जो ये लंबे लंबे अंतराल के बाद लिखना हो रहा है उसका सबसे बड़ा कष्ट ये हो रहा है कि जब लिखने बैठो तो समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करें। आज बात ग़ालिब और गुलज़ार साब की।
संगीत तो जैसे हमारे घर में एक सदस्य की तरह था। उन दिनों रेडियो ही एकमात्र ज़रिया था। और सारे घर ने अपना पूरा रूटीन भी उसके ही इर्दगिर्द बना लिया था। वैसे उस ज़माने में टेप भी हुआ करता था लेकिन बहुत से कारणों के चलते हमारे घर पर इसका आगमन हुआ बहुत समय के बाद। उन दिनों घर में किसी नई खरीदी का बड़ा शोर शराबा रहता था। तो जब वो फिलिप्स का two-in-one आया तो एक जश्न का माहौल था।
ग़ालिब से मुलाक़ात भी रेडियो के ज़रिए हुई। फ़िल्म थी मिर्ज़ा ग़ालिब और प्रोग्राम था भारत भूषण जी के बारे में। सिर्फ ये ना थी हमारी किस्मत याद रहा। लेकिन ग़ालिब से जो असल मुलाकात हुई वो गुलज़ार साब के बनाये मिर्ज़ा ग़ालिब, नसीरुद्दीन शाह द्वारा निभाया गया किरदार और जगजीत सिंह के संगीत के साथ। बस उसके बाद ग़ालिब के दीवाने हुए और होकर रह गए। सुने और भी कई शायर लेकिन ग़ालिब के आगे कोई और जँचा नहीं। या यूं कहें कि हमारी हालत का बयाँ ग़ालिब से अच्छा और कोई नहीं कर सका।
कई बार सोचता हूँ कि अगर गुलज़ार साब ये सीरियल नहीं बनाते तो क्या ग़ालिब से मिलना न हो पाता। ठीक वैसे ही जैसे कल जनार्दन और आदित्य से बात हो रही थी और हम तीनों अपने जीवन में अभी तक कि यात्रा को साझा कर रहे थे। आदित्य ने बताया कि उनके पास दो जगह से नौकरी के आफर थे और उनमें से एक PTI का था लेकिन उन्होंने दूसरा ऑफर लिया और इस तरह से उनसे मिलना हुआ।
जनार्दन से भी काफी समय पहले बात हुई थी लेकिन उस समय बात बनी नहीं। लेकिन अंततः वो साथ में जुड़ ही गये। शायद ग़ालिब से मुलाक़ात भी कुछ ऐसे ही होती। कोई और ज़रिया बनता और हमारी मुलाकात करवा ही देता। जैसे मैत्री ने करवाई थी मोहम्मद उज़ैर से। अगर गुलज़ार साब का शुक्रगुजार रहूंगा ग़ालिब से मिलवाने के लिये, मैत्री का रहूंगा मोहम्मद से मिलवाने के किये।
मोहम्मद बहुत ही कमाल के शख्स हैं और ये मैं इसलये नहीं कह रहा कि उन्होंने पिछली पोस्ट पढ़ कर मेरी तुलना प्रेमचंद और दिनकर से करी थी। फिल्मों को छोड़कर बाकी लगभग सभी विषयों की अच्छी समझ और पकड़। लेकिन जब प्रत्युषा बनर्जी ने अपने जीवन का अंत कर लिया तो मोहम्मद ही थे जिन्होंने फटाफट स्टोरीज़ लिखी थी। मुझे किसी मुद्दे के बारे में कुछ पता करना होता तो मोहम्मद ही मुझे बचाते। अब वो एक नई जगह अपने हुनर का जादू बिखेरेंगे।
ठीक वैसे ही जैसे रात के सन्नाटे में जगजीत सिंह अपनी आवाज़ में ग़ालिब का जादू बिखेर रहे हैं।
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक ब्राह्मण ने कहा है कि ये साल अच्छा है।
हमें ऐसे ही गुलज़ार मिलते रहें और ज़िन्दगी ऐसे ही गुलज़ार करते रहें।
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[…] आऊँ और उसके साथ समय बिताऊँ। इस वादे पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने बहुत ही शानदार लिखा भी […]