क्या पता हम में है कहानी या हैं कहानी में हम…

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अच्छे विचार से दिन की शुरुआत

स्कूल के समय एक चलन था रोज़ाना एक सुविचार सबके साथ साझा करना। कई बार ये पूरे स्कूल के साथ होता तो कभी आपकी कक्षा के सहपाठियों के साथ। इससे इतर एक और काम करते – इन अच्छे विचारों को लिख कर कक्षा में टांगने का काम करते। स्कूल में एक स्थान भी नियत था जहां रोज़ ऐसा ही कोई सुविचार बोर्ड पर लिखा होता जो आने-जाने वाले सभी को दिखाई देता। इसको पढ़ना भी अच्छा लगता और देखना भी।

वैसे ये सुविचार वाला विचार ही कमाल का है। अब तो वॉट्सएप पर ख़ूब सारे ग्रुप हैं जो अलग अलग तरह के सुविचार शेयर करते हैं। कुछ बहुत ही ज़्यादा गहरे सुविचार भी होते हैं और कुछ मज़ेदार। कुछ संगीत के साथ भी होते हैं। मतलब हर तरह के विकल्प होते हैं। ज्यादातर ये संदेश एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप में प्रेषित करे जाते हैं। कई लोग थोड़ी ज़्यादा मेहनत करते हैं और इसको अपना स्टेटस भी बना देते हैं।

पिछले दिनों दिवाली के उपलक्ष्य में भोपाल जाना हुआ। मुंबई से जब निकलते हैं तो ढेर सारे प्रोग्राम बनते हैं। इनसे मिलेंगे, उनसे बात करेंगे। कुछ खाने पीने का कार्यक्रम भी बन जाता है। लेकिन घर पहुंच कर सब कार्यक्रम धरे के धरे रह जाते हैं। इसके पीछे दो मुख्य कारण रहते हैं। एक तो घर में ही कुछ न कुछ काम चलते रहते हैं और दूसरा घर पर माता पिता के साथ समय बिताने की इच्छा। कहीं जाना होता तो प्रयास रहता सब लोग साथ में ही जायें। बाक़ी फ़िर त्यौहार के चलते कुछ न कुछ काम लगा ही रहता।

बहरहाल दिवाली पर सब इक्कठा हुए और सबने त्यौहार अच्छे से मनाया। इसी दौरान शायद मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी जिसमें कहा गया क्या अब ड्राइंग रूम को हटाने का समय आ गया है। तर्क ये दिया गया की अब सब सोशल मीडिया पर ही त्यौहार की शुभकामनायें दे देते हैं। घर पर आना जाना अब उतना नहीं होता। मैंने जब ये पोस्ट पढ़ी थी तब इसके बारे में इतना सोच विचार नहीं किया था।

लेकिन कुछ दिनों के बाद वही फेसबुक वाली पोस्ट फ़िर से दिखाई दी। ऐसा अक्सर होता है सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट देखी – पढ़ी और कुछ दिनों बाद अलग अलग वॉट्सएप ग्रुप में इसका आदान प्रदान चल रहा होता है। जिसकी ये पोस्ट होती है उनका नाम सब जगह से गायब होता है। वैसा ही कुछ इस पोस्ट के साथ भी हुआ। मुझे बिल्कुल नहीं पता इसके मूल रचनाकर कौन हैं।

वापस आते हैं पोस्ट में व्यक्त किए गए विचार के पास। तो पोस्ट का सार जैसा मैंने पहले बताया ड्राइंग रूम की अब क्या ज़रूरत जब सब मिलना मिलाना सोशल मीडिया पर ही हो रहा है। इस पोस्ट पर बहुत से लोगों ने अपने विचार रखे। ज्यादातर लोग इससे सहमत दिखे। कुछ ने इसको कोविड और उसके बाद मोबाइल पर इस कम मिलने का दोष मढ़ा। कुछ समझदार लोगों ने बाकी सबसे पूछ लिया आप कितने लोगों से मिलने गए थे जो आपके यहां लोगों के नहीं आने पर इतने व्यथित हो रहे हैं?

