ये पोस्ट मेरा तीसरा प्रयास होगा आज का। दो काफ़ी लंबी लिखी हुई पोस्ट ड्राफ्ट में रखी हैं। लिखना शुरू कुछ और किया था लेकिन पता नहीं ख़याल कहाँ पहुँच गये उड़ते उड़ते। इससे पहले की फ्लाइट क्रैश होती, उसको सुरक्षित उतार कर ड्राफ्ट में बचा लिया। अब जब सर्जरी होगी तब काँट छाँट करी जायेगी।
लेकिन क्या उड़ान होती है ख़यालों की। वो मेहमूद साहब का गाना है जिसकी शुरुआत में वो कहते हैं ख़यालों में, ख़यालों में। मसलन जब आप को बहुत भूख लगी हो और आप किसी ऐसे इलाके से गुज़रे जहाँ दाल में बस अभी अभी तड़का डाला गया हो और शुद्ध घी के उस तड़के की खुशबू आप तक पहुंच जाए। आप के सामने स्वाद भरी थाली आ जाती है। ख़यालों में ही सही।
जिन दिनों में दिल्ली में अकेला रहता था तब ऐसे ख़याल लगभग रोज़ ही आ जाते थे जब कभी आसपड़ोस में कुछ भी पकता। हम उसकी खुशबू का आनंद उठाते हुये अपने लिये भोजन का प्रबंध करते। घर के खाने की बात मैं पहले भी कर चुका हूँ तो इसलिये इस बारे में ज़्यादा नहीं लिखूँगा।
लेकिन आज भोजन में बारे में इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों एक मेसैज आया था। खाना खाने बैठो तो भगवान, किसान और इतनी गर्मी में खाना बनाने वाली का धन्यवाद करना मत भूलना। सच भी है। गर्मी कितनी ही तेज क्यों न हो खाना भले ही सादा हो लेकिन बनाना तो पड़ता है। स्वाद में कोई कमी हमें बर्दाश्त नहीं होगी, गर्मी हो या सर्दी। लेकिन अधिकतर हम इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि जो किसान मौसम की मार झेलकर हमतक ये अन्न पहुंचाता है और उसके बाद वो गृहणी जो उससे स्वादिष्ट व्यंजन बना के खिलाती है उनको उनके हिस्से की कृत्यगता व्यक्त करने में कंजूसी कर देते हैं।
जो खाना हमारे सामने खाने की मेज़ पर सजा रहता है उसके बनने के पीछे एक कहानी होती है। लेकिन हम उसमें बिल्कुल रुचि नहीं रखते। जैसे कि ये पोस्ट। इसको मैंने तीन बार बनाने की कोशिश करी लेकिन सफल नही हुआ। आप जो इसे पढ़ रहे हैं आपको इन कहानियों के पीछे की कहानी बताने लगूँ तो बात दूर तलक जायेगी। फ़िलहाल उंगलियों और मोबाइल के कीपैड को आराम। ढेर सारा धन्यवाद किसान भाइयों का जो बारिश की राह देख रहे हैं और उन सभी का जो रसोईघर में सबकुछ झेलते हुये भी मुस्कुराते हुए ये पूछते हैं स्वाद तो ठीक है ना। कुछ कम ज़्यादा तो नहीं।