खाकी: कहानी, क़िरदार सब दमदार

Khakee - The Bihar Chapter Review in Hindi by Aseem Shrivastava

स्क्रिप्ट की डिमांड के नाम पर निर्माता निर्देशक बहुत कुछ करा ले जाते हैं। लेकिन जब डिमांड हो और आप इनका इस्तेमाल नहीं करते हैं तो?

मुझे ठीक ठीक याद नहीं किस अख़बार में पढ़ा था लेकिन पढ़ा ज़रूर था। हालिया रिलीज खाकी सीरीज बनाने वाले नीरज पांडे से पूछा गया था की क्या ये सीरीज परिवार के साथ देख सकते हैं। वैसे तो ये सवाल इन दिनों बनने वाली सभी सिरीज़ पर लागू होता है। इस वेबसरीज को बनाने वाले निर्माता निर्देशक से ही ये सवाल क्यों पूछा गया इसका कारण मुझे नहीं पता।

मुझे जो कारण समझ आये वो दो थे। एक तो ये पुलिस से संबंधित सीरीज है। दूसरा ये कि ये बिहार के ऊपर है। मतलब करेला और नीम चढ़ा। जब वेबसरीज़ का आगमन नहीं हुआ था तब किरदारों को और पूरे माहौल का एक बहुत ही सजीव चित्रण दिखाने के लिए कुछ फ़िल्म निर्देशकों ने गालियों और सेक्स सीन का सहारा लिया। इसकी कीमत उन्हें A सर्टिफिकेट से चुकानी पड़ी और इसके लिए वो तैयार भी थे। फ़िल्में चल पड़ी और ये चलन और बढ़ गया।

जब वेब सिरीज़ का आगमन हुआ तो सबको खुली छूट मिल गई। सारे सर्टिफिकेट यहां से गायब थे। बहुत से हिंदी फ़िल्म के निर्माता निर्देशक को जैसे एक शॉर्टकट रास्ता मिल गया था। एकता कपूर जैसे निर्माताओं ने तो इस तरह के शो से एक अलग तरह से तबाही मचा रखी है।

बहरहाल, इससे पहले की और ज़्यादा भटकें, विषय पर वापस आते हैं। मैं नीरज पांडे जी के काम का ज़बरदस्त प्रशंसक रहा हूं। उनके नए काम का इंतजार रहता है। तो जब ये सवाल पढ़ा तो मुझे लगा इनसे ये सवाल क्यों किया गया। इनके पुराने काम को देखकर आपको पता चल जायेगा की इनका जोर कहानी पर रहता है। अगर ज़रूरत नहीं है तो कोई चीज़ ज़बरदस्ती नहीं डाली जायेगी।

ख़ैर। सवाल का जवाब इन्होनें वही दिया जिसकी उम्मीद थी। \”हां ये सिरीज़ पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है।\” फ़िर इसका ट्रेलर देखा और इंतज़ार करने लगे कब ये सिरीज़ देखने को मिलेगी। ये संभव हुआ इस शुक्रवार/शनिवार को। परिवार के साथ तो नहीं देखी क्योंकि बच्चों की पसंद कुछ अलग तरह की है।

पुलिस को मैंने बहुत करीब से देखा है। मेरे मामाजी भारतीय पुलिस सेवा में कार्यरत थे और बहुत से संवेदनशील केस उनके पास थे। जब तक पत्रकारिता से नाता नहीं जुड़ा था तब तक पुलिस के काम का एक अलग पहलू देखा थे। जब पत्रकारिता में आए तब एक अलग पहलू देखने को मिला। इसलिए जब पुलिस से संबंधित कोई फ़िल्म या सिरीज़ देखने को मिलती है तो ज्यादातर निराशा ही हाथ लगती है। बहुत कम इसके अपवाद हैं। हाल के वर्षों में \’दिल्ली क्राइम\’ ही सबसे अच्छा बना है।

‘खाकी’ भी अब इस लिस्ट में शुमार है। 

किसी भी निर्देशक के लिए गाली या सेक्स का अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन क्या आप अपनी बात इन दो चीज़ों के बगैर भी कर सकते हैं? ये उन लोगों के लिए एक चैलेंज रहता है। बहुत से निर्देशक इससे बच नहीं पाते।

इसका एक और उदाहरण है फ़िल्म ‘ऊंचाई’। फ़िल्म के निर्देशक सूरज बड़जात्या अपने फ़िल्म कैरियर का पहला गाना जिसमें शराब पीना दिखाया गया है, वो शूट किया है। इससे पहले भी उन्होंने कई फ़िल्में बनाई हैं लेकिन बेहद साफ़सुथरी। रोमांस को दिखाने का उनका एक अलग अंदाज़ है जो आम हिंदी निर्देशकों से बहुत अलग है। शायद इसी वजह से आज भी उनकी फ़िल्में पसंद की जाती हैं।

