जाड़ों की नर्म धूप और…

पिछले कुछ दिनों से सभी जगह ठंड ने अपने पैर जमा लिये हैं। मुम्बई में भी मौसम कुछ रूमानी सा ही रहा है पिछले कुछ दिनों से। उत्तर भारत जैसी कड़ाके की सर्दी तो नहीं लेक़िन मुम्बई वालों के हिसाब से यही काफी है सबके गर्म कपड़ों के ढ़ेर को बाहर निकालने के लिये।

हर मौसम की अपनी एक ख़ासियत होती है। सर्दियों के अपने आनंद हैं। आज की इस पोस्ट का श्रेय जाता है मेरे फेसबुक मित्र चारुदत्त आचार्य जी को। उन्होंने एक पोस्ट करी थी सर्दियों में स्नान के बारे में और कैसे पानी बचाते हुये ये स्नान होता था और उसका अंतिम चरण। आप इस पोस्ट को यहाँ पढ़ सकते हैं।

आज जो शहरों में लगभग सभी घरों में जो गीजर होता है, उसका इस्तेमाल 1980-90 के दशक में इतना आम नहीं था। सर्दियाँ आते ही गरम पानी की भी ज़रूरत होती स्नान के लिये। चूँकि गैस सिलिंडर उन दिनों इतनी जल्दी जल्दी नहीं मिलते थे तो पानी गर्म करने के लिये दो ही विकल्प रहते – या तो घासलेट (केरोसिन) से चलने वाला स्टोव या लकड़ी या कोयले से चूल्हा जलाया जाये।

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केरोसिन के साथ भी समय पर मिलने की समस्या होती। राशन की दुकान पर आने के पहले ही ख़त्म हो जाने का बोर्ड लग जाता। स्टोव जलाना भी एक मशक्क़त वाला काम हुआ करता था। थोड़ी थोड़ी देर में जैसे चूल्हे की आग को देखते रहना पड़ता वैसे ही स्टोव को भी पंप करते रहना पड़ता था।

लेक़िन कोयला आसानी से मिलता था। सुबह सुबह ठेले पर जैसे सब्ज़ी वाले निकलते वैसे ही कोयले वाले भी निकलते। कोयला स्टॉक कर लीजिये और सर्दियों की सुबह लग जाइये इस काम पर। अगर कोयला भी नहीं मिले तो लकड़ी का जुगाड़ करिये क्योंकि ठंडे पानी से नहाने का अवार्ड अभी भी नहीं मिलता। वैसे कई लोगों को जानता हूँ जो हर मौसम ठंडे पानी से ही स्नान करते हैं।

बहरहाल, बहुत लंबे समय तक पानी ऐसे ही गर्म होता रहा। हमारे सरकारी घर में जो पड़ोसी थे उनके यहाँ पानी गर्म करने का अलग यंत्र था। उसकी तस्वीर नीचे लगी है। बस रोज़ सुबह जिस समय हमारे यहाँ आग लगा कर चूल्हा जलाने की मशक्कत चालू रहती उनके यहाँ इस यंत्र को आंगन में रखा जाता और पानी गर्म करने की प्रक्रिया शुरू।

पानी की समस्या तो नहीं थी लेक़िन जैसा चारुदत्त जी ने कहा गर्म पानी का सप्लाई बहुत ही सीमित मात्रा में होता। मतलब जितनी बड़ी पतीली उतना ही पानी। तो आज जो शॉवर के नीचे या टब के अंदर समय न पता चलने वाला जैसा स्नान संभव नहीं होता। और उस स्नान का अंत एकदम वैसा जैसा की वर्णन किया गया है – बाल्टी उठा कर सिर पर पानी डालने की प्रक्रिया।

जैसे गीजर जीवन में लेट आया वैसे ही प्लास्टिक भी। तो उस समय जो बाल्टी हुआ करती थी वो भी लोहे की। मतलब उसका भी वज़न रहता। बस वो 3 Iditos वाला सीन, सिर के ऊपर बाल्टी, नहीं हुआ।

जब गीजर आया तो वो ड्रम गीजर था। मतलब जो आजकल के स्टोरेज गीजर होते हैं वैसा ही लेक़िन दीवाल पर नहीं टंगा होता। मतलब अब गर्म पानी की सप्लाई में कोई रोकटोक नही। जब तक सरकारी घर में रहे तब तक इसका ही आसरा रहा। जब स्वयं के घर में गये तो थोड़ा सॉफिस्टिकेटेड से हो गए। मतलब अब सबके बाथरूम में अलग गीजर।

