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मेरी आवाज़ ही पहचान है

पिछले दो दिनों से घर में माहौल थोड़ा अलग सा है। श्रीमती जी एक मित्र हमारी सोसाइटी छोड़ नई जगह चली गयीं। दोनों की मुलाक़ात दस साल पहले हुई थी जब हम इस सोसाइटी में रहने आये थे। शुरुआत में वो हमारी ही फ्लोर पर रहती थीं लेकिन मुझे उस समय के बारे में कुछ भी याद नहीं है। वो तो जब बारिश होती और उनके पति अपनी कार से बच्चों को छोड़ने जाते, तब उनसे मिलते और यही मुझे याद है। इन दोनों की अच्छी दोस्ती के चलते उनके पति और मेरा भी कभी कभार मिलना हो ही जाता था। लेकिन दोनों सखियों की रोज़ फ़ोन पर बात एक नियम था और संभव हुआ तो मिलना भी। अब ये सब ख़त्म होने जा रहा था और श्रीमती जी इससे बहुत दुखी थीं।

ये जो घटनाक्रम चल रहा था उससे मुझे फ़िल्म दिल चाहता है का वो सीन याद आ गया जब तीनों दोस्त गोआ में एक क़िले से दूर समंदर में एक जहाज़ को देखते हैं। आमिर खान कहते हैं उन तीनों को साल में एक बार गोआ ज़रूर आना चाहिये। सैफ इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हैं। लेकिन अक्षय खन्ना जो शायद सबसे ज़्यादा प्रैक्टिकल होते हैं, आँखों से ओझल होते जहाज़ का हवाला देते हुये कहते हैं कैसे एक दिन उस जहाज़ के जैसे तीनों दोस्त अपनी अपनी मंज़िल की तलाश में निकल पड़ेंगे और साल में एक बार तो दूर दस साल में एक बार मिलना भी मुश्किल हो जायेगा।

श्रीमती जी और उनकी मित्र ने जल्द मिलने का वादा किया तो है लेकिन दोनों जानते हैं मुम्बई जैसे शहर में इस वादे को निभाना कितना मुश्किल है। मुझे तो कई बार फ़्लोर पर ही रहने वाले सज्जनों से मुलाक़ात किये हुए महीनों गुज़र जाते हैं। लेकिन मैं इस मिलने मिलाने के कार्यक्रम का अपवाद हूँ, ऐसा मानता हूँ। बहरहाल दोनों अपनी अगली मुलाक़ात को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं।

ऐसे ही मिलने के वादे मैं भी करता रहता हूँ। कोई इंतज़ार कर रहा है कब मैं दिल्ली आऊँ और उसके साथ समय बिताऊँ। इस वादे पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने बहुत ही शानदार लिखा भी है:

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता

ऐसे ही बहुत से मिलने के वादे बहुतों से किये हुए हैं लेकिन एक भी वादा झूठा नहीं है। पता नहीं कब मिलना होता है। वैसा भी मेरा इस मामले में रिकॉर्ड बहुत ही ख़राब रहा है। मिलना तो दूर लोग मुझे फ़ोन पर मिल जाने की बधाई देते हैं।

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