ये कहाँ आ गये हम यूँ ही साथ साथ चलते

A train at a bustling railway station at night, capturing urban transportation.

रेल यात्रा के दौरान पढ़ने की आदत पता नहीं कबसे शुरू हुई, लेक़िन आज भी जारी है। पहले जब ऐसी किसी यात्रा पर निकलते तो घर से कुछ भी पढ़ने के लिये नहीं लेते थे। स्टेशन पहुँचने के बाद सीधे किताब की दुकान पर औऱ वहाँ से एक दो नई मैग्ज़ीन खरीद लेते औऱ उनके सहारे सफ़र कट जाता। कभी कभार अख़बार भी खरीद लेते। अगर रविवार की यात्रा रहती तो बस यही प्रयास होता की स्टेशन पर उस दिन के कुछ अख़बार मिल जायें। रेल की यात्रा औऱ उसके बाद घर पर भी पढ़ना हो जाता। रविवार को अखबारों में वैसे भी कुछ ज़्यादा ही पढ़ने की सामग्री रहती है।

जबसे रेल से यात्रा शुरू करी है, कुछ स्टेशन जहाँ।पर ज़्यादा आना जाना होता है, वहाँ पर तो पता रहता है किताब कहाँ मिलेगी। कई बार अग़र ट्रेन का प्लेटफार्म किताब की दुकान के प्लेटफार्म से अलग होता है तो पहले किताब खरीदते उसके बाद ट्रेन वाले प्लेटफार्म पर। बीच यात्रा में अगर कहीं ट्रेन ज़्यादा देर के लिये रुकने वाली हो तो वहाँ भी किताब की दुकान देख लेते। कई स्टेशन पर तो चलती फ़िरती किताब की दुकान होती तो इधर उधर भागने से बच जाते। कई स्टेशन पर हर प्लेटफार्म पर ये सुविधा रहती।

बसों में यात्रा कम ही हुई हैं। लेक़िन जितनी भी बस यात्रा हुई हैं उसमें पढ़ने का काम थोड़ा मुश्किल भी लगा। हाँ बस स्टैंड पर भी कभी किसी को छोड़ने जाते तो वहाँ भी क़िताब की दुकान ज़रूर देख आते। बस स्टैंड पर खानेपीने की दुकाने ज़्यादा होती थीं औऱ किताबों की केवल एक।

जब हवाई यात्रा का शुभारंभ हुआ तो बहुत सी नई बातें हुईं इस पढ़ने पढ़ाने के मामले में। हर हवाईअड्डे पर आपको अख़बार रखे मिल जायेंगे। आप अपनी पसंद का उठा लें औऱ अपनी यात्रा के पहले, दौरान औऱ बाद में इसको पढ़ते रहें। इसके अलावा आपको उड़नखटोले में भी एक मैग्ज़ीन मिल जाती है पढ़ने के लिये। ये सभी पढ़ने की सामग्री बिल्कुल मुफ़्त।

A quaint outdoor bookstall on the streets of Amman offers a variety of books in an urban setting.

लगभग सभी बड़े हवाईअड्डे पर एकाध बड़ी सी किताबों की दुकान भी रहती। वहाँ से भी आप कोई नॉवेल या मैग्ज़ीन ख़रीद सकते हैं। अब अगर कभी हवाई यात्रा करना होता है तो पढ़ने की सामग्री की कोई ख़ास चिंता नहीं रहती। कई राजधानी ट्रैन में भी मुफ़्त में अख़बार मिलते हैं।

कोविड के चलते एक लंबे अरसे के बाद ट्रेन से यात्रा का प्रोग्राम बना। चूँकि मुझे मुम्बई छत्रपति शिवाजी महाराज स्टेशन की जानकारी है तो मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा था जब एक बार फ़िर किताबों से मिलना होगा। स्टेशन समय से पहले पहुँचे तो क़दम दुकान की तरफ़ चल पड़े। मग़र ये क्या। उस जगह पर तो खानेपीने की नई दुकान खुल गई थी। आसपास देखा शायद दुकान कहीं औऱ खुल गई हो। लेक़िन क़िताबों की दुकान का कोई अता पता नहीं था।

जब आख़री बार इस स्टेशन से यात्रा करी थी तब यहीं से क़िताब, अख़बार ख़रीदे थे। ये कब हुआ था ये भी याद नहीं। कोविड के कारण लोगों का पढ़ना अब मोबाइल पर बढ़ गया था औऱ मैं ये बात सभी को बताता था। मुझे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था कि इस बदली हुई आदत का खामियाज़ा इन किताबों की दुकानों को चुकाना पड़ेगा।