गीजर से जुड़ा एक मज़ेदार वाकया भी है। किसी रिश्तेदार के यहाँ सर्दियों में गये थे। उनके यहाँ एक गीजर था जिसकी सप्लाई सभी जगह थी। लेक़िन समस्या ये थी की अगर कहीं और भी गर्म पानी का इस्तेमाल हो रहा होगा तो आपको नहीं मिलेगा या कम मात्रा में मिलेगा। ये बात तब मालूम पड़ी जब शॉवर के नीचे खड़े हुये।

मॉरल ऑफ द स्टोरी: सर्दी हो या गर्मी हर मौसम के मज़े लीजिये। हर मौसम के ज़ायके का भी जब तक मज़ा ले सकते हैं, ज़रूर से लें। जैसे सर्दियों में गाजर का हलवा और छौंका मटर।

Smog is such a good PR exercise, no one wants to miss it!

For a journalist there is so much happening in India right now to report that Hindi saying \”haath main ladoo aur sar kadhai main\” (Hands full is sufficient) is just apt. Look at it – Delhi is full of smog, there is Whatsapp snooping, two political parties in Maharashtra are fighting like families agreed to a match but now refusing to take Saat Phera demanding more alimony. And if this is not enough, the police and lawyers are now fighting it out in the open with several videos of policemen being attacked doing the rounds.

None of these, except Delhi smog, is going to make an impact. Maharashtra will have a government by tomorrow, police and lawyers are conjoined twins and will call a truce, Whatsapp snooping is already dead. So what remains is smog which has been troubling Dilliwalas for the past three years. It usually happens around this time of the year and it has been happening for the last three years without fail.  Think about it – We cannot say the same about monsoon (which is surprising with all the forecast apparatus at our disposal).

Yet, every year the citizens face this problem. Every body wakes up couple of days after they have inhaled the poison and then it\’s free for all. There are jokers who break the rule and claim the odd-even thing is really odd and certainly not even. The National Green Tribunal wakes up from the slumber and so does our legal system. Strong worded orders are passed and that\’s it.

What this offers the circus managers is a lifetime PR opportunity. So a minister would cycle to his office and get it recorded by media. Another minister who rode a bicycle a month back as good health initiative will not do so now it as it would give mileage to opposition. Some will distribute free mask to the people on road. All the stake holders behave like Chatur of 3 idiots who would release obnoxious air in the environment and blame his roommates.

What no one realises is after the photo op everyone gets into air purified rooms and breathe clean air. It\’s you and me who inhale the air, get sick, may be lung cancer and die. Human life has no value in India. None. While we may believe in rebirth and all that but if I leave the planet in this condition I would want to come back as an alien.

As for common man, he will dutifully add to the chaos not realising it\’s he who has created the problem and the solution also lies with him.

यादों से भरी सालगिरह

भोपाल में पिताजी को जो सरकारी घर मिला था उसकी लोकेशन बड़ी कमाल की थी। हबीबगंज स्टेशन के बारे में आपको बता ही चुका हूँ। दो सिनेमाघर भी हमारे घर के पास ही हुआ करते थे ज्योति और सरगम। जो भी बड़ी नई फिल्म रिलीज़ होती वो इन दो में से किसी सिनेमा हॉल में ज़रूर लगती।

चूंकि मेरा घर इनके समीप था तो हर गुरुवार को मेरी ड्यूटी रहती टिकट खिड़की पर खड़े होने की। उन दिनों आज की बुकमाईशो जैसी सुविधा तो थी नहीं तो बस सुबह से यही एक काम रहता की लाइन में लगो और धक्के खाते हुए टिकट निकालो। टिकट न मिलने की स्थिति मे कई बार खाली हाथ भी लौटना पड़ता। उन दिनों टिकट खिड़की से टिकट लेकर फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का मज़ा आज की एडवांस बुकिंग में कहाँ। और उस दौरान हो रहे हंगामे की क्या बात।

महिलाओं की लाइन में भीड़ कम होती तो लड़के किसी भी अनजानी लड़की को बहन बना टिकट लेने की गुज़ारिश करते। उन लड़कियों के परिवार वाले इन लड़कों पर नज़र रखते के कोई बदतमीजी न करें।

मेरे कॉलेज जाने का रास्ता ज्योति टॉकीज से ही जाता था। नई फिल्म रिलीज़ होते ही मैं बाहर खड़ी भीड़ से अंदाज़ा लगता कि फ़िल्म हिट होगी या फ्लॉप। जब यश चोपड़ा की लम्हे रिलीज़ हुई तो सिनेमा हॉल खाली था। फ़िल्म देखी तो समझ में नहीं आया कि आखिर क्यों लोगों ने इसको पसंद नहीं किया। ऐसा ही कुछ हाल था अंदाज़ अपना अपना का। एक किस्सा शाहरुख खान की फ़िल्म डर का भी है लेकिन उसका ज़िक्र फिर कभी।

हमारे घर की एक ख़ासियत और थी। घर के सामने ही था गर्ल्स हायर सेकंडरी स्कूल, थोड़े आगे जाने पर वुमेन्स पॉलीटेक्निक और उसके बाद गर्ल्स कॉलेज। जिन दिनों विवाह के लिए लड़की ढूंढी जा रही थी उस समय दूर दराज से रिश्ते आ रहे थे। कुछ लोग मेरे दिल्ली और उसके बाद मुम्बई जाने के बाद ये मान चुके थे कि मैं लव मैरिज ही करूँगा। खैर ये हुआ नहीं और खोज चलती रही। लेकिन ये पता नहीं था कि मेरी भावी जीवन संगिनी कई वर्षों से मेरे घर के सामने से ही आ जा रही थीं।

इस तलाश को खत्म हुए आज पंद्रह वर्ष हों गये हैं। दिखता एक लंबा समय है लेकिन लगता है इस बात को अभी ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ।

वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है

आज से ठीक एक महीने पहले दिल्ली से जब ट्रेन में बैठा था तो वो शाम भी कुछ अजीब थी और आज की ये शाम भी कुछ उस शाम जैसी ही है। 29 सितंबर को जब मैं हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर अपनी ट्रैन की ओर कदम बढ़ा रहा तो जो समान दिख नहीं रहा था उसका बोझ सबसे ज़्यादा था और वो थीं अनगिनत यादें। समेटना भी मुश्किल और सहेज कर रखना भी मुश्किल।

दिल्ली और 15 नवंबर से शुरू हुई नई पारी।का अंत होने जा रहा था। लेकिन ये बीता समय कमाल का था। कुछ नए प्रतिभावान टीम के सदस्यों के साथ काम करने का मौका मिला। हमारी नई शुरुआत को सराहा गया, गलतियों को बताया गया और जोश एवं उल्लास के साथ कुछ अच्छा और अलग करने का निरंतर प्रयास किया।

इस पूरे प्रवास की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कलम में सुखी हुई स्याही को बदलने की और फिर से लिखने की। हालांकि ये प्रक्रिया की शुरुआत काफी अच्छी रही लेकिन जैसे जैसे काम तेजी पकड़ने लगा लिखना कम होता गया। प्रयास होगा कि इसे पुनर्जीवित कर निरंतरता कायम रहे।

दिल्ली के मौसम के मिज़ाज़ और कुल्फी की मीठी यादें

जब नवंबर में दिल्ली आया था तो यहाँ की सर्दी को लेकर थोड़ा सा चिंतित था। दिल्ली में पहले भी रह चुका था और उससे पहले भोपाल में था तो सर्दियों से परिचय काफी पुराना था और सच कहिए तो बारिश के बाद मुझे सर्दियां बहुत पसंद हैं। गर्मियों से ऐसी कोई नाराज़गी भी नहीं है लेकिन \’खाते पीते\’ घर से हैं तो शरीर गर्मी कम बर्दाश्त कर पाता है।

बहरहाल, सर्दियों की उस समय शुरुआत ही थी और एक दो दिन छोड़ दें तो पूरी सर्दी दिल्ली की सर्दी का इंतज़ार करते गुज़र गयी। जब मार्च खत्म होने को था तो मेरी सहयोगी प्रतीक्षा ने कहा आप गर्मी का इंतज़ार करिये। आपकी हालत खराब हो जायेगी। पंद्रह साल से मुंबई की उमस भरी गर्मी झेली थी और उससे पहले भोपाल की, तो लगा इसमे क्या है।

खैर जैसे जैसे गर्मी बढ़ती गयी प्रतीक्षा की बात सच होती गयी। उसपर सोने पर सुहागा वो घर जिसमें इन दिनों रह रहे हैं। वो है टॉप फ्लोर पर और पंखा चलाइये तो सही में आग बरसती है।

मुम्बई की उमसी गर्मी को छोड़ दें तो भोपाल की गर्मियों की यादें बड़ी ही मीठी हैं। सभी बुआओं का बच्चों समेत भोपाल आना होता और पूरी मंडली की धमाचौकड़ी चलती रहती। गर्मी उन दिनों भी रहती थी लेकिन पंखे से ही काम चलता था।

पहला कूलर जो गुलमर्ग नाम से था वाकई में बहुत ठंडक देता था। उस सेकंड हैंड कूलर की दो खास बातें और थीं। एक तो वो कभी कभार पानी भी फेंकने लगता लेकिन गर्मी थी तो कोई शिकायत नहीं करता। दूसरी बात थी उसकी बॉडी। आजकल तो सब फाइबर का है। गुलमर्ग की बॉडी खालिस लोहे की। चलते में हाथ लग जाये तो बस बदन नाच उठे। लेकिन तब भी एक कूलर में ही गर्मी कट जाती थी।

जो मीठी यादें कहा उसका एक और कारण है। कुल्फी। ठेले की कुल्फी जो भरी दोपहरी में खाई जाए। शुरू में फ्रिज तो था नहीं इसलिए खरीदो और खाओ। मस्ताना कुल्फी के नाम से वो ठेले वाला जब घंटी बजाता हुआ आता हम लोग दरवाज़े के बाहर। वैसी कुल्फी का स्वाद आज भी नहीं मिला। जब फ्रिज आया तो शाम के लिये कुल्फी रखी जाने लगीं। अब ये जगह आइस्क्रीम ने ले ली है।

प्रतीक्षा ने पहले से डरा रखा है कि जून और खराब होगा। लेकिन मुम्बई में तब तक बारिश शुरू हो चुकी होगी। इस बार मुम्बई की बारिश में भीगने का मौका कब मिलता है इसका इंतज़ार रहेगा।

घर जाने की बात ही कुछ और

उस दिन जब शाम को एयरपोर्ट के लिए निकल रहा था तो टीम की एक मेम्बर बोलीं देखिए चेहरे की रौनक। लगता है घर जा रहे हैं। पता नहीं ऐसा क्या हो जाता है जब घर जाने का मौका आता है एक अलग ही उत्साह। जब PTI से दौड़ते भागते ट्रेन पकड़ता था 18 साल पहले तब भी और आज जब ट्रैफिक जाम से लड़ते हुए टैक्सी से एयरपोर्ट जाता हूँ तब भी।

दरअसल ये कहना ये खुशी घर जाने के कारण है सही नहीं है। घर तो यहाँ भी है दिल्ली में जिसमे मैं इन दिनों सोने जाता हूँ। ये असल में घरवाले हैं जो घर को रहने लायक बनाते हैं। फिर हम चाहे 2 कमरे के फ्लैट में हों या एक बड़े बंगले में।

वैसे बंगले में रहा नहीं हूँ तो इसलिए ज़्यादा नहीं जानता वहां रहना कैसा होता है। पला बढ़ा सरकारी घर में जो बहुत बड़े तो नहीं थे लेकिन उसमें रहते हुए ही परिवार की कई शादीयाँ हुई। मेहमानों से घर भरा हुआ है लेकिन सब मज़े में और आराम से। आज जब शादी में जाना होता है तो सबके अलग अलग कमरे हैं और सब किसी रस्म के दौरान या खाने पीने के समय मिल जाते हैं। खैर इस पर कभी और।

एक परिचित को किसी ने अपना नया घर देखने के लिए बुलाया। उन्हें बोला गया उस घर में अलग क्या होगा। ऐसी ही दीवारें होंगी, ऐसे ही खिड़की दरवाज़े होंगे। कोई ज़रूरत नहीं जाने की। अब ये बात भले ही मज़ाक कही हो लेकिन है तो सच। ईंट पत्थर की दीवारें होती हैं। घर तो घरवालों से बनता है। आप आलीशान घर में चले जाइये। सारी सुख सुविधाओं से लैस। लेकिन सुकून दूर दूर तक नहीं। और एक कमरे का घर आपको इतनी शांति देता है।

एक समय था जब ये गूगल देवी आपको अपने या किसी और के घर का रास्ता नहीं बता रही होतीं थी। तब घर ढूँढने के अलग मज़े थे। पता पूछते हुये कुछ ऐसे ही बातचीत हो जाती और चाय पीते पिलाते आप के नए दोस्त बन जाते। अब गूगल देवी तो आपको घर के बाहर तक छोड़ती हैं तो ऐसी चाय का मौका नहीं मिलता।

अगर मैं ये कहूँ की इस बहाने लड़की भी देख ली जाती थी तो? किसी का घर ढूँढने के बहाने लड़की देखी भी गयी और शादी पक्की भी हुई। परिवार में किसी की शादी की बात चल रही थी लेकिन लड़के ने ये ज़िम्मेदारी अपने परिजनों को दी। चूँकि बार बार लड़की के घर जाने पर ऐतराज़ था तो पता पूछने के तरीके को आज़माया गया। हाँ ये सुनिश्चित किया गया कि लड़की की फ़ोटो ध्यान से देखकर जाएँ जिससे कोई गड़बड़ न हो। आखिर ज़िन्दगी भर की बात है।

ऐसा कहते हैं मोबाइल ने दूरियों को मिटा दिया है। लेकिन जो मज़ा आमने सामने बैठ कर गप्प गोष्ठी करने में है वो वीडियो चैट में कहाँ। शायद उस दिन चेहरे की रौनक यहीं बयान कर रही थी।

बस एक घर की तलाश है

दिल्ली आए हुए जल्द ही एक महीना हो जाएगा और शुरुआत हो गयी है एक घर की तलाश। जब मैं पहली बार दिल्ली और उसके बाद मुम्बई गया तो दोनों जगह PTI के गेस्ट हाउस में रहने का इंतज़ाम था। मुम्बई में घर ढूंढ़ने की नौबत काफी समय बाद आई। अब यहाँ पर समय कम है और दिल्ली की ठंड में रहने का ठिकाना ढूंढना है। वैसे मोबाइल ने बहुत सारी चीज़ें आसान कर दी हैं। जैसे घर की आप अपनी जरूरत को किसी वेबसाइट पर पोस्ट कर दें उसके बाद फोन पर फोन का जवाब देने के लिये तैयार हो जायें।

महानगरों में घर मिलना कोई मुश्किल नहीं है। बस आपके आफिस के पास ही नहीं मिलता। खुशनसीब हैं वो जिन्हें इन दौड़ते भागते शहरों में ऑफिस के पास रहने का ठिकाना मिल जाता है। मेरी तालाश भी कुछ ऐसी ही है। जब तक आप को एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाना हो तब तक इस पूरे मामले का सिरदर्द समझ में नहीं आता है।

घर अच्छा हो, सोसाइटी अच्छी हो, सभी चीजें आसपास हो, बिजली पानी की सुविधा हो। हमारे बहुत सारे मापदंड होते हैं जिनका की हमें अंदाज़ा भी नहीं होता जब तक हम या तो अपने रहने की या काम करने की जगह नहीं बदलते। मुम्बई में तो हालत ऐसी है कि अगर वर वधु अलग अलग ट्रैन लाइन्स पर रहते है तो रिश्ता ही नहीं करते। ये सब मैंने सुना तो था लेकिन ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले उसके बाद लगा कि सचमुच् ऐसा ही है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मुम्बई के लड़के, लडक़ी दूसरे शहर में शादी ही नहीं करते? और कभी शादी के बाद वेस्टर्न लाइन से सेंट्रल लाइन शिफ्ट होना पड़े तो क्या वकीलों की सेवाएँ ली जाएंगी?

इतने दिन हो गए दिल्ली में लेकिन मुलाकात किसी से भी नहीं हो पाई है। हर हफ्ते हज़रत निज़ामुद्दीन पहुँच जाते हैं और फ़िर निकल पड़ते हैं एक और यात्रा पर। इन यात्राओं के अपने मज़े हैं और अपना एक सुररूर बिल्कुल वैसा जैसा मुझे महसूस हुआ जब मुम्बई में हमारी नज़रें पहली बार मिली थीं। भोपाल से दिल्ली फिर मुम्बई लगता है जैसे इस दिल का सफ़र अभी बहुत बाकी हैं।

जीवन एक चक्र है

जीवन एक चक्र है ऐसा सुना करते हैं लेकिन इसका एक साक्षात अनुभव पिछले दिनों हुआ। हालांकि इसका आभास तब हुआ जब मैं दिल्ली से भोपाल की ट्रेन यात्रा के लिए हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर शान-ए-भोपाल में बैठा।

