फिल्मों में पुलिस कब से देख रहे याद नहीं। लेकिन पहली बार एकदम नज़दीक से पुलिस अफ़सर को देखा था तब मैं बहुत छोटा था। शायद भिलाई शहर था। ख़ैर उस समय ज़्यादा कुछ समझ में भी नहीं आता था। बस यही दिखता की सब सैल्यूट करते हैं।
जब थोड़े बड़े हुए तो पता चला वो जो पुलिस की वर्दी में हैं वो इन दिनों विदेश में हैं किसी केस के सिलसिले में। लौटने पर घर की बेटियों के लिए कुछ न कुछ अवश्य लाते। बीच में कई बार उनके यहां जाने का और रुकने का मौका मिला। जब छोटे शहर में पोस्टिंग थी तो बड़े बंगले मिलते। दिल्ली, जहां उन्होंने अपना सबसे अधिक समय बिताया, वहां आर के पुरम में रहते थे फिर बाद में मोती बाग़ इलाके में घर मिला।
इन मुलाक़ातों में ज़्यादा बातचीत नहीं होती। वो जितना पूछते उतने का ही जवाब। पढ़ाई में वैसे ही फ़िसड्डी तो बचते रहते कहीं उस से संबंधित कोई सवाल न पूछ लें। वो तो जब बारहवीं के बाद कुछ परीक्षा देने दिल्ली आये तब बचने का कोई उपाय ही नहीं था।
एक दिन सुबह तैयार होकर बोले चलो अपना एग्जाम सेन्टर देख लो कहाँ जाना है। लेकिन वहां से घर अपने आप आना पड़ेगा। दिल्ली के बारे में पता कुछ नहीं था और डर भी लगता था। मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था और आँख से आँसू निकल पड़े। तब मुझे एक सीख उन्होंने दी – रास्ते खुद ढूँढोगे तो कभी भुलोगे नहीं।
ऐसे ही बहुत सी अनगिनत यादें हैं पूज्यनीय मामाजी की। उनका पूरा जीवन ही एक सीख है। पुलिस के सबसे बड़े ओहदे पर रहते हुए भी एकदम सादा जीवन। पढ़ने के बेहद शौक़ीन और भाषाओं के ज्ञानी। इसकी संभावना कम ही थी की आप उनसे मिलें और प्रभावित न हों। ये मेरे लिये निश्चित ही बहुत बड़े सौभाग्य की बात है कि उनको इतने करीब से जानने का मौका मिला। पिछले दिनों फ़िल्म रेड देखी तो उनकी बड़ी याद आयी। कुछ ऐसे ही थे मेरे मामाजी। परिवार में दोनों छोर के सरकारी अफ़सर देखे। एक तो मामाजी जैसे और दूसरे जो बड़े बडे घपले कर पैसे खा कर भी 56 इंच का सीना चौड़ा कर सामने रहते।
उनके व्यक्तित्व के बारे में, मेरे पत्रकारिता करियर में उनका योगदान और मज़ेदार किस्सा कैसे वो मेरे मामा बने फिर कभी। आज उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन।