Sitaare Zameen Par vs Housefull 5: The Box Office Collection War

Israel-Iran conflict is nothing in front of the war going on in the multiplex near you.

Aamir Khan’s much awaited Sitaare Zameen Par released on June 20 and since then social media is going crazy. There is a huge section of so called business analysts who analyse the daily booking trends and predict fate of the movie released.

Which is not the problem. The problem is these so called arm-chair analysts are biased and actually run a campaign for or against any film based on – err who pays and how much. 

Some of them post multiple videos during the day – the ones if support of good cinema praising the collection. But those against the film, come up with all sorts of theories why the film is getting the numbers.

Hai La

Since June 20, there is a virtual war going on. Twitter and YouTube is full of it. As all it takes is a mobile and camera, everyone has jumped into the online war. A certain Dhruv Rathee sitting in Germany has also joined the gang. Why because – dollars ka mamla hai bhai.

For the past few days I have been watching this circus and its quite funny how a group of people for reasons best known to them are leaving no stone unturned to bring down the film. So much hatred? Against Aamir Khan?

But look at the video below. It surely is not AI generated or planted.

Ui Maa

There are all sorts of theories doing the rounds. A Twitter user alleged a big production house behind the campaign.

And then I randomly watched an interview of producer Pahlaj Nihalani. The man behind many successful Hindi films revealed the ugly face of the industry.

He said it is actually people in the industry who bring down their colleagues. He also gave examples of how veteran actors indulged in this game during time. He also recalled how his films were not given screens following threats by other producers.

So this thing has been going on. While in the past it was not known to the world, thanks to technology and yes, the YouTubers, its all in the open. Now we have these hired analysts who pull down a movie if its doing well or is doing better than that of a particular actor.

Well nothing new here either. As a fan of actor ‘A’ I want his films to do well at the box office. But if the film itself is bad, I just cannot ignore the harsh reality. 

The fate of any film good or bad should rest in the hands of the audience. Running a campaign – for or against – cannot make a bad film work on box office or tank a good film.

The war is far from over.

रविवारीय: ये संग है उमर भर का

इस साल 26 जनवरी की बात है जब फ़िल्म रंग दे बसंती के बारे में पढ़ रहा था। वैसे तो इस फ़िल्म से जुड़ी बहुत सी बातें बेहद रोचक हैं औऱ मैंने लगभग मन भी बना लिया था क्या लिखना है, लेक़िन जब तक लिखने का कार्यक्रम हुआ तो कहानी बदल गयी।

आज जब लता मंगेशकर जी ने अपने प्राण त्यागे, तब लगा जैसे हर कहानी को बताने का एक समय होता है वैसे ही शायद उस दिन ये पोस्ट इसलिये नहीं लिखी गयी। फ़िल्म के बारे फ़िर कभी, फ़िलहाल इसके एक गाने के बारे में जिसे लता जी ने रहमान के साथ अपनी आवाज़ दी है।

जब फ़िल्म लिखी गयी थी औऱ उसके गाने तैयार हुये थे तब ये गाना उसका हिस्सा थे ही नहीं। फ़िल्म पूरी शूट हो गयी औऱ उसके पोस्ट प्रोडक्शन पर काम चल रहा था। रहमान जो फ़िल्म के संगीतकार भी हैं, इसका बैकग्राउंड संगीत भी दे रहे थे। जब आर माधवन की मृत्यु वाला सीन चल रहा था औऱ उसका बैकग्राउंड संगीत दिया जा रहा था तब निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा एवं गीतकार प्रसून जोशी को ये आईडिया आया। ये निर्णय लिया गया की उस पूरे प्रसंग के लिये संगीत के बजाय गाने का इस्तेमाल किया जायेगा।

दरअसल मेहरा बहुत दिनों से लता जी से इस गाने के बारे में बात कर रहे थे। लेक़िन किन्हीं कारणों से ये हो नहीं पा रहा था। जब लता जी से फ़िर से बात हुई औऱ वो गाने के लिये तैयार हुईं तो उन्होंने कहा गाना क्या है कुछ भेज दीजिए। मेहरा ने कहा आप रहमान को जानती हैं। उनका गाना तैयार होते होते होगा औऱ प्रसून जोशी जी लिखते लिखते लिखेंगे। लेक़िन मैंने शूटिंग करली है। उन्होंने राकेश मेहरा से पूछा क्या ऐसा भी होता है? मेहरा ने उन्हें बताया आजकल ऐसा भी होता है।

लता जी चेन्नई में रिकॉर्डिंग से तीन दिन पहले पहुँच कर गाने का रियाज़ किया औऱ तीसरे दिन जब रिकॉर्डिंग हुई तो पाँच घंटे वो स्टूडियो में खड़ी रहीं। राकेश मेहरा को भी लगभग 80 साल की लता मंगेशकर का काम के प्रति लगन देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। जब फ़िल्म का संगीत आया तो ये गाना बाक़ी सभी गानों के पीछे कहीं छुप से गया था। लेक़िन आज बड़ी तादाद में सुनने वाले इसको पसंद करते हैं।

अब किसी गाने में गायक, संगीतकार या गीतकार किसका सबसे अहम काम होता है? जब लता जी से पूछा गया कि उनका कोई गीत जिसे सुनकर उनके आँसूं निकल आते हों तो उन्होंने कहा \”गाने से ज़्यादा मुझे उसके बोल ज़्यादा आकर्षित करते हैं। अगर अच्छी शायरी हो तो उसे सुनकर आंखों में पानी आ जाता है।\”

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लता मंगेशकर औऱ मीना कुमारी। (फ़ोटो – लता मंगेशकर जी के फेसबुक पेज से साभार)

गानों को लेकर जो बहस हमेशा छिड़ी रहती है उसमें गायक औऱ संगीतकार को ही तवज्जो मिलती है। गीतकार कहीं पीछे ही रह जाता है। लता जी शायद शब्दों का जादू जानती थीं, समझती थीं इसलिये उन्होंने संगीत औऱ गायक से ऊपर शब्दों को रखा।

लता मंगेशकर जी को शायद एक बार साक्षात देखा था देव आनंदजी की एक फ़िल्म की पार्टी में। मुम्बई में काम के चलते ऐसी कई पार्टियों में जाना हुआ औऱ कई हस्तियों से मिलना भी हुआ। लेक़िन कभी ऑटोग्राफ़ नहीं लिया। अच्छा था उन दिनों मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे।

ख़ैर, पीटीआई में जब काम कर रहे थे तब नूरजहां जी का देहांत हो गया। ये रात की बात है। उनके निधन पर हिंदी फिल्म जगत में सबकी प्रतिक्रिया ले रहे थे। नूरजहाँ को लता मंगेशकर अपना गुरु मानती थीं। लेक़िन लता जी मुम्बई में नहीं थीं। अब उनको ढूँढना शुरू किया क्योंकि उनकी प्रतिक्रिया बहुत ख़ास थी। देर रात उनको ढूँढ ही लिया हमारे संवाददाता ने औऱ उनकी प्रतिक्रिया हमें मिल ही गयी।

उनके कई इंटरव्यू भी देखें हैं। एक जो यादगार था वो था प्रीतिश नंदी के साथ। वैसे देखने में थोड़ा अटपटा सा ज़रूर है क्योंकि नंदी उनसे अंग्रेज़ी में ही सवाल करते रहे लेक़िन लता जी ने जवाब हिंदी में ही दिया। मेरे हिसाब से ये एकमात्र इंटरव्यू था जिसमें लता जी से प्यार, मोहब्बत औऱ शादी के बारे में खुल कर पूछा गया। हाँ ये भी है की लता जी ने खुलकर जवाब नहीं दिया। रिश्तों के ऊपर एक सवाल पर तो उन्होंने कह भी दिया की वो इसका जवाब नहीं देंगी।

इसी इंटरव्यू में जब उनसे ये पूछा गया की क्या वो दोबारा लता मंगेशकर बन कर ही जन्म लेंगी तो उनका जवाब था, \”न ही जन्म मिले तो अच्छा है। औऱ अगर वाक़ई जन्म मिला मुझे तो मैं लता मंगेशकर नहीं बनना चाहूँगी।\” जब पूछा क्यूँ, तो हँसते हुये लता जी का जवाब था, \”जो लता मंगेशकर की तकलीफ़ें हैं वो उसको ही पता है।\”

अब लता जी अपने गीतों के ज़रिये हमारे बीच रहेंगी।

रविवारीय: वक़्त रहता नहीं कहीं रूककर, इसकी आदत भी आदमी सी है

आज सुबह सुबह यूँ ही, गाना सुनने का नहीं बल्कि देखने का मन हुआ। अगर आप यूट्यूब पर गाने देखते हैं तो आपको पता होगा पहली बार आप जो देखना चाहते हैं वो ढूँढते हैं उसके बाद सामने से ही सुझाव आने लगते हैं।

मुझे जब सुझाव में क़यामत से क़यामत तक का गीत \’ऐ मेरे हमसफ़र\’ दिखाई दिया तो अपने आपको रोक नहीं सका सुबह सुबह ऐसा मधुर गीत सुनने से। गाने की शुरुआत में दो चीज़ें दिखायीं गयीं जिनका अब इस्तेमाल कम होने लगा है। आमिर खान के सामने घड़ी है क्योंकि संगीत में घड़ी की टिक टिक है। जूही चावला इस गाने से ऐन पहले आमिर से एक दुकान में मिलती हैं जो उन्हें सही वक्त का इंतज़ार करने को कहते हैं।

जूही चावला जब घर पहुँचती हैं तो वो सीधे अपने कमरे में जाती हैं औऱ दीवार पर टंगे कैलेंडर पर पेन से उस दिन पर निशान लगाती हैं जब तक उन्हें इंतज़ार करना है। ये पोस्ट का श्रेय जुहीजी को कम औऱ उस कैलेंडर को ज़्यादा। 

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आज से क़रीब 10-12 साल पहले तक ऐसा होता था की साल ख़त्म होने को आता औऱ नये कैलेंडर के लिये ढूँढाई शुरू। कैलेंडर से ज़्यादा उनकी जो ये मुहैया करा सकें। सरकारी कैलेंडर तो मिल ही जाते थे सरकारी डायरी के साथ। लेक़िन तलाश होती कुछ अच्छे, कुछ नये तरह के कैलेंडर की। जिनसे मिलना जुलना था तो वो सरकारी कैलेंडर वाले ही थे। जब हमारे पास ज़्यादा हो जाते तो वो आगे बढ़ा दिये जाते।

सरकारी डायरी में ढ़ेर सारी जानकारी रहती जो उस समय लगता था किसी काम की नहीं है। प्रदेश से संबंधित सारे आँकड़े औऱ सभी से संपर्क साधने के लिये फ़ोन नंबर। लेक़िन लिखने की जगह कम रहती औऱ शनिवार, रविवार जो छुट्टी के दिन रहते सरकार के लिये उस दिन तो औऱ कम जगह। मतलब कुल मिलाकर इन डायरीयों की ज़्यादा पूछ परख नहीं थी।

बिज़नेस से जुड़े कम लोगों को जानते थे। फ़िर बचते दुकानदार जिनके यहाँ से सामान आता था। उनके कैलेंडर बड़े सादा हुआ करते थे लेक़िन सब रख लेते थे। निजी क्षेत्र में जो नौकरी करते उनके कैलेंडर की मांग सबसे ज़्यादा रहती। क्योंकि कंपनी पैसा खर्च करके अच्छे कैलेंडर छपवाती, इसलिये ये बहुत ही सीमित संख्या में मिलते कर्मचारियों को। किस को देना है ये बड़ा कठिन प्रश्न होता। लेक़िन तब भी कहीं न कहीं से हर साल कुछ अच्छे कैलेंडर मिल ही जाते।

किसी बड़ी कंपनी की दुकान से आपको ये कैलेंडर अगर किस्मत से मिला तो उसकी कीमत चुकानी पड़ती – एक बढ़िया सा बिल बनवाकर। अगर ऐसी किसी दुकान के आप नियमित ग्राहक हैं तो आपके लिये ये ख़रीदारी ज़रूरी नहीं है। आपके पिछले ख़र्चे की बदौलत आपको कैलेंडर मिल ही जायेगा।

जब पत्रकारिता में कदम रखा तो कई जगह से डायरी, कैलेंडर मिलने लगे। कई बार तो ऑफिस में ही किसी सहयोगी को भेंट दे देते। आख़िर आप कितनी डायरी लिखेंगे? कई बार तो ये भी हुआ की आपके नाम से कुछ आया लेक़िन आप तक कुछ पहुँचता नहीं।

ये कैलेंडर हमारी ज़िंदगी का इतना अभिन्न अंग है। आज वो दीवाल पर भले ही टंगा नहीं हो औऱ हमारे मोबाइल में आ गया हो लेक़िन तब भी एक कैलेंडर आज भी ज़रूर रहता है, वो है पंचांग। सरकारी घर में तो डाइनिंग रूम में इसकी एक नियत जगह थी जहाँ हर साल ये दीवाल की शोभा बढ़ाता। जब कभी तारीख़ देखने की बात होती तो अपने आप नज़र वहीं चली जाती।

महीना बदलने पर कैलेंडर में भी बदलाव होता। जहाँ बाकी अच्छी अच्छी तस्वीरों वाले कैलेंडर में नई तस्वीर होती, पंचांग में ऐसा कुछ नहीं होता। इसमें सब कुछ वैसा ही होता बस नये तीज, त्यौहार औऱ ढ़ेर सारी जानकारी उनके लिये जो इनको मानते हैं या पालन करते हैं। जब तक घर पर रहे तो इन सबकी ज़रूरत नहीं पड़ी, लेक़िन जब बाहर निकले औऱ उसके बाद जब श्रीमतीजी का आगमन हुआ तबसे ये पंचांग भी ज़रूरी चीज़ों में शुमार हो गया है।

मुम्बई आये तो उस पंचांग को ढूँढा जिसको देखने की आदत थी। एक दुकान पर मिल भी गया। लेक़िन जब कुछ दिनों बाद ध्यान से देखा तो मामला कुछ ठीक नहीं लगा। ज़रा बारीकी से पड़ताल करी तो पता चला रंग, स्टाइल सब कॉपी तो किया है लेक़िन असली नहीं है। तबसे हर साल कोशिश रहती है की अगर दीवाली पर घर जाना हो तो नया पंचांग साथ में लेते आयें। पिछले साल ये संभव नहीं हुआ। मुंबई में खोजबीन करके मिल ही गया।

ऐसा नहीं है की महाराष्ट्र में पंचांग नहीं है। लेक़िन हम मनुष्य आदतों के ग़ुलाम हैं। तो बस साल दर साल उसी पुराने पंचांग की तलाश में रहते हैं। घर में अब कैलेंडर के नाम पर बस यही एक चीज़ है। बाक़ी मोबाइल आदि सभी जगह तो कैलेंडर है। इसकी अच्छी बात ये है की एक ही कैलन्डर में आप कुछ नोट करें औऱ हर उस यंत्र में आपको ये देखने को मिल जाता है।

पंचांग में दूध का हिसाब रखने का भी एक हिस्सा है। ये शायद वर्षों से नहीं बदला गया है। ये दूध का हिसाब भी सुबह शाम का है। मुझे याद नहीं हमारे यहाँ दोनों समय दूध आता हो। लेक़िन शायद कहीं अब भी सुबह शाम ऐसा होता हो इसके चलते अभी तक यही हिसाब चल रहा है। एक छोटी सी जगह है जहाँ आप को कुछ याद रखना हो तो लिख सकते हैं। किसी का जन्मदिन या औऱ कोई महत्वपूर्ण कार्य जैसे आपकी रसोई में गैस सिलिंडर की बदली कब हुई। या आपकी कामवाली कब नहीं आयी या कब से काम शुरू किया आदि आदि।

ज़्यादातर कैलेंडर जो होते हैं वो छह पेज के होते हैं जिसमें दोनों तरफ़ एक एक महीना होता। लेक़िन पंचांग में ऐसा कुछ नहीं होता। यहाँ हर महीने का एक पेज होता है। तो उसके पीछे क्या खाली जगह होती है? इसका पता मुझे तब चला जब मुझे नये महीने के शुरू होने पर कैलेंडर में भी बदलने को कहा गया।

पंचांग में तो जानकारी की भरमार होती है ये बात तब पता चली जब इसको पलट कर देखा। वार्षिक राशिफल से लेकर घरेलू नुस्खे, अच्छी आदतें कैसे बनाये औऱ पता नहीं क्या क्या। अगर आपने नहीं देखा हो तो ज़रूर देखें। पढ़ने का काफ़ी माल मसाला है।

कुछ वर्षों से अभिनेत्रियों औऱ अभिनेताओं का एक कैलेंडर काफ़ी चर्चा में रहता है। कैलेंडर का भी एक बड़ा लॉन्च प्रोग्राम होता है जिसमें वो कैसे बना इसकी भी पूरी कहानी होती है। अगर आपको ये कैलेंडर चाहिये तो अच्छी ख़ासी रक़म देनी पड़ती है। उसी तरह एक स्विमसूट कैलेंडर भी काफ़ी चला था। बाद में कंपनी के मालिक अपनी लंगोट बचा कर इधर उधर भागते फिरते रहे हैं। औऱ फ़िलहाल इस कैलेंडर पर भी पर्दा डल गया है।1

हम लोगों के लिये कैलेंडर मतलब सरकारी, या खिलाड़ियों का या फिल्मी हस्तियों का। इसके आगे क्या? ये पता तब चला जब एक परिचित के घर गये। किसी कारण से जिस कमरे में बैठे थे उसका दरवाज़ा  बंद हुआ औऱ उसके बाद परिचित थोड़े से असहज औऱ बाक़ी लोगों के चहरे पर हँसी। हुआ यूँ की दरवाज़े के पीछे एक कन्या का बड़ा सा पोस्टर कैलेंडर लगा था। लेक़िन कम से कम कपड़ों में उसकी फ़ोटो से आप की नज़र साल के बारह महीनों तक जाये, तो।

बहरहाल जूही चावला वाला कैलेंडर बढ़िया है कुछ छोटी छोटी बातों को याद रखने के लिये। इतने बड़े कैलेंडर को देखने के बाद आपको भी वक़्त रुका रुका सा लगेगा लेक़िन… वक़्त रहता नहीं कहीं रुककर, इसकी आदत भी आदमी सी है

अंत में आपसे फ़िर वही गुज़ारिश। इसको पढ़ें औऱ अच्छा लगा हो तो सबको बतायें। बुरा कुछ हो तो सिर्फ़ मुझे।

कोई ये बन गया, कोई वो बन गया

गायक अभिजीत भट्टाचार्य ने शाहरुख़ ख़ान के लिये फ़िल्म फ़िर भी दिल है हिंदुस्तानी में एक गाना गाया था I am the best और लगता है अपने ही गाये हुये इस गाने से बहुत प्रभावित हैं। वैसे अभिजीत का विवादों से पुराना रिश्ता है। अपने बड़बोलेपन के चलते वो कई बार मुश्किलों में पड़ चुके हैं। हाल ही में उन्होंने अक्षय कुमार को गरीबों का मिथुन चक्रवर्ती बताते हुये उनकी सफलता के श्रेय अपने गाये हुये फ़िल्म खिलाड़ी के गानों का दिया।

अभिजीत के अनुसार फ़िल्म खिलाड़ी में उनके गाये हुये गीत \’वादा रहा सनम\’ बाद अक्षय कुमार की किस्मत बदल गई औऱ वो गरीबों के मिथुन चक्रवर्ती से एक कामयाब नायक की श्रेणी में आ गये थे। अब्बास-मस्तान के निर्देशन में बनी फ़िल्म चली तो बहुत थी औऱ उसका संगीत भी काफ़ी हिट रहा था। लेक़िन क्या इसका श्रेय सिर्फ़ अभिजीत को मिलना चाहिये ये एक बहस का मुद्दा ज़रूर हो सकता है।

वैसे इससे पहले अभिजीत ने अपने आपको शाहरुख़ ख़ान की आवाज़ बताते हुये ये कहा था की उनकी आवाज़ में ही किंग खान ने सबसे ज़्यादा हिट गाने दिये हैं। वैसे एक सरसरी निगाह डालें तो शाहरुख़ के लिये ज़्यादा गाने तो नहीं गाये हैं अभिजीत ने। उदित नारायण औऱ कुमार शानू ने कहीं ज़्यादा गाने गाये हैं शाहरुख़ के लिये। इस पर भी बहस हो सकती है जो ज़्यादा लंबी नहीं खिंचेगी। लेक़िन अभिजीत हैं तो मामला कुछ भी हो सकता है।

वैसे कुसूर उनका भी नहीं है। बरसों पहले सलमान ख़ान की फ़िल्म बाग़ी के हिट गाने देने के बाद भी वो सलमान की आवाज़ नहीं बन पाये औऱ ये सौभाग्य मिला एस पी बालासुब्रमण्यम जी को। इसके बाद शाहरुख़ ख़ान के लिये भी हिट गाने देने के बाद भी उदित नारायण औऱ कुमार सानू ने ही उनके अधिकतर गीत गाये।

आज ये अभिजीत मेरे निशाने पर क्यूँ हैं? यही सोच रहे होंगे आप। दरअसल आज दिन में देवानंद जी की फ़िल्म सीआईडी (1961) के गाने सुन रहा था तो अभिजीत का ख़्याल आया।

आमिर खान-करिश्मा कपूर की फ़िल्म \’राजा हिंदुस्तानी\’ बड़ी हिट फिल्म थी औऱ बहुत से कारणों से ये चर्चा में रही थी। फ़िल्म की सफलता में उसके संगीत का बड़ा योगदान रहा था। नदीम श्रवण के संगीत को आज भी पसंद किया जाता है। फ़िल्म का सबसे हिट गाना \’परदेसी परदेसी\’ रहा जिसको उदित नारायण, अलका याग्निक एवं सपना अवस्थी ने गाया था।

उदित नारायण को इस फ़िल्म के लिये फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। अभिजीत जिनका फ़िल्म फ़रेब का गाना \’ये तेरी आँखें झुकी झुकी\’ भी फ़िल्मफ़ेअर के लिये नॉमिनेट हुआ था। उदित नारायण का ही एक औऱ सुंदर गाना घर से निकलते ही भी लिस्ट में था। लेक़िन अवार्ड मिला राजा हिंदुस्तानी के गीत को चूँकि वो बड़ा हिट गाना था बनिस्बत घर से निकलते ही के।

अभिजीत इस बात से बहुत आहत हुये थे और उन्होंने बाद में कहा की \”गाने में दो लाइन गाने के लिये उदित नारायण को अवार्ड दे दिया\”। अग़र आपने गाना सुना हो तो निश्चित रूप से उदित नारायण ने दो से ज़्यादा लाइन को अपनी आवाज़ दी थी। ख़ैर।

