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उसने कहा मुमकिन नहीं, मैंने कहा यूँ ही सही

आज से कुछ पाँच महीने पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी चिट्ठियों के बारे में। कैसे ये चिट्ठि पढ़ने का मज़ा कुछ सालों बाद दुगना हो जाता है। इस पोस्ट के बाद सभी उत्साहित। मेरी पुरानी टीम के कुछ सदस्यों के साथ पत्राचार के लिये पतों का आदान प्रदान भी किया। लेकिन इसके बाद न मैंने पत्र लिखने का कष्ट किया न किसी और ने। दोष घूम फिरकर समय पर ही आ जाता है। बिल्कुल ऐसा आज होने वाला था। सुबह से कुछ न कुछ काम चलते रहे और समय नहीं मिला। उसके बाद लिखने के काम को बस प्राथमिकता नहीं दी।

लेकिन कितना आसान होता है समय को दोष देना। जिस चौबीस घंटे को हम कम समझते हैं उन्हीं चौबीस घंटों में जिनकी प्रबल इच्छा होती है वो सारे काम भी कर लेते हैं और उसके बाद अपने आगे बढ़ने के प्रयास के तहत कुछ नया सीखते भी हैं और पढ़ते भी हैं। मैं और मेरे जैसे कई और बस समय ही नहीं निकाल पाते। सब काम टालते रहते हैं। फ़िर कभी कर लेंगे।

ऐसे ही मैंने करीब दो साल पहले गिटार लिया था अपने जन्मदिन पर। मुझे गिटार पता नहीं क्यूँ शुरू से बड़ा अच्छा लगता। जवानी में समय सीख लेता तो कुछ और किस्से सुनाने को रहते। ख़ैर। सीखने के बाद श्रीमती जी को अपनी बेसुरी आवाज़ से परेशान ही कर सकते हैं। जबसे आया है तबसे कुल जमा एक दर्ज़न बार उस गिटार ने कवर से बाहर दर्शन दिए होंगे। सोचा था क्लास लगायेंगे लेकिन क्या करें समय नहीं है। जब भी श्रीमती जी पूछती हैं कि क्या ये घर की शोभा ही बढ़ायेगा तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता। सोचता हूँ अच्छा हुआ किसी जिम की फ़ीस भरकर वहाँ जाना नहीं छोड़ा नहीं तो नसीरुद्दीन शाह के शब्दों में बहुत बड़ा गुनाह होता और इसका एहसास मुझे कई बार करवाया जाता।

जिस किसी दिन सुबह से सारे काम एक के बाद एक होते जायें उस दिन तो लगता है चलो कुछ और करते हैं। समय भी मिल जाता है लेकिन पत्र लिखने या गिटार सीखना अभी तक नहीं हो पाया है। शायद इस हफ़्ते उन दोनों मोर्चों पर काम शुरू हो जाये। पुनः पढ़ें। शायद। अगले हफ़्ते दो पत्रों का टारगेट रखा है। वो कौन खुशनसीब होंगे? उनके बारे में तभी जब उनका जवाब आयेगा।

आप अगर सोच रहें हो कि इस पोस्ट का टाइटल मैंने कहाँ से लिया है तो वो ये क़व्वाली। है। लिखा मज़रूह सुल्तानपुरी पूरी साहब ने है।

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