हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की…

आज एक फ़ोटो देखने औऱ एक कहानी पढ़ने के बाद ये पोस्ट लिखना तय हुआ। अब दिमाग़ में तो कहानी बन जाती है, लेक़िन उसको जब लिखना शुरू करो तो मामला टायें टायें फिस्स हो जाता है। चलिये आज फ़िर से प्रयास करते हैं।

तो आज एक अदाकारा ने अपनी नई गाड़ी के साथ फ़ोटो साझा करी। जो गाड़ी उन्होंने ली वो मुझे भी बहुत पसंद है औऱ जीवन में पहली बार बैठना हुआ 2018 में जब दिल्ली में काम करता था। मोहतरमा ने लिखा कि ये गाड़ी खरीदना उनके लिये एक सपने के जैसा है। उन्होंने कभी नहीं सोचा था की उनके जीवन में ये दिन कभी आयेगा।

जो गाड़ी उन्होंने ख़रीदी है वो कोई ऐसी ख़ास महंगी नहीं है। मतलब आज जिस तरह से हमारे कलाकार करोड़ों रुपये की गाड़ी ख़रीद कर फ़ोटो साझा करते हैं, उसके मुकाबले ये गाड़ी कोई ख़ास महँगी नहीं है।

लेक़िन जब आप किसी गाड़ी का अरमान लेकर बड़े होते हैं तो औऱ जब आप उसको ख़रीद लेते हैं तो वो बेशकीमती हो जाती है। उसके साथ जो आपका जुड़ाव होता है वो पैसे से नहीं नापा जा सकता है। उसको ख़रीदना एक सपना ही रहता है। आप सारा जीवन ललचाई नज़रों से औऱ लोगों के पास उस गाड़ी को जब देखते रहते हैं औऱ एक दिन उस लंबे इंतज़ार के बाद जब वही गाड़ी आपके पास होती है तो विश्वास नहीं होता। जब आप उसपर बैठकर घूमने निकलते हैं तो आपका एक अलग अंदाज भी होता है औऱ एक अलग उमंग भी।

पिछले कुछ समय से पिताजी से नई गाड़ी लेने के लिये आग्रह किया जा रहा है। अब वो ज़माने लद गये जब एक ही गाड़ी जीवन भर चल जाती थी औऱ अगर देखभाल ठीक ठाक करी हो तो उसको अगली पीढ़ी को भी सौंप देते हैं। अभी तो नियम कायदे भी ऐसे हो गये हैं की पुरानी गाड़ी रखना मुश्किल है। अभी जो गाड़ी है उसका भरपूर उपयोग किया गया है। पिताजी का गाड़ियों के प्रति वैसे भी कुछ ज़्यादा ही लगाव रहता है।

इसलिये पिताजी को गाड़ी बदलने के लिये मनाना कोई आसान काम नहीं है। उस गाड़ी के साथ ढेरों यादें भी जुड़ी हुई हैं। उसको लेकर कई चक्कर मुम्बई के लगाये हैं औऱ एक बहुत ही यादगार यात्रा रही भोपाल से कश्मीर की। वैसे तो हम लोगों ने कार से कई यात्रायें करी हैं लेक़िन ये सबसे यादगार यात्रा बन गई।

अब इससे पहले की यात्रा के संस्मरण शुरू हो जायें, मुद्दे पर वापस आते हैं। तो मोहतरमा का गाड़ी के प्रति प्यार देखकर मुझे याद आयी मेरे जीवन की पहली गाड़ी। गाड़ी लेने के प्रयास कई बार किये लेक़िन किसी न किसी कारण से ये टलता ही रहा। फ़िर कुछ सालों बाद एक दो पहिया औऱ उसके कुछ वर्षों बाद चार पहिया वाहन भी ख़रीद लिया।