लोगों की टीका टिप्पणी ने मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया। बाकी लोगों से पूछने से पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। मुझे तो अपना ड्राइंग रूम लगभग हर दिन मेहमानों से भरा दिखा। कुछ ड्राइंग रूम की शोभा मैंने अपने बेडौल शरीर से बढ़ाई। इस बात से सहमत हूं की अब आना जाना कम हो गया है। लेकिन परिवार के सभी सदस्यों ने ये प्रयास किया की जहां जाना ज़रूरी है वहां कोई न कोई जाये। जैसे जहां मेरा जाना किसी भी कारण से नहीं हो पाया तो मेरे अनुज ने ये काम कर दिया। जहां हम दोनों का जाना नहीं हो पाया वहां अगली पीढ़ी को ज़िम्मेदारी दे दी। कुल मिलाकर मिल बांटकर सबसे मिलने का प्रयास किया गया। कुछेक ऐसे भी न्योते थे जिनको किसी भी तरह से अस्वीकार ही करना था और ऐसा बहुत अच्छे से किया। लेकिन हर बार से इस बार ज़्यादा लोगों से अलग अलग जगह पर मुलाक़ात हुई, ये भी सच है। कई पुराने लोगों से इसलिए मिलना नहीं हुआ क्योंकि वो या तो शहर मैं नहीं थे या व्यस्त थे। लेकिन कुछ नए लोगों से भी मिलना हुआ।

बहुत से लोगों से फोन से बात भी नहीं हुई न ही किसी वीडियो कॉल पर। बस दीवाली की शुभेच्छा का आदान प्रदान हुआ। जब परिवार में हम बच्चे लोग ही थे तब माता पिता के लिए सबको साथ लेकर जाना शायद ज़्यादा मुश्किल नहीं होता होगा। अब बच्चों के बच्चे हो गए हैं तो सबको साथ में लेकर जाना एक बड़ा काम हो जाता है। और यहीं से मुझे याद आते हैं वो पिताजी के सरकारी घर वाले दिन। जब दो बेडरूम एक गुसलखाने वाले घर में सब आराम से तैयार भी हो जाते थे और मिलना जुलना भी हो जाता था।

हमारे घर में शुरू से लोगों का ख़ूब आना जाना रहा है। मतलब घर के दरवाज़े पर कभी किसी रिश्तेदार की गाड़ी या कभी किसी के दोस्त की गाड़ी या साइकिल खड़ी रहती। मोहल्ले में हमारा घर जाना जाता था वही जिनके यहां बहुत लोग आते हैं’। हम लोगों को भी इस माहौल से कोई परेशानी नहीं थी। अलबत्ता कुछ करीबी रिश्तेदारों को इससे बड़ी आपत्ति थी।

श्रीमती जी की सखी के भांजे से मुलाक़ात हो गई जब ड्राइंग रूम में भाईदूज के टीके का काम चल रहा था। ये मिलने मिलाने के मामले में श्रीमती जी बहुत आगे हैं। मुंबई में अपनी प्रिय सखी से वो महीनों नहीं मिल पाती हैं लेकीन भोपाल के एक हफ़्ते के प्रवास में वो रिश्तेदार, अड़ोसी पड़ोसी सभी से मिलने के बाद अपनी स्कूल की सखियों से भी मिलने का कार्यक्रम बना लेती हैं। ये सब मिलने मिलाने के बाद जब मुंबई वापस पहुंचे तो लगा इतने दिन दौड़ते भागते ही निकल गए। उसपर किसी से किसी कारण से मिलना नहीं हो पाया तो वो ड्राइंग रूम ही हटाने का विचार कर रहे हैं। वैसे ये पूरी तरह आपका निर्णय होना चाहिए। लेकिन अगर कुछ समय पश्चात लोगों का आना हुआ तो उनको कहां बैठाईएगा इस पर भी विचार कर लेते तो अच्छा होता।

बात ये नहीं है की कोई मिलना नहीं चाहता। बस समय के साथ मिलने जुलने वालों की संख्या बढ़ जाती है। समधियाने जुड़ जाते हैं, सहकर्मी बढ़ जाते हैं, आप किसी पर निर्भर हो जाते हैं किसी के यहां जाने के लिए और कई बार आप तैयार होते हैं जाने के लिए और कोई आपके यहां मिलने आ जाता है। जैसे त्यौहार वाले दिन आप भी कहीं निकल नहीं पाते, वैसी ही मजबूरी किसी और के साथ भी तो हो सकती है। जब आपको समय मिले तो आप मिलने निकल जाएँ और जब उनको समय मिलेगा तो वो आपके ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाएंगे। और ये मिलने के लिए त्यौहार का इंतजार क्यूं? जब अपने प्रियजन, इष्ट मित्रों से मिलें वही एक त्यौहार है।

