जब मेरा डिजिटल पत्रकारिता का दूसरा चरण शुरू हुआ तब जल्द ही मुझे एक टीम को नेतृत्व करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय डिजिटल का इतना बोलबाला नही था। जो मीडिया संस्थान इस माध्यम का उपयोग कर रहे थे उनके पास दूसरे माध्यम भी थे।
मैं जिस वेबसाइट में काम कर रहा था वो केवल डिजिटल पर ही निर्भर थी। मतलब किसी अन्य तरह का कोई सपोर्ट नहीं था। मेरी टीम के सभी सदस्य कॉलेज में या तो पढ़ रहे थे या बस पढ़ाई पूरी ही करी थी। मतलब अनुभव की कमी थी। यही सबसे अच्छी बात भी थी क्योंकि सब कुछ नया सीख रहे थे तो कोई पुराना सीखा हुआ भुलाने की ज़रूरत नहीं थी।
लेक़िन जो ऊपर बताया ये टीम के सदस्यों को कैसे समझायें? खाने पीने के शौकीन मैंने उसी का सहारा लिया। अपने आप को रोज़ दुकान लगाने वाले एक दुकानदार की तरह सोचने को कहा। उसको रोज़ ताज़ा सामान तैयार करना पड़ता है बनिस्बत उस दुकानदार के जिसके पास जगह होती है पहले से तैयारी की और सामान बना कर रखने की।
पिछले दिनों जीवन में बड़ा उलटफेर हो गया। जो सारे फलसफे पढ़े थे सब फालतू हो गये। अपने आसपास जो भी देखा, पढ़ा सब को आज़माने का मौक़ा मिल गया। लेक़िन सब सिखा, पढ़ा धरा का धरा रह गया। जो बदला था उसको गले लगाना था औऱ आगे के सफ़र पर कूच करना था। लेक़िन दिल इधर उधर भटक ही जाता। उस समय मुझे रोज की ये दुकान लगाने वाला वाक्या याद आया। अच्छा नहीं हो हम एक एक कर दिन गुज़ारें औऱ कल की चिंता कल पर छोड़ दें? आज का काम अच्छे से, सच्चे दिल से करें।
वैसे ऐसा सभी कहते हैं लेक़िन हम एक एक दिन जीना भूलकर भविष्य के दिनों में जीने का इंतज़ार करते रहते हैं। उस भविष्य में हम होंगे की नहीं ये हमें नहीं मालूम लेक़िन लालच हमें आज के आनंद से वंचित कर देता है या यूं कहें हम अपने आप को वंचित रखते हैं।