जब कार ख़रीदी तब सचमुच लगा की आज कुछ किया है। तूफ़ानी भी कह सकते हैं। मेरे लिये कार ख़रीदना के सपने के जैसा था। जिस तरह से मैं काम कर रहा था या जैसे शुरुआत करी थी, जब गाड़ी आयी तो लगा वाकई में जीवन की एक उपलब्धि है। औऱ इसी से जुड़ी है आज की दूसरी फ़ोटो जिसका ज़िक्र मैंने शुरुआत में किया था। एक उड़ान खटोले वाली निजी कंपनी ने अपना एक विज्ञापन दिया – हम आपके जीवन के लक्ष्य या बकेट लिस्ट को पूरा करने में आपकी मदद करेंगे।

इन दिनों इस बकेट लिस्ट का चलन भी बहुत है। लोग अपने जीवन में जो भी कार्य उन्हें करने है, कहीं घूमने जाना है, पैराशूट पहन कर कूदना है, या किसी ख़ास व्यक्ति से मिलना है, आदि आदि की लिस्ट बना कर रखते हैं। औऱ उनको पूरा करने का प्रयास करते हैं। जब ये हो जाता है तो सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया को बताते हैं।

क्या मेरी कोई लिस्ट है? नहीं। क्योंकि मुझे तो लगता है मेरा जीवन भी कोई बकेट लिस्ट से कम नहीं है। मैं ये लिख रहा हूँ, आप ये पढ़ रहे हैं – ये किसी लिस्ट का हिस्सा नहीं हो सकते। हाँ अब लगता है एक लिस्ट बना ही लूँ लेक़िन उसमें सिर्फ़ एक ही चीज़ लिखूँ। बेशर्मी। नहीं नहीं वो नहीं जो आप सोच रहे हैं, बल्कि बेशर्म हो कर लिखना औऱ उससे भी ज़्यादा बेशर्म होकर सबसे कहना पढ़ो औऱ शेयर करो। औऱ हाँ कमेंट भी करना ज़रूर से। लीजिये शुरुआत हो भी गयी। 😊

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाइश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेक़िन फ़िर भी कम निकले

बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी, मेरी ज़िंदगी में हुज़ूर आप आये

स्कूल में किसी ने मुझसे पूछा तुम्हारे पास कार है? कक्षा उम्र का बिल्कुल भी ध्यान नहीं। ये उस समय की बात है जब हर घर में टीवी या कार होना एक बहुत सामान्य बात थी। लेक़िन मेरे जवाब से उस बंदे को ज़रूर चक्कर आया होगा। मैंने कहा हाँ है तीन कारें।

जिस वक़्त का ये घटनाक्रम है उस समय परिवार बड़े हुआ करते थे औऱ सभी साथ में भी रहते थे। तो ऐसे में सभी की सब चीजें हुआ करती थीं। हमारा संयुक्त परिवार तो नहीं रहा इस लिहाज से मेरा जवाब ग़लत था। लेक़िन ऐसे मौके कई बार आये जब घर के अंदर, मतलब गेट के अंदर, तीन तीन कारें खड़ी होती थीं। वो होती तो परिवार के बाकी सदस्यों की लेक़िन मैंने उनको अपनी कार माना। तो शायद मैंने यही सोच कर जवाब दिया होगा। लेक़िन ये बात मुझे इसलिये याद रही क्योंकि उस बंदे ने पूछा तुम्हारे पिताजी की कौनसी कार है? इसी से जुड़ा एक और किस्सा है बाद के लिये।

पिताजी के पास पहली कार, उनकी पहली कार, इस वाकये के लगभग बीस साल बाद आई। इसके पहले दादाजी की पुरानी कार ऑस्टिन की ख़ूब सेवा करी और हम सबसे करवाई भी। पिताजी को गाड़ी चलाने का ही शौक़ नहीं है बल्कि आज भी उसके रखरखाव का भी पूरा ध्यान रखते हैं। परिवार के कई सदस्यों को कार चलाना सिखाने का श्रेय भी पिताजी को जाता है। बाक़ी सबको तो वो प्यार से सिखाते लेक़िन हम लोगों को कुछ ज़्यादा ही प्यार से सिखाते। जब तक एक दो प्यार की थपकी नहीं पड़ती लगता नहीं गाड़ी चलाई है।

