फाइंडिंग फॉरेस्टर: आया मौसम दोस्ती का

अपने आप को लेखक मानने की ग़लती नहीं कर सकता लेकिन भूले बिसरे ये जो ब्लॉग पोस्ट लिखना होता है, तो इसलिए स्वयं को एक अदना सा ब्लॉग लिखने वाला ज़रूर बोल सकता हूं। अब लिखने में जो आलस हो जाता है उसके बहुत से कारण हैं। आप अगर मुझसे साक्षात मिलें हों तो शायद आपको ये और बेहतर दिखाई भी देगा और समझ भी आएगा।

आज से लगभग पच्चीस साल पहले एक अंग्रेजी फ़िल्म आई थी Finding Forrester फाइंडिंग फॉरेस्टर। ये फ़िल्म है एक लेखक के बारे में जिसने एक बहुत सफ़ल किताब के बाद अब लिखना छोड़ दिया है और शहर के अच्छे घरों वाले इलाके से दूर एक इलाके में फ़्लैट लेकर रहते हैं। वहां इनकी मुलाक़ात एक ग़रीब घर के लड़के से होती है जो कुछ लिखता रहता है। कैसे ये दोनों दोस्त बनते हैं और कैसे दोनों की ज़िंदगी में एक घटना के बाद भूचाल सा आ जाता है – ये इसकी कहानी है।

चलना शुरू करें

मैं आज इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इसमें लेखक कैसे कहीं अटक जाता है, कैसे उसके विचार आगे नहीं बढ़ते इसका बख़ूबी चित्रण किया है। बहुत से लेखक इसको Writers ब्लॉक भी कहते हैं। जब आप बस सामने रखे कागज़ को देखते रहते हैं और कुछ लिख नहीं पाते।

फ़िल्म में इसका एक बड़ा अच्छा उपाय बताया गया है। उनके अनुसार जब लिखना शुरू करें तो बस लिखें। उस समय सोचना छोड़ दें। ये बात जीवन में किसी भी काम के लिए सभी है। हम अकसर किसी काम को तबतक टालते रहते हैं जब तक हमारे हिसाब से सब कुछ सही नहीं हो जाता। नतीजा ये होता है की हम इंतज़ार ही करते रह जाते हैं। इसी तरह फ़िल्म में जमाल वालेस जब विलियम फॉरेस्टर के घर पर कुछ लिख नहीं पाता तो विलियम उसको अपनी एक किताब के कुछ शुरुआती अंश से लिखने की सलाह देते हैं। जब जमाल ऐसा करना शुरू करता है तो उसके बाद वो उसी शुरुआत को अपने शब्दों में कहीं और ले जाता है।

ये सुझाव कितना कारगर है इसका मुझे पता नहीं। लेकिन मेरे साथ अक्सर ये होता है और ये मेरे पत्रकारिता की शुरुआती दिनों से चल रहा है। जब तक समाचार लिखना है तब तक तो गाड़ी ठीक चलती है। क्योंकि उस समय आप सिर्फ़ एक काम कर रहे होते हैं – अपने पाठकों तक ख़बर पहुंचाना। लेकिन जब कोई स्पेशल स्टोरी या फीचर लिखना हो तो श्रीमान असीम बस ढूंढते रहते हैं प्रेरणा को।

अच्छी बात ये रही कि इस पूरे कार्यक्रम में प्रेरणा नाम की कोई सहयोगी नहीं मिलीं। अगर वो होतीं तो लोगों को खामखां बातें बनाने का अवसर मिलता।

फ़िल्म पर वापस आते हैं। जमाल पढ़ाई में ठीक ठाक ही हैं लेकिन वो बहुत बढ़िया बास्केटबॉल खेलते हैं। अमरीका में अगर आप खेलकूद या अन्य किसी विधा में अच्छे हैं तो अच्छे कॉलेज/स्कूल आपको स्वयं अपने यहां दाखिला देते हैं। इसके चलते एक अच्छे स्कूल में उनकी आगे की पढ़ाई सुनिश्चित होती है। 