यही वो स्टेशन है जिससे मैंने न जाने कितनी बार भोपाल की यात्रा करी जब मैंने अपना पत्रकारिता का करियर PTI से शुरू किया था। उन दिनों हज़रत निज़ामुद्दीन से ये ट्रेन नहीं थी और मुझे दिन के अलग अलग समय अलग अलग ट्रेन से सफर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ऐसा इसलिए भी की PTI में शिफ्ट डयूटी हुआ करती है और समय अनुसार भोपाल की ट्रेन में चढ़ जाया करते थे। भोपाल के लिये ट्रेन की कोई कमी भी नहीं थी सो इतना कष्ट नहीं हुआ करता था। तनख्वाह इतनी ज्यादा नहीं हुआ करती थी सो सर्दी हो या गर्मी स्लीपर क्लास में ही सफर करते थे। कई बार ऐसे भी मौके आये की करंट टिकट लेकर जनरल कोच में दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ कर भी सफर करना हुआ।

उन यात्राओं का बस एक ही आनंद होता था – घर जा रहें हैं तो सारे कष्ट माफ। और सच में सर्दी में ठिठुरते हुए या गर्मी में पसीना पोंछते हुए ये सफर बस यूं ही कट जाता था। मेरे उन दिनों के अभिन्न मित्र सलिल की ये डयूटी लगा रखी थी कि वो स्टेशन से मुझे घर पहुंचाए। और रात का कोई भी समय हो सलिल स्टेशन पर मौजूद l उन दिनों आज के जैसे मोबाइल फ़ोन तो हुआ करते थे लेकिन उनको रखना एक महँगा शौक हुआ करता था। तो सलिल तक संदेश पहुंचे कैसे? स्टेशन पहुँचकर टिकट खरीदने के बाद दूसरा काम हुआ करता था सलिल को एसटीडी पीसीओ से फ़ोन की साहब कब पधार रहे हैं।

एक बार कुछ ऐसा हुआ कि समय की कमी के चलते फ़ोन नहीं हो पाया। वो तो भला हो दूरसंचार विभाग का जिन्होंने प्लेटफार्म पर ये सुविधा उपलब्ध करा दी थी। बस फिर क्या जहां ट्रेन रुकी वहीं से फ़ोन और सवारी स्टेशन पर मौजूद। वैसे सलिल से ये सेवा मैंने मुम्बई से भी खूब कराई लेकिन उसके बारे में फिर कभी। फिलहाल चक्र पर वापस आते हैं।

PTI में रहते हुए ही तबादला मुम्बई हो गया और दिल्ली छूट गया। सच कहूँ तो दिल्ली छूटने का जितना ग़म नहीं था उससे कहीं ज़्यादा खुशी मायानगरी मुम्बई में काम करने की थी। फिल्मों का चस्का तो था ही उसपर मुम्बई में काम करने का मौका जैसे सोने पे सुहागा। दिल्ली बीच में कई बार काम के सिलसिले में आना हुआ लेकिन वो सभी प्रवास दौड़ते भागते ही निकल जाते।

जब नवंबर 15 को दिल्ली के हवाईअड्डे पर उतरा तो काफी मायूस था। मुम्बई छूटने का ग़म, परिवार से अलग रहने की तकलीफ और अपने खाने पीने का खुद इंतज़ाम करना बड़ा भारी लग रहा था। लेकिंन दिल्ली फिर से मेरी कर्मभूमि बनने वाली थी ऐसा मन बना लिया था।

वो तो जब आज रात ट्रेन में बैठा तो जैसे एक झटका लगा। इसी शहर से अपना सफर एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में शुरू करने के बाद आज में एक संपादक के रूप में वापस आया हूँ। जो सारे अनुभव दिल्ली से शुरू हो कर मुम्बई तक पहुंचे और जो मैंने मुम्बई की विभिन्न संस्थाओं से ग्रहण किया, उन सभी को आज फिर से दिल्ली में अपनी नई टीम के साथ न सिर्फ साझा करने का मौका मिलेगा बल्कि बहुत कुछ उनसे सीखने का मौका भी। और इस सफर की शुरुआत इसी दिल्ली से हुई थी जहां 17 वर्षों के बाद मैं वापस आया हूँ। आभार दिल्ली