जाने पर ऐतराज़ था तो पता पूछने के तरीके को आज़माया गया। हाँ ये सुनिश्चित किया गया कि लड़की की फ़ोटो ध्यान से देखकर जाएँ जिससे कोई गड़बड़ न हो। आखिर ज़िन्दगी भर की बात है।

ऐसा कहते हैं मोबाइल ने दूरियों को मिटा दिया है। लेकिन जो मज़ा आमने सामने बैठ कर गप्प गोष्ठी करने में है वो वीडियो चैट में कहाँ। शायद उस दिन चेहरे की रौनक यहीं बयान कर रही थी।

बस एक घर की तलाश है

दिल्ली आए हुए जल्द ही एक महीना हो जाएगा और शुरुआत हो गयी है एक घर की तलाश। जब मैं पहली बार दिल्ली और उसके बाद मुम्बई गया तो दोनों जगह PTI के गेस्ट हाउस में रहने का इंतज़ाम था। मुम्बई में घर ढूंढ़ने की नौबत काफी समय बाद आई। अब यहाँ पर समय कम है और दिल्ली की ठंड में रहने का ठिकाना ढूंढना है। वैसे मोबाइल ने बहुत सारी चीज़ें आसान कर दी हैं। जैसे घर की आप अपनी जरूरत को किसी वेबसाइट पर पोस्ट कर दें उसके बाद फोन पर फोन का जवाब देने के लिये तैयार हो जायें।

महानगरों में घर मिलना कोई मुश्किल नहीं है। बस आपके आफिस के पास ही नहीं मिलता। खुशनसीब हैं वो जिन्हें इन दौड़ते भागते शहरों में ऑफिस के पास रहने का ठिकाना मिल जाता है। मेरी तालाश भी कुछ ऐसी ही है। जब तक आप को एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाना हो तब तक इस पूरे मामले का सिरदर्द समझ में नहीं आता है।

घर अच्छा हो, सोसाइटी अच्छी हो, सभी चीजें आसपास हो, बिजली पानी की सुविधा हो। हमारे बहुत सारे मापदंड होते हैं जिनका की हमें अंदाज़ा भी नहीं होता जब तक हम या तो अपने रहने की या काम करने की जगह नहीं बदलते। मुम्बई में तो हालत ऐसी है कि अगर वर वधु अलग अलग ट्रैन लाइन्स पर रहते है तो रिश्ता ही नहीं करते। ये सब मैंने सुना तो था लेकिन ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले उसके बाद लगा कि सचमुच् ऐसा ही है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मुम्बई के लड़के, लडक़ी दूसरे शहर में शादी ही नहीं करते? और कभी शादी के बाद वेस्टर्न लाइन से सेंट्रल लाइन शिफ्ट होना पड़े तो क्या वकीलों की सेवाएँ ली जाएंगी?

इतने दिन हो गए दिल्ली में लेकिन मुलाकात किसी से भी नहीं हो पाई है। हर हफ्ते हज़रत निज़ामुद्दीन पहुँच जाते हैं और फ़िर निकल पड़ते हैं एक और यात्रा पर। इन यात्राओं के अपने मज़े हैं और अपना एक सुररूर बिल्कुल वैसा जैसा मुझे महसूस हुआ जब मुम्बई में हमारी नज़रें पहली बार मिली थीं। भोपाल से दिल्ली फिर मुम्बई लगता है जैसे इस दिल का सफ़र अभी बहुत बाकी हैं।

भोपाल के प्रति मेरा प्यार

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मैंने सिर्फ शहर बदला था और मेरा भोपाल के प्रति मेरा प्यार और गहरा हो रहा था। परिवार और दोस्त सब वहीं थे इसलिये जब भी मौका मिलता भोपाल की तरफ़ दौड़ पड़ता। ऐसा अमूमन हर महीने ही होता था। आजकल की ईमेल जनता के लिए ये बड़े अचरज की बात होगी कि उन दिनों हम एक दूसरे को पत्र लिखा करते थे।

कुछ पत्र लंबे होते थे जो 3-4 पेज के होते थे और ज़्यादातर अंतर्देशीय पत्र हुआ करते थे। आज भी उन संभाल के रखे पत्रों के साथ कभी कभार एक यादों की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। कभी हंसी आती है उन बातों पर जो अब बचकानी लगती हैं तो कभी उन कागज़ पर उमड़े हुए जज़्बात आंखे नम कर जाते हैं।