लेखक और इनके शागिर्द के बीच एक बात तय होती है कि जो भी इनके फ़्लैट में लिखा जाएगा वो बाहर नहीं ले जाया जाएगा। लेकिन जमाल स्कूल में एक लेखन प्रतियोगिता में घर पर लिखा हुआ एक निबंध जमा करा देते हैं। इस निबंध की शुरुआत उन्होंने विलियम की एक किताब के अंश से शुरू करी लेकिन बाक़ी अपने शब्दों में लिखा। प्रतियोगिता के नियम के अनुसार अगर आपके पास लेखक की अनुमति नहीं है तो इसके लिए आपको स्कूल से निकाल भी सकते हैं।

जमाल के शिक्षक राबर्ट अपने आप को एक तुर्रम लेखक मानते हैं। विलियम जो बरसों से घर से बाहर नहीं निकले थे, अपने दोस्त जमाल के लिये घर से निकलते हैं और उनका लिखा एक दूसरा निबंध सभी के सामने पढ़ते हैं।

अपना अपना नॉर्मल

कहानी में इन दो किरदारों के तरह मैं भी कभी विलियम तो कभी जमाल बन जाता हूँ। जब मेरी टीम के सदस्य लिखते हैं तो मैं विलियम बन उनकी मदद करता हूँ। मगर जब अपने लिखने की बारी आती है तो मैं जमाल बन जाता हूं।

भारत में लेखक या उनके ऊपर बहुत कम फ़िल्में बनी हैं। जो हैं, वो बहुत कुछ ख़ास नहीं लगती। लेकिन जब इस फ़िल्म को मैंने मुंबई के सिनेमाघर में देखा तो लगा था ये लिखने वालों के ऊपर उम्दा कहानी है। शॉन कॉनरी जो विलियम का किरदार निभा रहे हैं, इससे पहले जेम्स बॉन्ड के रोल में ज़्यादा याद थे। लेकिन इस फ़िल्म में लेखक की भूमिका में उनका यादगार अभिनय था। जमाल के रोल में रॉब ब्राऊन भी बहुत जंचे हैं।

इस फ़िल्म को हिंदी में भी डब किया गया है और यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।

Saare Jahan Se Accha, Salakaar: From Jinnah to Zia – Pakistan Nuclear Programme is Flavour of the Season on OTT

Come Independence Day and everything and everyone around just goes super patriotic. This was not the case before the advent of social media and various sarkari campaigns to mark the occasion. It used to be a very routine day. Flag hoisting, getting couple of laddoos and come back home to watch reruns of any classic on the good old Doordarshan. Now the OTT platforms have also embraced this change and the result is Saare Jahan Se Accha and Salakaar. 

Available on Netflix and Jio Hotstar, both the shows are about – you guessed it right, its about our not so friendly neigbour Pakistan and its nuclear programme.

Since Salakaar was available first, I will start with this show which travels back and forth in time. It shows how the agent Adheer Dayal (Naveen Kasturia) back then sabotaged Pakistan’s nuclear programme. The same agent is now heading the intelligence unit and trying to find out Pakistan’s nuclear strategy now with the help of agent Mariam (Mouni Roy) who honey traps a Pakistani Colonel.

While the plot does sound very interesting, its the execution that leaves a bad taste. The first part set in 1978 is indeed very gripping with General Zia (Mukesh Rishi) and his attempts to make Pakistan a nuclear state, its the present day story that just doesn’t hold. The five-episode series can be watched even if you are swiping on your mobile.

Saare Jahan Se Accha on Netflix definitely is better of the two. It has good actors, good direction and better script too. This six-episode series has Pratik Gandhi playing Vishnu Shankar who is sent to Pakistan to unearth their nuclear programme. Sunny Hinduja plays Pakistani army office Murtuza Malik who tries his best to counter Indian plans.

