लगता है जैसे कुछ दिन पहले की ही बात थी जब मैं नये साल के बारे में लिख रहा था और आज नये साल के दूसरे महीने के तीन दिन निकल चुके हैं। जनवरी का महीना कई नये अनुभवों की सौगात लाया। जैसे नये लोगों से मुलाक़ात और उनके ज़रिये अपने को नई रोशनी में देखना।
जनवरी में ही अस्पताल में इलाहाबाद/प्रयागराज से आईं एक महिला से मिलना हुआ। वो अपने इलाज के लिये अकेले ही शहर में डेरा डाले हुईं थीं। रुकने के लिये जगह नहीं थी तो अस्पताल को ही अपना घर बना लिया और बाहर से ही खाने का इंतज़ाम भी कर लिया। दिनभर वो अस्पताल के आसपास बिताती और शाम होते होते अस्पताल का एक कोना उनके सोने की जगह बन जाता। निश्चित रूप से कड़ाके की सर्दी में उन्हें कई परेशानियों का सामना भी करना पड़ रहा होगा लेकिन उनसे मिलके आपको इसका अंदाज़ा भी नहीं होगा।
उनकी बातें सुनकर एक तो अपने देश की स्वास्थ्य सेवाओं की ख़स्ता हालत से फ़िर सामना हुआ। दूसरी बात जो बड़ी मायने रखती है वो ये की मुझे जिस बात को सुनकर इतनी परेशानी हो रही थी, उनको इस बात से कोई परेशानी हुई हो इसकी कोई झलक नहीं दिखी। तो क्या मैं आधा ख़ाली ग्लास देख दुखी हो रहा था या वो आधा खाली ग्लास नहीं बल्कि आधा पानी से और आधा हवा ग्लास देख रही थीं?
हम ऐसे कितने लोगों से मिलते हैं जो मिलते ही अपनी परेशानियों की लिस्ट खोल के बैठ जाते हैं। वहीं ऐसे भी लोगों से भी मुलाक़ात होती है जिनके जीवन में परेशानी तो होती ही होंगी लेकिन तब भी वो उनको अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। पिताजी हमेशा एक फ़िल्म का उदाहरण देते हैं जिसमें एक शॉट है उसमें एक रईस नींद न आने की वजह से परेशान है वहीं उसकी खिड़की के बाहर एक मज़दूर दिन भर की मेहनत कर पत्थरों पर ही सो रहा है। अगर इसकी क्लिप मिली तो ज़रूर शेयर करूँगा।
ऐसे ही फ़िल्म पंगा में जब कंगना रनौत को अपने परिवार को छोड़ कर जाना पड़ता है तो उनके लिये ये बड़ा मुश्किल होता है। वो अपने पति से कहती हैं की अगर वो अपने काम की लिस्ट बनायें तो एक पूरी कॉपी भर जाये। लेकिन एक बार जब वो अपने खेल में व्यस्त हो जाती हैं तब सिर्फ़ खेल पर ही उनका ध्यान रहता है। उस समय न तो उन्हें इस बात की चिंता होती की उनके बेटे ने बाहर का खाना खाया या उनके पति ने दाल पकाने के लिये कुकर की कितनी सीटियाँ बजाई।
मैं ये फ़िल्म देखना चाहता था क्योंकि इसकी काफ़ी शूटिंग भोपाल में हुई है और मैंने बहुत कम भोपाल में शूट हुई फ़िल्म बड़े पर्दे पर देखी हैं। मेरे हिसाब से बाकी फ़िल्म के किरदारों की तरह शहर भी एक किरदार होता है और मुझे ये उत्सुकता थी की भोपाल का क्या किरदार है। लेक़िन ऐसा कुछ खास था नहीं। लेकिन उसकी खामी एक अच्छी कहानी और उम्दा अभिनय ने पूरी कर दी।
अगर आपने फ़िल्म नहीं देखी है तो नज़दीकी सिनेमाघर में परिवार के साथ ज़रूर देखें। आपको अपने आसपास, शायद अपने ही घर में, एक जया निगम मिल जायेंगी।