ये पत्रों का सिलसिला जो दिल्ली से शुरू हुआ था वो मुम्बई में भी चलता रहा। हाँ मुम्बई में पत्रों को पहुंचने में समय लगता था। फ़ोन ज़्यादातर अभी भी लैंडलाइन ही हुआ करते थे। लेकिन पत्रों का मज़ा उन फ़ोन कॉल्स में कहां जब आपकी नजर सिर्फ डिस्प्ले स्क्रीन पर बढ़ते हुए पैसे की तरफ रहती थी।

PTI गेस्टहाउस में एक फ़ोन दे रखा था और बहुत तेज़ आँधी बारिश के बाद भी वो काम कर रहा था। नहीं मैं उसको हर घंटे चेक नहीं कर रहा था बल्कि सुबह सुबह फ़ोन आ गया। बारिश के चलते कोई नहीं आया है आप दोनों फौरन पहुँचे। यहाँ दूसरे शख्स हैं रणविजय सिंह यादव। इनके बारे में फ़िर कभी। इसके पहले की ये बताया जाए कि यही मजबूरी हमारी भी है, बताया गया बस चल रही है और उससे आप ऑफिस पहुंच सकते हैं।

एजेंसी में काम कभी रुकता नहीं है और आपको अपने उपभोक्ताओं को समाचार देना है। बस यही एकमात्र उद्देश्य रहता है। चेंबूर में घर के नीचे से ही बस मिलती थी तो तैयार होकर पहुँच गए बेस्ट के इंतज़ार में। बस आयी औऱ उसमे बैठ गए। ये पता था समय लगेगा लेकिन कितना ये नहीं पता था।

आगे जो नज़ारा देखा वो काफी डरावना ही था। प्रियदर्शिनी पार्क के कुछ पहले पानी जमा था और ड्राइवर काफी सावधानी पूर्वक चलाते हुए जा रहा था। थोड़ी देर में पानी बस की सीढ़ियों तक पहुँच गया था। ये सब पहले देखा नहीं था हाँ एक बार भोपाल में ऐसी ही बरसात में कार पानी में चलाई थी और वो बीच रोड पर बंद हो गयी थी। गनीमत है मुम्बई में दिन था लेकिन अगर ये बस भी बंद हो गयी तो?

खैर सही सलामत आफिस पहुँच गए जहां ढेर सारा काम हमारा इंतज़ार कर रहा था। कितने दिन तक ऑफिस में ही रहे इसकी कुछ याद नहीं लेकिन मुंबई की बारिश के बारे मे अब नज़रिया बदल गया था। लेकिन आज भी ये मानता हूँ कि दिल्ली की सर्द सुबह और मुम्बई की बारिश का कोई मुकाबला नहीं है।

इतने सालों से मुम्बई की बारिश का आनंद लिया है अब है समय दिल्ली की सर्दियों का लुत्फ उठाने का।

पत्रकारिता के सफर की शुरुआत

दिल्ली से जो मेरा पत्रकारिता का सफर शुरू हुआ था उसकी नींव भोपाल में पड़ी थी। कॉलेज करने के बाद PG करने का मन तो नहीं था लेकिन LLB नहीं कर पाने की वजह से MA में दाखिला ले लिया। लेकिन दो घंटे के कॉलेज के बाद समय ही समय होता था। संयोगवश वहीं से प्रकाशित दैनिक में आवयश्कता थी और मैंने अर्ज़ी भेज दी और चुन भी लिया गया।

जिस समय मैं इस फील्ड को समझ रहा था उस समय भी इसका आभास नहीं था कि एक दिन में इसे बतौर करियर अपनाऊंगा। उस समय इसका सिर्फ एक उद्देश्य था -समय का सदुपयोग। पता नहीं कैसे धीरे धीरे मुझे पत्रकारिता रास आने लगी और आज इतना लंबा सफर गुज़र गया जो लगता है जैसे कुछ दिन पुरानी बात ही हो।

डॉ सुरेश मेहरोत्रा मेरे संपादक थे और नासिर कमाल साहब सिटी चीफ। अगर आज मैं इस मुकाम पर हूँ तो इसका श्रेय इन दो महानुभाव को जाता है। मुझे अभी भी याद मेरी पहली बाइलाइन जो कि पहले पन्ने पर छपी थी। आज के जैसे उन दिनों बाइलाइन के लिए बड़े कठोर नियम हुआ करते थे। बाइलाइन का मतलब उस स्टोरी को किसने लिखा है।

