चुनाव की इस गहमा गहमी के बीच आज मजरूह सुल्तानपुरी साहब की याद आ गई। आज ही के दिन वो अपने लिखे गीत, गज़ल और नज़्मों का खज़ाना हम को सौंप कर अलविदा कह गये। दरअसल लिखने वाला तो कुछ और था लेकिन सोचा आज गुमनाम लोगों के बारे में लिखा जाये। वो जिनको हम गुनगुनाते तो रहते हैं लेकिन उन बोल के पीछे छिपे वो गीतकार को भूल जाते हैं।
हम लोग अगर औसतन अपनी आयु 70 वर्ष की मान लें तो इस दौरान हम कुछ एकाध ऐसा काम करते हैं जिनके लिये हम या तो मिसाल बन जाते हैं या सबके प्रिय पंचिंग बैग। हम आम लोगों के लिये वो क्या काम है जिससे हमें याद रखा जायेगा वो हमारे परिवार और कुछ ख़ास आसपास वाले जानते हैं। शायद आपके कुछ सहकर्मी भी।
कुशल नेतृत्व आपके जीवन की राह बदल सकता है
कलाकारों के जीवन में ऐसा होता है जो उनके जीवनकाल की पहचान बन जाती है। जैसे यश चोपड़ा साहब की दीवार, सलीम-जावेद के लिये शोले, दीवार, शाहरुख खान के लिये डर, सलमान खान के लिये शायद दबंग या मैंने प्यार किया। ये सब मेरे अनुसार हैं। आप शायद इन्हीं शख्सियतों को उनके किसी और काम से याद रखते हों। जैसे 1983 में भारत की जीत। सब कहते हैं उसके सामने जो जीत भारत ने बाद में हासिल करी उसका कोई मुकाबला नहीं है।
बहरहाल, फ़िलहाल रुख वापस मज़रूह सुल्तानपुरी साहब की तरफ़। उनके लिखे कई गाने एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे गये नये परिवेश में ही सही। लेकिन उनका लिखा ये शेर
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग जुड़ते गये कारवाँ बढ़ता गया।
ये कुछ ऐसा लिखा गया है जो आज भी लोग बोलते रहते हैं। अगर आपने शाहरुख खान की ज़ीरो देखी हो तो उसमें भी जावेद जाफरी सलमान खान की एंट्री के समय यही शेर कहते हैं। अगर आपने नई कारवां देखी हो तो इरफ़ान खान की नीली रंग की गाड़ी पर भी यही शेर लिखा हुआ है। इसके पीछे छिपा संदेश दरअसल बहुत महत्वपूर्ण है। ये सच भी है। आपके जीवन की बहुत सारी यात्रायें अकेले ही शुरू होती हैं और लोग उससे जुड़ते जाते हैं।
काली कार की ढेर सारी रंगबिरंगी यादें
मेरा और मज़रूह साहब का रिश्ता क्या आमिर ख़ान-जूही चावला की क़यामत से क़यामत तक के कारण और मजबूत हुआ? शायद। लेकिन उसके पहले मैं उनके लिखे यादों की बारात के गानों को बहुत पसंद करता था। उनका लिखा आजा पिया तोहे प्यार दूँ मेरा सबसे प्रिय है। गाने के बोल सुख मेरा ले ले, मैं दुख तेरे ले लूँ, मैं भी जियूँ, तू भी जिये…
संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अभिन्न हिस्सा है और ये फिल्मों की ही देन है। लेकिन आज के हुक उप, ब्रेक अप और ख़लीफ़ा सुन के जब मज़रूह साहब का लिखा क्या मौसम है सुनने को मिलता है तो एक सुकून सा मिलता है।
और चुनाव का मौसम है, तो जो आगे की तैयारी कर रहे हैं उनके लिये मज़रूह साहब कह गए हैं (वैसे जो सरकार बना रहे हैं ये उनके लिये भी उतना ही सही है)
खोये से हम,
खोई सी मंज़िल,
अच्छा है संभल जायें,
चल कहीं दूर निकल जायें।
आप कहीं मत जाइए। यहीं मिलेंगें। जल्दी।