तो आज पर वापस आते हैं। फ़िल्म सीआईडी के गाने एक से बढ़कर एक हैं। आजकल तो ऐसा बहुत कम होता है की किसी फ़िल्म के सभी गाने शानदार हों, लेक़िन उन दिनों संगीत क़माल का होता था शायद इसीलिये आज उसीकी बदौलत बादशाह औऱ नेहा कक्कड़ जैसे लोगों का कैरियर बन गया है। बहरहाल, फ़िल्म का संगीत ओ पी नय्यर साहब का है औऱ बोल हैं मजरुह सुलतानपुरी साहब के। लेक़िन इस एक गीत के बोल लिखे हैं जानिसार अख्तर साहब ने।

इस गाने की खास बात देवानंद औऱ शकीला तो हैं ही लेक़िन उससे भी ज़्यादा ख़ास है इसका मुखड़ा। जो इस गाने के अंतरे हैं उसमें नायिका नायक से सवाल पूछती है औऱ नायक का बस एक जवाब होता है \’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया\’। मोहम्मद रफ़ी साहब के हिस्से में मुखड़े की बस ये दो लाइन ही आईं औऱ गाने के अंत तक आते आते वो भी गीता दत्त के पास चला जाता है। लेक़िन जिस अदा से रफ़ी साहब मुखड़े की दो लाइन गाते हैं औऱ पर्दे पर देवानंद निभाते हैं…

लाइन दो मिलें या पूरा गाना बात तो उसको पूरी ईमानदारी से निभाने की है। अवार्ड मिले या न मिले। औऱ लोगों का क्या, उनका तो काम है कहना। औऱ ये मानने में भी कोई बुराई नहीं है की आप सबसे अच्छे हैं। बात तो तब है जब यही बात बाक़ी लोग भी कहें या माने।

दिल मेरा धक धक डोले, दीवाना लिये जाये हिचकोले

जब इस फ़िल्म की घोषणा हुई थी तब सोशल मीडिया नहीं था। लेकिन घर पर घमासान शुरू हो गई थी। एक आमिर खान का खेमा और एक सलमान खान का। चूँकि बहुत ज़्यादा खबरें भी नहीं थीं फिल्मों के बारे में तो इंतज़ार था इसकी रिलीज़ का। हाँ फ़िल्म की घोषणा के समय आमिर-सलमान की दो फ़ोटो ज़रूर सामने आई थीं।

जब 1994 में अंदाज़ अपना अपना आयी तो देखने में बड़ा मजा आया। कौन किस पर भारी पड़ा ये कहना मुश्किल तब भी था और आज भी। सलमान खान का वो सीधा साधा होना या आमिर का चालाक होना – ख़ासकर वो जेल वाला सीन जब आमिर सोचते हैं कि उन्होनें सलमान को मुश्किल में डाल दिया है। उस सिचुएशन में पापा कहते हैं का बैकग्राउंड जैसे सोने पे सुहागा।

https://youtu.be/qIu-ai9Tiu0

सलमान और करिश्मा कपूर का ये रात और ये दूरी पर सलमान के डांस स्टेप्स। मतलब एक अलग ही लेवल की कोरियोग्राफी थी। सलमान को ढ़ोलक बजाते हुये देख लीजिये।

https://youtu.be/1H0vtkIiPbM

जब ये फ़िल्म पहली बार देखी तो सिनेमाघर भरा हुआ नहीं था। लेकिन ऐसे शानदार गुदगुदाने वाले सीन के बाद भी फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर ढ़ेर हो गयी।

https://youtu.be/uImtwJJ9pq4

ये भी लगा कि कई जोक्स लोगों को समझ नहीं आये। जैसे मेहमूद साहब का वाह वाह प्रोडक्शन जिसकी शुरुआत 1966 में बनी फ़िल्म \’प्यार किये जा\’ के समय हुई थी। वही फ़िल्म जिसका ये सीन आज भी आपको हँसा जाता है।

https://youtu.be/JFVH4oSjqOE

या शोले के ज़िक्र पर आमिर का सलमान को देखकर कहना पता है इसके बाप ने लिखी है (शोले सलमान खान के पिता सलीम खान और जावेद अख़्तर ने लिखी थी).

ये बिल्कुल नहीं लगा था की समय के साथ साथ इसके चाहने वाले भी बढ़ते जायेंगे और पच्चीस साल बाद इसका नाम सबसे बेहतरीन कॉमेडी फिल्मों में शुमार होगा। लेकिन ये समझ में नहीं आया की 25 साल पहले लोगों की समझ को क्या हो गया था? देर आये दुरुस्त आये कहावत को चरितार्थ करता है लोगों का फ़िल्म अंदाज़ अपना अपना के प्रति प्रेम जो अमर है!