बाक़ी यात्रियों की तरह मुझे सफ़र के दौरान भी मोबाइल में ही व्यस्त रहना अच्छा नहीं लगता। हाँ अगर कुछ लिखने का काम करना हो तो मोबाइल देख लेते हैं। लेक़िन अब तो लोग मोबाइल/टेबलेट पर फ़िल्में डाऊनलोड करके रखते हैं ताक़ि सफ़र के दौरान उनके मनोरंजन में कोई रुकावट पैदा न हो।

अब कुछ दिनों बाद फ़िर से एक रेल यात्रा का प्रोग्राम बना है। इस बार फ़िर इन्तज़ार रहेगा क़िताबों से मुलाक़ात का।

आंखों में चलते फ़िरते रोज़ मिले पिया बावरे

किताबों का अपना एक जादू होता है। ये लेखक की ख़ूबी ही रहती है की वो शब्दों का ऐसा ताना बाना बुनते हैं की आप बस पन्ने पलटते रह जाते हैं किरदारों की दुनिया में खोये हुये। आपने ऐसी कई किताबें ज़रूर पढ़ी होंगी जिनकी कहानी, क़िरदार आप पर गहरी छाप छोड़ते हैं।

मेरी शुरुआती किताबें अंग्रेज़ी की रहीं। जब थोड़े बड़े हुये तो हिंदी साहित्य की समझ आना शुरू हुआ। दादाजी कर्नल रंजीत की किताबें पढ़ा करते थे। नाम इसलिये याद है क्योंकि उन्हीं के साथ लाइब्रेरी जाना होता और वो क़िताब बदल कर लाते। हमें इसके लिये एक टॉफ़ी मिला करती थी। मुझे याद नहीं मैंने कर्नल रंजीत पढ़ी हो और आज जब लिख रहा हूँ तो उन किताबों के कवर याद आ रहे हैं।

हिंदी के महान लेखक स्कूल में पढ़ाये जाते थे। लेक़िन वो बहुत ही अजीब सी पढाई होती थी। मतलब लेखक की जीवनी याद करो औऱ उनकी कुछ प्रमुख कृतियों के नाम याद करो। किसी भी विषय को पढ़ाने का एक तरीक़ा होता है। जब आप साहित्य या किसी कहानी पढ़ रहे हों तो उसको भी ऐसे ही पढ़ना जैसे किसी समाचार को पढ़ रहे हों तो ये तो लेखक के साथ ज़्यादती है।

उदाहरण के लिये आप मजरूह सुल्तानपुरी साहब का लिखा हुआ माई री और इस पीढ़ी के बादशाह का तेरी मम्मी की जय दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है। अब जिन्होनें पहले वाले को नहीं सुना हो और दूसरे को ही सुना हो तो उनको फ़र्क़ समझ नहीं आयेगा। लेक़िन जो दोनों को जानते हैं उन्हें शायद मजरूह के शब्दों की गहराई समझ आयेगी।

स्कूली दिनों में हिंदी साहित्य की ये गहराई तो समझने का अवसर भी नहीं मिला और न ऐसे शिक्षक जो अपने इस ज्ञान को साझा करने के इछुक हों। अभी भी बहुत ज़्यादा समझ नहीं आयी लेक़िन कोई कभी क़िताब बता देता है या ज़्यादा मेहरबान रहा तो किताब ही दे देता है। तो बस ऐसे ही पढ़ते रहते हैं।

मेरा पास बहुत दिनों तक अमृता प्रीतम जी की रसीदी टिकट रखी थी जो मेरी मित्र ने मुझे दी थी। एक दिन ऐसे ही उठा कर पढ़नी शुरू करदी। उसके बाद उनकी और किताबें पढ़ने की इच्छा हुई। लेक़िन बात कुछ आगे बढ़ी नहीं। ऐसे ही प्रेमचंद जी की आप बीती भी इस लिस्ट में शामिल है। जितनी सरल भाषा में और जितनी गहरी बात वो कह जाते हैं वैसे कम ही लोग लिख पाते हैं।

शायद ये भाषा की सरलता ही है जो किसी लेखक और पाठक के बीच की दूरी कम कर देती हैं। मैंने ऐसी क्लिष्ट हिंदी अभी तक नहीं पढ़ी है। हाँ ऐसी किताबें ज़रूर पढ़ी हैं जो लगता है किसी प्रयोग के इरादे से लिखी गयी हों। कुछ समझ में आती हैं कुछ बाउंसर।

अंग्रेज़ी में मैंने अरुंधति रॉय की बुकर पुरस्कार से सम्मानित \’गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स\’ को मैं कई प्रयासों के बाद भी नहीं पढ़ पाया। किताब पढ़ना मानो माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने जैसा था। हारकर क़िताब को उसकी जगह रख दी औऱ तबसे वो वहीं शोभा बढ़ा रही है।

लेखक शब्दों के जादूगर होते हैं इसका एक और उदाहरण पढ़ने को मिला उषा प्रियंवदा जी की लिखी \’पचपन खंबे लाल दीवारें\’ में पढ़ने को मिलता है। जब वो लिखती हैं कि सर्दी की धूप परदों से छनकर आ रही थी तो आप सचमुच सुषमा और नील को कमरे में बैठे हुये देख सकते हैं औऱ धूप उनके बदन को छू रही है।

कई बार ये किताबों की बनाई दुनिया असल दुनिया से अपनी कमियों के बावजूद, कहीं बेहतर लगती है। उसके पात्र जाने पहचाने से लगते हैं – जैसे हैरी पॉटर। क़माल के होते हैं ये लेखक।

भाई तुम ये फ़िल्म देखोगे या नहीं!

आज वैसे तो मन था एक और मीडिया से जुड़ी पोस्ट लिखने का लेक़िन कुछ और लिखने का मन हो रहा था। तो मीडिया की अंतिम किश्त कुछ अंतराल के बाद।

फ़िर क्या लिखा जाये? ये सवाल भटकाता ही है क्योंकि लिखने को बहुत कुछ है मगर किस विषय पर लिखें हम? ये सिलसिला वाला डायलॉग अमिताभ बच्चन की आवाज़ में कुछ और ही लगता है और साथ में रेखा। फिल्मी इतिहास में इससे ज़्यादा रोमांटिक जोड़ी मेरे लिये कोई नहीं है।

वैसे ही जब किताबों की बात आती है तो धर्मवीर भारती जी की \’गुनाहों का देवता\’ एक अलग ही लेवल की किताब है। देश में इतनी उथलपुथल मची हुई है और मैं इस किताब की चर्चा क्यों कर रहा हूँ? अब देखिए देश और दुनिया की हालत तो आप तक पहुँच ही रही होगी। तो मैं काहे की लिये उसपर आपका और अपना समय गावउँ। वैसे भी दिनभर समाचार का ओवरडोज़ हो जाता है तो शाम को इससे परहेज़ कर लेता हूँ।

खबरें पता रहती हैं लेक़िन उसके आगे कुछ नहीं करता। तो वापस आते हैं क़िताब पर। किसी देवी या सज्जन ने ये क़िताब पहली बार पढ़ी और उन्हें कुछ खास अच्छी नहीं लगी। ये बात उन्होंने सोशल मीडिया पर शेयर भी कर दी। बस फ़िर क्या था, दोनों तरफ़ के महारथी टूट पड़े। कुछ ने क़िताब को अब तक की सबसे बेहतरीन रोमांटिक और ट्रैजिक किताब बताया तो कुछ लोगों ने भी यही बोला की उनको किताब कुछ खास नहीं लगी और ये भी समझ नहीं आया कि क्यों लोग इसके दीवाने हैं।

कुछ पाठकों का कहना था कि कोई भी क़िताब उम्र के अलग अलग समय पर अलग अलग प्रभाव छोड़ती है। मसलन गुनाहों का देवता आपकी जवानी में आपको बहुत।प्रभावित करेगी क्योंकि उम्र का वो दौर ही ऐसा होता है। लेक़िन वही किताब आप जब 30-35 के होते हैं तब न तो वो इतनी ख़ास लगती है और उसमें कही बातें भी हास्यास्पद लगती हैं।

ये बात है तो बिल्कुल सही। लेक़िन तब भी मैं इससे इतेफाक नहीं रखता। इसका कारण भी बड़ा ही सादा है – जैसे आप किसी रिश्ते को उसके शुरुआती दौर में अलग तरह से देखते हैं और कुछ समय के बाद आपका नज़रिया बदल जाता है। वैसे ही किताब के साथ है। आपने उसको प्रथम बार जब पढ़ा था तब आपकी मानसिक स्थिति क्या थी और आज क्या है। दोनों में बहुत फ़र्क़ भी होगा। समय और अनुभव के चलते आप कहानी, क़िरदार और जो उनके बीच चल रहा है उसको अलग नज़रिये से देखते, समझते और अनुभव करते हैं।

मेरे साथ अक्सर ये होता है की पहली बार अगर कोई क़िताब पढ़ी या फ़िल्म देखी तो उसमें बहुत कुछ और देखता रहता हूँ। लेक़िन दोबारा देखता हूँ तब ज़्यादा अच्छे से फ़िल्म समझ में भी आती है और पहले वाली राय या तो और पुख़्ता होती है या उसमें एक नया दृष्टिकोण आ जाता है।

हालिया देखी फिल्मों में से नीरज पांडे जी की अय्यारी इसी श्रेणी में आती है। जब पहली बार देखा तो बहुत सी चीज़ें बाउंसर चली गईं। लेक़िन इस बीच जिस घटना से संबंधित ये फ़िल्म थी उसके बारे में कुछ पढ़ने को मिला और उसके बाद फ़िल्म दोबारा देखी तो लगा क्या बढ़िया फ़िल्म है। वैसे फ़िल्म फ्लॉप हुई थी क्योंकि कोई भी दो बार क्यों इस फ़िल्म को सिनेमाहॉल में देखेगा जब पहली बार ही उसे अच्छी नींद आयी हो।

किताबों में हालिया तो नहीं लेक़िन अरुंधति रॉय की \’गॉड ऑफ स्माल थिंग्स\’ एकमात्र ऐसी किताब रही है जिसको मैं कई बार कोशिश करने के बाद भी 4-5 पेज से आगे बढ़ ही नहीं पाया। शायद वो मुझे जन्मदिन पर तोहफ़ा मिली थी। फ़िर किसी स्कॉलर दोस्त को भेंट करदी थी पूरा बैकग्राउंड बता कर क्योंकि दुनिया बहुत छोटी है और इसलिये भी की दीवाली पर सोनपापड़ी वाला हाल इस किताब का भी न हो।

बहरहाल ऐसा हुआ नहीं। लेक़िन ऐसी किताबों की संख्या दोनो हाँथ की उंगलियों से भी कम होंगी ये सच है। वहीं कुछ ऐसी किताबें, फिल्में भी हैं जिनको उम्र छू भी नहीं पाई है। जब बात फ़िल्मों की हो रही है तो एक बात कबुल करनी है – मैंने आजतक मुग़ल-ए-आज़म और दीवार नहीं देखी हैं। दोनो ही फिल्मों के गाने औऱ डायलॉग पता हैं लेक़िन फ़िल्म शुरू से लेकर अंत तक कभी नहीं देखी।

जब भी मौक़ा मिला तो कुछ न कुछ वजह से रह जाता। उसके बाद मैंने प्रयास करना भी छोड़ दिया और धीरे धीरे जो थोड़ी बहुत रुचि थी वो भी जाती रही। अब मुग़ल-ए-आज़म रंगीन हो गई है तो देखने का और मन नहीं करता। मधुबाला जी ब्लैक एंड व्हाइट में कुछ अलग ही खूबसूरत लगती थीं।

तो बात किताब से शुरू हुई थी और फ़िल्म तक आ गयी। जिस तरह मेरे और कई और लोगों का मानना है गुनाहों का देवता एक एवरग्रीन किताब है और अगर किसी को पसंद नहीं आयी तो…

वैसे ही क्या मुग़ल-ए-आज़म या दीवार न देखना क्या गुनाहों की लिस्ट में जोड़ देना चाहिये? या कुछ ले देके मामला सुलझाया जा सकता है? दोनों ही फिल्में निश्चित रूप से क्लासिक होंगी लेक़िन मुझे उनके बारे में नहीं पता। हाँ मैंने कुछ और क्लासिक फ़िल्में देखी हैं जैसे दबंग 3, जब हैरी मेट सेजल और ठग्स ऑफ हिन्दुतान को भी रख लीजिये (इतना संजीदा रहने की कोई ज़रूरत नहीं है)। मुस्कुराइये की आधा साल खत्म होने को है!

