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कोरोना से सीख: जा तन लागे, वो तन जाने

अस्पताल में शुरू के चार दिन तो ठीक रहे लेक़िन जब ICU में शिफ़्ट करने के बात हुई तब लगा मामला कुछ गंभीर है। ख़ैर अब औऱ कोई चारा तो था नहीं तो अपनी जो भी हिम्मत बची हुई थी उसको सहेजकर रखा औऱ कोरोना से अपनी लड़ाई का दूसरा औऱ निर्णायक दौर शुरू किया।

अपने आसपास के मरीज़ों को कोरोना से हारते हुये देख तो नहीं रहा था लेक़िन ये पता ज़रूर चल जाता था। बाहर के ख़राब हालात की पूरी तो नहीं थोड़ी थोड़ी जानकारी थी। मोबाइल पास ज़रूर था लेक़िन उसको इस्तेमाल करना एक कष्ट वाला काम था। कभी कभार ऐसे विचार जब आये की क्या कोई ऐसा काम जो करना रह गया? वैसे तो इसकी लिस्ट बहुत लंबी बन सकती है, लेक़िन मेरी लिस्ट में सिर्फ़ एक चीज़ थी उस समय – जीवन में जो कुछ भी मिला उसके लिये धन्यवाद, उन अनगिनत लोगों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना जिन्होंने किसी भी रूप में मदद करी या कुछ सीखा कर गये।

पढ़े-लिखे मूर्ख

जब घर वापस आया तो बाहर मेरे अस्पताल में रहने के दौरान कोरोना से परिवार में क्या घटित हुआ इसके बारे में थोड़ा सा पता चला। उस समय तक स्थिति संभली तो नहीं थी लेक़िन थोड़ी बेहतर हुई थी। लेक़िन तब भी रोज़ ही सुनते किसी जान पहचान वाले ने अपने क़रीबी को खोया है। ये सिलसिला अभी भी चल रहा है लेक़िन ईश्वर की कृपा से अब ऐसी खबरें कभीकभार सुनने को मिल रही हैं।

घर में क़ैद शाम अक़्सर बालकनी से बाहर चल रही दुनिया देखकर गुज़र जाती। लेक़िन बाहर का नज़ारा देखकर दुःख भी होता और गुस्सा भी आती। लोग कोरोना जब बहुत तेज़ी से फैल रहा था तब भी ऐसे घूम रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पति पत्नी, बच्चे, नौजवान सबने जैसे सच्चाई से मुँह मोड़ लिया हो। सबसे ज़्यादा हैरानी औऱ दुःखी होने वाली बात थी कि जो भी इस कार्य में लिप्त थे वो सभी पढ़े लिखे थे। उनको कोरोना के कहर के बारे में भी निश्चित रूप से पता होगा। इसके बाद वो इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं?

चूँकि मैंने कोरोना के कहर को बहुत क़रीब से देखा था औऱ परिवार-जान पहचान वाले कई लोगों की जान कोरोना से गयी थी, तो ख़राब भी लगता। कई लोग ये कहते कोरोना जैसा कुछ नहीं है या बार बार बोलने के बाद भी मास्क नहीं पहनते, तो मन करता उनको कुछ घंटों के लिये ICU वार्ड में छोड़ दिया जाये। मुझे अभी भी समझ में नहीं आया की इतना सब होने के बाद लोग बिना किसी चिंता के बारात निकालकर शादी भी कर रहे औऱ रिश्तेदारों के कोरोना के चलते शादी में शरीक़ नहीं होने पर लड़ाई भी। अग़र पढ़ाई लिखाई के बाद भी लोगों की समझ ऐसी है तो इसका क्या फ़ायदा?

डर के आगे क्या है?

ये बात सही है कि हम डर कर नहीं रह सकते, लेक़िन हम जानबूझकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी भी तो नहीं मार सकते। जब भोपाल गैस काँड हुआ था तब बहुत छोटे थे औऱ जिन इलाकों में मिथाइल आइसोसाइनाइट ने क़हर बरपाया था वहाँ हमारे जान-पहचान वाले नहीं रहते थे। वो तो जब पत्रकारिता शुरू की औऱ उन इलाकों में गये तब पता चला लोगों ने क्या खोया। इस बार सब कुछ देखा भी, समझ भी आया। लेक़िन क्या हमने इससे जो भी सीखा है इसको याद रखेंगे?

तो आज की कोरोनकाल की सीख वाली किश्त के अंतिम भाग में सभी का धन्यवाद। किसी कार्यक्रम में अगर आप गये हों धन्यवाद ज्ञापन सबसे अंतिम काम होता है। आजकल इसको बीच में भी जगह मिल जाती है क्योंकि जिन लोगों के सहयोग से वो कार्यक्रम सम्पन्न हुआ उनके बारे में जानने की किसी को उत्सुकता नहीं रहती औऱ लोग बस बाहर निकलने की जल्दी में रहते हैं। तो मुझे अस्पताल के बिस्तर पर लेटकर यही लगता की \’बाहर\’ निकलने से पहले अग़र एक काम करना है तो जीवन के लिये धन्यवाद, उसमें जो कुछ भी मिला उसके लिये धन्यवाद ज़रूर करना चाहिये। ये एक काम अक़्सर हम टाल ही देते हैं।

ये धन्यवाद उन सभी का जो इसको पढ़ रहे हैं। शायद मैं आपको जानता हूँ, शायद हम कभी मिले हों, शायद कभी बात हुई हो या शायद अब हम सम्पर्क में न हों, शायद इसमें से कुछ भी नहीं। शायद मेरी लेखनी के ज़रिये हम जुड़े हों। आप सभी का आभार। जीवन आपके अनुभव का निचोड़ ही है तो इसमें आपके योगदान के लिये धन्यवाद।

औऱ मेरी प्रिय पम्मी। तुम्हारी लड़ाई को बहुत क़रीब से देखा है औऱ तुम्हारा वही जज़्बा अस्पताल में हिम्मत भी देता रहा। तुम्हारी अनगिनत मीठी यादों के लिये धन्यवाद। ❤️❤️❤️

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