आजकल खानेपीने के इतने सारे विकल्प उपलब्ध हैं की कई बार समझ नहीं आता की क्या खाया जाये।
आपने अग़र फ़ैमिली मैन का दूसरा सीजन देखा हो तो, उसमें निर्देशक द्वय राज-डी के ने इस बार दक्षिण भारत में कहानी बताई है। मनोज बाजपेयी अपनी टीम के साथ जब चेन्नई पहुँचते हैं तो एक सदस्य चेन्नई की टीम से कहते हैं मुझे दक्षिण भारतीय खाना बहुत पसंद है। उस टीम के मुख्य उनसे पूछते हैं दक्षिण भारत में कहाँ का भोजन पसंद है। दरअसल हमने पाँच राज्यों को एक में समेट लिया औऱ ये भी मान बैठे की सभी राज्यों में एक जैसा ही खाना खाया जाता है।
इसका ज़िक्र इसलिये कर रहा हूँ की मुझ पर ये इल्ज़ाम लगता है कि मुझे दक्षिण भारत में होना चाहिये था क्योंकि मुझे भी दक्षिण भारतीय व्यंजन बेहद पसंद हैं। अब किस राज्य में होना चाहिये ये मेरे लिये चुनना मुश्किल है। वैसे मुझे गुजराती व्यंजन भी बेहद पसंद हैं। आज गाड़ी दक्षिण की तरफ़ मुड़ चुकी है तो वहीं चलते हैं। दक्षिण भारतीय व्यंजन से परिचय बहुत देर से हुआ क्योंकि जब हम बड़े हो रहे थे तब खानेपीने के इतने सारे विकल्प नहीं थे। कुछ अलग खाने की इच्छा होती तो चाट या समोसा-कचोरी। इसके अलावा सब कुछ घर पर ही बनता औऱ स्वाद लेकर खाया भी जाता। अब तो एप्प आ गईं हैं जो आपकी ये मुश्किल आसान कर देती हैं। जब एक वर्ष दिल्ली में रहा तो एप्प ने बड़ा साथ दिया लेक़िन कई बार समझ ही नहीं आता क्या खाया जाये। चाइनीज औऱ बाक़ी विकल्पों में घूमते हुये ही समय निकल जाता फ़िर थाली ही आर्डर करने के लिये बचती।
आज के जैसे तैयार घोल जिससे आप इडली डोसा उत्तपम आसानी से बना सकते हैं, वो भी उन दिनों उपलब्ध नहीं था। मतलब सब स्वयं तैयारी करिये औऱ उसपर से सब की अलग अलग पसंद। डोसा तो फ़िर भी कभी कभार बन ही जाता था लेक़िन इडली से मुलाक़ात बहुत बाद में हुई जब इडली बनाने का साँचा मिलने लगा। कई गृहणियों ने अपने अपने हिसाब से इन व्यंजनों को बनाने का तरीका भी निकाला। कुछ ने तो आज का चेन्नई औऱ उन दिनों के मद्रास से साँचे भी मंगाये। एक परिवार ने साँचे मंगा तो लिये लेक़िन उसका उपयोग उन्हें शुरू में समझ में नहीं आया तो उन्होंने अपना एक जुगाड़ निकाला। अप्पे के साँचे को इडली के घोल से भरने के बाद वो उसी के ऊपर तड़का भी लगा देतीं। ये नई तरह की डिश का उन्होंने नामकरण भी किया औऱ सबसे ज़्यादा अच्छी बात ये हुई की ये परिवार के सदस्यों को पसंद भी आई।
जब तक भोपाल में रहे तो बाहर खाना बहुत कम हुआ। ऐसे ही किसी ख़ास मौके पर जाना हुआ इण्डियन कॉफ़ी हाउस या ICH जो उन दिनों न्यू मार्केट के मुख्य बाज़ार का हिस्सा हुआ करता था। उसके बाद से इडली, डोसा औऱ उत्तपम के साथ कॉफ़ी से मोहब्बत का जादू ऐसा चला की आज भी ये खाने को मिल जाये तो औऱ कुछ नहीं सूझता। रही सही कसर कॉलेज में बने दोस्तों से पूरी हो गयी। मेरे उस समय के मित्र जय, विजय औऱ सलिल तीनों ही दक्षिण भारत से थे औऱ इनके यहाँ खाने का कोई मौक़ा मैं नहीं छोड़ता।
जब पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा तो कॉफ़ी हाउस जाना बहुत नियमित हो गया था। कारण? वहाँ बहुत सी पत्रकार वार्ता हुआ करती थीं। इसके अलावा उस समय के काफ़ी सारे पत्रकार सुबह वहाँ इकट्ठे होते औऱ कॉफ़ी औऱ सिगरेट के बीच पिछले दिन के समाचार की समीक्षा औऱ बाक़ी चर्चा होती। मेरा इसमें जाना हुआ नहीं क्योंकि सभी बहुत सीनियर लोग थे लेक़िन मेरे गुरु नासिर क़माल साहब ने बुलाया कई बार।
परिवार के साथ भी कहीं बाहर खाने के लिये जाना होता तो ज़्यादातर कॉफ़ी हाउस का ही रूख़ करते। खाना पसंद आने के अलावा एक औऱ चीज़ जो अच्छी थी वो थी क़ीमत जो जेब पर डाका डालने वाली नहीं थी। मध्यम वर्गीय परिवार के लिये इससे अच्छी बात औऱ क्या हो सकती थी। अच्छा उन दिनों का मेनू भी बहुत ज़्यादा बड़ा नहीं हुआ करता था। अब जो नया कॉफ़ी हाउस बना है वहाँ तमाम तरह की चीज़ें मिलने लगी हैं लेक़िन आज भी जो सांभर वहाँ मिलता है उसका कोई मुकाबला नहीं।