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ऑस्टिन में फ्लोर गेयर हैं और उस समय रोड पर वो गेयर बदलना और नज़र सामने ही रखना – ये लगभग एक असंभव कार्य हुआ करता था। बार बार नज़रें गेयर के हैंडल पर जाती और पिताजी बोलते सामने देखो, नज़रें रोड पर। बस यहीं से गड़बड़ शुरू होती और पिताजी से प्रसाद मिलता। मुझे ऐसा मौका बहुत कम मिला जब पिताजी किसी और को सीखा रहे हों और मुझे भी कार में बैठने का मौक़ा मिला हो। मतलब ये देखने का की प्रसाद वितरण किसी और रूप में तो नहीं हुआ है।

अच्छी बात ये थी कि ऑस्टिन जब रोड पर निकलती तो बरबस सबकी निगाहें उसी तरफ़ होती। अब नई पीढ़ी ने हमारा स्थान लेना शुरू कर दिया है – मतलब अब वो कार चलाना सीख रहे हैं तो अपने सीखने के दिन याद आ गए। आजकल की कारें बहुत ही ज़्यादा व्यवस्थित होती हैं तो सीखने में ज़्यादा परेशानी भी नहीं होती। अब प्रसाद वितरण भी नहीं होता होगा ऐसा मेरा मानना है।

आज कारों की बातें क्योंकि आज से 35 साल पहले भारत में पहली मारुति 800 की डिलीवरी।हुई थी। आज सोशल मीडिया पर पहली मारुति खरीदने वाले दिल्ली के हरपाल सिंह जी फ़ोटो देखी।

जब मारुति की कारें रोड पर दिखने लगीं तो लगा पता नहीं क्या कार बन कर आई है। एक तो दिखने में बहुत छोटी सी क्योंकि इससे पहले बड़ी अम्बेसडर कार या फ़िएट ही सड़कों पर दौड़ती दिखती। जिनके पास ये नई कार आयी उनसे इसकी खूबियाँ सुनते तो लगता बड़ी कमाल की गाड़ी है। लेक़िन जब बैठने का मौका मिला तो लगा अपने जैसे फ़िट लोगों के लिये अम्बेसडर की सवारी ही बढ़िया है। अब बड़ी गाड़ियों का चलन वापस आ रहा है। छोटी गाड़ियों से लोग अब इम्प्रेस नहीं होते। अगर घर के बाहर SUV खड़ी हो तो बेहतर है।

जिन तीन कारों का मैंने ऊपर उल्लेख किया है, दरअसल उनमें से एक भी पिताजी की स्वयं की गाड़ी नहीं थी। लेक़िन ये बात समझ में थोड़ी देर से आई की अपनी चीज़ क्या होती है और आप हर चीज़ को अपना नहीं कह सकते। मतलब आप उन गाड़ियों को ठीक करवाने में अपना पूरा दिन बिता तो सकते हैं लेक़िन मालिकाना हक़ किसी और का ही रहेगा। और मालिक की समझ सिर्फ़ इतनी की अगर गाड़ी बीच सड़क में खड़ी हो जाये तो बस पेट्रोल है या नहीं इतना ही देख सकते हैं।

ये बात यादों पर लागू नहीं होती तो आज उस काली कार की यादों में।

जो समझा ये उसी की मची धूम

पिताजी गाड़ी में जब काम करवाने जाते तो सुबह से निकल जाते और शाम होने पर लौटते। वो गाड़ी मरम्मत के लिये छोडने के सख़्त ख़िलाफ़ थे। उन दिनों आज की जैसी सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी की फ़ोन कर दिया औऱ घर पर कोई गाड़ी लेने आ जायेगा। अगर होती भी तब भी इसकी संभावना कम ही होती।

लेक़िन ये सिर्फ़ गाड़ियों के साथ ही नहीं था। अगर कोई बिजली का काम करने आया है तो उसके पास खड़े रहो और उसको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वो देना। मतलब अग़र कोई काम हो रहा है तो आप उसको देखें। हम लोग पिताजी से हमेशा इस बात पर बहस करते की आपको काम करनेवालों से कुछ ज़्यादा ही लगाव है। आम बोलचाल में \’चाय पानी\’ के पैसे पिताजी ने नहीं दिये लेक़िन उनको चाय-नाश्ता करवाते। उस समय हम मुँह बनाते लेक़िन आज लगता है उन कामकरने वालों को इज़्ज़त देना ऐसे ही सीखा।

