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चेहरे पे चेहरा लगा लो, अपनी सूरत छुपा लो

टीम मैनेजमेंट के बारे में मैंने जो भी कुछ सीखा या जिसका अनुसरण किया उसमें दो चीजों का बड़ा योगदान रहा। पहली तो अपने सभी पुराने बॉस और दूसरा उसमें से क्या था जो पालन करने योग्य नहीं था। इसके अलावा अपने आसपास – घर पर और बाहरी दुनिया में मिलने जुलने वालों से। चूँकि बाहर वालों से मिलने का समय असीमित नहीं होता था तो घर पर माता-पिता को देखकर काफी पहले से ये मैनेजमेंट की शिक्षा ग्रहण की जा रही थी।

एक अच्छे मैनेजर के लिये सबसे ज़रूरी चीज़ होती है संयम और दूसरी संवाद। जब शुरुआती दिनों में टीम की ज़िम्मेदारी मिली तो मुझमें दोनों ही की कमी थी। किसी और बात पर टीम के किसी सदस्य से नाराज़गी हो लेकिन गुस्सा निकलता काम पर। पीटीआई के मेरे सहयोगियों ने मेरा ये दौर बहुत अच्छे से झेला है। ख़ैर अपनी गलतियों से सीखा और कोशिश करी की टीम को सही मार्गदर्शन मिले।

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इसमें कितनी सफलता मिली ये तो नहीं बता सकता लेकिन हर बार ऐसे कुछ नमूने ज़रूर मिल गये जो फ़िर से सीखा गये की गुरुजी, अभी भी आपको बहुत कुछ सीखना बाकी है। नमूना इसलिये कह रहा हूँ की वो सैंपल पीस थे।

मेरी टीम के एक सदस्य थे। बहुत मेहनती और अच्छा काम करने वाले। एक दिन अचानक उन्होंने आकर त्यागपत्र देने की सुचना दी। बात करी, पता किया कि ऐसा क्या हुआ की उन्हें ये कदम उठाना पड़ रहा है। उनके परिवार में कुछ आकस्मिक कार्य के चलते उन्हें लंबे अवकाश पर जाना था लेक़िन इतने दिनों की छुट्टी की अर्ज़ी ख़ारिज होने के अंदेशे से उन्होंने संस्थान छोड़ना ही बेहतर समझा। वो पहले भी बहुत छुट्टी लेते थे तो उनका ये डर लाजमी था। ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।

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ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।
मेरा ऑफिस में चल रही पॉलिटिक्स या रोमांस दोनों में ज़रा भी रुचि नही रहती। इसलिये मुझे दोनों ही बातें जब तक पता चलती हैं तब तक काफ़ी देर हो चुकी रहती है। जैसे इन महोदय ने बाकी जितने दिन भी रहे सबसे खूब अपने गिले शिकवे सुनाये। तबसे मन और उचट गया। लेक़िन कुछ लोगों को तो जैसे मसाला मिल गया। मुझे नहीं पता उनसे अगर अब आगे मुलाक़ात होगी तो मेरा क्या रुख़ रहेगा।

लेकिन मैं तब भी जानता हूँ की जब हम मिलेंगे तो सब अच्छे से ही मिलेंगे। यही शायद एक अच्छे लीडर की पहचान भी होती है। आप सार्वजनिक जीवन में सब अच्छे से ही व्यवहार करते हैं।

ऐसे ही एक सज्जन हैं जो मुझसे भी बहुत नाराज़ चल रहे हैं। हम साथ में काम करना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों के चलते शुरू करने के बाद काम बीच में ही रुक गया और फ़िर टलता ही रहा। जैसे मुझे अपने टीम के साथी से नाराजगी है वैसे ही कुछ वो भी ख़फ़ा से हैं। मुझे एहसास-ए-जुर्म तो है लेकिन अब सब समय के ऊपर छोड़ दिया है।