क्या ऐसी कोई फ़िल्म या किताब है जिसके लोग क़सीदे पढ़ते हों लेकिन आपको कुछ खास नहीं लगी या आपने वो पढ़ी ही नही? या कोई फ़िल्म जिसे आपने देखने की कोशिश भी नहीं करी? कमेंट कर आप बता सकते हैं और मुझे कंपनी दे सकते हैं।

हर साँस में कहानी है, हर साँस में अफ़साना है

हर शहर की अपनी खासियत होती है। मुम्बई में इसकी भरमार है। आज भले ही मुम्बई अलग कारणों से समाचार में छाया हुआ है, लेक़िन इस मायानगरी में कई सारी खूबियां भी हैं और जो भी यहाँ आया है या तो मुम्बई उसके दिल में बस गयी है या ये शहर उसको रास नहीं आया।

जब मैं पहली बार 1996 में आया था तब मुझे शहर के बारे में ज़्यादा पता नहीं चला क्योंकि मैं एक परीक्षा देने आया था और ज़्यादा घूमना नहीं हो पाया। लेक़िन जब पीटीआई दिल्ली से यहाँ भेजा गया तो इसको जानने का सिलसिला शुरू हुआ जो आज भी जारी है।

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के, काँटों पे चलके मिलेंगे साये बहार के

इसी क्रम में मेरा परिचय हुआ फुटपाथ लाइब्रेरी से। हमारा ऑफिस फ़्लोरा फाउंटेन में था और नज़दीक ही कम से कम तीन ऐसी लाइब्रेरी थीं। मुझे पहले इसकी उपयोगिता समझ में नहीं आयी। लेकिन लोकल ट्रैन से सफ़र करने के बाद समझ में आ गया। मात्र 10 रुपये में कोई भी किताब आपको एक महीने के लिये मिलती है। एक महीने का समय काफ़ी होता है। ऑफिस में कई और लोगों ने भी इस लाइब्रेरी को जॉइन किया था तो आपस में किताबों की अदला बदली भी होती। मैंने इस लाइब्रेरी से बहुत सी किताबें पढ़ी।

भोपाल में ऐसी लाइब्रेरी से परिचय हुआ था जब दादाजी के साथ पास के मार्किट जाते थे। वो वहाँ से अपनी कोई किताब लेते और हमें टॉफी खाने को मिलती। बाद में लाइब्रेरी जो भी मिली वो बड़ी ही व्यवस्थित हुआ करती थीं। ब्रिटिश कॉउंसिल लाइब्रेरी में जाने का अलग ही आनंद था। पूरी लाइब्रेरी एयर कंडिशन्ड और अच्छी बैठने की सुविधा भी।

ज़िन्दगी फ़िर भी यहाँ खूबसूरत है

आज मुझे मुम्बई की फुटपाथ वाली लाइब्रेरी की याद राजेश जी की फ़ोटो देख कर आई। राजेश मुम्बई के अंधेरी, मरोल इलाके में अपनी ये लाइब्रेरी चलाते हैं। मुंबई में रहने वाले और लोकल से सफ़र करने वाले ज़्यादातर लोगों ने कभी न कभी राजेश जी की जैसी लाइब्रेरी का आनंद लिया होगा। ये मोबाइल के पहले की बात है। अब तो सब मोबाइल हाथ में लिये वीडियो देखते।ही नज़र आते हैं।

राजेश जी ये लाइब्रेरी चलाने के लिये तो बधाई के पात्र हैं ही, उनका ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया भी बहुत ही सुंदर है। आज जब सब अपने ही बारे में सोचते रहते हैं, तो राजेश जी की बातें सुनकर लगता है हमें अभी और बहुत कुछ सीखना बाकी है।

जब उनसे पूछा गया वो कितना कमा लेते हैं तो राजेश ने कहा, \”लोग पैसा कमाते हैं ताकि वो उस पर ख़र्च कर सकें जो उनकी खरीदने की इच्छा है।\” किताबों की तरफ़ इशारा करते हुये उन्होंने कहा, \”मुझे जो चाहिये था मैं उससे घिरा हुआ हूँ।\”

लॉक डाउन के दौरान ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले जब लोगों ने सामान होने के बाद भी जमाखोरी करी। ऐसे में बैटर इंडिया वेबसाइट ने जब उनकी कोई मदद करने की पेशकश हुई तो राजेश ने कहा, \”बड़ी संख्या में मज़दूर मर रहे हैं। उनकी मदद करिये। मेरा पास खाने को है और मैं घर पर आराम से हूँ।\”

फ़ोटो: द बैटर इंडिया

आज फ़िर दिल ने एक तमन्ना की, आज फ़िर दिल को हमने समझाया

अभी पिछले दिनों टुकड़ों में फ़िर से क़यामत से क़यामत तक देखना शुरू किया है। ये फ़िल्म बहुत से कारणों से दिल के बहुत करीब है। लेकिन ये पोस्ट उस बारे में नहीं हैं।