Unlike Salakaar, where its female agent who is leading the operations, the female actors dont have much to do. Kritika Kamra does have some scenes towards the end, but thats about it. Tilotma Shome as Vishnu’s wife feels wasted. The scenes between the couple also don’t come out well. Pratik Gandhi has that awkward look on his face when he with his wife.

Surprisingly, it is not Pratik Gandhi who wins the show. Its Sunny Hinduja and Suhail Nayyar who plays Rafiq. Because we have already seen Gandhi in Scam, he feels a bit out of place as a spy. There is a scene where he orders a martini and I was like – WTF!!!.

Unlike a K K Menon or Manoj Bajpayee, who suit the role of a spy or intelligence officer, Gandhi just doesn’t look the part. Hinduja on the other hand is miles ahead of Gandhi, as is Nayyar.

Sitaare Zameen Par vs Housefull 5: The Box Office Collection War

Israel-Iran conflict is nothing in front of the war going on in the multiplex near you.

Aamir Khan’s much awaited Sitaare Zameen Par released on June 20 and since then social media is going crazy. There is a huge section of so called business analysts who analyse the daily booking trends and predict fate of the movie released.

Which is not the problem. The problem is these so called arm-chair analysts are biased and actually run a campaign for or against any film based on – err who pays and how much. 

Some of them post multiple videos during the day – the ones if support of good cinema praising the collection. But those against the film, come up with all sorts of theories why the film is getting the numbers.

Hai La

Since June 20, there is a virtual war going on. Twitter and YouTube is full of it. As all it takes is a mobile and camera, everyone has jumped into the online war. A certain Dhruv Rathee sitting in Germany has also joined the gang. Why because – dollars ka mamla hai bhai.

For the past few days I have been watching this circus and its quite funny how a group of people for reasons best known to them are leaving no stone unturned to bring down the film. So much hatred? Against Aamir Khan?

But look at the video below. It surely is not AI generated or planted.

Ui Maa

There are all sorts of theories doing the rounds. A Twitter user alleged a big production house behind the campaign.

And then I randomly watched an interview of producer Pahlaj Nihalani. The man behind many successful Hindi films revealed the ugly face of the industry.

He said it is actually people in the industry who bring down their colleagues. He also gave examples of how veteran actors indulged in this game during time. He also recalled how his films were not given screens following threats by other producers.

So this thing has been going on. While in the past it was not known to the world, thanks to technology and yes, the YouTubers, its all in the open. Now we have these hired analysts who pull down a movie if its doing well or is doing better than that of a particular actor.

Well nothing new here either. As a fan of actor ‘A’ I want his films to do well at the box office. But if the film itself is bad, I just cannot ignore the harsh reality. 

The fate of any film good or bad should rest in the hands of the audience. Running a campaign – for or against – cannot make a bad film work on box office or tank a good film.

The war is far from over.

खाकी: कहानी, क़िरदार सब दमदार

Khakee - The Bihar Chapter Review in Hindi by Aseem Shrivastava

स्क्रिप्ट की डिमांड के नाम पर निर्माता निर्देशक बहुत कुछ करा ले जाते हैं। लेकिन जब डिमांड हो और आप इनका इस्तेमाल नहीं करते हैं तो?

मुझे ठीक ठीक याद नहीं किस अख़बार में पढ़ा था लेकिन पढ़ा ज़रूर था। हालिया रिलीज खाकी सीरीज बनाने वाले नीरज पांडे से पूछा गया था की क्या ये सीरीज परिवार के साथ देख सकते हैं। वैसे तो ये सवाल इन दिनों बनने वाली सभी सिरीज़ पर लागू होता है। इस वेबसरीज को बनाने वाले निर्माता निर्देशक से ही ये सवाल क्यों पूछा गया इसका कारण मुझे नहीं पता।