‘खाकी’ में इसकी पृष्ठभूमि और पुलिस के चलते दोनों ही चीज़ों के इस्तेमाल को ठीक भी ठहराया जा सकता था। लेकिन जब आपकी कहानी दमदार हो तो आपको इन सभी चीज़ों की ज़रूरत महसूस नहीं होती। इस सिरीज़ में भी पति-पत्नी हैं, गैंगस्टर की महबूबा भी है। पूरी कहानी गांव के किरदारों पर है। तो जिस तरह फ़िल्मों में ये तर्क दिया था गालियों के ओवरडोज़ के लिए, वही सारे यहाँ भी बिलकुल फिट बैठते हैं। लेकिन निर्देशक महोदय ने कहानी पर ही ध्यान बनाए रखा और इन सबके इस्तेमाल से बचे हैं।

जहां तक इस सीरीज के कलाकारों की बात करें तो सभी ने बहुत ही बढ़िया काम किया है। हिंदी फिल्मों में पुलिस को एक बहुत ही अजीब ढंग से दिखाया जाता है। कुछ निर्देशक चूंकि पुलिस को दिखा रहे हैं तो उनको एक एक्शन हीरो की तरह दिखाते हैं। चलती गाड़ी से कूद जाना या फालतू की मारधाड़ – ये कुछ ऐसी चीज़ें बन गई हैं जिनके बिना काम नहीं चलता इन निर्देशकों का। जब आप खाकी देखते हैं तो यहां मामला थोड़ा नहीं बहुत अलग है। यहां गाड़ियां उड़ती नहीं हैं। यहां इसको सच्चाई के जितने करीब रखा जा सकता है वो रखा गया है (बिना गाली गलौच के)।

सिरीज़ में अच्छे बुरे सभी तरह के पुलिसवाले दिखाए गए हैं। लेकिन कहानी उन अच्छे पुलिसवालों के बारे में जो बस अपना काम करना जानते हैं। ठीक वैसे ही जैसे नीरज पांडे जी और उनके सहयोगी अच्छी कहानी दिखाने के प्रयास में लगे रहते हैं। अगर अभी तक नहीं देखी और साफ़ सुथरी सिरीज़ से परहेज़ नहीं है तो ज़रूर देखें। पूरे परिवार के साथ।

रविवारीय: अंग्रेज़ी में कहते हैं की …

Detective examines a corkboard with maps and photos to solve a mystery.

आज भाषा और उस भाषा के सिनेमा को लेकर बड़ी बहस छिड़ी हुई है। क्या सिनेमा की कोई भाषा होती है? मुझे याद है जब मनोरंजन का साधन सिर्फ़ दूरदर्शन ही हुआ करता था तब अंतरराष्ट्रीय भारतीय फ़िल्म महोत्सव की कई फ़िल्में दूरदर्शन पर आती थीं। मैंने कई सारी भारतीय और विदेशी फ़िल्में देखीं। विश्व सिनेमा की ये सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों का प्रदर्शन कई शहरों में भी हुआ करता था। भोपाल में ऐसे आयोजन नियमित रूप से हुआ करते थे।

आज जब फिल्मों कई भाषाओं में डब करने का चलन बन चुका है तो मुझे याद आता है वो समय जब सिर्फ़ सबटाइटल अंग्रेजी में ही हुआ करते थे। ये सुविधा सभी फिल्मों में नहीं हुआ करती थी तो कई फ़िल्में उनकी मूल भाषा में ही देखी।

अगर हम कुछ देर के लिए भाषा को अलग रख दें और सिर्फ़ कहानी पर ध्यान दें तो ऐसी कई कहानियां पिछले दिनों देखी जो मूलतः किसी और भाषा में थीं और उनको हिंदी में डब किया गया था। कहानी को बदला नहीं गया बस उसकी अच्छी अलग अलग भाषा में डबिंग करी गई। 

अगर यही फ़िल्म या सिरीज़ मूल भाषा में ही रहती तो क्या होता? कहानी तो तब भी उतनी ही अच्छी होती। बस आपका उससे जुड़ाव भाषा के चलते कुछ कम हो जाता। लेकिन मनोरंजन तब भी होता।

भाषा की इस बहस में जो पता नहीं कहां से शुरू हुई और कहां पहुंच गई, हम ये भूल जाते हैं की आपको कहानी पसंद आती है। भाषा आपको वो कहानी समझने में मदद करती है। जब तीस साल पहले जब ए आर रहमान की पहली फ़िल्म \’रोजा\’ का संगीत आया था तो उसको पहले उसकी मूल भाषा में ही सुना था और पसंद भी किया था। इसका हिंदी अनुवाद तो बाद में सुनने को मिला। वैसे इसका रुक्मणि रुक्मणि गाना बहुत ही घटिया था और इसको हिंदी में सुनना एक दर्दनाक अनुभव था।

सिनेमा में अच्छे कंटेंट की कोई भाषा नहीं होती। हाँ अगर आप कुछ पढ़ रहे हों तो उसमें उस भाषा का ज्ञान ज़रूरी हो जाता है समझने के लिए। लेकिन सिनेमा और संगीत में ऐसे कोई बंधन नहीं हैं। ये भी एक कटु सत्य है की हिंदी छोड़ अन्य भाषाओं में हमेशा से ही अच्छी कहानी पर ज्यादा तवज्जो दी जाती रही है। उन्होंने साहित्य से कहानी चुनी जिससे अच्छी फ़िल्में मिलीं। ऐसा नहीं है की वहां मसाला फ़िल्में नहीं बनती। पुष्पा इसका अच्छा उदाहरण है। लेकिन उसमें भी कहानी पर मेहनत कर उसको अच्छा बनाया है। बहरहाल इस पोस्ट को भटकने से पहले मुद्दे पर वापस लाते हैं।

पिछले दो दिनों में दो बहुत अच्छी कहानी देखीं – दिल्ली क्राइम सीज़न 2 एवं गार्गी। इन दोनों कहानियों में कोई भी समानता नहीं है। पहली पुलिस के कामकाज से जुड़ी है तो दूसरी एक बेटी की कहानी है जो अपने पिता के साथ हुई तथाकथित गलती के खिलाफ़ लड़ाई लड़ती है।

अगर आपने दिल्ली क्राइम का पहला सीजन देखा हो तो आपको अंदाजा होगा दूसरे सीज़न में एक नया अपराध होगा और अपराधियों को पकड़ने की दिल्ली पुलिस की कहानी। इस बार भी वही टीम है मंझे हुये कलाकारों की। जब इसका पहला एपिसोड शुरू हुआ तो मुझे लगा शायद ये अंग्रेजी में है। लेकिन थोड़ी देर बाद हिंदी में शुरू हुई। वैसे इस सीज़न में शेफाली शाह का क़िरदार ने कुछ ज़्यादा ही अंग्रेजी का इस्तेमाल किया है। सीज़न 2 अच्छा है लेकिन पहले सीज़न के जैसे बांधने में थोड़ा कमज़ोर। शायद इसके पीछे ये कारण भी है की पहला सीज़न निर्भया केस से जुड़ा था और हमें उस घटना के बारे में लगभग सब जानकारी थी बस किस तरह पुलिस ने ये काम किया इसकी जानकारी नहीं थी। दिल्ली क्राइम का पहला सीज़न आज भी मेरे हिसाब से हिंदी का सबसे उम्दा काम है।

उस कामयाबी के चलते दूसरे सीज़न की बात होने लगी। शायद निर्माताओं पर भी दवाब था इसके चलते दूसरा सीज़न पर काम किया। ये कहने का मतलब ये कतई नहीं है की इसमें कुछ गलत है। दूसरे सीज़न में कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी गई है लेकिन शायद हमारी उम्मीदें पहली सिरीज़ से बहुत बढ़ गई थीं। क्या इसका तीसरा सीज़न भी आयेगा? शायद। क्योंकि इस पांच एपिसोड की छोटी सी सिरीज़ के अंत में इसको खुला रखा गया है। शायद नए लोग हों। इंतज़ार करना पड़ेगा नई घोषणा का।

जो दूसरी बहुत ही बढ़िया कहानी देखी वो थी गार्गी। मूलतः तमिल में बनी इस फिल्म में सई पल्लवी का दमदार अभिनय है और एक ऐसी कहानी जो आपको अंदर तक झकझोर तक रख देगी। बहुत ही कमाल का लेखन है। भाषाई बहस में न पड़ते हुए सिर्फ़ इतना कहना चाहूंगा इस फ़िल्म को आपको देखने का मौक़ा नहीं छोड़ना चाहिए। सई पल्लवी की पहली फ़िल्म प्रेमम से ही मैं उनके अभिनय का प्रशंसक रहा हूं। बीच में एक दो फ़िल्में और देखीं उनकी लेकिन ये बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म है। आप फ़िल्म के अंत के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होंगे। आपको लगेगा कहानी अब बस खत्म और अंत भला तो सब भला। लेकिन कमाल की स्क्रिप्ट शायद इसे ही कहते हैं।

आज जब ये भाषा की बहस होती है तो लगता है अच्छा सिनेमा या कंटेंट देखने की चाह रखने वालों के लिए इससे अच्छा समय नहीं हो सकता है। आप फिल्में या ओटीटी दोनों पर भारत ही नहीं विश्व का अच्छा कंटेंट देख सकते हैं।