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काहे का झगड़ा बालम, नई नई प्रीत रे

आमिर ख़ान पहली फ़िल्म से पसंद आये थे औऱ क़यामत से क़यामत तक के बाद उनकी अगली कुछ फ़िल्में देखने लायक नहीं थीं। जब उनकी औऱ मंसूर ख़ान की जो जीता वही सिकंदर की घोषणा हुई तो इसका इंतज़ार शुरू हुआ। जूही चावला को न लेने का दुःख तो था लेक़िन फ़िल्म अच्छी होगी इसका यक़ीन था।

उन दिनों गाने सुनने का ज़्यादा चलन था। देखने के लिये सिर्फ़ बुधवार औऱ शुक्रवार को चित्रहार ही हुआ करता था। उसमें अगर गाना आया तो आपकी किस्मत। तो इस फ़िल्म के गाने ख़ूब सुने थे लेक़िन देखे नहीं थे।

पहला नशा के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। जब अंधेरे सिनेमाघर में गाना शुरू हुआ तो एक अलग ही दुनिया में पहुँच गये थे। इससे पहले गाने ऐसे नहीं फिल्माये गये थे। अक़्सर ऐसा होता है आप गाना जब सुनते हैं तो आप के मन में ये विचार ज़रूर आता है की इसको कैसे फ़िल्माया गया होगा। इस गाने को जब सुना था तब पता नहीं क्या विचार आये होंगे लेक़िन आज 27 बरस के बाद लगता है ये उन गिने चुने गानों में से है जिसकी धुन के साथ उसका फिल्मांकन बिल्कुल सही बैठा था।

अब आज ये कहाँ की यात्रा पर निकले हैं? दरअसल आज सुबह गुरुदत्त जी की फ़िल्म आरपार का गाना ये लो मैं हारी पिया सुन रहे थे। जब ये गाना रेडियो पर सुना था तब पता नहीं था इस गाने का फिल्मांकन कैसा हुआ होगा। बरसों बाद जब देखा तो गाना औऱ खूबसूरत लगा। मुंबई की सड़कों पर दौड़ती टैक्सी में गुरुदत्त एवं श्यामा जी औऱ उनकी उफ़्फ़ उनकी अदायें।

वैसे ही जीवन में हमें जब कोई मिलता है तो ये पता नहीं होता ये साहब क्या साबित होंगे – एक सबक़ या एक वरदान।

हम सबका एक मूल स्वभाव होता है जो जन्म से ही हमारे अंदर रहता है। अगर आपने हालिया रिलीज़ \’शेरशाह\’ देखी हो तो उसमें विक्रम बत्रा बचपन से ही ग़लत बात के ख़िलाफ़ लड़ते हैं औऱ फ़िर उन्हें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता की सामने वाले बच्चे उनसे उम्र में बड़े हैं। वो बस लड़ जाते हैं।

जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं जो हमारा मूल स्वभाव होता है उसमें कोई बदलाव नहीं होता। हाँ हम इसको छिपाना, या इसको कोई दूसरा चोला पहनाना सीख जाते हैं। लेक़िन ये कहीं नहीं जाता। ये कभी बदलता भी नहीं है। ये रहता है औऱ कभी न कभी बाहर निकलता ही है। वो कहावत भी है न – अपने असली रंग दिखाना।

हम सभी ऐसे लोगों को जानते हैं। हमारे परिवार में या दोस्तों में ऐसे लोग होते हैं जो सबकी मदद को आतुर रहते हैं। उनको बस कोई मौका मिल जाये और वो किसी न किसी तरह मदद करने को हमेशा तैयार। ये वो हैं जिनकी कथनी औऱ करनी में कोई अंतर नहीं होता है।

लेक़िन इसके ठीक विपरीत ऐसे लोग भी होते हैं जो हमेशा लोगों को तकलीफ़ ही देते हैं। फ़िल्मों में अक़्सर ऐसे क़िरदार होते हैं जो शुरू में तो बड़ी मीठी मीठी बात करते हैं और उसके बाद जब समय आता है तो उनका असली चेहरा सामने आता है। असल ज़िन्दगी में भी ऐसे कई लोग मिलते ही रहते हैं।

ऊपर जो दो श्रेणी के लोग बताये हैं उसमें से दूसरी श्रेणी वाले ज़्यादा किसी कष्ट में नहीं रहते। लेक़िन जो पहली श्रेणी वाले हैं उनके साथ कुछ न कुछ ग़लत होता रहता है। इसके पीछे भी उनका मूल स्वभाव ही ज़िम्मेदार है क्योंकि उनका स्वभाव ही है लोगों पर भरोसा कर उनकी मदद करना लेक़िन लोग उनके इस स्वभाव का फ़ायदा उठाते हैं। इस श्रेणी के लोग बहुत से कटु अनुभव के बाद भी अपने को बदल नहीं पाते क्योंकि यही उनका स्वभाव है। वो चाहकर भी उसको बदल नहीं सकते।

मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ने मुझसे एक दिन कहा की मुझे अपनी ये मिडिल क्लास, छोटे शहर वाली सोच त्याग देना चाहिये। इससे उनका मतलब था जिन उसूल, आदर्शों को मैं मानता हूँ उसको छोड़ दूँ। मुझे ये बात थोड़ी अजीब सी भी लगी क्योंकि यही सब तो आपका व्यक्तित्व बनाते हैं। बस उन्होंने फ़िल्म दीवार के अमिताभ बच्चन जैसा नहीं कहा।

हमारे एक परिचित हैं। मुझे उनका स्वभाव वैसे भी शुरू से पसंद नहीं था क्यूँकि उनका पैसे पर बहुत ज़्यादा भरोसा रहा है औऱ उनको लगता की अगर उन्होंने किसी की मदद करी है तो उसको ख़रीद लिया है। दूसरे उनकी मदद पैसे से नहीं लेक़िन किसी दूसरे रूप में करते थे। लेक़िन उन्होंने हर रिश्ते को पैसे से ही तोला औऱ शायद वर्षों से ही तौल रहे थे। इसका पता तब चला जब उनका एक बार किसी से विवाद हुआ तो उन्होंने बरसों पुराना हिसाब किताब निकाल के रख दिया कैसे उन्होंने फलां काम के लिये कितने पैसे ख़र्च किये थे। मतलब ये बहीखाता कभी न कभी बाहर आता क्योंकि उसको रखा इसीलिये था। कहाँ तो लोग डायरी में यादों का लेखा जोखा रखते हैं और कहाँ ये महाशय खर्चों से बाहर निकल नहीं पाये।

आपने भी ऐसे कई लोगों को जानते होंगे \’जिनके पास भगवान का दिया सब कुछ होता है\’। लेक़िन किसी फ़िल्मी कहानी की तरह एक दिन अचानक आपको सुनाई देता है सब कुछ होने के बावजूद भी उन्होंने परिवार के अन्य सदस्यों से लड़ाई कर ली है औऱ सारी जायदाद ख़ुद हड़पना चाहते हैं। आप वर्षों से उन्हें जानते हैं औऱ आपके लिये ये मानना नामुमकिन सा होता है। लेक़िन यही कड़वा सच है।

ये दोनों उदाहरण किसी व्यक्ति का मूल स्वभाव दर्शाने के लिये हैं। इसलिये जो मीठा मीठा बोलते हैं उनसे दूर से राम राम औऱ जो चिकनी चुपड़ी बोलते हैं उनको भी सलाम। ये जो मीठा बोलने वाले होते हैं इनसे तो जितना बच सकते हैं बचिये। ये लोग किसी विवाद में पड़ना ही नहीं चाहते क्योंकि ये चिकना घड़ा होते हैं। जहाँ उनका फ़ायदा होता है वहाँ चल देते हैं।

मतलब की बात ये की कई गाने सुनने में अच्छे लगते हैं लेक़िन देख कर लगता है गाना बर्बाद कर दिया। ऐसे कई गाने हैं। नये थोड़े ज़्यादा हैं क्योंकि सब एक जैसे ही फिल्माये जाते हैं। कुछ पुराने भी हैं। आपके पास ऐसे कुछ हों तो बतायें।

फ़िलहाल आप इस गाने का आंनद लें। सबक औऱ वरदान तो जीवन पर्यंत चलने वाले हैं।

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