पहली बाइलाइन स्टोरी वो भी फ्रंट पेज पर। खुशी का ठिकाना नहीं। स्टोरी थी मध्य रेल के अधिकारी के बारे में और उनके एक वक्तव्य को लेकर। स्टोरी छपी और दूसरे दिन मुझे ढूंढते हुए कुछ लोग पहुँचे। उनकी मंशा निश्चित रूप से मुझे अपने परिवार का दामाद बनाने की नहीं रही होगी और मैं खुश भी था और डरा हुआ भी। खैर उनसे आमना सामना तो नहीं हुआ लेकिन छपे हुए शब्दों का क्या असर होता है उसको देखा।

डॉ मेहरोत्रा ने हमेशा हर चीज़ के लिये प्रोत्साहित ही किया। नहीं तो इतनी जल्दी से विधानसभा पर कवरेज, मंत्रालय बीट आदि मिलना बहुत ही मुश्किल था।

नासिर कमाल साहब कब बॉस से दोस्त बन गए पता नहीं चला। मामू, नासिर भाई के नाम से हम सब उन्हैं प्यार बुलाते थे। उनके काम करने अंदाज एकदम अलग। ओर बिना किसी शोर शराबे के सारा काम आराम से हो जाया करता था। और भोपाल के इतिहास के उनके पास जो किस्से थे वो कभी किताब की शक्ल ले ही नहीं पाये।
आज अगर कोई मुझे अच्छे बॉस होने के श्रेय देता है तो मैं कृतज्ञता प्रकट करता हूं डॉ मेहरोत्रा और नासिर क़माल साहब के प्रति। और धन्यवाद देता हूँ उन सबको जिनके चलते मुझे ऐसे सुलझे व्यक्तित्व के धनी दो व्यक्ति मिल गए अपने शुरुआती में। #असीमित #भोपाल #दिल्ली

बड़े होकर भी बनाये रखें बचपना

बचपन से मुझे हवाई जहाज देखने और उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करने का बड़ा शौक़ था। जो छोटे छोटे मॉडल होते थे उनको भी में उतनी ही कौतूहलता से देखता जितना कि एक सामने खड़े हुए विमान को। परिवार में दो रिश्तेदार विमान सेवा का उपयोग करते और जब भी संभव हो में एयरपोर्ट जाने की भरपूर कोशिश करता। जितना करीब से देखने को मिल जाये उतना ही मन आनंदित हो उठता।

आसमान में उड़ते हुए छोटे से हवाई जहाज को खोज निकलना एक मजेदार खेल है जो में आज भी खेलता हूँ। कहीं न कहीं हम जब बड़े हो जाते (उम्र में) तो हमारे व्यवहार में भी वो उम्र छलकने लगती है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि हमें अपना बचपना बनाये रखना चाहिए।

आज जब मुम्बई से दिल्ली वापसी के लिए एयरपोर्ट पर बैठा फ्लाइट का इंतज़ार कर रहा था तो अपनी पहली फ्लाइट याद आ गयी जो मुम्बई के एयरपोर्ट से ही थी। मैं अपने जीवन में पहली बार प्लेन में चढ़ा 2003 के अक्टूबर महीने में। वो छोटी सी फ्लाइट एक समाज सेवी संस्था द्वारा आयोजित की गई थी ज़रूरतमंद बच्चों के लिए। मुम्बई से शुरू और मुम्बई पर खत्म।

पहली फ्लाइट होने के कारण तो याद है ही, लेकिन इसलिए भी याद है कि मुंबई की गर्मी में एयरपोर्ट के अंदर की ठंडक श्रीनगर का एहसास करा रही थी। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी ठंड में कर्मचारी काम कैसे करते हैं। असलियत पता चली की मैं बहुत तेज़ बुखार से पीड़ित था और अगले कुछ दिन घर पर आराम कर गुज़ारे।

जब तक प्लेन में बैठे नहीं थे तब तक बड़ा आश्चर्य होता कि ये उड़ते कैसे हैं। रही सही कसर फिल्मों ने पूरी करदी। फिल्मों ने हमारी सोचने की शक्ति को भ्रष्ट कर दिया है। लेकिन आप आज अगर एयरपोर्ट जाएँगे तो देखेंगे समाज के हर तबके के लोग हवाई यात्रा का आनद ले रहे हैं।

लेकिन बर्ताव में ट्रेन या प्लेन के यात्रियों में कोई फर्क नहीं है। आज जब फ्लाइट लेट हुई तो यात्री एयरलाइन स्टाफ़ से लड़ने पहुंच गए और थोड़ी दिन बाद थक हार कर वापस पहुँच गए अपनी सीट पर। हाँ अब बहस थोड़ी अच्छे स्तर की होती है।
लेकिन उस बहस का क्या जिसके कोई मायने तो नहीं हैं लेकिन उसको करने में मज़ा भो बहुत आता है?

