जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन – 2

दरअसल जो पोस्ट मैंने पहले लिखी थी उसकी पृष्ठभूमि बता दूँ। उस रविवार की सुबह याद रह गया तो सुबह से रंगोली कार्यक्रम देखा। वैसे तो मुझे इसकी ज़रूरत नहीं लगती क्योंकि मुझे लगता है मेरी पीढ़ी वाले और उसके बाद वाले भी जानते ही होंगे मैं किस रंगोली की बात कर रहा हूँ। फिर भी, ये एक कार्यक्रम है जो दूरदर्शन पर हर रविवार सुबह आता है और कुछ बहुत ही अच्छे गाने देखने और सुनने को मिलते हैं।

चाय की प्याली, अखबार, रंगोली और परिवार के सभी सदस्य – कभी ऐसी भी रविवार की सुबह हुआ करती थीं। आँख मलते हुए टीवी के सामने जा बैठते। पुरानी, नई फिल्मों के गाने देखते सुनते चाय भी हो जाती और आलस भी। उसके बाद का कार्यक्रम ठीक वैसे ही जैसा मैंने पिछली बार बताया था। जब पानी की किल्लत शुरू हुई तो रंगोली शुरू होने के पहले गाडी धुलाई का कार्यक्रम सम्पन्न हो जाता था। क्योंकि उनदिनों आज की तरह न तो म्यूजिक चैनल होते थे और न ही यूट्यूब की जब मन चाहा तो देख लिया। लेकिन उस सस्पेंस का अपना मज़ा है।

ठीक वैसा जैसा इस हफ़्ते मैंने और श्रीमती जी ने लिया। उनके पसन्दीदा एक्टर या गायक का गाना आया तो साथ में गुनगुना लेतीं और मुझे चिढ़ातीं। लेकिन अगले गाने पर मेरी बारी होती ये सब करने की। बचपन में हम भाई बहन के बीच भी कुछ ऐसा ही था। अपने पसन्दीदा गाने के आने पर मानो पर लग जाते। लेकिन बाकी गाने भी सुनते। शायद इसका ये फायदा हुआ कि पुराने गाने भी पसंद आने लगे। 90s के गाने तो हैं ही अच्छे लेकिन 60-70 के दशक के गाने भी उतने नहीं तो भी ठीक ठाक पसंद थे। अब चूंकि जो टीवी पर दिखाया जायेगा वही देखने को मिलेगा तो कोई विकल्प भी नहीं था। इंतज़ार रहता था रंगोली का, रविवार के ख़ास कार्यक्रम का। महाभारत, रामायण और भारत एक खोज जैसे कार्यक्रम सचमुच पूरे देश का रविवार ख़ास बनाते थे।

आजकल बहुत से घरों में दो या इससे अधिक टीवी रखने का चलन है। सब अपने अपने कमरे में बैठ क्या देखते हैं तो पता नहीं चलता किसको क्या पसंद है। अपनी पसंद का कुछ देखना सुनना हो तो अपने कमरे के टीवी में देख लेते हैं। रही सही कसर इस मोबाइल ने पूरी करदी। अब रविवार को टीवी देखना एक पारिवारिक कार्यक्रम नहीं रह गया है। लेकिन कार्यक्रम वैसे ज़रूर हैं (सिर्फ दूरदर्शन पर)।

ये अलग अलग पसन्द को लेकर अब हमारे घर में भी बहस होने लगी है। बच्चे बड़े हो रहे हैं और अब उन्हें इस समय के गाने पसंद हैं और मैं और श्रीमती जी पुराने हो चले हैं। कार से कोई यात्रा करो तो ये एक बड़ा मुद्दा बन जाता है। बादशाह और हनी सिंह के बेतुके बोल के आगे कहाँ साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी चलेंगे। इसलिए पहले से ही सबके टाइम स्लॉट दे दिये जाते हैं। वो हमारी पसंद सुनें और हम उनकी। ये अलग बात है की अपने गाने वो पुरे जोश के साथ सुनते हैं और हमारे टाइम पर वो सोना पसंद करते हैं।

जब हम भोपाल से कश्मीर गये तो गानों की खूब तैयारी करी थी। सीडी पर नये, पुराने, गाने, भजन, गज़ल सब लेकर रवाना हुये इस यात्रा पर। रविवार की रंगोली के जैसे ये यात्रा कई मायनों में ख़ास थी और वैसा ही सस्पेंस भी की आगे क्या है। मतलब एडवेंचर की हद कर दी थी पापा और मैंने। पूरा परिवार कार में भर कर निकले थे बिल्कुल ही अनजान रास्ते पर।

जब तक भोपाल और उसके आसपास चलते रहे तो लगता सब तो पता है। अनजानी राहों पर चलके ही आप जानते हैं अपने बारे में कुछ नया। अपने आसपास के बारे में और लोगों के बारे में। आपके व्यक्तित्व में आता है एक अलग ही निखार क्योंकि वो अनुभव आपको बहुत कुछ सीखा और बात जाता है। इस बार चलिए कुछ नया करते हैं श्रेणी में अपने आसपास (१०० किलोमीटर) के अन्दर जाएँ एक बिलकुल नए रस्ते पर, जहाँ आप पहले नहीं गए हों। शर्त ये की अपना गूगल मैप्स इस्तेमाल न करें बल्कि लोगों से पूछे रास्ता और उस इलाके में क्या ख़ास है।

