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क्या भला है, क्या बुरा

ऐसा कितनी बार होता है जब हम किसी से मिलते हैं, किसी जगह जाते हैं या कोई फ़िल्म देखते हैं, लेकिन हम सबकी राय अलग अलग होती हैं। जैसे मैं किसी से मिला तो मुझे वो व्यक्ति बहुत अच्छा लगा लेक़िन कोई और उस व्यक्ति से मिला तो उसकी राय बिल्कुल विपरीत।

जब बात फ़िल्म की आती है तो ऐसा अक्सर होता है की आपको कोई फ़िल्म बिल्कुल बकवास लगी हो लेक़िन आपको ऐसे कई लोग मिल जायेंगे जिन्हें वो अब तक कि सबसे बेहतरीन फ़िल्म लगी हो। राय में 19-20 का अंतर समझ में आता है लेक़िन यहाँ तो बिल्कुल ही अलग राय है, बिल्कुल उल्टी राय है। तो अब ऐसे में क्या किया जाये? फ़िल्म देखी जाये या लोगों की राय मानकर छोड़ दी जाये?

फ़िल्मी बातें

चूँकि बात फिल्मों की चल रही है तो मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा। फ़िल्म थी ठग्स ऑफ हिंदुस्तान। आमिर खान की फ़िल्म थी और पहली बार वो अमिताभ बच्चन जी के साथ थे। इसलिए देखने की इच्छा तो बहुत थी। लेक़िन फ़िल्म की रिलीज़ से दो दिन पहले से ऐसी खबरें आनी शुरू हो गईं की फ़िल्म अच्छी नहीं बनी है और बॉक्स ऑफिस पर डूब जायेगी।

फ़िल्म रिलीज़ हुई और पहले दिन सबसे ज़्यादा कमाई वाली हिंदी फिल्म बनी। लेक़िन उसके बाद से कमाई गिरती गयी और फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर वो क़माल नहीं दिखाया जो उम्मीद थी। लेक़िन क्या फ़िल्म वाक़ई में इतनी ख़राब थी? लोगों की माने तो ये सही था। फ़िल्म की कमाई भी यही दर्शा रही थी।

मैंने फ़िल्म लगभग ख़ाली सिनेमाघर में देखी थी। लेक़िन फ़िल्म मुझे और मेरे साथ जो बच्चों की फ़ौज गयी थी, सबको अच्छी लगी। लेक़िन एक बहुत बडी जनता ने इन खबरों को माना औऱ फ़िल्म देखने से परहेज़ किया।

एक समय था जब मैं भी फिल्मों के रिव्यु पढ़कर ये निर्णय लेता था कि फ़िल्म देखनी है या नहीं। अब निर्णय रिव्यु से ज़्यादा इस पर निर्भर करता है की कहानी क्या है। अगर ज़रा भी लगता है की फ़िल्म कुछ अच्छी हो सकती है तो फ़िल्म देख लेते है। फ़िल्म ख़राब ही निकल सकती है लेक़िन अगर वो अच्छी हुई तो?

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ऐसे ही इस साल की शुरुआत में कोरियन फ़िल्म पैरासाइट आयी थी। जिसे देखो उसकी तारीफ़ के क़सीदे पढ़े जा रहा था। किसी न किसी कारण से फ़िल्म सिनेमाघरों से निकल गयी और मेरा देखना रह गया। उसके बाद फ़िल्म ने ऑस्कर जीते तो नहीं देखने का और दुख हुआ। जब आखिरकार फ़िल्म प्राइम पर देखने का मौका मिला तो समझ ही नही आया कि इसमें ऐसा क्या था की लोग इतना गुणगान कर रहे थे। उसपर से ऑस्कर अवार्ड का ठप्पा भी लग गया था। लेक़िन फ़िल्म मुझे औसत ही लगी। आपने अगर नहीं देखी हो तो देखियेगा। शायद आप की राय अलग हो।