चन्दर, सुधा और गुनाहों का देवता

मोहब्बत का खयाल ही अपने आप में बहुत रोमांचित महसूस कराता है। अपने आसपास बहुत से लोगों को इस एहसास से गुज़रते हुए देखा और आज भी देख ही रहा हूँ। पर वैसी मोहब्बत कम ही देखने को मिली जैसी सुधा और चन्दर की थी। ये दो नाम भले ही एक कहनी के पात्र हों लेकिन मैंने इन्हें देखा है बहुत करीब से। कई बार तो लगता है मैं ही चन्दर हूँ लेकिन मेरी सुधा बदलती रही।

बचपन से घर में किताबों से भरी अलमारी अपने आसपास देखी हैं और उन्हें पढ़ा भी। घर का माहौल ऐसा था कि कोई न कोई मैगज़ीन आती रहती थी। अच्छी आदत ये पड़ गयी कि पढ़ने पर कोई रोक टोक नहीं थी। सभी लोग इसमे शामिल थे। मेरी इस आदत का पूरा श्रेय पिताजी को जाता है। किताबों के लिए कभी मना नहीं किया। हाँ ये ज़रूर है कि मैंने इतने मनसे कभी अपनी पढ़ाई की किताबों को भी नहीं पढ़ा जितना घर में फैली हुई इन किताबों को।

लोग कितना पढ़ने में तल्लीन रहते थे इसका भी एक किस्सा है। घर की सदस्य एक नॉवेल पढ़ने में मगन थीं कि अचानक कोई मेहमान आ गया। अब जैसा उन दिनों का चलन था उनसे बोला कि आप अंदर बैठकर पढलें कोई आया हुआ है। उन्होंने कान से ये बात सुनी और किताब पढ़ते हुए ही चलना शुरू कर दिया और धम्म से मेहमान के बगल में जा बैठीं। वो तो थोड़ी ऊंची आवाज़ उनके कानों में पड़ी तब उन्हें एहसास हुआ कि कुछ गलती हो गयी है।

किताबें आपको अपनी एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। ऐसी ही एक किताब मुझे पढ़ने को मिली याद नहीं कब लेकिन छोड़ गई एक अमिट छाप। धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता। बहुत ही अद्भुत किताब है बावजूद इसके की पढ़के आपके आंसू बहने लगते हैं और कुछ दिनों तक आप पर इसका प्रभाव रहता है। लेकिन साथ रह जातें हैं इसके किरदार।

इस किताब के प्रति मेरा इतना प्यार शायद फ़ोन वाली घटना से प्रेरित होगा। लेकिन इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि एक मुलाकात से इसका फैसला करना कि आप एक दूसरे के लिये बने हैं थोड़ा मुश्किल लगता है। कॉलेज के दौरान कई दोस्तों को इस पचड़े में पड़ते देखा। लेकिन थोड़े दिन बाद पता चलता कि अब दोनों की ज़िंदगी में कोई और है। कुछ इसका अपवाद रहे और वो शादी के बंधन में बंध भी गए।

ऐसी ही एक कहानी थी एक मित्र जो अपने सबसे करीबी दोस्त के परिवार की सदस्य को अपना दिल दे बैठे। मुश्किल ये थी कि इज़हारे मोहब्बत करते तो दोस्ती टूटने का खतरा और उससे भी बड़ी समस्या ये की सामने वाला आपके बारे में क्या खयाल रखता है इसका कोई अतापता नहीं। उन्होंने दोस्ती के लिये प्यार कुर्बान कर दिया। लेकिन उनके टूटे हुए दिल की दास्तां मैंने कई शाम सुनी। कई बार सुना कि कैसे किसकी मुस्कुराहट का जादू होता है और कैसे कोई आंखों से छलकते हुये प्यार को नहीं देख पाता। कई बार लगा कि मैं ही यह बात बता दूँ। लेकिन उन्होंने रोक लिया औऱ बात हम दोनों के बीच ही रह गयी।

जब काम करना शुरू किया तो आफिस में ये किस्से काफी आम हो चुके थे। और सभी एक उम्र के थे तो इसलिए कुछ अटपटा भी नहीं लगता था। सबके किस्से सुनते सुनते एक दिन कानों तक बात पहुँची कोई और सुधा तुम्हे पसंद करती है।
क्या इस कहानी का अंत भी दुखद होगा या चन्दर को सुधा सदा के लिए मिल जायेगी ?