फ़िल्म में जूही चावला का एक डायलॉग है जो की ग़ज़ब का है दिन गाने के ठीक बाद है। आमिर खान जहाँ जंगल से बाहर निकलने पर बेहद खुश हैं वहीं जूही चावला थोड़ा दुखी हैं। जूही कहती हैं जब वो माउंट आबू आयीं थीं तो उन्हें नहीं पता था उनकी मुलाक़ात आमिर से होगी और उनकी दुनिया ही बदल जायेगी। ये फ़िल्म का आप कह सकते हैं टर्निंग प्वाइंट है जब दोनों क़िरदार अपने प्यार का इज़हार करते हैं और कहानी आगे बढ़ती है।

बिल्कुल वैसे ही हमारी दुनिया बदल जाती है जब हम कोई किताब उठाते हैं। उससे पहले हमें उसके बारे में कुछ भी पता नहीं होता। लेकिन जैसे आप पन्ने पलटते जाते हैं आप एक नई दुनिया में खोते जाते हैं। और ये शब्दों के जादूगर ही हैं जो अपने इस जाल में फँसा कर उस क़िरदार को हमारे सामने ला खड़ा करते हैं।

पढ़ने के शौक़ के बारे में पहले भी कई बार लिखा है। लेकिन आज विश्व पुस्तक दिवस पर एक बार और किताबों की दुनिया। जैसा अमूमन किसी दिवस पर होता है, लोगों ने अपनी पाँच पसंदीदा किताबें लिखी। वो लिस्ट बड़ी रोचक लगती है क्योंकि वो आपको उस इंसान के बारे में थोड़ा बहुत बता ही जाती है। लेक़िन मैं अपनी ऐसी कोई लिस्ट नहीं बताने वाला हूँ।

आप किताबें कैसे पढ़ना पसंद करते हैं? मतलब हार्डकॉपी, ईबुक या अब जो चल रहीं है – ऑडियो बुक। मैंने ये तीनों ही फॉरमेट में किताबें पढ़ी/सुनी हैं और पहला तरीका अब भी सबसे पसंदीदा है। तीनों के अपने फ़ायदे नुकसान हैं। नुकसान का इस्तेमाल शायद यहाँ ग़लत है। जैसे हार्डकॉपी लेकर चलना आसान नहीं है अगर आप दो-तीन किताबें साथ लेकर चलते हैं तो। अगर वो दुबली पतली हैं तो कोई कष्ट नहीं लेक़िन अगर वो खाते पीते घर की हों तो थोड़ी समस्या हो सकती है।

ऐसे समय ईबुक सबसे अच्छी लगती है। अगर आप किंडल का इस्तेमाल करते हों तो आप अपनी पूरी लाइब्रेरी लेकर दुनिया घूम सकते हैं। और सबसे मजेदार बात ये की आप अपनी लाइब्रेरी में किताबें जोड़ सकते हैं बिना अपना बोझा बढ़ाये।

जो सबसे आख़िरी तरीका है उससे थोड़ी उलझन होती है। मुझे तो हुई थी शुरुआत में। क्योंकि किताब को सुनना एक बिल्कुल अलग अनुभव है। ठीक वैसे ही जैसे मैंने क़यामत से क़यामत तक को देखा नहीं लेक़िन सिर्फ़ सुना। अब अग़र फ़िल्म देखने के लिये बनी है तो क़िताब पढ़ने के लिये। इसलिये सुनना थोड़ा अजीब सा लगता है।

दूसरी बात जो ईबुक या ऑडियो बुक में खलती है वो है निशान लगाना जो आपको अच्छा लगा या आपको कुछ समझना है। ईबुक में ये सुविधा ज़रूर है लेक़िन शायद आदत पड़ी हुई है तो इसलिये वो पुराना तरीका अच्छा लगता है।

और क़िताब पढ़ते समय साथ में अगर एक गर्म चाय की प्याली हो तो क्या कहने। एक हाँथ से किताब संभालते हुये और दूसरे हाँथ से चाय का मग। मुझे अक्सर साथ में एक रुमाल की भी ज़रूरत पड़ जाती है क्योंकि मैं कहानी में इतना खो जाता हूँ की पढ़ते हुए आँसू निकल आते हैं। इसका अभी हिसाब नहीं है की क्या ये तीनों फॉरमेट के साथ होता है या सिर्फ़ पहले वाले के साथ।

2020 की बदौलत मुझे लगता है एक लंबा समय जायेगा जब मैं या और क़िताब प्रेमी भी हार्डकॉपी को हाँथ लगायेंगे। इसलिये अग़र अब किताब पढ़ना होगा तो सिर्फ़ ईबुक या ऑडियो बुक ही चुनी जायेगी।

लेक़िन हमेशा ऐसा लगता है अगर क़िताब को, उसके पन्नों को छूने का मौका न मिले और पन्नों से आती खुशबू न मिले तक पढ़ने जैसा लगता ही नहीं।

क्या ये साल के बदलावों की लंबी लिस्ट में किताबें भी शामिल हो गयी हैं?