मुझे जो कारण समझ आये वो दो थे। एक तो ये पुलिस से संबंधित सीरीज है। दूसरा ये कि ये बिहार के ऊपर है। मतलब करेला और नीम चढ़ा। जब वेबसरीज़ का आगमन नहीं हुआ था तब किरदारों को और पूरे माहौल का एक बहुत ही सजीव चित्रण दिखाने के लिए कुछ फ़िल्म निर्देशकों ने गालियों और सेक्स सीन का सहारा लिया। इसकी कीमत उन्हें A सर्टिफिकेट से चुकानी पड़ी और इसके लिए वो तैयार भी थे। फ़िल्में चल पड़ी और ये चलन और बढ़ गया।

जब वेब सिरीज़ का आगमन हुआ तो सबको खुली छूट मिल गई। सारे सर्टिफिकेट यहां से गायब थे। बहुत से हिंदी फ़िल्म के निर्माता निर्देशक को जैसे एक शॉर्टकट रास्ता मिल गया था। एकता कपूर जैसे निर्माताओं ने तो इस तरह के शो से एक अलग तरह से तबाही मचा रखी है।

बहरहाल, इससे पहले की और ज़्यादा भटकें, विषय पर वापस आते हैं। मैं नीरज पांडे जी के काम का ज़बरदस्त प्रशंसक रहा हूं। उनके नए काम का इंतजार रहता है। तो जब ये सवाल पढ़ा तो मुझे लगा इनसे ये सवाल क्यों किया गया। इनके पुराने काम को देखकर आपको पता चल जायेगा की इनका जोर कहानी पर रहता है। अगर ज़रूरत नहीं है तो कोई चीज़ ज़बरदस्ती नहीं डाली जायेगी।

ख़ैर। सवाल का जवाब इन्होनें वही दिया जिसकी उम्मीद थी। \”हां ये सिरीज़ पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है।\” फ़िर इसका ट्रेलर देखा और इंतज़ार करने लगे कब ये सिरीज़ देखने को मिलेगी। ये संभव हुआ इस शुक्रवार/शनिवार को। परिवार के साथ तो नहीं देखी क्योंकि बच्चों की पसंद कुछ अलग तरह की है।

पुलिस को मैंने बहुत करीब से देखा है। मेरे मामाजी भारतीय पुलिस सेवा में कार्यरत थे और बहुत से संवेदनशील केस उनके पास थे। जब तक पत्रकारिता से नाता नहीं जुड़ा था तब तक पुलिस के काम का एक अलग पहलू देखा थे। जब पत्रकारिता में आए तब एक अलग पहलू देखने को मिला। इसलिए जब पुलिस से संबंधित कोई फ़िल्म या सिरीज़ देखने को मिलती है तो ज्यादातर निराशा ही हाथ लगती है। बहुत कम इसके अपवाद हैं। हाल के वर्षों में \’दिल्ली क्राइम\’ ही सबसे अच्छा बना है।

‘खाकी’ भी अब इस लिस्ट में शुमार है। 

किसी भी निर्देशक के लिए गाली या सेक्स का अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन क्या आप अपनी बात इन दो चीज़ों के बगैर भी कर सकते हैं? ये उन लोगों के लिए एक चैलेंज रहता है। बहुत से निर्देशक इससे बच नहीं पाते।

इसका एक और उदाहरण है फ़िल्म ‘ऊंचाई’। फ़िल्म के निर्देशक सूरज बड़जात्या अपने फ़िल्म कैरियर का पहला गाना जिसमें शराब पीना दिखाया गया है, वो शूट किया है। इससे पहले भी उन्होंने कई फ़िल्में बनाई हैं लेकिन बेहद साफ़सुथरी। रोमांस को दिखाने का उनका एक अलग अंदाज़ है जो आम हिंदी निर्देशकों से बहुत अलग है। शायद इसी वजह से आज भी उनकी फ़िल्में पसंद की जाती हैं।

