सर्दियों का मौसम हो और चाय की बात न हो तो कुछ अधूरा सा लगता है। मुम्बई में पिछले कुछ दिनों से अच्छी ठंड पड़ रही है। उत्तर भारत या पूर्वी भाग में जैसी ठंड है उसके मुकाबले में तो कुछ नहीं है, लेक़िन हम मुम्बई में रहने वालों के लिये ये भी काफ़ी होती है।
गोवा (पिछली दो पोस्ट में ये गोआ रहा लेक़िन इस बार सही पकड़ लिया) जहाँ की ख़ुमारी अभी तक नहीं गयी, वहाँ के पीने पिलाने के बारे में मैंने पिछले साल लिखा था। लेक़िन अब कोई ख़ानदानी पियक्कड़ तो हैं नहीं कि सुबह से शुरू हो जायें। सुबह तो चाहिये चाय। औऱ वहीं से शुरू होती है मशक्क़त। वैसे भी घर से बाहर निकलते ही ये चयास आपको कई तरह के अनुभव भी कराती है। क्योंकि गोवा में चाय पी तो जाती है लेक़िन बाक़ी पेय पदार्थों से थोड़ी कम।
जब हम दस ग्यारह बजे नाश्ता करने पहुँचते तो आस पास की टेबल पर पीने का कार्यक्रम शुरू हो चुका रहता था। हम लोग सुबह से लहरों के साथ समय बिताने के बाद से चाय की जुगाड़ में रहते। हर शहर का अपना एक मिज़ाज होता है। गोवा का भी है। यहाँ शामें औऱ रातें बड़ी ख़ूबसूरत होती हैं। लहरों के साथ समय कैसे गुज़रता है पता नहीं चलता शायद इसीके चलते यहाँ सुबह थोड़ी देर से होती है।
वैसे होटल में मशीन वाली चाय, कॉफ़ी दोनों मिलते थे लेक़िन दिन में एक से ज़्यादा बार नहीं पी सकते थे। उसमें अगर बाक़ी सभी तरह की चाय होती तो बदल बदल कर पी जा सकती थी। एक ही जैसी चाय जिसको पीने की इच्छा नहीं हो तो आप कितना पी सकते हैं? ख़ैर एक दिन बाद बाज़ार से टी बैग लाये गये ताक़ि कुछ चाय जैसा
अब हम चाय के शौकीनों के साथ भी मसले रहते। जैसे चाय अगर ताज़ी बनी हुई हो तो उसका ज़्यादा मज़ा आता है औऱ अग़र सामने ही बन रही हो तो उसमें अपने हिसाब से कम या बिना शक़्कर वाली चाय अलग से मिल जाती है। लेक़िन पहले दिन ऐसा कुछ मिला नहीं। पहले से तैयार चाय मिली जो यही कहकर बेची गयी कि अभी अभी बनी है।

समुद्र के किनारे जो रेत रहती है, ख़ासकर वो जो सूखी रेत रहती है, उसपर चलने में ढ़ेर सारी मशक्कत करनी पड़ती है। वहीं अग़र आप सागर किनारे चलें तो गीली रेत के कारण चलना आसान होता है। चूँकि जिस जगह हम रुके थे वहाँ से बीच मुश्किल से दो मिनट की दूरी पर था तो कमरे से बिना किसी चरणपादुका के ही निकल जाते। अब वो हाँथ में चरणपादुका के साथ तस्वीर किसी भी तरह से खूबसूरत नहीं लगती। एक बार किसी ने उतार कर दी औऱ घूमने लगे। थोड़ी देर बाद बड़ी लहर आई तो चरणपादुका वापस लेकर बस निकल ही गयी थी कि नज़र पड़ गयी। तो अपनी सहूलियत के लिये बस ऐसे ही कमरे से निकल जाते।
वापस चाय की यात्रा पर आतें हैं। तो दूसरे दिन पहले दिन के अनुभव के बाद सुबह सुबह सागर किनारे ये निर्णय लिया की आज कहीं औऱ चाय पी जाये। बस फ़िर क्या था, निकल पड़े प्याले की तलाश में। गोवा के बारे में जैसा मैंने पहले भी कहा था, ओढ़ने पहनने पर कोई ज़्यादा ध्यान नहीं रहता। तो जब हम निकले चाय की तलाश में तो पैरों में कुछ नहीं पहना था। जब तक सागर किनारे रहे कुछ फ़र्क नहीं पड़ा। जब सड़क पर पहुँचे तो यही लगा गोवा पहुँचकर हम भी मिलिंद सोमन हो गये। काश उनके जैसे फिट भी होते। लेक़िन हमने शुरुआत उनकी दूसरी आदत से करी – नंगे पैर घूमना। हम गोवा की गलियों में चाय ढूंढ़ते हुये औऱ उसके काफ़ी देर बाद भी ऐसे ही घूमते रहे।
वैसे उस दिन बढ़िया चाय मिली भी। जो ताज़ी बनी हुई थी साथ ही कुछ बढ़िया नाश्ता भी। उसके बाद भी ऐसे ही, बिना चरणपादुका के, नाश्ता करने भी पहुँच गये। वो तो अच्छा हुआ की उस होटल में कोई ड्रेस कोड नहीं था, अन्यथा हम भी ख़बर बन गये होते।