चलिये शुरू करते हैं कुछ नया

दिल्ली का छूटना कई मायनों में बहुत दुखद रहा लेकिन मैं इस बात को लेकर ही खुश हो लेता हूँ कि मैंने लिखना शुरू किया। वो भी हिंदी में।

मेरा पूरा पत्रकारिता का करियर अंग्रेज़ी को समर्पित रहा है। जब भी कभी लिखने का प्रयास किया तो अंग्रेज़ी में ही किया। उसपर ये बहाना बनाना भी सीख लिया कि मेरे विचार भी अंग्रेज़ी में ही आते हैं और इसलिए उनको हिंदी में लिखना थोड़ा मुश्किल होता है।

अपने इस दकियानूसी तर्क पर कभी ज़्यादा सोचा नहीं क्यूंकि अंग्रेज़ी में ही लिखते रहे। लेकिन जब हिंदी में लिखना शुरू किया तब लगा कि मैं अपने को इस भाषा में ज़्यादा अच्छे से व्यक्त कर सकता हूँ। अटकता अभी भी हूँ और पहला शब्द दिमाग़ में अंग्रेज़ी का ही आता है। लेकिन शरीर के ऊपरी हिस्से में मौजूद चीज़ को कष्ट देते हैं तो कुछ हल मिल ही जाता है।

टीम के एक सदस्य जो भोपाल से ही आते थे, उनको अंग्रेज़ी का भूत सवार था। उनका ये मानना है कि अंग्रेज़ी जानने वालों को ही ज़्यादा तवज्जों मिलती है। हमारे देश के अधिकारीगण भी उन्हीं लोगों की सुनवाई करते हैं जो इस का ज्ञान रखते हों। मैं इससे बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखता लेकिन उनको इसका विश्वास दिला नहीं पाया।

अच्छा मेरी भी अंग्रेज़ी जिसका मुझे अच्छे होने का गुमान है, लेकिन असल में है नहीं, वो भी बहुत ख़राब थी। उसको सुधारने का और मुझे इस लायक बनाने का मैं ठीक ठाक लिख सकूँ, पूरा श्रेय जाता है तनवानी सर को। उन्होंने बहुत धैर्य के साथ मुझे इस भाषा के दावपेंच समझाये। बात फिर वहीं पर वापस। आपके शिक्षक कैसे हैं। अच्छा पढ़ाने वाले मिल जायें तो पढ़ने वाले अच्छे हो ही जाते हैं।

मैंने पहले भी इसका जिक्र किया है और आज फ़िर कर रहा हूँ। घर में पढ़ने लिखने की भरपूर सामग्री थी और इसका कैसा इस्तेमाल हो वो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। अख़बार पढ़ने की आदत धीरे धीरे बनी। शुरुआत में सब बक़वास लगता। फिर रुचि बढ़ने लगी। उनदिनों नईदुनिया के लिये मेहरुनिस्सा परवेज़ साहिबा लिखती थीं और मुझे उनके कॉलम पढ़ने में काफी आनन्द आता। उनसे तो नहीं लेकिन उनके आईएएस पति से कई बार मिलना हुआ। कई बार सोचा कि एक बार उनके बारे में भी पूछलूँ लेकिन संकोच कर गया।

इंटरव्यू के लिये कई बार ऐसे ऐसे नमूने मिले जो सपना पत्रकार बनने का रखते हैं लेकिन अख़बार पढ़ने से तौबा है। लेकिन दिल्ली में कई पढ़ने के शौक़ीन युवा साथी मिले। इनसे मिल के इसलिये अच्छा लगता है क्योंकि वो मुझसे कुछ ज़्यादा जानते हैं। जैसे आदित्य काफी शायरों को पढ़ चुके हैं और मैं उनसे पूछ लेता हूँ इनदिनों कौन अच्छा लिख रहा है। इतनी बडी इंटरनेट क्रांति के बावज़ूद बहुत से लेखकों से हमारा परिचय नहीं हो पाता। जो चल गया बस उसके पीछे सब चल देते हैं। इसके लिये हम सब को ये प्रयास करना चाहिये कि अगर कुछ अच्छा पढ़ने को मिले तो उसको अपने जान पहचान वालों के साथ साझा करें। तो अब आप कमेंट कर बतायें अपनी प्रिय तीन किताबें, उनके लेखक और क्या खास है उसमें।