‘खाकी’ में इसकी पृष्ठभूमि और पुलिस के चलते दोनों ही चीज़ों के इस्तेमाल को ठीक भी ठहराया जा सकता था। लेकिन जब आपकी कहानी दमदार हो तो आपको इन सभी चीज़ों की ज़रूरत महसूस नहीं होती। इस सिरीज़ में भी पति-पत्नी हैं, गैंगस्टर की महबूबा भी है। पूरी कहानी गांव के किरदारों पर है। तो जिस तरह फ़िल्मों में ये तर्क दिया था गालियों के ओवरडोज़ के लिए, वही सारे यहाँ भी बिलकुल फिट बैठते हैं। लेकिन निर्देशक महोदय ने कहानी पर ही ध्यान बनाए रखा और इन सबके इस्तेमाल से बचे हैं।

जहां तक इस सीरीज के कलाकारों की बात करें तो सभी ने बहुत ही बढ़िया काम किया है। हिंदी फिल्मों में पुलिस को एक बहुत ही अजीब ढंग से दिखाया जाता है। कुछ निर्देशक चूंकि पुलिस को दिखा रहे हैं तो उनको एक एक्शन हीरो की तरह दिखाते हैं। चलती गाड़ी से कूद जाना या फालतू की मारधाड़ – ये कुछ ऐसी चीज़ें बन गई हैं जिनके बिना काम नहीं चलता इन निर्देशकों का। जब आप खाकी देखते हैं तो यहां मामला थोड़ा नहीं बहुत अलग है। यहां गाड़ियां उड़ती नहीं हैं। यहां इसको सच्चाई के जितने करीब रखा जा सकता है वो रखा गया है (बिना गाली गलौच के)।

सिरीज़ में अच्छे बुरे सभी तरह के पुलिसवाले दिखाए गए हैं। लेकिन कहानी उन अच्छे पुलिसवालों के बारे में जो बस अपना काम करना जानते हैं। ठीक वैसे ही जैसे नीरज पांडे जी और उनके सहयोगी अच्छी कहानी दिखाने के प्रयास में लगे रहते हैं। अगर अभी तक नहीं देखी और साफ़ सुथरी सिरीज़ से परहेज़ नहीं है तो ज़रूर देखें। पूरे परिवार के साथ।

रविवारीय: अंग्रेज़ी में कहते हैं की …

Detective examines a corkboard with maps and photos to solve a mystery.

आज भाषा और उस भाषा के सिनेमा को लेकर बड़ी बहस छिड़ी हुई है। क्या सिनेमा की कोई भाषा होती है? मुझे याद है जब मनोरंजन का साधन सिर्फ़ दूरदर्शन ही हुआ करता था तब अंतरराष्ट्रीय भारतीय फ़िल्म महोत्सव की कई फ़िल्में दूरदर्शन पर आती थीं। मैंने कई सारी भारतीय और विदेशी फ़िल्में देखीं। विश्व सिनेमा की ये सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों का प्रदर्शन कई शहरों में भी हुआ करता था। भोपाल में ऐसे आयोजन नियमित रूप से हुआ करते थे।

आज जब फिल्मों कई भाषाओं में डब करने का चलन बन चुका है तो मुझे याद आता है वो समय जब सिर्फ़ सबटाइटल अंग्रेजी में ही हुआ करते थे। ये सुविधा सभी फिल्मों में नहीं हुआ करती थी तो कई फ़िल्में उनकी मूल भाषा में ही देखी।

अगर हम कुछ देर के लिए भाषा को अलग रख दें और सिर्फ़ कहानी पर ध्यान दें तो ऐसी कई कहानियां पिछले दिनों देखी जो मूलतः किसी और भाषा में थीं और उनको हिंदी में डब किया गया था। कहानी को बदला नहीं गया बस उसकी अच्छी अलग अलग भाषा में डबिंग करी गई। 

अगर यही फ़िल्म या सिरीज़ मूल भाषा में ही रहती तो क्या होता? कहानी तो तब भी उतनी ही अच्छी होती। बस आपका उससे जुड़ाव भाषा के चलते कुछ कम हो जाता। लेकिन मनोरंजन तब भी होता।

