पिछले दिनों श्रीमती जी प्रवास पर थीं तो खानेपीने इंतज़ाम स्वयं को करना था। कुछ दिनों का इंतजाम तो वो करके गईं थीं तो कोई परेशानी नहीं हुई लेकिन जब वो जब खत्म हो गया तो दो ही विकल्प बचते – या तो स्वयं कुछ करें या बाहर से ले आयें।
आज से क़रीब दस वर्ष पहले या कुछ और पहले घर पर अकेले रहने का मतलब होता था आप को खाना बनाना है। बाहर खाने का मतलब जेब पर बड़ी मार और फ़िर उस समय बाहर खाने का इतना चलन भी नहीं था। मुझे याद है जन्मदिन हो या कोई और त्यौहार, सारा खाना घर पर ही बनता। दोस्तों के साथ भी बाहर खाना कॉलेज के दौरान शुरू हुआ। जय कृष्णन के साथ कभी न्यू मार्केट जाना होता तो पाँच रुपये के छोले भटूरे की दावत होती। परिवार के साथ इंडियन कॉफ़ी हाऊस ही जाते क्योंकि सभी को दक्षिण भारतीय व्यंजन पसंद थे। लेकिन ये ख़ास मौके हुआ करते थे। साल में ऐसे मौके इतने कम की एक उंगली भी पूरी न हो।
इन दिनों बाहर खाना एक आदत बन गया है। सोमवार से शुक्रवार किसी तरह घर की रसोई चलती है लेकिन सप्ताहांत आते आते सब बस बाहर के खाने का इंतज़ार करते। मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जहाँ बड़े गर्व से ये सबसे कहते फ़िरते हैं कि शनिवार-रविवार को तो हम बाहर ही खाते हैं।
लेकिन जब पिछले दिनों मुझे ये मौका मिला तो समझ ही नही आये की क्या खाया जाए। मासांहारी लोगों के लिये कई सारे विकल्प लेकिन शाकाहारी व्यक्ति के लिये कुछ अच्छे खाने की शुरुआत पनीर से शुरू और खत्म होती है। और फ़िर ये मसाला जो लगभग एक जैसा ही होता है। हर बार मैं अपना समय ऑनलाइन कुछ खाने के लिये ढूंढता और फ़िर आख़िर में दाल खिचड़ी ही बचती आर्डर करने के लिये। ऐसा ही कुछ जब बाहर खाने जाते हैं तब भी होने लगा है।
रसोई में घुसना और कुछ पकाने का आनंद ही कुछ और होता है। मुझे याद है जब मैं पिछले साल दिल्ली में था तो टीम के पुरुष सदस्य घर से कुछ बना कर लाते। रोज़ रोज़ बाहर का खाना खाते हुये बोर हो चुकी ज़बान को आदित्य, रामदीप के बनाये हुए खाने का बड़ा स्वाद आता। भोपाल में तो और ही सुख – रिश्तेदारों या अड़ोसी पड़ोसी के यहाँ से या तो खाना आ जाता या न्यौता। मुंबई के अपने अलग ढ़ंग हैं तो इस पर कोई टिप्पणी नहीं।
बच्चों को भी बाहर का खाना जैसे पिज़्ज़ा, बर्गर सब पसंद हैं लेकिन पिछले दिनों हम लोग एक होटल में रुके थे। नाश्ते में पोहा था और बेटे ने खाने से मना कर दिया। कारण? मम्मी जो पोहा बनाती हैं उसमें ज़्यादा स्वाद होता है।
अब जब श्रीमती जी वापस आ गयीं हैं तो पूछती रहती हैं मेरी कुछ खाने की फरमाइश और मेरा सिर्फ एक जवाब – घर का बना कुछ भी चलेगा। सादी खिचड़ी, आलू का सरसों वाला भर्ता और पापड़ भी। आख़िर घर का खाना घर का खाना होता है। स्वाद बदलने के लिये बाहर खाया जा सकता है लेकिन घर के खाने जैसी बात कहाँ।
आप कितना बाहर खाने का मज़ा लेते हैं? क्या आपको भी शाकाहारी के विकल्प कम लगते हैं? कमेंट करें और बतायें।