आज इनका ज़िक्र इसलिये क्योंकि पिछले दिनों घर पर कुछ मरम्मत का काम करने के लिये कोई आया। आदत से मजबूर मैं उसके पास ही खड़े होकर उसका काम करता देख रहा था। लेक़िन शायद उस बंदे के साथ ऐसा नहीं होता था। मतलब शहरों में जैसे होता है कि जब कोई ऐसे काम के लिये आता है तो उसको क्या ठीक करना है वो बता कर उसको काम करने दिया जाता है और आप अपने मोबाइल पर वापस एक्शन में।

जो शख़्स काम करने आया था वो बार बार पीछे मुड़कर देखता की क्या मैं वहीं खड़ा हूँ। पहले तो मुझे भी ठीक नहीं लगा औऱ एक बार ख़्याल आया कि मैं भी मोबाइल पर अपनी व्यस्तता दिखाऊँ। लेक़िन वहीं खड़ा रहा। शायद उस काम करनेवाले शख़्स को भी अंदाज़ा हो गया था क्योंकि उसके बाद वो अपने काम में मसरूफ़ हो गया।

वापस गाड़ी पर आते हैं। जब गाड़ी बदली तो लगा पिताजी का ये गैरेज पर दिन भर बिताना बंद हो जायेगा। अब तो कंपनी वाले स्वयं फ़ोन करते हैं और पूछ भी लेते हैं कि गाड़ी लेने किसी को भेजें। लेक़िन पिताजी को अपने सामने गाड़ी ठीक होते हुये देखना अच्छा लगता है। तो वो अपने सामने ही काम कराते। इसका उन्होंने एक दूसरा तोड़ भी निकाल लिया औऱ वर्कशॉप के एक मैकेनिक से बातों बातों में पूछ लिया अगर वो घर पर गाड़ी ठीक करेगा।

अब जब भी घर पर ठीक करने लायक कोई ख़राबी होती तो उसको फ़ोन करते और वो अपनी सहूलियत से आकर काम करते। जब मैंने जीवन की पहली गाड़ी ख़रीदी और उसकी सर्विसिंग करवाने गया तो मुझे याद आया काली कार की मरम्मत के वो दिन और वो दिन भर बैठे रहना औऱ इंतज़ार करना।

उन दिनों सबके पास लैंडलाइन फोन भी नहीं होते थे तो पहले से अपॉइंटमेंट लेने जैसा कोई कार्यक्रम नहीं होता। आप कब आने वाले हैं ये आप दुकान पर जाकर बताते और अग़र कोई और गाड़ी नहीं होती तो आपकी बुकिंग कन्फर्म होती। मैने ज़्यादा तो नहीं लेक़िन 4-5 बार पिताजी के साथ इस काम में साथ दिया। गाड़ी ठीक करने वाले भी सब एकदम तसल्ली से काम करते। कहीं कोई दौड़ाभागी नहीं। आज तो जिधर देखिये सब अति व्यस्त दिखते हैं।

हमारे यहाँ बच्चे अगर पढ़ाई में अच्छे नंबर नहीं लाता है तो उसको क्या ताना देते हैं? अच्छे से पढ़ो नहीं तो मेकैनिक का काम करने को भी नहीं मिलेगा। वैसे तो सब कहते रहते हैं कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। लेक़िन छोटे छोटे शब्दों में नीचे लिखा रहता है नियम व शर्तें लागू। हम ये सब काम, मतलब जिनके लिये हम एक फ़ोन करते हैं औऱ बंदा हाज़िर, उनको हम ज़रा भी इज़्ज़त नहीं देते। लेक़िन विदेश में यही काम करवाने के लिये एक मोटी रक़म ख़र्च करनी पड़ती है। इसलिये आपने देखा होगा वो अपने घर की पुताई भी स्वयं करते हैं औऱ बाक़ी अन्य काम भी।