भाषा की इस बहस में जो पता नहीं कहां से शुरू हुई और कहां पहुंच गई, हम ये भूल जाते हैं की आपको कहानी पसंद आती है। भाषा आपको वो कहानी समझने में मदद करती है। जब तीस साल पहले जब ए आर रहमान की पहली फ़िल्म \’रोजा\’ का संगीत आया था तो उसको पहले उसकी मूल भाषा में ही सुना था और पसंद भी किया था। इसका हिंदी अनुवाद तो बाद में सुनने को मिला। वैसे इसका रुक्मणि रुक्मणि गाना बहुत ही घटिया था और इसको हिंदी में सुनना एक दर्दनाक अनुभव था।

सिनेमा में अच्छे कंटेंट की कोई भाषा नहीं होती। हाँ अगर आप कुछ पढ़ रहे हों तो उसमें उस भाषा का ज्ञान ज़रूरी हो जाता है समझने के लिए। लेकिन सिनेमा और संगीत में ऐसे कोई बंधन नहीं हैं। ये भी एक कटु सत्य है की हिंदी छोड़ अन्य भाषाओं में हमेशा से ही अच्छी कहानी पर ज्यादा तवज्जो दी जाती रही है। उन्होंने साहित्य से कहानी चुनी जिससे अच्छी फ़िल्में मिलीं। ऐसा नहीं है की वहां मसाला फ़िल्में नहीं बनती। पुष्पा इसका अच्छा उदाहरण है। लेकिन उसमें भी कहानी पर मेहनत कर उसको अच्छा बनाया है। बहरहाल इस पोस्ट को भटकने से पहले मुद्दे पर वापस लाते हैं।

पिछले दो दिनों में दो बहुत अच्छी कहानी देखीं – दिल्ली क्राइम सीज़न 2 एवं गार्गी। इन दोनों कहानियों में कोई भी समानता नहीं है। पहली पुलिस के कामकाज से जुड़ी है तो दूसरी एक बेटी की कहानी है जो अपने पिता के साथ हुई तथाकथित गलती के खिलाफ़ लड़ाई लड़ती है।

अगर आपने दिल्ली क्राइम का पहला सीजन देखा हो तो आपको अंदाजा होगा दूसरे सीज़न में एक नया अपराध होगा और अपराधियों को पकड़ने की दिल्ली पुलिस की कहानी। इस बार भी वही टीम है मंझे हुये कलाकारों की। जब इसका पहला एपिसोड शुरू हुआ तो मुझे लगा शायद ये अंग्रेजी में है। लेकिन थोड़ी देर बाद हिंदी में शुरू हुई। वैसे इस सीज़न में शेफाली शाह का क़िरदार ने कुछ ज़्यादा ही अंग्रेजी का इस्तेमाल किया है। सीज़न 2 अच्छा है लेकिन पहले सीज़न के जैसे बांधने में थोड़ा कमज़ोर। शायद इसके पीछे ये कारण भी है की पहला सीज़न निर्भया केस से जुड़ा था और हमें उस घटना के बारे में लगभग सब जानकारी थी बस किस तरह पुलिस ने ये काम किया इसकी जानकारी नहीं थी। दिल्ली क्राइम का पहला सीज़न आज भी मेरे हिसाब से हिंदी का सबसे उम्दा काम है।

उस कामयाबी के चलते दूसरे सीज़न की बात होने लगी। शायद निर्माताओं पर भी दवाब था इसके चलते दूसरा सीज़न पर काम किया। ये कहने का मतलब ये कतई नहीं है की इसमें कुछ गलत है। दूसरे सीज़न में कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी गई है लेकिन शायद हमारी उम्मीदें पहली सिरीज़ से बहुत बढ़ गई थीं। क्या इसका तीसरा सीज़न भी आयेगा? शायद। क्योंकि इस पांच एपिसोड की छोटी सी सिरीज़ के अंत में इसको खुला रखा गया है। शायद नए लोग हों। इंतज़ार करना पड़ेगा नई घोषणा का।

