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रविवारीय: जब रविवार बीतता था अख़बारों की सोहबत में

रविवार सचमुच एक बड़ा ही खास दिन है। मैंने पहले कभी लिखा था रविवार औऱ उस दिन सुबह दूरदर्शन पर आने वाले कार्यक्रमों के बारे में। ये बिल्कुल सही है टीवी के हमारे जीवन में आने के बाद बहुत सारे बदलाव हुये हैं। लेक़िन इन कार्यक्रमों का आगमन काफ़ी बाद में हुआ है। इसके पहले मनोरंजन का साधन तो नहीं लेक़िन रविवार का दिन होता था अख़बार पढ़ने का औऱ उस दिन जो रविवारीय आता था उसको पढ़ने का।

वैसे पूरे हफ़्ते ही कुछ न कुछ पढ़ने को रहता था अख़बारों में। कुछेक कॉलम हुआ करते है जिनको पढ़ना अच्छा लगता था। मेहरुनिस्सा परवेज़ का नईदुनिया में एक कॉलम आता था जिसे कब पढ़ना शुरू किया याद नहीं लेक़िन एक लंबे समय तक उनका लेख पड़ता रहा। उनके बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं था। जब पत्रकारिता शुरू करी औऱ मंत्रालय जाना शुरू हुआ तो कई बड़े अधिकारियों से मिलना हुआ। जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों से नियमित ही मिलना जुलना होता था। चाय का दौर भी चलता था।

ऐसे ही एक बार एक अधिकारी के पास बैठे हुये थे। साथ में जो बाकी पत्रकार साथी थे उनमें से किसी ने पूछा \”औऱ इन दिनों मेहरुनिस्सा जी क्या लिख रही हैं\”। पहले मुझे लगा शायद मैंने ग़लत सुना है। जब मुलाक़ात ख़त्म हुई तो मैंने पूछा आप किसके बारे में पूछ रहे थे? तो उन्होंने कहा इनकी पत्नी मेहरुनिस्सा परवेज़ के बारे में।

किसी भी लेखक का लिखा पढ़ना एक अलग बात होती है। आप जब उनका लिखा पढ़ते हैं तो उनके बारे में नहीं जानते। आप सिर्फ़ उस लेखक को जानते हैं उस व्यक्ति को नहीं। लेक़िन जब सामने वो आते हैं तो जानिये क्या हो जाता है। बहरहाल मेहरुनिस्सा जी से मिलना तो नहीं हुआ लेक़िन मैंने उनके पति से ये ज़रूर कह दिया की वो बहुत अच्छा लिखती हैं। वो अभी भी भोपाल में ही रहती हैं लेक़िन मिलना नहीं हुआ।

तो ये जो अख़बार पढ़ने की आदत बनी थी इसमें आगे जाकर औऱ बढ़ोतरी हुई। एक से ज़्यादा अख़बार पढ़ने लगे। लेक़िन अंग्रेज़ी के अखबारों के कॉलम को पढ़ने में वो मज़ा कहाँ जो हिंदी में है। आज कई ऐसे हिंदी के कॉलम लेखकों को मैं जानता हूँ जो लिखते अंग्रेजी में है फ़िर उसका अनुवाद होता है।

रविवारीय उन दिनों एकमात्र अतिरिक्त पढ़ने की सामग्री वाला दिन होता था। इन दिनों तो कई अख़बार बीच सप्ताह में भी अलग से चार आठ पेज निकाल देते हैं। उन दिनों रविवारीय चार पेज का होता था लेक़िन सब पढ़ने लायक। जब थोड़ी बहुत पढ़ने की समझ आने लगी तो मैंने ये अलग से रखना शुरू किया। कई लेख फ़ुर्सत से पढ़ने वाले होते। उनको जितना समय देना चाहिये वो देते।