लॉक डाउन में अगर लॉक डाउन हटने के बाद सबसे ज़्यादा इंतज़ार हो रहा है तो वो है कामवाली बाई के लौटने का। जबतक मैं व्हाट्सएप पर था तो लगभग सभी ग्रुप में इस पर या तो चर्चा चल रही होती या इसपर कुछ हल्का फुल्का हँसी मज़ाक चलता रहता। लॉक डाउन की शुरुआत वाला वो वीडियो शायद सबने देखा होगा जिसमें एक गृहणी कार में अपने यहाँ काम करनेवाली महिला को लेकर आती है औऱ उनकी इस पर उस सोसाइटी की सिक्युरिटी और बाकी लोगों से गर्मागर्म बहस हो जाती है। आज भी सब एक दूसरे से यही पूछ रहे हैं कि घर कब आओगे।

गाड़ी से बाई और बाई से वापस गाड़ी ऐसा ही लगता है जैसे फ़िल्म पड़ोसन में एक चतुरनार बड़ी होशियार में मेहमूद जी बोलते हैं ये फ़िर गड़बड़ किया, ये फ़िर भटकाया। तो वापस विषय पर। अब जो गाड़ियाँ ठीक होती हैं तो आपको नहीं पता होता कौन इसको देख रहा है। एक सुपरवाइजर आपको समय समय पर संदेश भेजता रहता है और जब काम ख़त्म तो आप गाड़ी ले जाइये। कई बार तो ऐसा भी हुआ की एक सर्विस से दूसरी सर्विस के बीच में नंबर वही रहता लेक़िन सुपरवाइजर बदल जाते। वो ठीक करने वाले के साथ चाय पीने का मौसम अब नहीं रहा।

जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन

जब हम पढ़ रहे थे तब दूसरे और चौथे शनिवार स्कूल की छुट्टी रहती थी। पिताजी का साप्ताहिक अवकाश रविवार को ही होता था। मतलब रविवार का केवल एक दिन मिलता था जब सब घर पर साथ में रहते थे। लेकिन उन दिनों रविवार का मतलब हुआ करता था ढेर सारा काम। गाड़ियों – स्कूटर, सायकल और हमारी रामप्यारी अर्थात ऑस्टिन – की धुलाई एक ऐसा काम होता था जिसका हम सब इंतज़ार करते थे।

पिताजी ने हमेशा गाड़ी का खयाल रखना सिखाया। हमारे पास था भी एंटीक पीस जिसका रखरखाव प्यार से ही संभव था। गाड़ी चलाने से पहले गाड़ी से दोस्ती का कांसेप्ट। उसको जानिये, उसके मिज़ाज को पहचानिये। गाड़ी तो आप चला ही लेंगे एक दिन लेकिन गाड़ी को समझिये। इसकी शुरुआत होती है जब आप गाड़ी साफ करना शुरू करते हैं। एक रिश्ता सा बन जाता है। ये सब आज लिखने में बड़ा आसान लग रहा है। लेकिन उन दिनों तो लगता था बस गाड़ी चलाने को मिल जाये किसी तरह।

गाड़ी से ये रिश्ते का एहसास मुझे दीवाली पर भोपाल में हुआ। चूंकि कार से ये सफ़र तय किया था तो गाड़ी की सफ़ाई होनी थी। उस दिन जब गाड़ी धो रहा था तब मुझे ध्यान आया कि एक साल से आयी गाड़ी की मैंने ऐसे सफाई करी ही नहीं थी। मतलब करीब से जानने की कोशिश ही नहीं करी। कभी कभार ऐसे ही कपड़े से सफ़ाई कर दी। नहीं तो बस बैठो और निकल पड़ो। कभी कुछ ज़रूरत पड़ जाये तो फ़ोन करदो और काम हो जायेगा।