आज ये दक्षिण भारतीय खाने के बारे में इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों कहीं पढ़ा था की नागपुर शहर से इडली डोसा सांभर का परिचय करवाया था महान वैज्ञानिक सी वी रमन जी ने। बात 1922 की है जब अंग्रेजों ने उन्हें नागपुर में एक संस्थान खोलने के लिये भेजा था। नागपुर की गर्मी तो उन्होंने जैसेतैसे बर्दाश्त कर ली लेक़िन जैसा की अमूमन होता है, वहाँ जो खाना मिलता था उसमें बहुत तेल होता औऱ उसका स्वाद भी उन्हें नहीं भा रहा था। जिस तरह का खाना उनको चाहिये था वो कहीं भी मिल नहीं रहा था। रमन जी ने अपने घर से रसोइये रामा अय्यर को बुला लिया।
महाराज के आने के बाद रमन जी को उनके स्वाद का भोजन मिलने लगा। कुछ दिनों बाद उन्होंने सोचा इन व्यंजनों से नागपुर के रहवासियों का भी परिचय कराया जाय औऱ इस तरह शुरुआत हुई \’विश्रांति गृह\’ की। कुछ ही दिनों में ये रेस्टोरेंट चल निकला औऱ लोगों की भारी भीड़ रहने लगी। कई बार तो रविवार को पुलिस की मदद लेनी पड़ती भीड़ को काबू में रखने के लिये। जो व्यंजन मिल रहे थे न सिर्फ़ उनका स्वाद अलग था बल्कि उनको बनाने का तरीका भी। जैसे दक्षिण भारतीय व्यंजन में नारियल का प्रयोग होता है। महाराष्ट्रीयन खाने में सूखे नारियल का प्रयोग होता है। लोगों को स्वाद बेहद पसंद आया।
इस खाने के चर्चे दूर तक होने लगे औऱ कोई भी अभिनेता या नेता नागपुर आते तो \’विश्रांति गृह\’ के भोजन का स्वाद लिये बिना नहीं जाते। फ़िल्म अभिनेता अशोक कुमार, कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी भी यहीं से खाना मँगवाते। ये भी माना जाता है की आजकल जो रवा डोसा खाया जाता है उसकी उत्पत्ति भी नागपुर शहर में ही हुई है। जब डोसे का घोल समाप्त हो जाता लेक़िन भीड़ कम नहीं होती तो महाराज ने रवा घोल कर डोसा बनाना शुरू कर दिया। 1930 में अय्यर महाराज ने अपने ख़ास रसोइये मणि अय्यर को रेस्टोरेंट की ज़िम्मेदारी सौंप दी औऱ दक्षिण भारत वापस चले गये। नागपुर में ये रेस्टोरेंट आज भी चल रहा है औऱ परिवार के सदस्य जो किसी का पेट भरने को एक पुण्य का काम मानते हैं, उनका भी यही प्रयास है की ये कभी बंद न हो।
नागपुर से वापस आते हैं भोपाल औऱ यहाँ के कॉफ़ी हाउस में। इस बार लिटिल कॉफी हाउस जो ICH से थोड़ी दूरी पर बना था। इसके जो मालिक थे वो पहले एक ठेला लगाते थे औऱ धीरे धीरे उनके बनाये खाने का स्वाद लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा औऱ उन्होंने अपना रेस्टोरेंट खोल लिया। लेक़िन उन्होंने उस हाथ ठेले को नहीं छोड़ा औऱ उसको भी अपने रेस्टोरेंट में रखा। यहाँ जाना थोड़ा कम हुआ करता था क्योंकि ये थोड़ा अंदर की तरफ़ था।
तो कॉफ़ी हाउस ICH में उन दिनों बैठने के अलग अलग हिस्से थे। मसलन परिवार के लिये अलग जगह थी औऱ बाक़ी लोगों के लिये जो मैन हॉल था वहीं पर ऊपर नीचे बैठने की व्यवस्था थी। अगर आप अपनी महिला मित्र को लेकर जा रहें औऱ किसी की नज़र में भी नहीं आना चाहते हैं तो आप फैमिली वाले एरिया में जा सकते हैं। वो फैमिली का हिस्सा बने या न बनें कॉफी हाउस की मुलाक़ात तो यादगार बन जायेगी। ऐसे ही वहाँ कई जोड़ियाँ भी पक्की हुई हैं। 1970 के दश्क में विवाह के लिये परिवारों को मिलना होता या लड़का/लड़की को दिखाने का कार्यक्रम होता तो वो भी इसी जगह होता। बात आगे बढ़ती तभी घर पर जाना होता। किसी की पहली मुलाक़ात, कॉफी हाउस जैसी चहल पहल वाली जगह औऱ वहाँ की कॉफ़ी। भला इससे बेहतर एक सफ़र की शुरुआत क्या हो सकती है।
हमारे समय तक आते आते नये होटल आ गये थे तो ये कार्यक्रम वहाँ सम्पन्न होता। वैसा अच्छा ही हुआ क्योंकि अग़र कॉफ़ी हाउस जाते औऱ सांभर चटनी पर ध्यान लग जाता तो ये कार्यक्रम वहीं धरा का धरा रह जाता। अगर कभी भोपाल जाना हुआ तो कॉफ़ी हाउस के लिये समय निकाल लें। बहुत कुछ बदल ज़रूर गया है, भीड़ भी होने लगी है लेक़िन स्वाद लगभग वैसा ही है।
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