स्क्रिप्ट की डिमांड के नाम पर निर्माता निर्देशक बहुत कुछ करा ले जाते हैं। लेकिन जब डिमांड हो और आप इनका इस्तेमाल नहीं करते हैं तो?
मुझे ठीक ठीक याद नहीं किस अख़बार में पढ़ा था लेकिन पढ़ा ज़रूर था। हालिया रिलीज खाकी सीरीज बनाने वाले नीरज पांडे से पूछा गया था की क्या ये सीरीज परिवार के साथ देख सकते हैं। वैसे तो ये सवाल इन दिनों बनने वाली सभी सिरीज़ पर लागू होता है। इस वेबसरीज को बनाने वाले निर्माता निर्देशक से ही ये सवाल क्यों पूछा गया इसका कारण मुझे नहीं पता।
मुझे जो कारण समझ आये वो दो थे। एक तो ये पुलिस से संबंधित सीरीज है। दूसरा ये कि ये बिहार के ऊपर है। मतलब करेला और नीम चढ़ा। जब वेबसरीज़ का आगमन नहीं हुआ था तब किरदारों को और पूरे माहौल का एक बहुत ही सजीव चित्रण दिखाने के लिए कुछ फ़िल्म निर्देशकों ने गालियों और सेक्स सीन का सहारा लिया। इसकी कीमत उन्हें A सर्टिफिकेट से चुकानी पड़ी और इसके लिए वो तैयार भी थे। फ़िल्में चल पड़ी और ये चलन और बढ़ गया।
जब वेब सिरीज़ का आगमन हुआ तो सबको खुली छूट मिल गई। सारे सर्टिफिकेट यहां से गायब थे। बहुत से हिंदी फ़िल्म के निर्माता निर्देशक को जैसे एक शॉर्टकट रास्ता मिल गया था। एकता कपूर जैसे निर्माताओं ने तो इस तरह के शो से एक अलग तरह से तबाही मचा रखी है।
बहरहाल, इससे पहले की और ज़्यादा भटकें, विषय पर वापस आते हैं। मैं नीरज पांडे जी के काम का ज़बरदस्त प्रशंसक रहा हूं। उनके नए काम का इंतजार रहता है। तो जब ये सवाल पढ़ा तो मुझे लगा इनसे ये सवाल क्यों किया गया। इनके पुराने काम को देखकर आपको पता चल जायेगा की इनका जोर कहानी पर रहता है। अगर ज़रूरत नहीं है तो कोई चीज़ ज़बरदस्ती नहीं डाली जायेगी।
ख़ैर। सवाल का जवाब इन्होनें वही दिया जिसकी उम्मीद थी। \”हां ये सिरीज़ पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है।\” फ़िर इसका ट्रेलर देखा और इंतज़ार करने लगे कब ये सिरीज़ देखने को मिलेगी। ये संभव हुआ इस शुक्रवार/शनिवार को। परिवार के साथ तो नहीं देखी क्योंकि बच्चों की पसंद कुछ अलग तरह की है।
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पुलिस को मैंने बहुत करीब से देखा है। मेरे मामाजी भारतीय पुलिस सेवा में कार्यरत थे और बहुत से संवेदनशील केस उनके पास थे। जब तक पत्रकारिता से नाता नहीं जुड़ा था तब तक पुलिस के काम का एक अलग पहलू देखा थे। जब पत्रकारिता में आए तब एक अलग पहलू देखने को मिला। इसलिए जब पुलिस से संबंधित कोई फ़िल्म या सिरीज़ देखने को मिलती है तो ज्यादातर निराशा ही हाथ लगती है। बहुत कम इसके अपवाद हैं। हाल के वर्षों में \’दिल्ली क्राइम\’ ही सबसे अच्छा बना है।
‘खाकी’ भी अब इस लिस्ट में शुमार है।
किसी भी निर्देशक के लिए गाली या सेक्स का अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन क्या आप अपनी बात इन दो चीज़ों के बगैर भी कर सकते हैं? ये उन लोगों के लिए एक चैलेंज रहता है। बहुत से निर्देशक इससे बच नहीं पाते।
इसका एक और उदाहरण है फ़िल्म ‘ऊंचाई’। फ़िल्म के निर्देशक सूरज बड़जात्या अपने फ़िल्म कैरियर का पहला गाना जिसमें शराब पीना दिखाया गया है, वो शूट किया है। इससे पहले भी उन्होंने कई फ़िल्में बनाई हैं लेकिन बेहद साफ़सुथरी। रोमांस को दिखाने का उनका एक अलग अंदाज़ है जो आम हिंदी निर्देशकों से बहुत अलग है। शायद इसी वजह से आज भी उनकी फ़िल्में पसंद की जाती हैं।
‘खाकी’ में इसकी पृष्ठभूमि और पुलिस के चलते दोनों ही चीज़ों के इस्तेमाल को ठीक भी ठहराया जा सकता था। लेकिन जब आपकी कहानी दमदार हो तो आपको इन सभी चीज़ों की ज़रूरत महसूस नहीं होती। इस सिरीज़ में भी पति-पत्नी हैं, गैंगस्टर की महबूबा भी है। पूरी कहानी गांव के किरदारों पर है। तो जिस तरह फ़िल्मों में ये तर्क दिया था गालियों के ओवरडोज़ के लिए, वही सारे यहाँ भी बिलकुल फिट बैठते हैं। लेकिन निर्देशक महोदय ने कहानी पर ही ध्यान बनाए रखा और इन सबके इस्तेमाल से बचे हैं।
जहां तक इस सीरीज के कलाकारों की बात करें तो सभी ने बहुत ही बढ़िया काम किया है। हिंदी फिल्मों में पुलिस को एक बहुत ही अजीब ढंग से दिखाया जाता है। कुछ निर्देशक चूंकि पुलिस को दिखा रहे हैं तो उनको एक एक्शन हीरो की तरह दिखाते हैं। चलती गाड़ी से कूद जाना या फालतू की मारधाड़ – ये कुछ ऐसी चीज़ें बन गई हैं जिनके बिना काम नहीं चलता इन निर्देशकों का। जब आप खाकी देखते हैं तो यहां मामला थोड़ा नहीं बहुत अलग है। यहां गाड़ियां उड़ती नहीं हैं। यहां इसको सच्चाई के जितने करीब रखा जा सकता है वो रखा गया है (बिना गाली गलौच के)।
सिरीज़ में अच्छे बुरे सभी तरह के पुलिसवाले दिखाए गए हैं। लेकिन कहानी उन अच्छे पुलिसवालों के बारे में जो बस अपना काम करना जानते हैं। ठीक वैसे ही जैसे नीरज पांडे जी और उनके सहयोगी अच्छी कहानी दिखाने के प्रयास में लगे रहते हैं। अगर अभी तक नहीं देखी और साफ़ सुथरी सिरीज़ से परहेज़ नहीं है तो ज़रूर देखें। पूरे परिवार के साथ।