जो दूसरी बहुत ही बढ़िया कहानी देखी वो थी गार्गी। मूलतः तमिल में बनी इस फिल्म में सई पल्लवी का दमदार अभिनय है और एक ऐसी कहानी जो आपको अंदर तक झकझोर तक रख देगी। बहुत ही कमाल का लेखन है। भाषाई बहस में न पड़ते हुए सिर्फ़ इतना कहना चाहूंगा इस फ़िल्म को आपको देखने का मौक़ा नहीं छोड़ना चाहिए। सई पल्लवी की पहली फ़िल्म प्रेमम से ही मैं उनके अभिनय का प्रशंसक रहा हूं। बीच में एक दो फ़िल्में और देखीं उनकी लेकिन ये बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म है। आप फ़िल्म के अंत के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होंगे। आपको लगेगा कहानी अब बस खत्म और अंत भला तो सब भला। लेकिन कमाल की स्क्रिप्ट शायद इसे ही कहते हैं।

आज जब ये भाषा की बहस होती है तो लगता है अच्छा सिनेमा या कंटेंट देखने की चाह रखने वालों के लिए इससे अच्छा समय नहीं हो सकता है। आप फिल्में या ओटीटी दोनों पर भारत ही नहीं विश्व का अच्छा कंटेंट देख सकते हैं।

यादों के झरोखे से: जब देव आनंद की वजह से शम्मी कपूर बने रॉकी

फ़िल्मों में अक़्सर ये होता रहता है कि निर्माता निर्देशक फ़िल्म किसी कलाकार को लेकर शुरू करते हैं लेक़िन फ़िर किन्हीं कारणों से बात नहीं बनती। फ़िर नये कलाकार के साथ काम शुरू होता है। पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई \’सरदार उधम\’ भी ऐसी ही एक फ़िल्म थी। निर्देशक शूजीत सरकार ने फ़िल्म की कल्पना तो इऱफान ख़ान के साथ करी थी लेक़िन उनकी बीमारी औऱ बाद में असामयिक निधन के बाद विक्की कौशल के हिस्से में ये फ़िल्म आयी। फ़िल्म है बहुत ही शानदार। अगर नहीं देखी है तो समय निकाल कर देखियेगा।

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हम आतें हैं इस पोस्ट पर वापस। यादों के झरोखों से आज देख रहें हैं हिंदी फ़िल्म जगत की एक ऐसी फ़िल्म जिसने सिनेमा का रंगढंग औऱ संगीत-नृत्य सब बदल डाला। आज नासिर हुसैन साहब की फ़िल्म \’तीसरी मंज़िल\’ को रिलीज़ हुये 55 साल हो गये। 1966 में रिलीज़ हुई इस बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म के गाने आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। औऱ अब तो ये जानते हुये भी की ख़ूनी ____ हैं इसको देखने का मज़ा कम नहीं होता। (ख़ूनी का नाम इसलिये नहीं लिखा क्योंकि अग़र किसी ने फ़िल्म नहीं देखी हो तो। वैसे आपको नोटिस बोर्ड पर फ़िल्म का सस्पेंस लिख कर लगाने वाला किस्सा तो बता ही चुका हूँ। आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं।

नासिर हुसैन ने ये फ़िल्म दरअसल देव आनंद के साथ बनाने का प्लान बनाया था। देव आनंद के भाई विजय आनंद भी नासिर हुसैन के प्रोडक्शन हाउस में काम कर रहे थे औऱ उनको राजेश खन्ना-आशा पारिख के साथ बहारों के सपने बनाने का ज़िम्मा दिया गया था।

