हम सभी के जीवन में जाने अनजाने ऐसे बहुत से सुखद हादसे होते हैं जो एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। अधिकतर जानने वाले इन दुखद घटना के ज़िम्मेदार होते हैं और अनजाने लोग सुखद यादों के पीछे। ऐसा मेरा अनुभव रहा है।
PTI के मुम्बई तबादले से पहले भी मेरा एक बार मुम्बई जाना हुआ था। उस समय मैं ग्रेजुएट होने वाला था और MBA के लिए तैयारी कर रहा था। नर्सी मोनजी कॉलेज के MBA का फॉर्म भरा और हिंदुस्तान पेट्रोलियम में कार्यरत निखिल दादा के भरोसे मुम्बई चल पड़े। वहाँ से सिम्बायोसिस की परीक्षा के लिए पुणे भी जाना था और बीच में शिरडी का भी प्रोग्राम बना लिया था। मुम्बई से आगे की ज़िम्मेदारी दादा ने लेली थी और मैं निश्चिन्त मुम्बई के लिए निकल पड़ा।
भोपाल से मुम्बई का ये सफर हमेशा याद रहेगा क्योंकि टिकट कन्फर्म नहीं हुआ लिहाज़ा जनरल कोच में सफर करना पड़ा। मैं पहली बार इस तरह की कोई यात्रा कर रहा था और सबने जितने भी तरीके से डराया जा सकता था, डराया। ख़ैर मायानगरी को अब तक सिनेमा के पर्दे पर ही देख था और साक्षात देखने का रोमांच ही कुछ और था। मुम्बई पहुँचे और निखिल दादा ने खूब घुमाया।
उन्ही दिनों मणिरत्नम की फ़िल्म बॉम्बे भी रिलीज़ हुई थी और दादा ने मुझे वो दिखाने का प्रस्ताव रखा। आज भी मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि मैंने फ़िल्म बॉम्बे मुम्बई में ही देखी। जिस समय ये सब अनुभव हो रहे थे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था एक दिन मैं यहाँ वापस आऊंगा और अपने करियर का सबसे ज़्यादा समय यहां बिताऊँगा।
खैर मुम्बई से शिरडी और फिर वहां से पुणे पहुंच गए। शिर्डी में रुकना नहीं था और पुणे में रुकने का इंतज़ाम नहीं था। पुणे स्टेशन के आस पास के लॉज और धर्मशाला ने मुझे कमरा, जगह देने से मना कर दिया। ये बात है गुरुवार की और परीक्षा थी रविवार को। ये तीन दिन कहाँ बिताएं और कैसे बिताएं ये सोचते हुए मैं पुणे स्टेशन के बाहर बैठा हुआ था।
मायूसी तो बहुत थी। विचारों में खोया हुआ और आंखों मैं आँसू लिये हुए शायद किसी ने देखा। वो शख्स मेरे पास आया और पूछा क्या तकलीफ में हो? अब जैसा होता है घर वालों की सभी सीख याद आने लगीं। फिर भी पता नहीं क्या बात हुई मैं उनके साथ उनके स्कूटर पर बैठ गया और उनके घर पहुंच गया। भाई ने कहा मेरे रूम पर रुक जाओ। पता चला वो भी भोपाल से ही हैं और रूम पर और प्राणी मिले इस शहर के। बस फिर क्या था, जो शहर कुछ समय पहले कुछ अजीब से विचार जगा रहा था, वो अपना लगने लगा।
रविवार की पुणे से भोपाल वापसी भी कम यादगार नहीं रही। एक बार फ़िर टिकट कन्फर्म नहीं हुआ और झेलम एक्सप्रेस से भोपाल की यात्रा खड़े खड़े करी। चूंकि परीक्षा देके सीधे आ रहा था तो शर्ट की जेब में पेन रखा था। लेकिन मई की गर्मी में इंक लीक हो गयी और भोपाल पहुँचते पहुँचते पूरी शर्ट का रंग बदल गया था। लेकिन घर जा रहे थे करीब 10 दिन बाद तो इसके आगे सारे रंग फ़ीके।
इस बात को करीब बीस वर्ष हो चुके हैं। लेकिन उस शख्स का नाम याद नहीं। भोपाल में किस गली मुहल्ले में रहते हैं पता नहीं। बस याद है तो उनका मुझे अपने घर पर सिर्फ इंसानियत के नाते रखना। याद है कि किसी ने बिना कुछ सोचे मुझे तीन दिन का आश्रय दिया।
आज भी उनके प्रति सिर्फ कृतज्ञता है और कोशिश की अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न होकर ऐसे ही किसी असीम की मदद किसी रूप में कर सकूं और वो किसी और कि और बस ये अच्छाइयों का चक्र चलता रहे।
भोपाल में एक तूफ़ान मेरा इंतज़ार कर रहा है इस बात से अनभिज्ञ मैं घर वापस जा रहा था।