फ़िल्म vs असल जिंदगी

अगर बात फ़िल्म तक सीमित होती तो ठीक था। लेक़िन जब आप लोगों की बात करते हैं तो मामला थोड़ा गड़बड़ हो जाता है। बहुत ही कम बार ऐसा होता है जब सबकी नहीं तो ज़्यादातर लोगों की राय लगभग एक जैसी हो।

फिल्मों से अब आते हैं असली दुनिया में जहाँ लोगों को भी ऐसे ही रफा दफा किया जाता है या उनके गुणगान गाये जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में जो याद रखने लायक बात है वो ये की आपकी व्यक्तिगत राय मायने रखती है। सोशल मीडिया पर मैं ऐसे कई लोगों को जनता हूँ जिनके ढ़ेर सारे फॉलोवर्स हैं। सब उन्हें बेहद प्यार करते हैं लेक़िन उनका एक दूसरा चेहरा भी है जो ज़्यादा लोगों ने नहीं देखा है।

शुरुआती दिनों में जो मेरे बॉस थे मेरा उनके साथ काम करने का अनुभव बहुत ही यादगार रहा। लेक़िन मेरे दूसरे सहयोगी की राय मेरे अनुभव से बिल्कुल उलट। उन्होंने मुझे ये बताया भी लेक़िन न तो मैं उनके बुरे अनुभव से या वो मेरे अच्छे अनुभव से राय बदलने वाले थे।

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हम अक़्सर जब तक किसी से मिलते नहीं हैं तो उनके बारे में सुन सुनकर अपनी एक धारणा, अच्छी या बुरी, बना लेते हैं। लेक़िन सच्चाई तो तभी पता चलती है जब उनसे मिलते हैं। बहुत बार जैसा सुना होता है इंसान वैसा ही निकलता है। कई बार उल्टा भी होता है। इसके लिये जरूरी है की हम उस व्यक्ति को दूसरे के अनुभवों से न देखें या परखें। हम ये देखें उनका व्यवहार हमारे साथ कैसा है।

लोगों का काम है कहना

एक और फ़िल्मी उदाहरण के साथ समझाना चाहूँगा। फ़िल्म मिली में अमिताभ बच्चन के बारे में तरह तरह की बातें होती हैं जब वो उस सोसाइटी में रहने आते हैं। सब उन्हें अपने नज़रिये से देखते हैं और उनके बारे में धारणा बना लेते है। यहीं तक होता तो ठीक था। लेक़िन यही सब बातें सब करते हैं और उनकी एक विलेन की छवि बन जाती है। लेक़िन जब जया बच्चन उनसे मिलती हैं तो पता चलता है वो कितने संजीदा इंसान हैं।

पिछले दिनों फ़ेसबुक पर किसी ने पूछा की सबसे दर्द भरा गीत कौनसा लगता है। मैंने अपनी पसंद लिखी लेक़िन मुझे एक जवाब मिला कि वही गीत उनके लिये बहुत अच्छी यादें लेकर आता है। गीत वही, शब्द वही लेक़िन बिल्कुल ही अलग अलग भाव महसूस करते हैं।

अग़र सबके अनुभव एक से होते तो सबको शांति, प्यार और पैसा एक जैसा मिलना चाहिये। लेक़िन जिस शेयर मार्केट ने करोड़पति बनाये, उसी शेयर बाजार ने लोगों को कंगाल भी किया है। अगर किसी को किसी धर्म गुरु के द्वारा शांति का रास्ता मिला है तो किसी को लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा करके। सबके अपने अनुभव हैं जो अलग हैं और यही इनकी खूबसूरती भी है।

सुनी सुनाई बातों पर यक़ीन न करें। अपनी धारणा अपने अनुभव के आधार पर बनाये।

सामने है जो उसे, लोग बुरा कहते हैं,

जिसको देखा भी नहीं, उसको ख़ुदा कहते हैं।

https://youtu.be/UR8fYR4Yyy4

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  1. लेकिन यहाँ सभी एक राय से सहमत हैं की आप लिखते अच्छे हैं।

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