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ताज़ी ताज़ी लगे हमको रोज़ाना, तेरी मेरी बातें यूँ तो पुरानी है

जब नया साल शुरू होता है तो सब नई नई वाली फीलिंग आ जाती है। जैसे जैसे महीने निकलते जाते हैं, तो गिनने लगते हैं या यूं कहें सोशल मीडिया के चलते गिनाया जाता है इस साल के इतने महीने निकल गये पता ही नहीं चला। दिसंबर तक आते आते तो सब पीछे मुड़कर देखना शुरू कर देते हैं और साल का लेखा जोखा लिखने का काम शुरू हो जाता है। लिस्ट बनने लगती है साल की सबसे अच्छी या सबसे बुरी चीज़ों की। फिल्में, गाने, किताबें, वेब सिरीज़ भी इस लिस्ट में शुमार होते हैं।

दूसरी लिस्ट होती है अगले साल कुछ कर गुज़रने वाले कामों की। इसमें कहाँ घूमेंगे, अपनी कौन सी बुरी आदतों को छोड़ देंगे और मेरा प्रिय – इस साल तो वज़न कम करना है। लेकिन जैसे जैसे दिन निकलते जाते हैं दृढ़ संकल्प कमज़ोर होता जाता है और वज़न लेने वाली मशीन का काँटा आगे नही भी बढ़ता है तो पीछे जाने में भी बहुत नख़रे करता है। एक शख़्स जिन्हें मैंने ये वज़न कम करने वाले प्रण पर टिके रहते देखा है वो हैं मेरे पुराने सहयोगी मोहित सिंह। अगर उनकी इच्छाशक्ति का दस प्रतिशत भी मैं अपने जीवन में फॉलो करूं तो मेरा अच्छा खासा वज़न कम हो जायेगा।

कितना अच्छा हो अगर हम कैलेंडर में बदलते दिन, महीने और साल को न देखकर हर दिन भरपूर आनंद के साथ जियें और अगले दिन का इंतजार ही न करें। साल के 364 दिन निकलने के बाद साल के आखिरी दिन सब चंद घंटों के लिये ही सही जी उठते हैं। और उसके बाद फ़िर वही 364 का इंतजार और एक दिन का जीना।

ये जो इस पोस्ट की हेडलाइन है वो दरअसल ख़ुद से ही रोज़ाना की मुलाक़ात के बारे में है। आपने अगर क्लब 60 फ़िल्म देखी हो तो रघुबीर यादव के सबसे रंगीन क़िरदार की तरह आप भी स्वस्थ रहिये और मस्त रहिये।

और जैसे अमिताभ बच्चन फ़िल्म मिस्टर नटवरलाल के एक गाने में कहते हैं, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू!

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