कोरोनकाल औऱ अस्पताल की बातें तो अब ख़त्म हो गयी हैं लेक़िन एक बात साझा करना रह गई।
जब घर से अप्रैल में अस्पताल में भर्ती होने के लिये चले थे तो तैयारी सब थी। मतलब साबुन से लेकर कपड़े धोने का सब सामान साथ में था। अब कोई होटल तो था नहीं की कपड़े धुलने को दे दिये औऱ आराम से बैठ गये। और कुछ पता भी नहीं था की कितने दिन का प्रवास होगा।
लेक़िन पहुँचने के अगले दिन से ऑक्सिजन मास्क लग गया औऱ उसको कभी भी न हटाने की ताक़ीद भी मिल गयी थी। वाशरूम की सवारी वाली बात आपको बता ही चुका हूँ। तो ऐसे हालात में नहाने का या कपडे धोने का सवाल ही नहीं उठता। शुरू में घर से लाये हुये कपड़ों से काम चल गया लेक़िन कुछ दिन बाद कपड़ों की ज़रूरत महसूस हुई। मगर मजबूरी का भी ऐसा आलम था कि क्या कहें। सोसाइटी सील हो चुकी थी औऱ घर पर बाक़ी सब पॉजिटिव। तो सामान आने की कोई संभावना भी नहीं थी।
इसी बीच हमारी भी ICU में एंट्री हो गयी थी और वहाँ एक राहत वाला काम भी हुआ। एक दिन सुबह सुबह स्पंज के लिये जब कोई आया तो साथ कपड़े भी लाया। लेक़िन जिस राहत को मैंने महसूस किया था वो ज़्यादा देर नहीं मिली। जो अस्पताल से कपड़े मिले वो छोटे निकले। पायजामा तो फ़िर भी ठीक ही था (मतलब किसी तरह पहन लिया गया था), वो जो शर्ट दी थी मेरे पेट की बरसों की मेहनत वाली गोलाई पर फ़िट नहीं बैठ रही थी। अस्पताल का स्टॉफ शायद खाते पीते लोगों को ध्यान में रख कर कपडे नहीं बनाते।
तो शर्ट को वापस कर अपनी टीशर्ट से काम चलाया। लेक़िन पायजामा की तकलीफ़ आखिरी दिन तक बनी रही। सुबह सुबह स्टाफ से अपने नाप का पायजामा मांगना एक रूटीन हो गया था। कभी अगर न मिले तो उससे छोटे साइज वाले से काम चलाना पड़ता। उससे जो हालात उत्पन्न होते वो यहाँ बताना मुनासिब नहीं है।
पायजामे के बाद मशक्कत वाला काम होता था उसको बाँधा कैसे जाये। हाँथ में तो कैनुला लगा होता तो ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते तो किसी तरह इस काम को धीरे धीरे अंजाम देते। ये समझ से परे है कि इलास्टिक क्यों नहीं लगाते जिससे इन सब परेशानियों से बचा जा सके।
ख़ैर अस्पताल में कोई इतना ध्यान भी नहीं देता है, लेक़िन चूँकि ज़्यादातर महिला स्टाफ होता था तो लगता था कपड़े ठीक हों। शुरुआत के दिनों में जब जनरल वार्ड में था तो एक सरदारजी एवं उनकी पत्नी भी इलाज के लिये भर्ती थे। उस दंपत्ति को लगता हॉस्पिटल से विशेष व्यवस्था के तहत कपड़े उपलब्ध हो रहे थे। दोनों हमेशा एक जैसे कपडे पहनते।
मेरा तो ये सुझाव भी था का की वो फ़्री साइज वाला पजामा रखें जिससे हृष्टपुष्ट लोगों को कोई परेशानी न हो। एक बार तो ये भी लगा की लुंगी जैसा कुछ पहन को दिया जाना चाहिये। मुझे लुंगी औऱ धोती पहनना बड़ा अच्छा लगता लेक़िन उसे संभालना नहीं आता। तो वर्षों पहले सुबह जब सोकर उठे तो ऐसा भी हुआ है की लुंगी कहीं पीछे रह गयी औऱ हम कहीं औऱ। ये दक्षिण भारत की फिल्मों में तो जिस आसानी से किरदार लुंगी पहनकर सब काम (बाइक भी चला लेते हैं), देखकर आश्चर्य ही होता है। वैसे अब संभालना आ गया है लेक़िन बाइक चलाने जैसा नहीं। पता चला बाइक पर बैठे तो सही लेकिन लुंगी हवा से बातें करने लगी और…
हँसते, मुस्कुराते रहिये औऱ अपना ध्यान रखिये।