दिल संभल जा ज़रा

कल जब शान-ए-भोपाल से दिल्ली वापसी का सफर शुरू किया तो एक बार फिर दिल मायूस हुआ। भोपाल छोड़े हुए इतने साल हो गए लेकिन तब भी हर बार शहर छोड़ने का दुख रहता है। ऐसा नहीं है की मुम्बई ने अपनाया नहीं। मुम्बई ने तो कभी पराया समझा ही नहीं और ऐसे गले लगाया जैसे पता नहीं कब से एक दूसरे को जानते हैं।

कब मुम्बई मेरी और मैं मुम्बई का हो गया ये पता ही नहीं चला। ठीक वैसे ही जब ऐश्वर्या राय अपनी माँ से हम दिल दे चुके सनम में सलमान खान से प्यार कब हुआ, कैसे हुआ पूछने पर कहती है – पता ही नहीं चला। शायद इसलिए इसे मायानगरी कहते हैं।

लेकिन फ़ोन किया गया था और शुभकामनाएं इत्यादि बातें हुई ये पता चल गया था। हिंदी की कहावत काटो तो खून नहीं वाली हालत थी। चोरी पकड़ी गई थी और अब सज़ा की तैयारी थी। लेकिन जवानी का जोश ऐसा की जो करना है करलो। अब बात शादी तक पहुंच गई थी तो कुछ ज़्यादा सीरियस मामला लग रहा था। मतलब ट्रेलर बन रहा था और पिक्चर सिनेमा हॉल में लगने को तैयार।

अल्ताफ ने पूछा कि दिलवाले दुल्हनिया ले गए या देवदास बन गए। हुआ कुछ भी नहीं। ना तो दुल्हनिया लाये न देवदास बने। क्योंकि ये सारी मंज़िलें थोड़ी ऊपर थीं। हम तो बस इस मोहब्बतनुमा इमारत के दरवाजे पर दस्तक ही दे पाए थे की ये सब हो गया।

एनकाउंटर होने वाला था दोनो पक्ष के परिवार वालों का एक अलग शहर में और समझ में ये नहीं आ रहा था कि इससे निकला कैसे जाए। खैर हमारे बड़े बहुत समझदार निकले और ऐसी कोई नोबत आयी नहीं और दोनों पक्ष बहुत ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में मिले। घटना का ज़िक्र नहीं हुआ और न ज़िक्र हुआ उस फिल्मी डायलॉग का – क्यूं न हम अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल लें। वैसे परिवार में ऐसे विवाह हुए हैं लेकिन इस एपिसोड के काफी बाद।

इस पूरे समय दिमाग में सवाल यही था कि पता कैसे चला। उन दिनों लैंडलाईन हुआ करती थी और बड़े घरों में उसका एक्सटेंशन लगाया जाता था ताकि फ़ोन उठाने के लिए दौड़ भाग न करनी पड़े। उस रात दौड़ भाग तो नहीं हुई बस मेरा फ़ोन ठीक वैसे ही सुना गया जैसे गोगा कपूर फ़िल्म कयामत से कयामत तक में आमिर खान और जूही चावला की बातें सुन लेते हैं। यहां बात किसने सुनी ये रहने देते हैं।

क्या इसके बाद सुधार गए या फिर दिल संभल जा ज़रा फिर मोहब्बत करने चला है तू वाला मामला रहा ?

पहले पहले प्यार का किस्सा

उम्र के अलग अलग पड़ाव पर हम अलग अलग तरह के जोखिम उठाते हैं। बचपन में जब चलना सीख रहे होते हैं तो बार गिर कर तब तक कोशिश करते हैं जब तक ठीक से चलना नहीं सीख लेते। आपको अपना साईकल सीखने का समय याद है? जब कोई पीछे से अपना हाँथ खींच लेता है और आपका संतुलन बिगड़ जाता है। मगर कोशिश जारी रहती है। जोखिम उठाने के ये तरीक़े आगे बदलते रहते हैं।

जवानी के ऐसे बहुत से जोखिम आपका जीवन बदल देते हैं। मसलन दोस्तों के साथ कुछ नए तजुर्बे। ये वो समय भी रहता है जब आप नए दोस्त/सखी बनाते है जो आपके जीवन पर्यन्त मित्र रहते हैं। और कुछ दिलों के मामले होते हैं जिस पर किसी का जोर नहीं। ग़ालिब ने कहा भी खूब है ये इश्क़ नहीं आसान।

जिस तूफान का ज़िक्र मैंने किया था वो दरअसल खुद का खड़ा किया हुआ था जिसकी नींव रखी गयी थी कुछ तीन महीने पहले। एक परिचित के घर के सदस्य का आगमन हुआ हमारे यहाँ और बस माहौल कुछ वैसा होगया जैसा शाहरुख खान के साथ होता है फ़िल्म मैं हूँ ना में जब भी वो सुष्मिता सेन को देखते हैं।

इसके बारे में बहुत आगे तक सोचा नहीं था। बस उस समय का आनंद ले रहे थे। सच माने तो ये आँख मिचौली का खेल किस राह पर चलेगा या खत्म होगा इसका कोई पता न था। बहरहाल इस खेल को विराम लग ही गया जब वो अपने घर वापस गये। अब इसमें तूफान जैसा तो कुछ दूर दूर तक दिखाई नहीं देता?

जवानी के जोश में अक्सर हम कुछ खून की गर्मी के चलते ऐसे काम कर बैठते हैं जो शांत बैठ कर सोचा जाए तो बहुत बचकाने लगते हैं। वैसे खून की गर्मी का उम्र से कोई लेना देना नहीं होता है। आप को कई अधेड़ भी मिल जायेंगे जो ऐसी हरकतें नियमित करते हैं। लेकिन जब आप जवान होते हैं तो सारा ज़माना आप का दुश्मन होता है और बस जो आपकी सुन ले और जो आप सुनना चाहते हैं वो कह दे वही दोस्त होता है। वो तो समय के साथ पता चलता है कौन दोस्त है और कौन दुश्मन।

जब यह आंखों की गुस्ताखियां चल रही थीं उस दौरान मैं भोपाल के अंग्रेज़ी दैनिक में बतौर रिपोर्टर काम कर रहा था। साथ में पढ़ाई भी कर रहा था। इन सबसे जो समय बचा था उसका कुछ बहुत अच्छा सदुपयोग हो रहा हो ऐसा नहीं था। लेकिन सब इससे बड़े प्रभावित थे। हाँ अगर वो पूछ लेते पिछले परीक्षा परिणाम के बारे में तो मेरी और अमोल पालेकर की हालत में ज़्यादा फर्क नहीं होता जब उत्पल दत्त के सामने पानी पीते हुए उनकी नकली मूँछ निकल जाती है। बेटा रामप्रसाद…

तो एक रात जाने क्या सूझी सोचा एक फ़ोन लगा लूँ। परीक्षा के लिए शुभकाननाएँ दी जाएं। एसटीडी पीसीओ ऑपरेट कर रहीं भाभीजी की मदद से फ़ोन तक तो बुला लिया और संदेश भी दे दिया। मिशन सफल ठीक वैसे ही जैसे अभय देओल और आएशा टाकिया सोचा न था में रहते हैं। हम और कुछ उम्मीद कर भी नहीं रहे थे। लेकिन सब आप के जैसी सोच वाले मिल जाएं तो पति-पत्नी के जोक्स का क्या होगा। और यही जोक मेरा इंतेज़ार कर रहा था भोपाल में।

मुंबई, पुणे के प्रवास से लौटते जैसे पैरों को पर लग गए थे। बर्ताव कुछ ऐसा जैसे कौन सा क़िला फतेह कर के आये हों। लेकिन गिरे भी उतनी ही ज़ोर से जब पता चला की फ़ोन की खबर घर तक पहुंच चुकी है और रिश्ते की बात भी छेड़ी जा चुकी है।
अब मुझे तैयारी करनी थी उस एनकाउंटर की जो कि कुछ दिनों बाद था लेकिन उसका होना तय था।

जीवन के सुखद हादसे

हम सभी के जीवन में जाने अनजाने ऐसे बहुत से सुखद हादसे होते हैं जो एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। अधिकतर जानने वाले इन दुखद घटना के ज़िम्मेदार होते हैं और अनजाने लोग सुखद यादों के पीछे। ऐसा मेरा अनुभव रहा है।