Are our film critics really impartial?

Every Friday there is some move or the other releasing. While fans of actors and actress watch the films of their favourite actors irrespective of how the movie performs at the box office, there is a good number of people who wait for the reviews and decided whether to watch the film or not. These critics influence the audience and now that we have social media, the good or bad spreads really fast.

It happened with Thugs of Hindostan. The movie was trashed by the critics – who did not like the movie for their own reasons. I however watched the film first day first show before the verdict was out and I liked the movie for what it offered. Imagine my shock when I read reviews which described the movie as one of the worst of 2018. Specially in case of Thugs of Hindostan I felt there was a campaign against the film.

The critics advised against watching the Hindi film Aashiqui 2. Instead, they suggested watching the old one again. Some reviews said the male lead Aditya Roy Kapoor was pathetic and had not so encouraging words for the female lead Shraddha Kapoor as well. Even the music by Jeet Ganguly was strictly ok. All in all this was not the movie you should be investing your money and time. So the ‘critics’ said.

Now, the problem with our so called critics is that they have seen the world’s best and compare our products to them. They find all the loopholes in our stories and none in the cinema of the world. They want our movies to be like theirs. Sure. Do they insert songs in their movies that is being released in India?

Our movies are unique because of so many reasons with music being just one of them. Our treatment of movies is different from theirs and should remain so. How many of the mainstream Indians have seen Wong Kar Wai’s classic In The Mood For Love? Our esteemed critics go gaga over movies like this which if released in India will be pulled out after first day itself. But our esteemed critics think otherwise. They see our movies from the perspective of world cinema.

The critics want so many script changes after watching the movie that the director may even refuse to call it his film. Mind you, none of them will like a similar suggestion about their articles. They will fight with their editors if the paragraphs are even interchanged. Changing the intro of the story will actually need no less than the owner calling them personally. But that does not stop them from suggesting a similar thing to a film director.

It\’s tough being a critic. More so when you have movies like Golmaals, Housefulls or Bol Bachchans or the recent Himmatwalas to review. But look what they had to say about these gems and you know where our critics are heading.

As for Thugs of Hindostan or Aashiqui 2 or so many others go watch them and decide for yourself. I enjoyed Aashiqui 2 for the pure, unadulterated romance.  That is as rare as finding non-sensical debate on TV shows. The lead pair looks good and the music is excellent. Unlike the music these days that come with a life of 3-months, this music will proudly find a place in my library of evergreen music. And so will the DVDs whenever they are out.

Darr: Aamir Khan\’s rejection gave Shahrukh Khan his stardom

At a time when films are not remembered beyond their 100 days or so, we are remembering 25 years of Yash Chopra\’s Darr starring Shahrukh Khan, Juhi Chawla and Sunny Deol which was released on December 24, 1993. The film was milestone in both Shahrukh Khan and Juhi Chawla\’s career and in a way also helped Yash Raj banners in their journey. Darr remained in news for reasons other than the obvious much before its shooting began.

The film was first offered to Aamir Khan. In fact Khan had signed the Yash Chopra film and the trade was very excited as it was first collaboration between the king of romance Yash Chopra and Aamir Khan. It was also bringing back the hit pair of Aamir Khan and Juhi Chawla after their not so hit outings post QSQT. The muhurat of the film was also performed with the cast.

But soon it was reported that Aamir Khan was out of the Yash Chopra film and Shahrukh Khan has replaced him. Shahrukh at that point had already done Baazigar in which he had played a negative role. There were many theories doing the rounds at to why Aamir left the film. One version was Aamir Khan insisted on a joint narration with Sunny Deol but Yash Chopra refused. Year later Sunny Deol also said something on similar lines. He did not stop there and called Yash Chopra a cheat and also turned down their offer to launch his son. Sunny Deol did not work with Yash Raj films and Shahrukh Khan after Darr.

[youtube https://www.youtube.com/watch?v=huj9_8uV5y8&w=560&h=315]

The other theory was Yash Chopra did not like Aamir Khan asking too many questions and hence dropped him. Yash Chopra also said in an interview that Aamir Khan developed cold feet after the muhurat as he was playing a negative character for the first time. His family, fans and well wishers advised him against it and he finally said no.

Whatever be the reason, in the end it worked to Shahrukh Khan\’s advantage. As for Aamir Khan he did work with Yash Chopra and their venture Parampara was released the same year but failed to set the box office on fire. The film is best remembered for a couple of songs and Ramya\’s hot scenes with Vinod Khanna.

Coming back to Darr, I liked Juhi Chawla from her first film – Qayamat Se Qayamat Tak. It was combination of everything – the music, story, how she spoke in the film and of course her pairing with Aamir Khan. So when Juhi Chawla did the itsy-bitsy role in Yash Chopra\’s Chandni I was disappointed. But soon there was news that Yash Chopra had offered her a role in his next film. Darr was supposed to be her big film as she was working with a big banner and Yash Chopra was known for presenting his actress in the most beautiful way.

Coming after the debacle of Lamhe, a lot was riding on Darr. Baazigar had released on November 12 and Shahrukh Khan was lauded for his role as Ajay Sharma. Darr was releasing exactly a month after but the story was completely different. Baazigar was still running in theaters when Darr was released. Soon Shahrukh Khan\’s character in Darr and his K..K..K…Kiran became popular and the next big star had arrived.

The music of the film is still loved specially Tu Hai Meri Kiran which incidentally is only playing in the background and we see Shahrukh Khan singing rather different version in the film. The other songs also go well with the story but I must add that I saw the film recently and I thought we could do away with couple of songs like Likha Hai Ye and Solah Button Meri Choli Main for a more enjoyable film.

Darr also has the unique distinction of being made into English in 1996 as Fear.

माई-बाप संस्कृति के मारे ये नेता बेचारे

आमिर खान की जो जीता वही सिकंदर एक यादगार फ़िल्म है और इसके कई कारण भी है। पहले तो खुद आमिर खान। फिर फ़िल्म के गाने जो एक पीढ़ी के बाद अब दूसरी पीढ़ी की पसंद बन गए हैं। मगर उससे भी जो अच्छी बात उस फिल्म में थी वो थी भारत में व्याप्त माई बाप की संस्कृति का चित्रण।

आज जब बीजेपी के सांसद महोदय ट्रैन किस टाइम पर कहाँ आये इसका निर्देश देते हुए देखे गए तो मुझे इस फ़िल्म की याद आ गयी। आमिर खान जो एक बहुत अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ते हैं पूजा बेदी को ये झूठ बोलकर की वो सबसे अच्छे स्कूल के छात्र हैं, अपने प्रेमजाल में फंसना चाहते हैं। ऐसा होता नहीं है और पोल खुलने पर पूजा बेदी उन्हें छोड़ एक बड़े घर के लड़के के साथ हो लेती हैं।

फ़िल्म में एक सीन है जिसमे आमिर खान आयशा झुलका के वर्कशॉप से गाड़ी लेकर भाग जाते हैं और रास्ते में उन्हें पूजा बेदी मिल जाती हैं। उनके दोस्त उन्हें पूजा बेदी के साथ देख उन्हें अन्नदाता मानते हुए कुछ बख्शीश मांग लेते हैं। आमिर खान भी एक रईस आदमी की तरह बर्ताव करते हैं और कुछ पैसे दे देते हैं।

अब आप ये सोच रहे होंगे कि आज मैं क्यों इस फ़िल्म के सीन बता रहा हूँ। दरसअल मैंने दिल्ली के बड़े बड़े बंगले देखे। जिसमे अलग अलग ओहदे पर बैठे हुए मंत्री व अधिकारी रहते हैं। उन मंत्री महोदय का भी बड़ा सा बंगला देखा जिन्होंने पिछले दिनों कहा कि वो भारतीय नौसेना के अधिकारियों को मुम्बई के पॉश इलाके में ज़मीन नहीं देंगे। किसी ने टिप्पणी करी की फिर मंत्रियों को भी वसई विरार जो कि मुम्बई से काफी दूर हैं, वहां जा कर रहें। यह संभव तो नहीं है क्योंकि राज नेताओं को सिर्फ जनता का सेवक होने का मौका मिलना चाहिए। असल में तो वो अपनी ही रोटियाँ सेकते रहते हैं।

दिल्ली के बंगलों को देख कर यही खयाल आया कि इतने बड़े बड़े ये बंगले जनता के सेवकों के लिये क्यों? कई बंगले तो इतने बड़े लगे कि भारत के कई छोटे छोटे गांव के गाँव उनमे रह सकते हैं। यह अलग बात है कि असली भारत के यह नागरिक कभी ऐसे घरों का आंनद नहीं ले पायेंगे।

लेकिन आज सांसद महोदय ने ये साबित कर दिया कि माई बाप संस्कृति भारत से कहीं नहीं जाने वाली। हम और आप उनके लिए घंटों गर्मी में रास्ता देने के लिए खड़े रहें वो अपनी एयरकंडीशनर वाली गाड़ी से फुर्र हो जायेंगे।