पापा हमेशा से यह कहते रहे हैं की जो भी काम करना है उसे उसी समय कर दो। बाद के लिये छोड़ कर मत रखो। ये पढ़ाई से लेकर बिल भरने तक और अपनी ट्रैन या फ्लाइट पकड़ने के लिये भी लागू होता है। लेक़िन उस समय समझ में नहीं आता था तो सब काम ऐन वक्त के लिये छोड़ देते और आखिरी समय में बस किसी तरह से काम होना है। कुछ समय पहले वो मुम्बई आये थे तो उनको छोड़ने VT स्टेशन जाना था। लेकिन टैक्सी मिलने में थोड़ी देर हो गयी और बाकी काम ट्रैफिक जाम ने कर दिया। देरी होते देख उन्हें दादर से ट्रेन पकड़वाने का निर्णय लिया। किसी तरह से प्लेटफार्म पर पहुंच कर ट्रैन पकड़ी। तबसे वो समय का मार्जिन बढ़ा दिया है। अब पूरे दो घंटे पहले घर से निकल ही जाते हैं।
उस दिन जब मुझे वापस आना था तो मैंने भी भरपूर मार्जिन रख जल्दी स्टेशन पहुंच गया। लेकिन ट्रैन का कोई नामोनिशान नहीं। तो बस आसपास सबको देखते रहे। दरअसल रेलवे स्टेशन से बचपन से ऐसा लगाव रहा है और इससे बहुत सारी यादें जुड़ी हुई है। स्टेशन घर के नज़दीक था तो कई बार सुबह की सैर भी वहीं हो जाती। फ़िर लाने लेजाने का काम भी। नौकरी लगी तो ट्रैन से ही आना जाना होता। अगर ये कहूँ की रेलवे स्टेशन पर आपको साक्षात भारत दर्शन होते हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। एसी, फर्स्ट क्लास से लेकर जन साधारण डिब्बे के यात्री सब साथ में खड़े रहते हैं। और उनके साथ उन्हें छोड़ने वाले। अभी भी पिताजी हम लोग कोई घर पहुंचने वाले हों तो स्टेशन लेने आ जाते हैं हम सभी के मना करने के बावजूद।
ख़ैर बात करनी थी स्टेशन के रोमांस की और कहाँ आपको लाने छोड़ने के काम में उलझा दिया। जब मेरी सगाई हुई तो कुछ समय के लिये पिताजी ने स्टेशन पर छोड़ने का काम बंद कर दिया। मामाजी ने उन्हें स्टेशन के बाहर तक ही छोड़ने की समझाइश भी दी और कारण भी बताया। कारण वही जो आप सोच रहे हैं। भावी श्रीमती जी अपनी सखी के साथ मुझे स्टेशन छोड़ने आती और हमे थोड़ा साथ में समय बिताने को मिलता। सगाई के ठीक दूसरे दिन श्रीमतीजी को स्टेशन बुला लिया छोटे भाई को छोड़ने के लिये। उन्हें ये पता नहीं था की दस लोगों की पूरी फौज उनको छोड़ने के लिये गयी हुई है। आज भी मुझसे पूछा जाता है की इतनी महत्वपूर्ण जानकारी उन्हें क्यों नहीं दी गयी।
एयरपोर्ट की अपेक्षा मुझे स्टेशन का प्लेटफार्म ज़्यादा रोमांटिक लगता है। एयरपोर्ट पर तो बस दरवाज़े तक का साथ रहता है। उसके बाद के ताम झाम वाले काम में रोमांस नहीं बचता। लेकिन स्टेशन पर ट्रैन की सीट पर बैठने तक आपका ये अफ़साना चलता रहता है।
जब कॉलेज में पढ़ रहे थे और उसके बाद भी जब नौकरी करनी शुरू करी तो सलिल और मैं अकसर हबीबगंज स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठकर घंटों बिता देते। बात करते हुए और आती जाती ट्रैनों को और उनसे उतरते यात्रियों को देखते समय का पता नहीं चलता था। अभी पिछले हफ़्ते भी जब उसी स्टेशन पर दो घंटे ट्रैन की राह देखी तो लगा कुछ नहीं बदला है लेकिन बहुत कुछ बदल गया था। अब सब बात से ज़्यादा मोबाइल फ़ोन में खोये हुये थे। ट्रैन आ जाये तो सीन वैसा ही होता है जैसा राजू श्रीवास्तव ने बताया था। सारी ज़रूरी बातें ठीक ट्रैन चलने के पहले। आप स्लीपर क्लास में हों तो बात करना आसान होता है। मगर एसी कोच में दरवाजे पर खड़े होकर सिर्फ निहारते रहने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। नज़रों से पैग़ाम दे भी दीजिये और ले भी लीजिए। और मीठी यादों के साथ मुस्कुराते हुये स्टेशन से घर वापस।