जब तक नैनो रही साथ में तो उसके साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया। लेकिन नई गाड़ी आते ही दिल्ली निकल गये इसलिये गाड़ी चलाने का भी कम अवसर मिला। लेकिन दिल्ली में भी गाड़ी को बहुत याद ज़रूर करता और इसका दुख भी रहता कि नई गाड़ी खड़ी रहती है। यहां आकर उसको थोड़ा बहुत चला कर उस प्यार की खानापूर्ति हो जाती। बस उसको पार्किंग में देख कर खुश हो लेते। श्रीमती जी की लाख ज़िद के बाद भी अभी उन्हें इससे दूर रखने में सफल हूँ। लेकिन जब कार से लंबी यात्रा करनी हो तब लगता है उन्हें भी कार चलाना आ जाये तो कितना अच्छा हो। हम लोगों को कार से घुमने का शौक भी विरासत में मिला है। जिससे याद आया – मैंने आपसे मेरी अभी तक कि सबसे अनोखी कार यात्रा जो थी झीलों की नगरी भोपाल से धरती पर स्वर्ग कश्मीर के बीच – उसके बारे कुछ बताया नहीं है। फिलहाल उसकी सिर्फ एक झलक नीचे। दस साल पुरानी बात है लेकिन यादें ताज़ा हैं।

अगर हम गाड़ी की जगह इन्सान और अपने रिश्ते रखें तो? हम कितना उनको सहेज कर रखते है? क्या वैसे ही जैसे कभी कभार गाड़ी के ऊपर जमी धूल साफ करते हैं वैसे ही अपने रिश्तों के साथ करते हैं? या फिर हमने उनके रखरखाव की ज़िम्मेदारी एक कार साफ करने वाले के जैसे अपने लिये खास मौके छोड़ दिये हैं? समझें क्या कहा जा रहा है बिना कुछ बोले।

पिताजी और ऑस्टीन के बारे में अक्सर लोग कहते कि वो उनसे बात करती हैं। कई बार लगता कि ये सच भी है क्योंकि जब ऑस्टीन किसी से न चल पाती तब पिताजी की एंट्री होती जैसे फिल्मों में हीरो की होती है और कुछ मिनटों में ऑस्टीन भोपाल की सड़कों पर दौड़ रही होती। क्यों न हम भी अपने रिश्ते बनायें कुछ इसी तरह से।

चलिये नया कुछ करते हैं कि श्रेणी में आज अपना फ़ोन उठाइये और किन्ही तीन लोगों को फ़ोन लगायें। कोई पुराने मिलने वाले पारिवारिक मित्र, कोई पुराना दोस्त या रिश्तेदार। शर्त ये की आपका उनसे पिछले तीन महीनों में किसी भी तरह से कोई संपर्क नहीं हुआ हो। जैसा कि उस विज्ञापन में कहते हैं, बात करने से बात बनती है तो बस बात करिये और रिश्तों पर पड़ी धूल को साफ करिये। सिर्फ अपनी कार ही नहीं अपने रिश्तों को भी चमकाते रहिए। बस थोडा समय दीजिये।

काली कार की ढेर सारी रंगबिरंगी यादें

ऑफ़िस में एक नई कार आयी थी टेस्ट ड्राइव के लिए। टीम के सदस्य बता रहे थे कि कैसे उन्होंने कार चलाना सीखा। सुवासित ने बताया कि कैसे वो जब मारुती 800 सीख रहे थे तो चप्पल उतारकर गाड़ी चलाते थे की गलती से कहीं पैर ब्रेक के बजाए एक्सीलेटर पर स्लीप न हो जाये। प्रतीक्षा ने बताया कि उनको सीखने के दौरान डाँट पड़ी तो उन्होंने सीखना ही छोड़ दिया।

हमारे परिवार में एक विंटेज कार है। ऑस्टिन 10 जिसे मैं बचपन से देखता आ रहा हूँ। मेरा कार चलाना सीखना उसी पर हुआ। काले रंग की कार के चलते हमारा घर काली कार वाला घर के नाम से जाना जाता था। जब सीख रहा था तब सिर्फ ऑस्टिन में ही फ्लोर गियर थे। बाकी सभी गाड़ियों में स्टीयरिंग से लगे हुए गियर थे। तब लगता था इसी गाड़ी में गियर अलग क्यूँ हैं। आज सभी गाड़ियों में फ्लोर गियर देख कर लगता है ऑस्टिन ने अच्छी तैयारी करवा दी थी।

