Corona Lessons: Always Stay Positive

When rising covid cases in India was hogging all the news space, I had no clue I too would be part of the data. When it happened I had no clue what was in store for me. But after spending 17-days in the hospital, including a week in the ICU, a lot has changed. These are my life lessons.


Share: Your society WhatsApp group, yes the same where people get into lot of useless debates, will be most beneficial. Post your queries and someone will help you. I was in a very difficult situation after 3 family members tested positive as PMC smarties had sealed society. It was another covid +ive who came to my rescue and took me to hospital. Remember बात करने से बात बनती है। So pick up the phone and talk. The disease is such even when people want to help, they cannot. But they have connection oops network. So share with your friends as well.


Lessons: It just might be your lucky day. Mine certainly was (only difference it was night ). Got oxygen bed in a hospital close by. I was hopeful I would be out in couple of days but that was not to be. Learnt many lessons inside the hospital and here they come.


Stay positive: Whatever happens around you, stay focused on your recovery. Follow every single word your doctor says. They know the best. Whatever gyan you may have acquired from whatsapp univ or any such place, just delete it.

Fringe benefit: I had no visitors during my entire stay but I benefited hugely from visitors my ICU bed neighbor had. His two sons would share such positive messages with their father on life support that it rubbed on me. Would I be typing this in their absence? YES. Because I was good kid there. Followed all the instructions to T. Which reminds me of the tea served. It was awesome. Next is food. Day 1 in a shared ward, I did not polish off the dinner served. The senior citizen next to me said very simply – eat properly or you will become weak and recovery will take time.

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Eat right: After that, not one meal was seen as what is this. Whatever was served was enjoyed and sometimes asked for a second helping as well (mostly daal). Huge credit to my lovely dear Maa. She made us eat whatever was served. That habit helped me get strength. In addition to hospital food, I had very few other things to eat (except some dryfruits by my amazing family friend ). I also had amazing hospital staff who fed me while I was in the ICU. As a vegetarian every morning I would say no to eggs. One attendant saw this. While feeding dinner, she said eat eggs till you are here and once out take a dip in any of the river and भगवान से माफ़ी माँग लेना। With support like this yeh dil nahin maange kuch aur.


Stay positive: The family friend would visit hospital to get update on my condition.The hospital staff started identifying him as my relative. Isn\’t it amazing. It happens only in India. 
Half the battle is won by staying positive and other half by eating right and following instructions and just listening to right things like pep talks to my neighbor. So were there no dark nights or bad days?

Blinkers: Well there were plenty, specially in ICU, but put on your blinkers and focus on your recovery. That\’s all that matters. Since I also had mobile with me, the family decided to censor all the unfortunate news on family whatsapp groups. I also stopped checking Twitter after situation became very bad outside. Fortunately I had couple of books downloaded but in Kindle cold storage. So brought them to life and read them. Huge thank you to Manish Misra for the recommendation. Better late than never.

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Friends indeed: I am forever indebted to Suvasit Sinha who coordinated with a week-old first time father Naeem Shaikh to get my medicines. I cannot describe emotions when I saw Naeem from my bed. He was first and last familiar face I will see for next fortnight. Family n friends came together.

Go back to roots: Pranayam is best. Do the basics regularly. YouTube is flooded. Pick who you like and practice. Same for meditation. Couple of days off oxygen support I was to take a 6 min walk test (hope all know about it now). My levels dropped and so did my hopes of early discharge from hospital.But I started taking 5 min walk 3-4 times a day and it helped when I finally cleared the test and allowed to go home. Start small. 15 mins of pranayam and meditation. Plus some walk. Do what works but Just Do It (No Nike money). 

One day: Take one day at a time. Don\’t worry about when will you go home. As the son told my ICU neighbor, you are here for treatment not to stay here. So just focus on getting better.

Thank you all the amazing doctors, sisters, brothers, support staff, cook who fed us nutritious meals every single day. We as a society may never be able to repay what you have done to save so many lives in various parts of the country. Gratitude forever.

To sum up my learnings:

Stay positive
Don\’t panic
Eat proper
Read positive books
Watch hobby videos

अपने पास क्या, अरमां के सिवा

कोरोनकाल औऱ अस्पताल की बातें तो अब ख़त्म हो गयी हैं लेक़िन एक बात साझा करना रह गई।

जब घर से अप्रैल में अस्पताल में भर्ती होने के लिये चले थे तो तैयारी सब थी। मतलब साबुन से लेकर कपड़े धोने का सब सामान साथ में था। अब कोई होटल तो था नहीं की कपड़े धुलने को दे दिये औऱ आराम से बैठ गये। और कुछ पता भी नहीं था की कितने दिन का प्रवास होगा।

लेक़िन पहुँचने के अगले दिन से ऑक्सिजन मास्क लग गया औऱ उसको कभी भी न हटाने की ताक़ीद भी मिल गयी थी। वाशरूम की सवारी वाली बात आपको बता ही चुका हूँ। तो ऐसे हालात में नहाने का या कपडे धोने का सवाल ही नहीं उठता। शुरू में घर से लाये हुये कपड़ों से काम चल गया लेक़िन कुछ दिन बाद कपड़ों की ज़रूरत महसूस हुई। मगर मजबूरी का भी ऐसा आलम था कि क्या कहें। सोसाइटी सील हो चुकी थी औऱ घर पर बाक़ी सब पॉजिटिव। तो सामान आने की कोई संभावना भी नहीं थी।

इसी बीच हमारी भी ICU में एंट्री हो गयी थी और वहाँ एक राहत वाला काम भी हुआ। एक दिन सुबह सुबह स्पंज के लिये जब कोई आया तो साथ कपड़े भी लाया। लेक़िन जिस राहत को मैंने महसूस किया था वो ज़्यादा देर नहीं मिली। जो अस्पताल से कपड़े मिले वो छोटे निकले। पायजामा तो फ़िर भी ठीक ही था (मतलब किसी तरह पहन लिया गया था), वो जो शर्ट दी थी मेरे पेट की बरसों की मेहनत वाली गोलाई पर फ़िट नहीं बैठ रही थी। अस्पताल का स्टॉफ शायद खाते पीते लोगों को ध्यान में रख कर कपडे नहीं बनाते।

तो शर्ट को वापस कर अपनी टीशर्ट से काम चलाया। लेक़िन पायजामा की तकलीफ़ आखिरी दिन तक बनी रही। सुबह सुबह स्टाफ से अपने नाप का पायजामा मांगना एक रूटीन हो गया था। कभी अगर न मिले तो उससे छोटे साइज वाले से काम चलाना पड़ता। उससे जो हालात उत्पन्न होते वो यहाँ बताना मुनासिब नहीं है।

पायजामे के बाद मशक्कत वाला काम होता था उसको बाँधा कैसे जाये। हाँथ में तो कैनुला लगा होता तो ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते तो किसी तरह इस काम को धीरे धीरे अंजाम देते। ये समझ से परे है कि इलास्टिक क्यों नहीं लगाते जिससे इन सब परेशानियों से बचा जा सके।

ख़ैर अस्पताल में कोई इतना ध्यान भी नहीं देता है, लेक़िन चूँकि ज़्यादातर महिला स्टाफ होता था तो लगता था कपड़े ठीक हों। शुरुआत के दिनों में जब जनरल वार्ड में था तो एक सरदारजी एवं उनकी पत्नी भी इलाज के लिये भर्ती थे। उस दंपत्ति को लगता हॉस्पिटल से विशेष व्यवस्था के तहत कपड़े उपलब्ध हो रहे थे। दोनों हमेशा एक जैसे कपडे पहनते।