आप सभी को दीवाली एवं नव वर्ष की ढ़ेरों शुभकामनायें।

दिवाली के बहाने कुछ अन्दर की, कुछ बाहर की सफाई

बीते दिनों दीवाली पर घर जाना हुआ। चूंकि इन दिनों समय ही समय है तो ज़्यादा आनन्द लिया भोपाल यात्रा का। अब चालीस पार हो गए हैं तो हमारे समय में लिखना अटपटा नहीं लगता। जब हम पिताजी को मिले सरकारी मकान में रहते थे तो हर साल दीवाली के पहले घर में सरकार की तरफ से रंगरोगन करवाया जाता था।

उस समय स्कूलों की दीवाली की छुट्टियां दशहरे से शुरू होती थीं और दीवाली तक चलती थीं। तो इस रंगरोगन या पुताई के कार्यक्रम के समय हम चारों भाई बहन घर पर रहते थे। जिस दिन ये काम होना होता था उस दिन सुबह से माँ रसोई में खाने की तैयारी करतीं और हम लोग सामान बाहर निकालने का काम। कुछ बडी अलमारियों को छोड़ कर बाकी पूरा सामान घर के बाहर। किताबों को धूप दिखाई जाती। चूंकि इसके ठीक बाद सर्दियों का आगमन होता तो गर्म कपड़े भी बाहर धूप में रखे जाते।

इस सालाना कार्यक्रम में बहुत सी सफाई हो जाती। रंगरोगन तो एक दिन में हो जाता लेकिन सामान जमाने का कार्यक्रम अगले कुछ दिनों तक चलता। कुछ सालों बाद सरकार जागी तो ये कार्यक्रम दो साल में एक बार होने लगा और जब हमने वो मकान छोड़ा तो सरकार ने इसका आधा पैसा रहवासियों से वसूलना शुरू कर दिया था।

अपने आसपास सरकारी घर ही थे और बहुत थोड़े से लोग थे जिनके खुद के मकान थे तो ये पता नहीं चलता था उनके यहाँ रंगरोगन का अंतराल क्या है। वो तो जब दिल्ली, मुम्बई में रहने आये तो पता चला कि ये पाँच साल में या उससे अधिक समय में होता है।

पिताजी की सेवानिवृत्त के बाद अपने मकान में रहने लगे तो सालाना रंगरोगन का कार्यक्रम पूरे घर का तो नहीं बस भगवान घर तक सीमित हो गया है। चूँकि पहुंचते ही एन दीवाली के पहले हैं तो माता-पिता सफ़ाई वगैरह करवा के रखते हैं। उसपर पिताजी की हिदायत उनके किसी समान को उसकी जगह से हिलाया न जाये। हाँ, दीवाली की सफाई ज़रूर होती है लेकिन उतनी व्यापक स्तर पर नहीं जब आप घर पेंट करवा रहे हों। सामान सब वहीं रखे रहते हैं और हम बस उसके आसपास सफाई कर आगे बढ़ जाते हैं।

सरकारी घर में कुछेक बार तो ऐसा भी हुआ कि हम लोग सुबह से सामान बाहर निकाल कर तैयार और पता चला काम करने वाले उस दिन छुट्टी पर हैं। इन दिनों भारत के क्रिकेट मैच भी चलते थे तो टीवी को उसकी जगह से हिलाया नहीं जाता। घर में पेंट हो रहा है और मैच का आनंद भी लिया जा रहा है। जितने भी बल्ब और ट्यूबलाइट लगे होते उन्हें अच्छे से धो कर लगाया जाता। नये रंगे कमरे की चमक साफ किये बल्ब की रोशनी में कुछ और ही होती। आजकल त्योहार मनाने का तरीका बदल गया है। होता सब कुछ वही है लेकिन लगता है कुछ कमी है।

सोचिये अगर हम हर साल कुछ दिन निकाल कर अपने अंदर की ईर्ष्या, द्वेष, भय, अभिमान और अहंकार की भी सफ़ाई कर लें तो न सिर्फ हमारे संबधों में बल्कि स्वयं हमारे व्यकितत्व में भी कितनी ख़ालिस चमक आ जायेगी।