बहरहाल, गाड़ी सीखते समय पिताजी से काफी मार खाई। गियर और स्टेयरिंग का तालमेल बिठाना एक अलग ही काम लगता था। आजकल के पॉवर स्टेयरिंग के जैसे आराम से घूमने वाले स्टेयरिंग बहुत बाद में चलाने को मिले। ऑस्टिन का स्टेयरिंग बहुत ही मुश्किल से चलता था शुरुआत में। पूरी ताकत लग जाती गाड़ी घुमाने में।

जब पिताजी घर पर नहीं तो सामने जो छोटी सी जगह थी उसमें गाड़ी घुमाते। कई बार दीवार या गैरेज से कार टकराई। लेकिन ऑस्टिन की बॉडी मतलब लोहा। मजाल है एक ख़रोंच भी आये। जब कभी गाड़ी रोड पर निकलती तो नये ज़माने की नाज़ुक कारों के लिए डर लगता की कहीं ऑस्टिन से टकराकर वो चकनाचूर न हो जाएं।

एक बार देर रात परिवार के सदस्य और कुछ मेहमान कहीं से लौट रहे थे। सुनसान सड़क पर ज़ोर से आवाज़ हुई जैसे कुछ बड़ी सी चीज कहीं गिरी हो। पापा ने कार रोकी देखने के लिए। लेकिन रोड खाली। कहीं किसी जीव जंतु का नामोनिशान नहीं। ऑस्टिन स्टार्ट करी लेकिन कार आगे नहीं बढ़े। उतरकर देखा तो ड्राइवर साइड का जो बाहर निकला हुआ टायर का कवर था वो अंदर धंसा हुआ था। लोहे की बॉडी वाली ऑस्टिन के साथ क्या हुआ था ये एक सस्पेंस अभी भी बरकरार है। जब ये ठीक हो रही थी तो मेकैनिक भी परेशान की ये हुआ कैसे। उनका ये मानना था कि ज़रूर किसी खंबे से टकरा गई होगी।

आजकल की गाड़ियों के बॉंनेट खोलें तो समझ में नहीं आता कहाँ क्या है। अगर गाड़ी कहीं खड़ी हो जाये तो आपके पास हेल्पलाइन को फोन करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं बचता। लेकिन ऑस्टिन के इंजन जैसा बिल्कुल सिंपल सा इंजन मैंने आजतक नहीं देखा। गाड़ी कहीं खड़ी हो जाये तो आप कोशिश कर सुधारकर आगे चल सकते हैं।

ऑस्टिन में अनुज की बिदाई

ऑस्टिन के साथ बहुत सारी यादें हैं। बहुत ही मज़ेदार भी। जैसे जब हम कहीं से लौट रहे थे तो स्टेयरिंग जाम हो गया। गाड़ी मोड़ रहे थे उल्टे हाथ की तरफ लेकिन गाड़ी सीधे चली जा रही थी। या जब हमारी गाड़ी के बगल से किसी गाड़ी का एक टायर निकला। सब बोले अरे देखो ये क्या है। वो तो जब ऑस्टिन का पिछला हिस्सा तिरछा हुआ तो समझ में आया कि ये तो अपनी कार का टायर निकल गया है।

आखरी बार ऑस्टिन चलाने की याद है जब छोटे भाई की शादी की बिदाई हुई। दोनों भाई अपनी पत्नी के साथ ऑस्टिन का आनद ले रहे थे कि पेट्रोल खत्म हो गए। शेरवानी पहने दूल्हे राजा गए थे पेट्रोल लाने। लोगों ने बहुत दिए लेकिन ऑस्टिन ने कभी धोका नहीं दिया।

आज भी जब कभी गाड़ी चलाते हैं तो काली कार की याद आ ही जाती है।