PTI के मुम्बई तबादले से पहले भी मेरा एक बार मुम्बई जाना हुआ था। उस समय मैं ग्रेजुएट होने वाला था और MBA के लिए तैयारी कर रहा था। नर्सी मोनजी कॉलेज के MBA का फॉर्म भरा और हिंदुस्तान पेट्रोलियम में कार्यरत निखिल दादा के भरोसे मुम्बई चल पड़े। वहाँ से सिम्बायोसिस की परीक्षा के लिए पुणे भी जाना था और बीच में शिरडी का भी प्रोग्राम बना लिया था। मुम्बई से आगे की ज़िम्मेदारी दादा ने लेली थी और मैं निश्चिन्त मुम्बई के लिए निकल पड़ा।

भोपाल से मुम्बई का ये सफर हमेशा याद रहेगा क्योंकि टिकट कन्फर्म नहीं हुआ लिहाज़ा जनरल कोच में सफर करना पड़ा। मैं पहली बार इस तरह की कोई यात्रा कर रहा था और सबने जितने भी तरीके से डराया जा सकता था, डराया। ख़ैर मायानगरी को अब तक सिनेमा के पर्दे पर ही देख था और साक्षात देखने का रोमांच ही कुछ और था। मुम्बई पहुँचे और निखिल दादा ने खूब घुमाया।

उन्ही दिनों मणिरत्नम की फ़िल्म बॉम्बे भी रिलीज़ हुई थी और दादा ने मुझे वो दिखाने का प्रस्ताव रखा। आज भी मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि मैंने फ़िल्म बॉम्बे मुम्बई में ही देखी। जिस समय ये सब अनुभव हो रहे थे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था एक दिन मैं यहाँ वापस आऊंगा और अपने करियर का सबसे ज़्यादा समय यहां बिताऊँगा।
खैर मुम्बई से शिरडी और फिर वहां से पुणे पहुंच गए। शिर्डी में रुकना नहीं था और पुणे में रुकने का इंतज़ाम नहीं था। पुणे स्टेशन के आस पास के लॉज और धर्मशाला ने मुझे कमरा, जगह देने से मना कर दिया। ये बात है गुरुवार की और परीक्षा थी रविवार को। ये तीन दिन कहाँ बिताएं और कैसे बिताएं ये सोचते हुए मैं पुणे स्टेशन के बाहर बैठा हुआ था।

मायूसी तो बहुत थी। विचारों में खोया हुआ और आंखों मैं आँसू लिये हुए शायद किसी ने देखा। वो शख्स मेरे पास आया और पूछा क्या तकलीफ में हो? अब जैसा होता है घर वालों की सभी सीख याद आने लगीं। फिर भी पता नहीं क्या बात हुई मैं उनके साथ उनके स्कूटर पर बैठ गया और उनके घर पहुंच गया। भाई ने कहा मेरे रूम पर रुक जाओ। पता चला वो भी भोपाल से ही हैं और रूम पर और प्राणी मिले इस शहर के। बस फिर क्या था, जो शहर कुछ समय पहले कुछ अजीब से विचार जगा रहा था, वो अपना लगने लगा।

रविवार की पुणे से भोपाल वापसी भी कम यादगार नहीं रही। एक बार फ़िर टिकट कन्फर्म नहीं हुआ और झेलम एक्सप्रेस से भोपाल की यात्रा खड़े खड़े करी। चूंकि परीक्षा देके सीधे आ रहा था तो शर्ट की जेब में पेन रखा था। लेकिन मई की गर्मी में इंक लीक हो गयी और भोपाल पहुँचते पहुँचते पूरी शर्ट का रंग बदल गया था। लेकिन घर जा रहे थे करीब 10 दिन बाद तो इसके आगे सारे रंग फ़ीके।

इस बात को करीब बीस वर्ष हो चुके हैं। लेकिन उस शख्स का नाम याद नहीं। भोपाल में किस गली मुहल्ले में रहते हैं पता नहीं। बस याद है तो उनका मुझे अपने घर पर सिर्फ इंसानियत के नाते रखना। याद है कि किसी ने बिना कुछ सोचे मुझे तीन दिन का आश्रय दिया।

आज भी उनके प्रति सिर्फ कृतज्ञता है और कोशिश की अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न होकर ऐसे ही किसी असीम की मदद किसी रूप में कर सकूं और वो किसी और कि और बस ये अच्छाइयों का चक्र चलता रहे।

भोपाल में एक तूफ़ान मेरा इंतज़ार कर रहा है इस बात से अनभिज्ञ मैं घर वापस जा रहा था।