चन्दर, सुधा और गुनाहों का देवता

मोहब्बत का खयाल ही अपने आप में बहुत रोमांचित महसूस कराता है। अपने आसपास बहुत से लोगों को इस एहसास से गुज़रते हुए देखा और आज भी देख ही रहा हूँ। पर वैसी मोहब्बत कम ही देखने को मिली जैसी सुधा और चन्दर की थी। ये दो नाम भले ही एक कहनी के पात्र हों लेकिन मैंने इन्हें देखा है बहुत करीब से। कई बार तो लगता है मैं ही चन्दर हूँ लेकिन मेरी सुधा बदलती रही।

बचपन से घर में किताबों से भरी अलमारी अपने आसपास देखी हैं और उन्हें पढ़ा भी। घर का माहौल ऐसा था कि कोई न कोई मैगज़ीन आती रहती थी। अच्छी आदत ये पड़ गयी कि पढ़ने पर कोई रोक टोक नहीं थी। सभी लोग इसमे शामिल थे। मेरी इस आदत का पूरा श्रेय पिताजी को जाता है। किताबों के लिए कभी मना नहीं किया। हाँ ये ज़रूर है कि मैंने इतने मनसे कभी अपनी पढ़ाई की किताबों को भी नहीं पढ़ा जितना घर में फैली हुई इन किताबों को।

लोग कितना पढ़ने में तल्लीन रहते थे इसका भी एक किस्सा है। घर की सदस्य एक नॉवेल पढ़ने में मगन थीं कि अचानक कोई मेहमान आ गया। अब जैसा उन दिनों का चलन था उनसे बोला कि आप अंदर बैठकर पढलें कोई आया हुआ है। उन्होंने कान से ये बात सुनी और किताब पढ़ते हुए ही चलना शुरू कर दिया और धम्म से मेहमान के बगल में जा बैठीं। वो तो थोड़ी ऊंची आवाज़ उनके कानों में पड़ी तब उन्हें एहसास हुआ कि कुछ गलती हो गयी है।

किताबें आपको अपनी एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। ऐसी ही एक किताब मुझे पढ़ने को मिली याद नहीं कब लेकिन छोड़ गई एक अमिट छाप। धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता। बहुत ही अद्भुत किताब है बावजूद इसके की पढ़के आपके आंसू बहने लगते हैं और कुछ दिनों तक आप पर इसका प्रभाव रहता है। लेकिन साथ रह जातें हैं इसके किरदार।

इस किताब के प्रति मेरा इतना प्यार शायद फ़ोन वाली घटना से प्रेरित होगा। लेकिन इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि एक मुलाकात से इसका फैसला करना कि आप एक दूसरे के लिये बने हैं थोड़ा मुश्किल लगता है। कॉलेज के दौरान कई दोस्तों को इस पचड़े में पड़ते देखा। लेकिन थोड़े दिन बाद पता चलता कि अब दोनों की ज़िंदगी में कोई और है। कुछ इसका अपवाद रहे और वो शादी के बंधन में बंध भी गए।

ऐसी ही एक कहानी थी एक मित्र जो अपने सबसे करीबी दोस्त के परिवार की सदस्य को अपना दिल दे बैठे। मुश्किल ये थी कि इज़हारे मोहब्बत करते तो दोस्ती टूटने का खतरा और उससे भी बड़ी समस्या ये की सामने वाला आपके बारे में क्या खयाल रखता है इसका कोई अतापता नहीं। उन्होंने दोस्ती के लिये प्यार कुर्बान कर दिया। लेकिन उनके टूटे हुए दिल की दास्तां मैंने कई शाम सुनी। कई बार सुना कि कैसे किसकी मुस्कुराहट का जादू होता है और कैसे कोई आंखों से छलकते हुये प्यार को नहीं देख पाता। कई बार लगा कि मैं ही यह बात बता दूँ। लेकिन उन्होंने रोक लिया औऱ बात हम दोनों के बीच ही रह गयी।

जब काम करना शुरू किया तो आफिस में ये किस्से काफी आम हो चुके थे। और सभी एक उम्र के थे तो इसलिए कुछ अटपटा भी नहीं लगता था। सबके किस्से सुनते सुनते एक दिन कानों तक बात पहुँची कोई और सुधा तुम्हे पसंद करती है।
क्या इस कहानी का अंत भी दुखद होगा या चन्दर को सुधा सदा के लिए मिल जायेगी ?