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जो समझा ये उसी की मची धूम

पिताजी गाड़ी में जब काम करवाने जाते तो सुबह से निकल जाते और शाम होने पर लौटते। वो गाड़ी मरम्मत के लिये छोडने के सख़्त ख़िलाफ़ थे। उन दिनों आज की जैसी सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी की फ़ोन कर दिया औऱ घर पर कोई गाड़ी लेने आ जायेगा। अगर होती भी तब भी इसकी संभावना कम ही होती।

लेक़िन ये सिर्फ़ गाड़ियों के साथ ही नहीं था। अगर कोई बिजली का काम करने आया है तो उसके पास खड़े रहो और उसको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वो देना। मतलब अग़र कोई काम हो रहा है तो आप उसको देखें। हम लोग पिताजी से हमेशा इस बात पर बहस करते की आपको काम करनेवालों से कुछ ज़्यादा ही लगाव है। आम बोलचाल में \’चाय पानी\’ के पैसे पिताजी ने नहीं दिये लेक़िन उनको चाय-नाश्ता करवाते। उस समय हम मुँह बनाते लेक़िन आज लगता है उन कामकरने वालों को इज़्ज़त देना ऐसे ही सीखा।

आज इनका ज़िक्र इसलिये क्योंकि पिछले दिनों घर पर कुछ मरम्मत का काम करने के लिये कोई आया। आदत से मजबूर मैं उसके पास ही खड़े होकर उसका काम करता देख रहा था। लेक़िन शायद उस बंदे के साथ ऐसा नहीं होता था। मतलब शहरों में जैसे होता है कि जब कोई ऐसे काम के लिये आता है तो उसको क्या ठीक करना है वो बता कर उसको काम करने दिया जाता है और आप अपने मोबाइल पर वापस एक्शन में।

जो शख़्स काम करने आया था वो बार बार पीछे मुड़कर देखता की क्या मैं वहीं खड़ा हूँ। पहले तो मुझे भी ठीक नहीं लगा औऱ एक बार ख़्याल आया कि मैं भी मोबाइल पर अपनी व्यस्तता दिखाऊँ। लेक़िन वहीं खड़ा रहा। शायद उस काम करनेवाले शख़्स को भी अंदाज़ा हो गया था क्योंकि उसके बाद वो अपने काम में मसरूफ़ हो गया।

वापस गाड़ी पर आते हैं। जब गाड़ी बदली तो लगा पिताजी का ये गैरेज पर दिन भर बिताना बंद हो जायेगा। अब तो कंपनी वाले स्वयं फ़ोन करते हैं और पूछ भी लेते हैं कि गाड़ी लेने किसी को भेजें। लेक़िन पिताजी को अपने सामने गाड़ी ठीक होते हुये देखना अच्छा लगता है। तो वो अपने सामने ही काम कराते। इसका उन्होंने एक दूसरा तोड़ भी निकाल लिया औऱ वर्कशॉप के एक मैकेनिक से बातों बातों में पूछ लिया अगर वो घर पर गाड़ी ठीक करेगा।

अब जब भी घर पर ठीक करने लायक कोई ख़राबी होती तो उसको फ़ोन करते और वो अपनी सहूलियत से आकर काम करते। जब मैंने जीवन की पहली गाड़ी ख़रीदी और उसकी सर्विसिंग करवाने गया तो मुझे याद आया काली कार की मरम्मत के वो दिन और वो दिन भर बैठे रहना औऱ इंतज़ार करना।

उन दिनों सबके पास लैंडलाइन फोन भी नहीं होते थे तो पहले से अपॉइंटमेंट लेने जैसा कोई कार्यक्रम नहीं होता। आप कब आने वाले हैं ये आप दुकान पर जाकर बताते और अग़र कोई और गाड़ी नहीं होती तो आपकी बुकिंग कन्फर्म होती। मैने ज़्यादा तो नहीं लेक़िन 4-5 बार पिताजी के साथ इस काम में साथ दिया। गाड़ी ठीक करने वाले भी सब एकदम तसल्ली से काम करते। कहीं कोई दौड़ाभागी नहीं। आज तो जिधर देखिये सब अति व्यस्त दिखते हैं।

हमारे यहाँ बच्चे अगर पढ़ाई में अच्छे नंबर नहीं लाता है तो उसको क्या ताना देते हैं? अच्छे से पढ़ो नहीं तो मेकैनिक का काम करने को भी नहीं मिलेगा। वैसे तो सब कहते रहते हैं कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। लेक़िन छोटे छोटे शब्दों में नीचे लिखा रहता है नियम व शर्तें लागू। हम ये सब काम, मतलब जिनके लिये हम एक फ़ोन करते हैं औऱ बंदा हाज़िर, उनको हम ज़रा भी इज़्ज़त नहीं देते। लेक़िन विदेश में यही काम करवाने के लिये एक मोटी रक़म ख़र्च करनी पड़ती है। इसलिये आपने देखा होगा वो अपने घर की पुताई भी स्वयं करते हैं औऱ बाक़ी अन्य काम भी।

लॉक डाउन में अगर लॉक डाउन हटने के बाद सबसे ज़्यादा इंतज़ार हो रहा है तो वो है कामवाली बाई के लौटने का। जबतक मैं व्हाट्सएप पर था तो लगभग सभी ग्रुप में इस पर या तो चर्चा चल रही होती या इसपर कुछ हल्का फुल्का हँसी मज़ाक चलता रहता। लॉक डाउन की शुरुआत वाला वो वीडियो शायद सबने देखा होगा जिसमें एक गृहणी कार में अपने यहाँ काम करनेवाली महिला को लेकर आती है औऱ उनकी इस पर उस सोसाइटी की सिक्युरिटी और बाकी लोगों से गर्मागर्म बहस हो जाती है। आज भी सब एक दूसरे से यही पूछ रहे हैं कि घर कब आओगे।

गाड़ी से बाई और बाई से वापस गाड़ी ऐसा ही लगता है जैसे फ़िल्म पड़ोसन में एक चतुरनार बड़ी होशियार में मेहमूद जी बोलते हैं ये फ़िर गड़बड़ किया, ये फ़िर भटकाया। तो वापस विषय पर। अब जो गाड़ियाँ ठीक होती हैं तो आपको नहीं पता होता कौन इसको देख रहा है। एक सुपरवाइजर आपको समय समय पर संदेश भेजता रहता है और जब काम ख़त्म तो आप गाड़ी ले जाइये। कई बार तो ऐसा भी हुआ की एक सर्विस से दूसरी सर्विस के बीच में नंबर वही रहता लेक़िन सुपरवाइजर बदल जाते। वो ठीक करने वाले के साथ चाय पीने का मौसम अब नहीं रहा।

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