जीवन एक चक्र है

जीवन एक चक्र है ऐसा सुना करते हैं लेकिन इसका एक साक्षात अनुभव पिछले दिनों हुआ। हालांकि इसका आभास तब हुआ जब मैं दिल्ली से भोपाल की ट्रेन यात्रा के लिए हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर शान-ए-भोपाल में बैठा।

यही वो स्टेशन है जिससे मैंने न जाने कितनी बार भोपाल की यात्रा करी जब मैंने अपना पत्रकारिता का करियर PTI से शुरू किया था। उन दिनों हज़रत निज़ामुद्दीन से ये ट्रेन नहीं थी और मुझे दिन के अलग अलग समय अलग अलग ट्रेन से सफर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ऐसा इसलिए भी की PTI में शिफ्ट डयूटी हुआ करती है और समय अनुसार भोपाल की ट्रेन में चढ़ जाया करते थे। भोपाल के लिये ट्रेन की कोई कमी भी नहीं थी सो इतना कष्ट नहीं हुआ करता था। तनख्वाह इतनी ज्यादा नहीं हुआ करती थी सो सर्दी हो या गर्मी स्लीपर क्लास में ही सफर करते थे। कई बार ऐसे भी मौके आये की करंट टिकट लेकर जनरल कोच में दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ कर भी सफर करना हुआ।

उन यात्राओं का बस एक ही आनंद होता था – घर जा रहें हैं तो सारे कष्ट माफ। और सच में सर्दी में ठिठुरते हुए या गर्मी में पसीना पोंछते हुए ये सफर बस यूं ही कट जाता था। मेरे उन दिनों के अभिन्न मित्र सलिल की ये डयूटी लगा रखी थी कि वो स्टेशन से मुझे घर पहुंचाए। और रात का कोई भी समय हो सलिल स्टेशन पर मौजूद l उन दिनों आज के जैसे मोबाइल फ़ोन तो हुआ करते थे लेकिन उनको रखना एक महँगा शौक हुआ करता था। तो सलिल तक संदेश पहुंचे कैसे? स्टेशन पहुँचकर टिकट खरीदने के बाद दूसरा काम हुआ करता था सलिल को एसटीडी पीसीओ से फ़ोन की साहब कब पधार रहे हैं।

एक बार कुछ ऐसा हुआ कि समय की कमी के चलते फ़ोन नहीं हो पाया। वो तो भला हो दूरसंचार विभाग का जिन्होंने प्लेटफार्म पर ये सुविधा उपलब्ध करा दी थी। बस फिर क्या जहां ट्रेन रुकी वहीं से फ़ोन और सवारी स्टेशन पर मौजूद। वैसे सलिल से ये सेवा मैंने मुम्बई से भी खूब कराई लेकिन उसके बारे में फिर कभी। फिलहाल चक्र पर वापस आते हैं।

PTI में रहते हुए ही तबादला मुम्बई हो गया और दिल्ली छूट गया। सच कहूँ तो दिल्ली छूटने का जितना ग़म नहीं था उससे कहीं ज़्यादा खुशी मायानगरी मुम्बई में काम करने की थी। फिल्मों का चस्का तो था ही उसपर मुम्बई में काम करने का मौका जैसे सोने पे सुहागा। दिल्ली बीच में कई बार काम के सिलसिले में आना हुआ लेकिन वो सभी प्रवास दौड़ते भागते ही निकल जाते।

जब नवंबर 15 को दिल्ली के हवाईअड्डे पर उतरा तो काफी मायूस था। मुम्बई छूटने का ग़म, परिवार से अलग रहने की तकलीफ और अपने खाने पीने का खुद इंतज़ाम करना बड़ा भारी लग रहा था। लेकिंन दिल्ली फिर से मेरी कर्मभूमि बनने वाली थी ऐसा मन बना लिया था।

वो तो जब आज रात ट्रेन में बैठा तो जैसे एक झटका लगा। इसी शहर से अपना सफर एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में शुरू करने के बाद आज में एक संपादक के रूप में वापस आया हूँ। जो सारे अनुभव दिल्ली से शुरू हो कर मुम्बई तक पहुंचे और जो मैंने मुम्बई की विभिन्न संस्थाओं से ग्रहण किया, उन सभी को आज फिर से दिल्ली में अपनी नई टीम के साथ न सिर्फ साझा करने का मौका मिलेगा बल्कि बहुत कुछ उनसे सीखने का मौका भी। और इस सफर की शुरुआत इसी दिल्ली से हुई थी जहां 17 वर्षों के बाद मैं वापस आया हूँ। आभार दिल्ली