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दिवाली के बहाने कुछ अन्दर की, कुछ बाहर की सफाई

बीते दिनों दीवाली पर घर जाना हुआ। चूंकि इन दिनों समय ही समय है तो ज़्यादा आनन्द लिया भोपाल यात्रा का। अब चालीस पार हो गए हैं तो हमारे समय में लिखना अटपटा नहीं लगता। जब हम पिताजी को मिले सरकारी मकान में रहते थे तो हर साल दीवाली के पहले घर में सरकार की तरफ से रंगरोगन करवाया जाता था।

उस समय स्कूलों की दीवाली की छुट्टियां दशहरे से शुरू होती थीं और दीवाली तक चलती थीं। तो इस रंगरोगन या पुताई के कार्यक्रम के समय हम चारों भाई बहन घर पर रहते थे। जिस दिन ये काम होना होता था उस दिन सुबह से माँ रसोई में खाने की तैयारी करतीं और हम लोग सामान बाहर निकालने का काम। कुछ बडी अलमारियों को छोड़ कर बाकी पूरा सामान घर के बाहर। किताबों को धूप दिखाई जाती। चूंकि इसके ठीक बाद सर्दियों का आगमन होता तो गर्म कपड़े भी बाहर धूप में रखे जाते।

इस सालाना कार्यक्रम में बहुत सी सफाई हो जाती। रंगरोगन तो एक दिन में हो जाता लेकिन सामान जमाने का कार्यक्रम अगले कुछ दिनों तक चलता। कुछ सालों बाद सरकार जागी तो ये कार्यक्रम दो साल में एक बार होने लगा और जब हमने वो मकान छोड़ा तो सरकार ने इसका आधा पैसा रहवासियों से वसूलना शुरू कर दिया था।

अपने आसपास सरकारी घर ही थे और बहुत थोड़े से लोग थे जिनके खुद के मकान थे तो ये पता नहीं चलता था उनके यहाँ रंगरोगन का अंतराल क्या है। वो तो जब दिल्ली, मुम्बई में रहने आये तो पता चला कि ये पाँच साल में या उससे अधिक समय में होता है।

पिताजी की सेवानिवृत्त के बाद अपने मकान में रहने लगे तो सालाना रंगरोगन का कार्यक्रम पूरे घर का तो नहीं बस भगवान घर तक सीमित हो गया है। चूँकि पहुंचते ही एन दीवाली के पहले हैं तो माता-पिता सफ़ाई वगैरह करवा के रखते हैं। उसपर पिताजी की हिदायत उनके किसी समान को उसकी जगह से हिलाया न जाये। हाँ, दीवाली की सफाई ज़रूर होती है लेकिन उतनी व्यापक स्तर पर नहीं जब आप घर पेंट करवा रहे हों। सामान सब वहीं रखे रहते हैं और हम बस उसके आसपास सफाई कर आगे बढ़ जाते हैं।

सरकारी घर में कुछेक बार तो ऐसा भी हुआ कि हम लोग सुबह से सामान बाहर निकाल कर तैयार और पता चला काम करने वाले उस दिन छुट्टी पर हैं। इन दिनों भारत के क्रिकेट मैच भी चलते थे तो टीवी को उसकी जगह से हिलाया नहीं जाता। घर में पेंट हो रहा है और मैच का आनंद भी लिया जा रहा है। जितने भी बल्ब और ट्यूबलाइट लगे होते उन्हें अच्छे से धो कर लगाया जाता। नये रंगे कमरे की चमक साफ किये बल्ब की रोशनी में कुछ और ही होती। आजकल त्योहार मनाने का तरीका बदल गया है। होता सब कुछ वही है लेकिन लगता है कुछ कमी है।

सोचिये अगर हम हर साल कुछ दिन निकाल कर अपने अंदर की ईर्ष्या, द्वेष, भय, अभिमान और अहंकार की भी सफ़ाई कर लें तो न सिर्फ हमारे संबधों में बल्कि स्वयं हमारे व्यकितत्व में भी कितनी ख़ालिस चमक आ जायेगी।

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