मेरा तो ये सुझाव भी था का की वो फ़्री साइज वाला पजामा रखें जिससे हृष्टपुष्ट लोगों को कोई परेशानी न हो। एक बार तो ये भी लगा की लुंगी जैसा कुछ पहन को दिया जाना चाहिये। मुझे लुंगी औऱ धोती पहनना बड़ा अच्छा लगता लेक़िन उसे संभालना नहीं आता। तो वर्षों पहले सुबह जब सोकर उठे तो ऐसा भी हुआ है की लुंगी कहीं पीछे रह गयी औऱ हम कहीं औऱ। ये दक्षिण भारत की फिल्मों में तो जिस आसानी से किरदार लुंगी पहनकर सब काम (बाइक भी चला लेते हैं), देखकर आश्चर्य ही होता है। वैसे अब संभालना आ गया है लेक़िन बाइक चलाने जैसा नहीं। पता चला बाइक पर बैठे तो सही लेकिन लुंगी हवा से बातें करने लगी और…

हँसते, मुस्कुराते रहिये औऱ अपना ध्यान रखिये।

कोरोना से सीख: जा तन लागे, वो तन जाने

अस्पताल में शुरू के चार दिन तो ठीक रहे लेक़िन जब ICU में शिफ़्ट करने के बात हुई तब लगा मामला कुछ गंभीर है। ख़ैर अब औऱ कोई चारा तो था नहीं तो अपनी जो भी हिम्मत बची हुई थी उसको सहेजकर रखा औऱ कोरोना से अपनी लड़ाई का दूसरा औऱ निर्णायक दौर शुरू किया।

अपने आसपास के मरीज़ों को कोरोना से हारते हुये देख तो नहीं रहा था लेक़िन ये पता ज़रूर चल जाता था। बाहर के ख़राब हालात की पूरी तो नहीं थोड़ी थोड़ी जानकारी थी। मोबाइल पास ज़रूर था लेक़िन उसको इस्तेमाल करना एक कष्ट वाला काम था। कभी कभार ऐसे विचार जब आये की क्या कोई ऐसा काम जो करना रह गया? वैसे तो इसकी लिस्ट बहुत लंबी बन सकती है, लेक़िन मेरी लिस्ट में सिर्फ़ एक चीज़ थी उस समय – जीवन में जो कुछ भी मिला उसके लिये धन्यवाद, उन अनगिनत लोगों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना जिन्होंने किसी भी रूप में मदद करी या कुछ सीखा कर गये।

पढ़े-लिखे मूर्ख

जब घर वापस आया तो बाहर मेरे अस्पताल में रहने के दौरान कोरोना से परिवार में क्या घटित हुआ इसके बारे में थोड़ा सा पता चला। उस समय तक स्थिति संभली तो नहीं थी लेक़िन थोड़ी बेहतर हुई थी। लेक़िन तब भी रोज़ ही सुनते किसी जान पहचान वाले ने अपने क़रीबी को खोया है। ये सिलसिला अभी भी चल रहा है लेक़िन ईश्वर की कृपा से अब ऐसी खबरें कभीकभार सुनने को मिल रही हैं।

घर में क़ैद शाम अक़्सर बालकनी से बाहर चल रही दुनिया देखकर गुज़र जाती। लेक़िन बाहर का नज़ारा देखकर दुःख भी होता और गुस्सा भी आती। लोग कोरोना जब बहुत तेज़ी से फैल रहा था तब भी ऐसे घूम रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पति पत्नी, बच्चे, नौजवान सबने जैसे सच्चाई से मुँह मोड़ लिया हो। सबसे ज़्यादा हैरानी औऱ दुःखी होने वाली बात थी कि जो भी इस कार्य में लिप्त थे वो सभी पढ़े लिखे थे। उनको कोरोना के कहर के बारे में भी निश्चित रूप से पता होगा। इसके बाद वो इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं?

चूँकि मैंने कोरोना के कहर को बहुत क़रीब से देखा था औऱ परिवार-जान पहचान वाले कई लोगों की जान कोरोना से गयी थी, तो ख़राब भी लगता। कई लोग ये कहते कोरोना जैसा कुछ नहीं है या बार बार बोलने के बाद भी मास्क नहीं पहनते, तो मन करता उनको कुछ घंटों के लिये ICU वार्ड में छोड़ दिया जाये। मुझे अभी भी समझ में नहीं आया की इतना सब होने के बाद लोग बिना किसी चिंता के बारात निकालकर शादी भी कर रहे औऱ रिश्तेदारों के कोरोना के चलते शादी में शरीक़ नहीं होने पर लड़ाई भी। अग़र पढ़ाई लिखाई के बाद भी लोगों की समझ ऐसी है तो इसका क्या फ़ायदा?

डर के आगे क्या है?

ये बात सही है कि हम डर कर नहीं रह सकते, लेक़िन हम जानबूझकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी भी तो नहीं मार सकते। जब भोपाल गैस काँड हुआ था तब बहुत छोटे थे औऱ जिन इलाकों में मिथाइल आइसोसाइनाइट ने क़हर बरपाया था वहाँ हमारे जान-पहचान वाले नहीं रहते थे। वो तो जब पत्रकारिता शुरू की औऱ उन इलाकों में गये तब पता चला लोगों ने क्या खोया। इस बार सब कुछ देखा भी, समझ भी आया। लेक़िन क्या हमने इससे जो भी सीखा है इसको याद रखेंगे?

तो आज की कोरोनकाल की सीख वाली किश्त के अंतिम भाग में सभी का धन्यवाद। किसी कार्यक्रम में अगर आप गये हों धन्यवाद ज्ञापन सबसे अंतिम काम होता है। आजकल इसको बीच में भी जगह मिल जाती है क्योंकि जिन लोगों के सहयोग से वो कार्यक्रम सम्पन्न हुआ उनके बारे में जानने की किसी को उत्सुकता नहीं रहती औऱ लोग बस बाहर निकलने की जल्दी में रहते हैं। तो मुझे अस्पताल के बिस्तर पर लेटकर यही लगता की \’बाहर\’ निकलने से पहले अग़र एक काम करना है तो जीवन के लिये धन्यवाद, उसमें जो कुछ भी मिला उसके लिये धन्यवाद ज़रूर करना चाहिये। ये एक काम अक़्सर हम टाल ही देते हैं।

ये धन्यवाद उन सभी का जो इसको पढ़ रहे हैं। शायद मैं आपको जानता हूँ, शायद हम कभी मिले हों, शायद कभी बात हुई हो या शायद अब हम सम्पर्क में न हों, शायद इसमें से कुछ भी नहीं। शायद मेरी लेखनी के ज़रिये हम जुड़े हों। आप सभी का आभार। जीवन आपके अनुभव का निचोड़ ही है तो इसमें आपके योगदान के लिये धन्यवाद।

औऱ मेरी प्रिय पम्मी। तुम्हारी लड़ाई को बहुत क़रीब से देखा है औऱ तुम्हारा वही जज़्बा अस्पताल में हिम्मत भी देता रहा। तुम्हारी अनगिनत मीठी यादों के लिये धन्यवाद। ❤️❤️❤️

कोरोना से सीख: चलते चलते यूँ ही कोई मिल गया था

आज वापस कोरोना से सीख पर क्योंकि कई बार ऐसा होता है की समय निकलते औऱ सीख भूलते देर नहीं लगती। तो इससे पहले की जो सीख हैं वो इस भीड़भाड़ में कहीं खो जायें, उन्हें संभाल कर रख दें। वैसे तो मेरा प्रयास है की ये सीख ताउम्र साथ रहें लेक़िन हूँ तो आख़िर इंसान ही।

क़दम क़दम बढ़ाये जा

तो इस सफ़र में जनरल वार्ड से ICU तक का माजरा आपको बताया है। अब बारी है स्पेशल वार्ड की जहाँ की सीख आपके साथ साझा कर रहा हूँ। बचपन से हमें ये सिखाया जाता है की किसी भी काम में महारत हासिल करनी हो तो उसकी रोज़ाना या नियमित प्रैक्टिस करो (गणित इसका अपवाद रही है मेरे लिये)। फ़िर चाहे वो संगीत हो या खेल या पढ़ाई। औऱ ये सही भी है। जैसे शुरू में जब साईकल चलाना सीखा तो ज़्यादा चलाने पर पैर दर्द होते लेक़िन फ़िर आदत हो गयी। कुछ ऐसा ही हुआ जब मॉर्निंग वॉक शुरू किया आदत तो थी नहीं तो बस दो दिन के बाद जब एक दिन आलस किया तो…!

अस्पताल में कुछ ग्यारह दिनों से ज़मीन पर चलने का काम नहीं किया था। कभी कभार बिस्तर से उठकर खड़े हो जाते जब बेडशीट बदली जाती नहीं तो जहाँ जाना होता वो भी एक ड्रिल होती। मतलब ऑक्सिजन सिलिंडर मंगाया जाता औऱ साथ में व्हीलचेयर भी। बस वही सवारी होती कहीं भी जाने के लिये। लेक़िन उसका भी उपयोग वार्ड बदलते समय या शुरुआती दिनों में वॉशरूम के लिये हुआ। चलना नहीं हुआ।

जब स्पेशल वार्ड में आये तो सबसे पहली ख़ुशी यही थी कि ICU से बाहर निकले लेक़िन आगे की राह कोई आसान नहीं थी। पहले ही दिन वहाँ के जो ब्रदर थे नाईट डयूटी पर उन्होंने बड़े प्यार से बात करी औऱ मेरे हाथ में जो सूजन आ गयी थी उसका ख़ास ध्यान भी रखा। नींद का थोड़ा सा मसला था तो काफ़ी देर तक जागता रहा औऱ उस दौरान ब्रदर औऱ उनके साथ जो नर्स थी, दोनों को सारी रात मरीजों का ख़्याल रखते देखा। वो मेरे वार्ड के सभी छह मरीजों के साथ एक और वार्ड की ज़िम्मेदारी बहुत ही अच्छे से उठा रहे थे।

ICU छोड़ने के एक दिन पहले से खाना अपने हाथ से खाने लगे थे औऱ यही सिलसिला यहाँ भी चला। हाँथ में IV कैनुला लगी हो तो थोड़ी मुश्किल ज़रूर होती लेक़िन कभी दायें से तो कभी बायें हाँथ से खा कर काम हो जाता था। अच्छा वो अस्पताल की कर्मी जिनके बारे में मैंने ज़िक्र किया था वो दो दिन से ICU में भी नहीं दिखीं औऱ नये वार्ड में भी उनका आना नहीं हुआ। लेक़िन उनसे मिलना हुआ।

चलते चलते

तो जिस वजह से मुझे ICU से निकलने का मौक़ा मिला था वो थी हालत में सुधार। अब दो दिनों में सेहत में थोड़ा औऱ सुधार हुआ था तो मुझे रात में अगर वॉशरूम जाना हो तो बिना किसी सहायक के जाने की परमिशन मिल गयी। लेक़िन ब्रदर की सख़्त हिदायत थी कि दरवाज़ा बंद न करूं। और जब वापस बेड पर आऊँ तो ऑक्सिजन लेवल चेक होता की पूरे चहलकदमी के कार्यक्रम से क्या असर पड़ा। चूँकि छोटा सा छह बिस्तर वाला वार्ड था तो इतना चलना भी नहीं होता था।

मेरे बेड से बाहर जो कॉरिडोर था वहाँ दिन में कई मरीज़ चहलकदमी करते दिखते। तीसरे दिन मैंने पूछ ही लिया कि क्या मैं भी वॉक कर सकता हूँ औऱ डयूटी पर जो डॉक्टर थीं उन्होंने कहा ठीक है आपका एक वॉक टेस्ट करते हैं। ये जो 6 minute वॉक टेस्ट आजकल चल रहा है, उस चिड़िया का नाम पहली बार उस दिन सुना था। उन्होंने कहा शाम को करते हैं औऱ मैं तैयार हो गया। अपनी वॉशरूम वाली चहलक़दमी से जो खुशफहमी पाल रखी थी शाम को उसकी ख़ुद मैंने ही धज्जियाँ उड़ा दीं। वॉक टेस्ट हुआ जिसमें मुझे कोई ख़ासी ऊपरी परेशानी नहीं तो हुई लेक़िन जब ऑक्सीजन लेवल नापा गया तो सब गड़बड़। हाँ रेखा की फ़िल्म घर का गाना आजकल पावँ ज़मी पर नहीं पड़ते मेरे ज़रूर याद आया। कमज़ोरी के चलते ये गाना आगे भी कई दिनों तक याद आया जब भी चलना होता।

डॉक्टर ने फ़िर समझाया की आपके फेफड़े (lungs) का काम अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ है औऱ चलने के बाद आपको साँस लेने में तक़लीफ़ हो सकती है। ऑक्सीजन जो अब दिन में कई बार हटा भी दी जाती थी वो वापस लगा दी गयी। उन्होंने बोला अभी आपको कुछ दिन औऱ रहना पड़ेगा। इसके बाद तो लक्ष्य यही था की इस टेस्ट में अच्छे नम्बरों से पास होना है। बस तो फ़िर मैंने उसी दिन से तीन चार बार 2 मिनिट चलना शुरू किया वार्ड के अंदर ही। अगले दिन समय 4 मिनिट का औऱ उसके बाद 5 मिनिट। इसके साथ मैंने बिस्तर पर बैठे बैठे थोड़ा थोड़ा प्राणायाम भी शुरू किया।

ऊपर जो नियमित प्रैक्टिस वाली बात को समझने के लिये थोड़ा पीछे चलते हैं। आपको मैंने हमारे पास जो काली कार थी उसके बारे में बताया था। अगर आपने नहीं पढ़ा है तो आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं (काली कार की रंगीन यादें) औऱ रोड पर उसकी शान की सवारी आप यहाँ देख सकते हैं। तो ऑस्टिन नियमित चलती नहीं थी लेक़िन पापा हर थोड़े दिन में कार को गैराज से निकालकर उसे सामने जो जगह थी वहाँ खड़ी कर देते औऱ रात में कार को वापस गैराज में। चूँकि बैटरी डाउन रहती तो कार को धक्का लगाकर ये काम करना होता। पापा से पूछा कि इतनी मशक्कत क्यूँ तो उन्होंने इसका कारण बताया। अस्पताल से लौटने के बाद बालकनी में चाय का आनंद लेते हुये बहुत सी नई चीजों पर गौर करना शुरू किया। जैसे सामने वाली बिल्डिंग में एक शख्स अपनी गाड़ी को रोज़ शाम कवर्ड पार्किंग से निकालकर ओपन पार्किंग में खड़ी करते औऱ उसकी सफ़ाई करते। ये उनका रोज़ का रूटीन है। उनको ऐसा करता देख कर पिताजी का जवाब याद आ गया औऱ उसमे छिपी सीख भी जो कार और हमारे शरीर दोनों के लिये मान्य है। उन्होंने कहा था एक जगह खड़े रहने से कार के टायर खराब होते हैं औऱ उनकी हवा भी निकल जाती है। साथ ही गाड़ी को थोड़ा ही चलाने से भी टायर की पोजीशन बदल जाती है। यही तो हमें शरीर के साथ भी करना है क्योंकि कहा भी तो गया है शरीर भी एक मशीन है औऱ नहीं चलने से जैसे मशीन ख़राब होती है वैसे ही शरीर भी।

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लेक़िन तीन दिन की प्रैक्टिस रंग लाई औऱ डिसचार्ज के पहले जो वॉक टेस्ट हुआ उसको ठीक ठाक नंबरों से पास कर लिया। घर आने के बाद से अब प्रणायाम को अपनी दिनचर्या का एक हिस्सा बना लिया है। कई लोगों ने कहा भी की इन साधारण से साँस लेने- छोड़ने की तकनीक से न सिर्फ़ फेफड़े बल्कि पूरे शरीर को फ़ायदा होता है। अपने 17 दिनों के प्रवास से वो समझ में आया जो इतने लंबे समय से समझ नहीं आया था। और वो कर्मी जिन्होंने मुझे खाना खिलाया था वो भी मुझे मिल गयीं जब मैं अस्पताल छोड़ कर निकल रहा था।

मेरे इस पूरे अनुभव से न सिर्फ़ डॉक्टर बल्कि इससे जुड़े अन्य कर्मियों के प्रति आदर औऱ सम्मान कई कई गुना बढ़ गया है। विशेषकर जिन परिस्थितियों में औऱ जितने सीमित साधनों में वो इस कठिन समय में मरीजों का ध्यान रख रहे थे वो काबिलेतारीफ है। औऱ बहुत कम मुझे सीनियर डॉक्टर्स या कर्मी मिले। सब नौजवान लेक़िन क़माल का जज़्बा। धन्यवाद शब्द बहुत छोटा लगता है उनके लिये औऱ शायद जो इस समय उनलोगों ने हम सभी के लिये किया है वो हम कभी भुला भी नहीं पायेंगे। उन सभी के इस सेवाभाव के लिये हमेशा कृतज्ञ रहूँगा।

सीख: आप अपने शरीर को किसी न किसी रूप में कष्ट देते रहें। हमारे बहुत से मेन्टल ब्लॉक होते हैं जिनके चलते हमें लगता है की हम इतना ही कर सकते हैं। जैसे जब कॉलेज जाना शुरू किया तो साईकल ही सवारी थी औऱ कॉलेज आना-जाना 20 किलोमीटर होता लेक़िन दो साल तक ये सफ़र किया रोज़ाना (लगभग)। उसी तरह अपने शरीर को भी आदत डलवाएं। प्राणायाम या जो आपको अच्छा लगे वो व्यायाम करें लेक़िन करें ज़रूर। प्राणायाम हमें विरासत में मिला वो तोहफ़ा है जिसकी क़दर हमने देर से की। इसको करने के कई फ़ायदे हैं जैसे जगह का कोई मसला नहीं औऱ मौसम का कोई बहाना नहीं। औऱ अब तो ये योगा बनकर विश्व में छाया हुआ है। तो किसी भी रूप में व्यायाम को अपने जीवन का हिस्सा बनायें। आपका शरीर आपको धन्यवाद कहेगा।

कोरोना से सीख: जब डाउनग्रेड से मिली अपग्रेड से ज़्यादा ख़ुशी

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अस्पताल का सफ़र जब शुरू हुआ तब लगा था कुछ ही दिनों में घर वापस। जिन सज्जन ने खाने की सीख दी थी, जब उन्होंने बताया की अगले दो दिन में उन्हें छुट्टी मिल जायेगी तो लगा मुझे भी जल्द ही घर जाने का मौक़ा मिलेगा। लेक़िन ऐसा कुछ नहीं होने वाला था।

अगले दो दिनों में मुझे ICU में शिफ़्ट किया गया। इसकी जानकारी मुझे घर पर मेरे विश्वस्त सूत्र (श्रीमतीजी) ने पहले दे दी थी। हुआ कुछ ऐसा था की जब नईम दवाई के सिलसिले में अस्पताल आये थे, तब डॉक्टर ने उन्हें मुझे ICU में शिफ़्ट करने की बात करी थी औऱ श्रीमतीजी को भी इस बारे में बताने को कहा था। श्रीमतीजी ICU सुनकर घबड़ा भी गयीं थीं औऱ उन्होंने फ़ौरन मुझे फ़ोन कर ताज़ा जानकारी माँगी। चूँकि मुझे कुछ भी मालूम नहीं था इस बारे में सो मैंने बता दिया। लेक़िन जब फ़ोन रखा तो अस्पताल के कर्मी तैयार थे मुझे ICU में शिफ़्ट करने को।

ICU के बारे में कुछ मैं पहले भी बता चुका हूँ। जिस समय मैं भर्ती हुआ था उस समय कोरोना का कहर अपनी चरम सीमा पर था। फ़ोन बहुत ज़्यादा देखने को नहीं मिलता या देखना बंद कर दिया था। पारिवारिक जो व्हाट्सएप्प ग्रुप थे वहाँ ज़्यादा कुछ हलचल नहीं थी। वो तो बाहर आकर पता लगा की सभी को वहाँ कोई भी ऐसी ख़बर नहीं शेयर करने को कहा गया था जिसको पढ़कर मुझे आघात लगे। सही कहूँ तो आसपास भी इतना कुछ चल रहा था की मन ख़राब तो था लेक़िन इलाज और कमज़ोरी के चलते बहुत सी बातें जानने के बाद भी कुछ समय लगता उसका असर होने में।

ICU में रहते समय खाने में काफ़ी परेशानी हुई। चूँकि पूरे समय मास्क लगा रहता तो वहाँ पर तैनात डॉक्टर ने स्टॉफ से कहा कि मुझे नाश्ता खाना खिलाने की ज़िम्मेदारी उनकी। उस समय जो भी सामने होता उसको बुलाकर ये काम हो जाता। दो दिन के बाद जब रात को खाना मिला तो कोई था नहीं। एक अस्पताल की कर्मी जिन्हें मैं अपने दाखिले के पहले दिन से देख रहा था वो सामने आ गईं औऱ पूछने लगीं खाना खिलाना है? अगले तीन दिनों तक उन्होंने ही खाना खिलाया और समझाया भी की मुझे अंडा जो नाश्ते में मिलता है, वो खाना चाहिए। जब मैंने बताया मैं वेजेटेरियन हूँ तो उन्होंने बड़ी ही मासूमियत से कहा, \”अभी खा लो। बाहर जाकर किसी भी नदी में स्नान कर अपने भगवान से माफ़ी माँग लेना\”। हालाँकि मेरा नहीं खाने के निर्णय का धार्मिक नहीं है।

अंडा तो मैंने नहीं खाया लेक़िन उनकी सीख याद रखी कि खाना ठीक से खाना। उसके बाद वो दिखी नहीं औऱ अच्छी बात ये हुई की मेरी हालत में सुधार के चलते औऱ एक गंभीर मरीज़ को बेड की ज़रूरत के कारण ICU से दूसरे वार्ड में शिफ़्ट कर दिया।

यहाँ एक वाक्या साझा करना चाहता हूँ। इस बात को लगभग चौदह वर्ष हो गए हैं। मैं रेल से ओडिशा जा रहा था औऱ ट्रैन बीना से पकड़नी थी। भोपाल से बीना पहुँचकर अगली लंबी यात्रा का इंतजार कर रहे थे। लंबे सफ़र के चलते एसी में रिज़र्वेशन करवाया था। लेक़िन जब अपनी सीट पर पहुँचे तो वहाँ कोई औऱ ही विराजमान था और उनके पास बाकायदा टिकट भी था। एक बार तारीख़ वाली ग़लती के कारण पेपर बिछा कर सोना पड़ा था लेक़िन उस वक्त अकेले थे तो कोई परेशानी नहीं थी और था भी रात का सफ़र। इस बार परिवार भी साथ था औऱ सफ़र भी लंबा। लेक़िन अचानक प्रकट हुये टीसी ने कहा आप बगल वाले कोच में जाइये। आपका टिकट अपग्रेड हुआ है। वो पहली औऱ शायद अंतिम बार था जब भारतीय रेल मेहरबान हुई थी। यात्रा औऱ आराम से कटी।

इस घटना का ज़िक्र इसलिये की हमेशा अपग्रेड का अरमान होता है लेक़िन उस रात जब डॉ अश्विनी ने कहा की मुझे डाउनग्रेडेड स्पेशल वार्ड में शिफ़्ट कर रहे हैं तो इस डाउन ग्रेड को सबसे बड़ा अपग्रेड मानकर खुशी ख़ुशी मंज़ूर किया। अब इंतज़ार था कब घर जाने को मिलता। लेक़िन अभी भी समय था। कुछ औऱ बहुत ही प्रतिभावान हॉस्पिटल कर्मियों से मिलना बाक़ी था। कुछ अपने बारे में भी जानना बाक़ी था।

कोरोना से सीख: नये के साथ पुराना, यही जीवन का तानाबाना

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बीमारी कोई भी हो वो आपको शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से प्रभावित करती है। कई बार इसका असर जल्दी चला जाता है तो कभी कुछ ज़्यादा दिनों तक रह जाता है। कई लोगों को कोरोना बस छू कर निकल गया और कई लंबे समय तक इससे परेशान रहे। आगे बढ़ने से पहले थोड़ा सा पीछे चलते हैं।

पापा जी मोबाइल का इस्तेमाल तो करते हैं लेक़िन बहुत ही सीमित रूप में। जैसे फ़ोन में नंबर ढूँढना एक मुश्किल काम है। आज भी उनके पास फ़ोन नंबर की लिस्ट की एक फ़ाइल है जिसमें सभी जरूरी नंबर हैं। किसी को फ़ोन लगाना होता है तो इस फ़ाइल की मदद ली जाती है। अब कोरोना के अपने अनुभव की शृंखला में यहाँ ये फ़ोन की लिस्ट कैसे आ गयी?

यहाँ मैं इसका ज़िक्र इसलिये कर रहा हूँ कि जब मैं अस्पताल में एडमिट हो गया तो मेरा फोन और उसमें के नंबर सब मेरे पास रह गये। वैसे तो श्रीमतीजी के पास सभी करीबी रिश्तेदारों के नंबर थे, लेक़िन मेरे दो बहुत ही क़रीबी सहयोगी जिनको वो जानती हैं और मुलाक़ात भी है औऱ जिन्होंने मेरे इलाज में एक बहुत बड़ी भूमिका निभायी, उनके नंबर नहीं थे।

ये नंबर न होना इसका एक पहलू था। दूसरा और परेशान करने वाला पहलू जिसका ज़िक्र मैंने पहली किश्त में किया था वो था बढ़ते कोविड केस के चलते हमारी सोसाइटी का सील होना। इसका मतलब आना जाना बंद। जो कोई ज़रूरी सेवाओं से जुड़े थे वही आ जा सकते थे। हमारे घर में दो पॉजिटिव केस थे तो घर भी सील तो नहीं लेक़िन आने जाने पर रोक। मतलब कुल मिलाकर अच्छी परीक्षा ली जा रही थी और जैसा मैंने बताया तैयारी बिल्कुल नहीं थी। आप कह सकते हैं कोरोना वायरस ने सिलेबस के बाहर का सवाल पूछ लिया था। एक तो मेरे पढ़ाई से वैसे ही ज़्यादा अच्छे संबंध नहीं रहे औऱ इस बार तो कुछ बहुत ही अजब गजब हो रहा था।

ख़ैर थोड़ी देर के बाद ही सही नम्बरों का आदान प्रदान हुआ औऱ मेरे इलाज का सिलसिला आगे बढ़ा। मैं जितने भी दिन अस्पताल में रहा मुझसे मिलने कोई नहीं आया। घर में सभी कोविड से ग्रस्त तो किसी के भी आने का प्रश्न ही नहीं उठता। अस्पताल में एक कर्मी ने हारकर एक दिन पूछ ही लिया घर से कोई मिलने नहीं आता आपके?

जो एकमात्र पहचान वाली शक्ल दिखी थी वो थी नईम शेख़ की। नईम अस्पताल में भर्ती होने के चार दिन बाद मेरी दवाई के सिलसिले में आये थे। नईम जो कुछ दस दिन पहले ही पिता बने थे, दौड़भाग कर दवाई का इंतज़ाम कर रहे थे। इस दवाई के इंतज़ाम में परिवार के बाक़ी सदस्य औऱ पुराने पारिवारिक मित्र भी लगे हुये थे लेक़िन मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी औऱ मेरा ICU का सफ़र शुरू हो रहा था।

जब अस्पताल से छुट्टी मिली तो मैंने एक टेलीफ़ोन नंबरों की लिस्ट बनानी शुरू करी। फ़िलहाल ये काम चल रहा है। लिखने में मेहनत भी लगती है औऱ कुछ याद भी रह जाता है। फ़ोन में नंबर हो और आप शेयर कर सकें तो इससे अच्छी कोई बात नहीं। लेक़िन जब नंबर ही न हो तो?

लेक़िन ये जानकारी साझा करने का काम सिर्फ़ टेलीफोन लिस्ट तक सीमित न रखें। अगर आपके बच्चे बड़े होगये हैं तो उनके साथ अपने बैंक एकाउंट से संबंधित जानकारी भी साझा करें, साथ ही अपना अगर हेल्थ इंश्योरेंस कराया है तो उसके बारे में भी जानकारी दें। जैसा की इस कोरोनाकाल में हुआ, कई घरों में पति, पत्नी दोनों ही अस्पताल में भर्ती रहे। ऐसे में बच्चों के पास जानकारी हो तो अच्छा है। एक औऱ ज़रूरी सीख ये थी सबको सभी काम के बारे में पता हो – मोबाइल से खाना कैसे ऑर्डर करने से लेकर बैंक का एटीएम कैसे ऑपरेट करते हैं। हैं बहुत छोटी छोटी बातें लेक़िन जानना बेहद ज़रूरी। आप परिवार से शायद प्यार के कारण सभी काम करते हैं या घर के बाकी सदस्य भी आप के होने पर इन चीजों के बारे में नहीं जानना चाहते। लेक़िन कभी उनको ये काम करना पड़ जाये और आप बताने की स्थिति में न हों, तो उनको पता होना चाहिये।

सीख: अपने ख़ास सहयोगियों के नंबर साझा ज़रूर करें। अगर कोई पुरानी डायरी हो तो वहाँ सभी ज़रूरी नंबर लिख कर रखिये और समय समय पर अपडेट भी करते रहें तो न बैटरी ख़त्म होने का डर न फ़ोन के नुकसान की चिंता। साथ ही घर के सभी सदस्यों के पास भी ये नंबर रहेंगे।

कोरोना ने पिछले दिनों ऐसा कहर ढाया है जिससे उबरने में समय लगेगा।  हमने अपने परिवार, रिश्तेदारों या जानने वालों को खोया है औऱ कई ख़ुद भी इस बीमारी से ग्रस्त हुये और ठीक भी हुये। सबके अपने अनुभव हैं इस समय के जो इतिहास में अब हमेशा के लिये दर्ज हो गया हैं। जो अब हमारे साथ नहीं हैं उन सभी को सादर नमन।

कोरोना से सीख: अनजाने में हौसलाफजाई औऱ हर हाल में मस्तमौला

कोरोना से सीख: स्थिति कैसी भी हो, सोच सकारात्मक रखें

सकारात्मक सोच पर ही बात आगे बढ़ाते हैं क्योंकि इस पर मुझे बहुत मदद मिली और वो भी बिल्कुल अनचाहे (लेक़िन बहुत ही कीमती ज्ञान)। पहली किश्त में मैंने भोजन वाली बात औऱ मेरे साथ वार्ड शेयर करने वाले एक वरिष्ठ नागरिक की सीख के बारे में बताया था, इस बार बिल्कुल उल्टा हुआ। एक वरिष्ठ नागरिक को उनके पुत्र सीख दे रहे थे।

ICU में मेरे बगल के बेड पर जो सज्जन भर्ती थे उनकी तबियत थोड़ी ऊपर नीचे चल रही थी। कभी तो सब ठीक रहता औऱ कभी थोड़ी चिंता की हालत रहती। रोज़ शाम को जब मिलने का समय रहता तो उनके पुत्र मिलने आते और उनसे बात करते। वो उन्हें बार बार समझाते और उन सज्जन के साथ मैं भी चुपचाप उनके पुत्र की हौसला बढ़ाने वाली बातें सुनता। इन सभी बातों का निश्चित रूप से मुझे भी लाभ हुआ क्योंकि मोबाइल बहुत सीमित समय के लिये इस्तेमाल कर पाता औऱ मिलने जुलने वाला कोई आना नहीं था (घर पर भी कोविड के मरीज़ थे)। तो अंकल जी के बाद शायद मुझे उनके पुत्रों का इंतज़ार रहता।

आपके आसपास ICU में मरीज़ रहते हों औऱ  कुछ न कुछ चलता रहता हो तो ये सकारात्मक बातें बहुत बड़ा टॉनिक हो जाती हैं। ICU के बाहर अपने रोज़ मर्रा के जीवन में भी ऐसे परिवारजन, रिश्तेदार और दोस्त हों तो आपके लिये बहुत मदद हो जाती है। वैसे तो हम सभी सकारात्मक सोच रखते हैं, लेक़िन शायद अपने अंदर। वो जो आजकल एक नई श्रेणी के वक्ता या कहें एक नया व्यवसाय बन गया है मोटिवेशनल स्पीकर वाला, उन अंकल के बेटे उन सब से कहीं बेहतर। कम समय में वो अंकल (और साथ में मुझे भी) नये हौसले से भर देते। मैं हमेशा उन अनजान लोगों का ऋणी रहूँगा।

सकारात्मक सोच का एक बिल्कुल दूसरा रूप देखने को मिला जब ICU से दूसरे वार्ड में शिफ़्ट हुआ। वैसे तो हमेशा अपग्रेड होना ही अच्छा लगता है लेक़िन ये वो डाउनग्रेड था जिसका मुझे इंतज़ार था। इस वार्ड में रोज़ एक युवा, जिसने शायद अभी स्कूल ख़त्म ही किया हो, बार बार आता। लेक़िन वो अपने काम से काम रखता। मतलब वार्ड में कुछ भी चल रहा हो ये महाशय की एंट्री होती और ये सीधे जाकर सेनेटाइजर से अपने हाथों को साफ़ करते और उसके बाद वो अपना कुछ काम करते। इस पूरे समय उनका ध्यान सेनेटाइजर औऱ अपनी कुछ परेशानी पर रहता। जैसे एक दिन शायद उनकी चप्पल काट रही थी तो को पहले अपने पैर पर कुछ लगाया फ़िर अपनी चप्पल पर टेप लगाते रहे। वो इस बात से बिल्कुल भी परेशान नहीं कि वो अस्पताल के एक वार्ड में हैं जहाँ मरीज़ हैं या डॉक्टर भी आते जाते रहते हैं। इस बंदे के जज़्बे को भी सलाम!

तो पहले भोजन का ज्ञान और फ़िर बीमारी से लड़ने का हौसला बढ़ाने वाली बातें और सकारात्मक सोच। इन सबका निचोड़ यही की मन के हारे हार, मन के जीते जीत। जो अगली सीख मिली वो थी कुछ पुरानी आदतें को छोड़ना नहीं चाहिये।

कोरोना से सीख: स्थिति कैसी भी हो, सोच सकारात्मक रखें

कुछ दिन पहले सकारत्मकता पर एक फेसबुक पोस्ट पढ़ी थी। दरअसल वो सकारात्मक रहिये के ज़रिए एक कटाक्ष था आजकल जो हालात चल रहे हैं। मैंने पढ़ने के बाद उस पोस्ट की लिंक भी नहीं रखी औऱ ढूंढने पर भी नहीं मिली। ख़ैर ये पोस्ट उस पोस्ट के न मिलने के बारे में तो नहीं है, हाँ सकारात्मकता के बारे में ज़रूर है।

ये कोरोना से लड़ाई का मेरा व्यक्तिगत अनुभव है औऱ इसकी कोई कहानी नहीं है। तो अस्पताल में 17 दिन, जिसमें एक हफ़्ता ICU, में बिताने के बाद, जब कहा गया आप घर जा सकते हैं तो ये पूरा सफ़र याद आ गया। अस्पताल से निकलते वक़्त कम और घर पर जब 10 दिनों के लिये फ़िर कमरा बंद अर्थात क्वारंटाइन हुये तब। लिखना हो नहीं पाया तो अब आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

सबक 1: हमेशा अच्छा सोचें या Always Think Positive

जिस समय मुझे कोरोना हुआ उसी समय देश के अन्य हिस्सों में भी हालात ख़राब होने लगे। जिस सोसाइटी में रहता हूँ वहाँ भी बहुत केस आये जिसके चलते स्थानीय नगर पालिका ने सोसाइटी सील कर दी। अर्थात अंदर से कोई भी गाड़ी बाहर नहीं जा सकती औऱ वैसे ही कोई बाहर की गाड़ी भी अंदर नहीं आ सकती। सील होने का मतलब दोनों गेट पर बल्लियां लगा दी गयी। अपनी हालत वैसे तो गाड़ी चलाने लायक नहीं थी तो कोई बात नहीं थी लेक़िन जिन समझदार व्यक्तियों ने ये किया था शायद उन्होंने इमरजेंसी में गाड़ी दूर होने के बारे में सोचा नहीं होगा या कोई चलने में असमर्थ हो उसके पास क्या विकल्प है – ये भी नहीं सोचा होगा।

मुझे भी कोई विकल्प नहीं दिख रहा था। कोरोना के चलते कोई चाह कर भी आपकी मदद नहीं कर सकता। ऐसे में मेरे मददगार बने हमारे पुराने पडोसी एवं एक और कोविड पॉजिटिव पेशेंट आशीष जी। उनका पूरा परिवार कोविड की चपेट में आ गया था। परिवार से याद आया हम चार में से तीन लोग पॉज़िटिव थे। उस समय बेड थोड़े मुश्किल से मिल रहे थे लेक़िन आशीष भाई को फ़ोन पर जानकारी मिली औऱ घर के नज़दीक ही हॉस्पिटल में बेड भी मिल गया। जब ये ढूँढाई चल रही थी उस समय सोसाइटी के कुछ और लोग भी अपने स्तर पर पता कर रहे थे। अगर आपको मदद चाहिये तो अपनी सोसाइटी के व्हाट्सएप ग्रुप या आपके जो इतनी सारे बाकी ग्रुप हैं, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस वाले, सभी पर अपनी जो ज़रूरत है वो साफ शब्दों में लिख कर पोस्ट करें। इन ग्रुप में अगर बहुत कुछ फ़ालतू चलता है तो बहुत से लोग मदद करने वाले भी होते हैं। औऱ एक मैसेज को फॉरवर्ड ही करना है तो ज़्यादा समय भी नहीं लगेगा। उसके बाद आप बात कीजिये क्योंकि बात करने से ही बात बनती है।

अब यहाँ से ज्ञान की वर्षा शुरू होगी जो तूफ़ानी तो नहीं होगी इतना यकीं दिला सकता हूँ।

जब अस्पताल में भर्ती हुआ तो लगा था एक हफ़्ते में वापस घर चले जायेंगे। पहली सीख अगले ही दिन मिली जब वार्ड में मेरे साथ रहने वाले एक वरिष्ठ नागरिक ने समझाया की खाना नहीं खाने से यहाँ औऱ समय लगेगा। इसलिये अपना खाना ठीक से खाओ। दरअसल उन्होंने रात में मुझे प्लेट में खाना छोड़ते हुये देखा था। उस दिन के बाद से जो भी खाने को मिलता सब बहुत आनंद के साथ खाता। कोई न नुकुर या कोई शिकायत नहीं। इसका श्रेय माँ को जाता है जिन्होंने खाने के बारे में कोई नखरे बचपन से ही नहीं पालने दिये। कोई सब्जी कम पसंद हो सकती है लेक़िन वो थाली में परोसी ज़रूर जायेगी।

वैसे तो मेरा ये मानना है की जो भी थाली में परोसा जाय उसको चुपचाप खा लेना चाहिये। औऱ खाने को लेकर वैसे भी कोई ज़्यादा नखरे नहीं है (मेरा मानना है)। लेक़िन उसके बाद भी मुझे लगभग रोज ही अपने नाश्ते की प्लेट लौटानी पड़ती। इसके बारे में अगली बार।

सीख: जानकारी ज़्यादा लोगों के साथ शेयर करें औऱ आपकी क्या ज़रूरत है उसे भी साफ साफ बतायें। जैसे मुझे बात करने से आशीष भाई का साथ मिला ऐसे आपको भी किसी आशीष की मदद मिलेगी। सोच सकारात्मक रखें।

बोल बच्चन

आपने ये कहावत,

आवश्यकता अविष्कार की जननी है

सुनी होगी। जब लॉक डाउन शुरू हुआ था तब सभी के लिये ये एक नई बात थी। शायद कर्फ्यू देखा हुआ था तो इसका अंदाज़ा था ये क्या होता है। लेक़िन कर्फ्यू बहुत कम पूरे शहर में रहता। वो तो उसी इलाक़े तक सीमित रहता जहाँ कुछ गड़बड़ हो। लेक़िन बाक़ी जगहों पर सब ठीक ठाक रहता।

नया प्यार

क्या आपको कभी किसी से मोहबत हुई है? याद है वो शुरुआती दौर जब बात बस शुरू होती है और आपको उस समय हर नखरा उठाने में भी इश्क़ ही नज़र आता है।

लॉक डाउन उस लिहाज़ से कुछ ऐसा ही अनुभव रहा। सभी चीजें बंद। न कहीं आना न कहीं जाना। सबके लिये मोबाइल फोन जैसे एक जीवन रक्षक घोल की तरह बन गया। बीते चार महीनों में इतने सारे वीडियो कॉल किये औऱ आये हैं जिनका की कोई हिसाब नहीं (वैसे हिसाब मिल सकता है अग़र आप समय दें तो)। उसके बाद शुरू हुआ ज़ूम का दौर। इसकी शुरुआत हुई स्कूल की क्लास से लेक़िन जब पता चला इस एप्प के चीनी होने का तो धीरे धीरे सबने दूसरे इस तरह के प्लेटफॉर्म को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।

इसके बाद शुरू हुआ ज़ूम जैसी नई एप्प की तलाश औऱ एक दो एप्प ने ज़ोर आज़माइश भी करी लेक़िन बात कुछ बनी नहीं। हमारी जुगाड़, जो अब जग प्रसिद्ध है, कुछ क़माल नहीं कर पाई। बड़ा आश्चर्य होता है की हमारे यहाँ कहने को तो बड़ा टैलेंट है, IT में बहुत ही बढ़िया कंपनी हैं लेक़िन न तो हम ज़ूम की टक्कर की कोई एप्प दे पाये न ही हमारे डिजिटल इंडिया के नारे का कोई बड़ा करिश्मा दिखा। हाँ जिओ ने खूब पैसे बटोरे लेक़िन इसका फ़ायदा पहुँचने में अभी वक़्त लगेगा और क्या वो जियो के ग्राहकों के अलावा बाकियों के लिये भी होगी ये आनेवाला वक़्त ही बतायेगा।

इस विषय पर पहले भी लिखा है लेक़िन आज फिर से क्योंकि एक बहुत ही दुखद ट्वीट देखा जिसमें एक आदमी स्ट्रेचर पर पड़ी एक औरत की लाश में जान डालने की कोशिश कर रहा है। ऐसे न जाने कितने वाकये सुने जिसमें लॉक डाउन के चलते लोगों ने क्या क्या नहीं झेला है।

इतने महीनों के बाद भी हमारे पास न तो ऐसी कोई एप्प है न कोई वेबसाइट जो कोरोना के मरीजों के डेटा को पारदर्शी तरीके से दिखाये। जिस जगह मैं रहता हूँ वहाँ के नगर निगम ने अभी पिछले 15 दिनों से अपनी कोरोना वायरस की अपनी प्रेस रिलीज़ को ठीक ठाक किया है। नहीं तो पहले खिचड़ी बनी आती थी।

जैसा मैंने कल अपना ऑनलाइन शॉपिंग का अनुभव बताया था, बहुत सी कंपनी तो अभी भी वही पुराने तरीक़े से आर्डर ले रहीं हैं (फ़ोन करिये और एक एक आइटम के बारे में पूछिये)। इन महीनों में क्या हमारे डिजिटल इंडिया के सौजन्य से कुछ ऐसा बनकर आया जिसे देखकर आपको लगे क्या एप्प है? उल्टा ऐसी कई वेबसाइट/ एप्प की कलई खुल गई जो अपनी सर्विसेज का दम्भ भरती थीं।

हम और हमारे नेता बस बातों के लिये अच्छे हैं। जितने बड़े नेता, उतने बड़े और खोटे बोल। लॉक डाउन शुरू होने के कुछ दिन बाद अपने एक पुराने सहयोगी से बात हुई तो उन्होंने बताया था गावों में इसको कोई नहीं मान रहा है औऱ न भविष्य में ऐसा कुछ होने की संभावना है। आज जब गावों से नये केस थोक के भाव में आ रहे हैं तो उनकी प्रतिक्रिया लेना रह गया।

जब ये शुरू हुआ तो प्रवासी मज़दूरों का मुद्दा ख़ूब चला। सबने अपनी रोटियाँ सेकीं पत्रकारों ने इसी के चलते भारत भ्रमण भी कर लिया। अब उस फुटेज को भुनाया कैसे जाये ये एक जटिल समस्या है। चूँकि हमारे यहाँ जो दिखता है वो बिकता है औऱ अभी तो उन मज़दूरों की किसी को नहीं पड़ी है, तो बस अब उनकी ख़ैर ख़बर लेने वाला कोई नहीं। कहीं मैंने ये भी पढ़ा की बहुत से ऐसे मज़दूर अब वापस अपनी नौकरियों पर आ गए हैं तो उनकी कहानी ख़त्म।

समाज के सबसे बड़े तबके यानी हमारी मिडिल क्लास को तो इस सबसे भूल ही गये हैं। ऐसा लगता है उनको कोई परेशानी हुई ही नहीं है या उनकी परेशानी मायने नहीं रखती। मेरे न जाने कितने जाननेवालों की नौकरी भी चली गई और नई मिलने की संभावना निकट भविष्य में क्षीण हैं लेक़िन मजाल है कोई इस पर कुछ दिखाये। सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं।

एक तीर, दो शिकार

इस लॉक डाउन ने हमारे देश की दो सबसे बड़ी प्राथमिकताओं पर ही सवाल लगा दिये है। पहली तो जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था जो आज उस वेंटिलेटर पर है जिसकी बिजली कभी भी बंद हो सकती है। चाहे वो मुम्बई जैसा बड़ा शहर हो या बिहार जैसा पिछड़ा राज्य। सभी जगह ईलाज के बुरे हाल हैं।

ये नेताजी उस समय का हिसाब माँग तो रहे हैं लेक़िन ये नहीं बता रहे इन्होंने अपने समय में क्या किया।

दूसरी है हमारी शिक्षा व्यवस्था। शहरों में सरकारी स्कूलों की हालत बेहद ख़राब वैसे ही है। लेक़िन इस महामारी के चलते ये भी पता चला की एक ही शहर में आपको ग़ैर सरकारी स्कूल मिलेंगे जो इन तीन महीनों में काफ़ी हद तक डिजिटल क्लास चला पाये लेक़िन सरकारी स्कूलों में या तो शिक्षक के डिजिटल रेडी न होने के कारण या विद्यार्थियों के पास मोबाइल के न होने के कारण ये नहीं हो पाया।

अभी जब रोज़ लगभग 50 हज़ार केस आ रहे हैं तो हमारे नेताजी स्कूलों को फ़िर से खोलने पर काम कर रहे हैं। चलिये खोल दीजिये स्कूल लेक़िन उसके बाद अगर केस बढ़ते हैं तो क्या आपके पास उसकी तैयारी है? उस समय तो आप ये दोष किसी अफ़सर के ऊपर मढ़ देंगे।

समाधान

ऐसा नहीं है की इस विशाल देश में सिर्फ़ समस्याओं का ढ़ेर है। बहुत से समाधान भी हैं लेक़िन उन समाधानों के प्रति हम अपनी राय उस पर बनाते हैं कि वहाँ किस की सरकार है, उनके बाक़ी राज्यों, केंद्र से कैसे संबंध हैं। इस सब में जब ईगो, अहम या अना बीच में आती है तो अच्छे काम भी बुरे दिखने लगते हैं। जैसे केरल ने शुरू से इस लड़ाई में बहुत अच्छी तैयारी रखी औऱ बहुत बढ़िया काम भी किया। लेक़िन जैसे किसी संयुक्त परिवार में होता है एक बहु का अच्छा काम न तो बाक़ी बहुओं को भाता है और न तो सास को।

डिजिटल की मेरे सफ़र की सबसे बड़ी सीख यही रही की आगे बढ़ना है तो लीडर को देखो। उसका अनुसरण करो (कॉपी नहीं) औऱ फ़िर उसमें से अपना रास्ता बनाओ। बाक़ी राज्यों को केरल से ज़मीनी औऱ तकनीकी ज्ञान को अपने राज्य में लागू करना था। लेक़िन ऐसा करते तो उनकी तथाकथित दुकानों का नुकसान होता। तो बस अब कहीं अमरीका की डिज़ाइन है तो कहीं बहुत ही घटिया देसी डिज़ाइन।

ये सही है की ऐसी कोई स्थिति होगी इसके बारे में कभी किसी ने सोचा नहीं था। लेक़िन जब ऐसी स्थिति हो गयी तब हमने क्या किया? आज हमारे पास अभी तक की सबसे बेहतरीन टेक्नोलॉजी है, सबसे अच्छे सिस्टम हैं लेक़िन उसके बाद भी अगर हम कुछ नहीं कर पाते हैं तो इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है? क्या तीन महीने में कुछ बहुत ही तूफ़ानी सा काम हो जायेगा ये सोच ही ग़लत है?

लेक़िन जब ये सब ख़त्म हो जायेगा तब हम सब ऐसे आगे बढ़ जायेंगे जैसे ये एक बुरा सपना था। लेक़िन भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस महामारी के झटके कई वर्षों तक महसूस करेगा।

https://youtu.be/3oYBJHlCCGA

Covid-19: Did India miss the bus or did it \’miss\’ the bus

When Covid crisis was still in its very early stage and so was lockdown, I was very optimistic India will ride this one too and not only that, India will come out as a better country. After nearly 70 days my optimism has not gone into negative but it has hit a new low.

The initial optimism got a major boost when within days a Pune-based company developed low costing test kits. For me that was a good sign of what future had in store. But there has been little development on that front. Yes we are making lots of PPE suits everyday but that\’s no innovation. Thats a result of facilities lying idle and they being used for making PPE suits. There were tweets that Mahindra group has worked on a desi ventilator and also supplying the same to the government. I hope the company is doing that.

Coming back to first good news to come within days of Covid crisis hitting India. The lady who was part of this testing kit was all over news as she delivered a child only after the kit was launched. But that was the last of that affordable kit I heard. The company executives were on channels discussing their capacity and how it can be ramped up. But there is nothing about the company that is making news these days – specially about affordable test kits when states are demanding more test kits and some like Delhi and Mumbai have suspended tests. The initial estimate of Rs 1,200 per test is not a reality. The tests cost between Rs 2,200 to Rs 4,500.

Secret Data

As media student, I do try to understand whats happening in other parts of the world. One thing that struck me was availability of data. For example in United States, worst affected by coronavirus, the data was very transparent and available at: https://coronavirus.jhu.edu/map.html

Similarly, Singapore also had a very open policy on sharing the data with public. All the information about the patients, where they came from and how many more persons caught the virus was available on internet on their website https://covidsitrep.moh.gov.sg/. In the early days there was a website which followed the Singapore model but not to the T. Sadly the website went off the net following some issues with the server and now its gone.

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There is this government website https://www.mohfw.gov.in/ which gets updated every 24 hours with fresh data at 8 AM. Again its very basic, pathetic representation of data. Please don\’t get me wrong. But everyday you share the numbers without any more info as to how many new cases reported, how many cured etc etc. What I see on the screen is what you see in the pic above.

Data and stories

As a journalist I have found data to be great tool to tell stories but only if its presented in a simple form for the readers to understand. I would be lying if I say that I would not expect a kick ass, transparent, great UI website from the The Ministry of Health and Family Welfare (MoHFW). Why? Because we have the expertise and so much has been said about digital India that I would be wasting my and your time too to talk about it.

Now all the states have different ways of collecting data and presenting. There is no uniformity which is not surprising. But remember my optimism in the early days – I was hoping we will have a uniform data representation. But with different parties in power in different states, it becomes a big ego issue for all. Kerala perhaps has the best dashboard. Very informative and easy navigation. If you haven\’t do checkout their website: https://dashboard.kerala.gov.in/index.php

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Kerala state Covid-19 dashboard is most informative dashboards giving out all the necessary data and information.

Maharashtra has copied the Johns Hopkins UI and has only made it data centric. Check out their website here.

Madhya Pradesh government had to face a rather embarassing situation after a hacker exposed flaws in the dashboard. The Shivraj Singh Chauhan government went back to the drawing board and there is no update available as I write this. May be it is available and I need to work on my search skills.

This piece is not about comparing the dashboards or choose the best. My point is crisis is the best opportunity to learn. What have we learnt? States were fudging data, some hospitals were delaying the data. Why can\’t we have a centralised template which is shared with all the states and all the data collection is uniform. This not only applies to health but to any field where data is collected.

If I am living in Mumbai or Kolkata my driving licence from either of the state transport department should be identical. Just like a passport or (many wont agree) an Aadhaar card. Sometimes I feel this difference actually allows people to fudge the documents and not get caught. But each state during covid-19 collected data as per their local laid down guidelines.

As I was writing this post came the news that West Bengal has come up with guidelines for covid victims. The state allowed families to pay their last respects to the departed soul and many other provisions. Shouldn\’t all states follow the same guidelines? How come a covid victim dying in West Bengal is any different from one dying in Tamil Nadu? Should MoHFW frame these guidelines? If yes, will all the states follow it?

Late Comers

The initial lockdown days were spent trying to order the essentials. The tried and tested and trusted apps suddenly stopped taking orders. If anyone came across any site taking orders it was shared on various groups. Reliance Smart was one such website taking orders. But what a shock when I finally managed to find the site. So the company which has stores all across India had a pathetic site. There was no mobile version of the site and this I realised after I struggled on the mobile device.

The website from a company which had all the money, resources in the world to launch the either an app or a better version of the website within days of Lockdown 1. But the company took its sweet time and the new avatar of Reliance Smart which not takes you to Jio Mart was launched sometime in May.

The second company was not a disaster but again took time to realise online is where they were going to get their business from. D-Mart had a not so great UI but the company did not waste too much time in upgrading the website and now its much better version of the website I first visited in April 2020.

Am I still hopeful or has hope given way to despair? Yes because I still believe it was the one big chance to set things in order. I know these are big changes and will take time and may be I am proved wrong. It was the time to think out of the box and come up with solutions to various problems in the country. Two most important systems in the life of any citizen anywhere in world – health and education – both need immediate overhaul. But barring digital classroom which again had very limited access, there was nothing big bang that happened. Wait there was one – digital payments and it was wonderful to see making payments without any human touch was a reality. Will the changes I was expecting reflect in coming years? I would like to hope so.