बाद में कई अखबारों के सिर्फ़ रविवारीय संस्करण ही ख़रीदने का सिलसिला शुरू हुआ। सप्ताह के बाकी दिनों में वैसे भी पढ़ने का समय नहीं रहता। जब पत्रकारिता शुरू की तो पता चला कई अखबारों में रविवार के अंक की अलग टीम होती थी। वो सिर्फ़ हफ़्ते दर हफ़्ते कैसे अच्छे लेख जुटायें इसीमें जुटे रहते। अंग्रेज़ी अख़बार DNA जब मुम्बई में शुरू हुआ तो उसकी संडे मैगज़ीन सबसे अलग। मात्र दस रुपये में आपको ढ़ेर सारी पढ़ने की सामग्री मिलती। हाँ ये ज़रूर था वो एक अलग तरह के पाठकों के लिये होती थी।

अब तो सब डिजिटल शुरू हो गया है तो श्रीमतीजी सबसे ज़्यादा ख़ुश हैं। किताबों के बाद जो सबसे ज़्यादा मेरा बिखरा सामान रहता वो अख़बार या उसके कुछ पन्ने। कोरोनाकाल के दौरान औऱ उसके बाद अख़बार पढ़ने का ज़रिया भी बदल गया। सारी दुनिया जैसे मोबाइल में समा गई है। विदेशों में ये पहले से हो रहा था की अखबारों की जगह स्क्रीन ने ले ली थी। हमारे यहाँ ये बदलाव कोरोना के चलते बहुत तेज़ी में हो गया।

विदेश से याद आया। मुझे ये जानने की उत्सुकता रहती की विदेशों में लोग रविवार या रोज़ाना भी अख़बार में क्या पढ़ते हैं। इसलिये जब एक परिचित विदेश जा रहे थे तो जैसा होता है उन्होंने पूछा क्या चाहिये। जो मैंने कहा उससे उन्हें आश्चर्य ज़रूर हुआ होगा। मैंने कहा आप जितने दिन रहें बस अखबारों के रविवार के संस्करण इकट्ठा कर ले आयें।

जब वो वापस आये तो मेरे लिये अख़बार लेते आये। मेरे लिये तो मानों लॉटरी लग गयी थी। वहाँ के अख़बार में अच्छे ख़ासे पन्ने होते हैं। शायद अपने यहाँ से दोगुने। मतलब पढ़ने का ढ़ेर सारा मसाला। भोपाल में उन दिनों ब्रिटिश कॉउंसिल लाइब्रेरी हुआ करती थी। जब सदस्य बने तो वहाँ ब्रिटिश अख़बार पढ़ने को मिलते। इसके जैसा पहले होता था जब अख़बार आते थे – जिसको समाचारों में रुचि नहीं होती वो रविवारीय पढ़ते औऱ बाक़ी पेपर के पन्ने भी बाँट लिये जाते। डिजिटल ने ये बाँटने का सुख भी छीन लिया।

आज मुम्बई की सुबह घने कोहरे के साथ हुई तो मुझे मेहरुनिस्सा परवेज़ जी का वो लेख याद आया जिसमें उन्होंने अपने पिताजी के साथ सुबह की सैर के बारे में बताया था। उस दौरान उनकी क्या बातचीत होती औऱ कैसे इस एक आदत ने उन्हें आगे बहुत मदद करी। अग़र हम अपने जीवन में देखें तो ऐसी छोटी छोटी आदतें हमारी दिनचर्या पर बड़ा प्रभाव डालती हैं। जैसे सुबह की चाय साथ में पीने की आदत या रात में खाने की टेबल पर सबका साथ होना। या साथ बैठकर कोई टीवी का कार्यक्रम देखना।

मेहरुनिस्सा जी की तरह ही एक औऱ लेखिका जिनका लिखा बहुत पसंद है, वो हैं उषा प्रियंवदा जी। पिछले दिनों उनका एक पुराना साक्षात्कार देखने को मिला। उनके बारे में बहुत कुछ जानने को भी मिला। क्या सभी लेखकों को सुनने में इतना ही अच्छा लगता है?

आपका रविवार के अख़बारों के साथ कैसा रिश्ता रहा? आप इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर बता सकते हैं। औऱ जैसा पिछली पोस्ट से शुरू किया है – आप इसको पढ़ें औऱ बाक़ी लोगों के साथ भी साझा करें।

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