जब रविवार सचमुच होता था एक ख़ास दिन

जब हम पढ़ रहे थे तब दूसरे और चौथे शनिवार स्कूल की छुट्टी रहती थी। पिताजी का साप्ताहिक अवकाश रविवार को ही होता था। मतलब रविवार का केवल एक दिन मिलता था जब सब घर पर साथ में रहते थे। लेकिन उन दिनों रविवार का मतलब हुआ करता था ढेर सारा काम। गाड़ियों – स्कूटर, सायकल और हमारी रामप्यारी अर्थात ऑस्टिन – की धुलाई एक ऐसा काम होता था जिसका हम सब इंतज़ार करते थे।

पिताजी ने हमेशा गाड़ी का खयाल रखना सिखाया। हमारे पास था भी एंटीक पीस जिसका रखरखाव प्यार से ही संभव था। गाड़ी चलाने से पहले गाड़ी से दोस्ती का कांसेप्ट। उसको जानिये, उसके मिज़ाज को पहचानिये। गाड़ी तो आप चला ही लेंगे एक दिन लेकिन गाड़ी को समझिये। इसकी शुरुआत होती है जब आप गाड़ी साफ करना शुरू करते हैं। एक रिश्ता सा बन जाता है। ये सब आज लिखने में बड़ा आसान लग रहा है। लेकिन उन दिनों तो लगता था बस गाड़ी चलाने को मिल जाये किसी तरह।

गाड़ी से ये रिश्ते का एहसास मुझे दीवाली पर भोपाल में हुआ। चूंकि कार से ये सफ़र तय किया था तो गाड़ी की सफ़ाई होनी थी। उस दिन जब गाड़ी धो रहा था तब मुझे ध्यान आया कि एक साल से आयी गाड़ी की मैंने ऐसे सफाई करी ही नहीं थी। मतलब करीब से जानने की कोशिश ही नहीं करी। कभी कभार ऐसे ही कपड़े से सफ़ाई कर दी। नहीं तो बस बैठो और निकल पड़ो। कभी कुछ ज़रूरत पड़ जाये तो फ़ोन करदो और काम हो जायेगा।

जब तक नैनो रही साथ में तो उसके साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया। लेकिन नई गाड़ी आते ही दिल्ली निकल गये इसलिये गाड़ी चलाने का भी कम अवसर मिला। लेकिन दिल्ली में भी गाड़ी को बहुत याद ज़रूर करता और इसका दुख भी रहता कि नई गाड़ी खड़ी रहती है। यहां आकर उसको थोड़ा बहुत चला कर उस प्यार की खानापूर्ति हो जाती। बस उसको पार्किंग में देख कर खुश हो लेते। श्रीमती जी की लाख ज़िद के बाद भी अभी उन्हें इससे दूर रखने में सफल हूँ। लेकिन जब कार से लंबी यात्रा करनी हो तब लगता है उन्हें भी कार चलाना आ जाये तो कितना अच्छा हो। हम लोगों को कार से घुमने का शौक भी विरासत में मिला है। जिससे याद आया – मैंने आपसे मेरी अभी तक कि सबसे अनोखी कार यात्रा जो थी झीलों की नगरी भोपाल से धरती पर स्वर्ग कश्मीर के बीच – उसके बारे कुछ बताया नहीं है। फिलहाल उसकी सिर्फ एक झलक नीचे। दस साल पुरानी बात है लेकिन यादें ताज़ा हैं।

अगर हम गाड़ी की जगह इन्सान और अपने रिश्ते रखें तो? हम कितना उनको सहेज कर रखते है? क्या वैसे ही जैसे कभी कभार गाड़ी के ऊपर जमी धूल साफ करते हैं वैसे ही अपने रिश्तों के साथ करते हैं? या फिर हमने उनके रखरखाव की ज़िम्मेदारी एक कार साफ करने वाले के जैसे अपने लिये खास मौके छोड़ दिये हैं? समझें क्या कहा जा रहा है बिना कुछ बोले।

पिताजी और ऑस्टीन के बारे में अक्सर लोग कहते कि वो उनसे बात करती हैं। कई बार लगता कि ये सच भी है क्योंकि जब ऑस्टीन किसी से न चल पाती तब पिताजी की एंट्री होती जैसे फिल्मों में हीरो की होती है और कुछ मिनटों में ऑस्टीन भोपाल की सड़कों पर दौड़ रही होती। क्यों न हम भी अपने रिश्ते बनायें कुछ इसी तरह से।

चलिये नया कुछ करते हैं कि श्रेणी में आज अपना फ़ोन उठाइये और किन्ही तीन लोगों को फ़ोन लगायें। कोई पुराने मिलने वाले पारिवारिक मित्र, कोई पुराना दोस्त या रिश्तेदार। शर्त ये की आपका उनसे पिछले तीन महीनों में किसी भी तरह से कोई संपर्क नहीं हुआ हो। जैसा कि उस विज्ञापन में कहते हैं, बात करने से बात बनती है तो बस बात करिये और रिश्तों पर पड़ी धूल को साफ करिये। सिर्फ अपनी कार ही नहीं अपने रिश्तों को भी चमकाते रहिए। बस थोडा समय दीजिये।