फ़िल्म की कहानी का आईडिया जो नासिर हुसैन ने एक सीन में सुनाया था वो कुछ इस तरह था। दो सहेलियाँ दिल्ली से देहरादून जा रही हैं औऱ गाड़ी में पेट्रोल भरवा रहीं हैं पेट्रोल पंप पर। नायिका की बहन की मौत ही गयी तीसरी मंज़िल से गिरकर लेक़िन उसको लगता है वो क़त्ल था। वो बात कर रही हैं क़ातिल के बारे में। सहेली नायिका से पूछती है उसको पहचानोगी कैसे? नायिका बोलती है सुना है वो काला चश्मा पहनता है। उसी पेट्रोल पंप पर अपनी मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवाता हुआ युवक उनकी बात सुनकर अपना काला चश्मा उतार कर जेब में रख लेता है।

विजय आनंद ने हुसैन से पूछा आगे क्या होता है? वो कहते हैं पता नहीं। आनंद तब कहते हैं इसपर काम करते हैं औऱ इस तरह जन्म हुआ तीसरी मंजिल का।

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देव आनंद तीसरी मंज़िल के फोटो शूट के दौरान

सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था। देव आनंद ने बाकायदा फ़िल्म के लिये फ़ोटो शूट भी कराया था जिसमें वो ड्रम बजाते हुये दिख रहे हैं। लेक़िन बीच में आगयी अभिनेत्री साधना जी की सगाई। साधना का इस फ़िल्म से कोई लेना देना नहीं थी। फ़िल्म की अभिनेत्री तो आशा पारिख ही रहने वाली थीं।

हुआ कुछ ऐसा की साधना जी की सगाई में नासिर हुसैन औऱ देव आनंद के बीच कहासुनी हो गयी। दोनों ही महानुभाव ने नशे की हालत में एक दूसरे को काफ़ी कुछ सुनाया। दरअसल नासिर हुसैन ने देव आनंद को ये कहते हुये सुन लिया की नासिर ने उनके भाई विजय आनंद को एक छोटे बजट की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म (बहारों की मंज़िल) वो भी पता नहीं किसी राजेश खन्ना नामक अभिनेता के साथ बनाने को दी है। लेक़िन वो ख़ुद तीसरी मंजिल जैसी बड़ी, रंगीन फ़िल्म निर्देशित कर रहे हैं।

नासिर हुसैन इतने आहत हुये की उन्होंने अगले दिन विजय आनंद को तीसरी मंजिल का निर्देशक बना दिया औऱ स्वयं बहारों की मंज़िल का निर्देशन का ज़िम्मा उठाया। इसके साथ ही उन्होंने एक औऱ बड़ा काम कर दिया। उन्होंने देव आनंद को तीसरी मंज़िल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जब उनकी जगह किसको लिया जाये पर विचार हुआ तो शम्मी कपूर साहब का नाम आया। जब शम्मी कपूर को ये पता चला की देव आनंद को हटा कर उनको इस फ़िल्म में लिया जा रहा है तो उन्होंने इस शर्त पर काम करना स्वीकार किया की देव आनंद ये कह दें की उन्हें कपूर के इस फ़िल्म में काम करने से कोई आपत्ति नहीं है।

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शम्मी कपूर फ़िल्म की शूटिंग के दौरान

देव आनंद ने अपनी स्वीकृति दे दी औऱ नतीजा है ये तस्वीर। लेक़िन ये सब NOC (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) के बाद ऐसा नहीं हुआ कि फ़िल्म शुरू हो गयी। नासिर हुसैन के पास कहानी औऱ कलाकार दोनों थे लेक़िन उनकी फ़िल्म में संगीत का बहुत एहम रोल होता है। उन्हें तलाश थी एक संगीतकार की। किसी कारण से वो ओ पी नय्यर, जो उनकी पिछली फ़िल्म फ़िर वही दिल लाया हूँ के संगीतकार थे, उनको वो दोहराना नहीं चाहते थे।

शम्मी कपूर जब फ़िल्म का हिस्सा बने तो उन्होंने संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन का नाम सुझाया औऱ कोशिश करी की वो फ़िल्म का संगीत दें। लेक़िन इसी बीच आये आर डी बर्मन। अब बर्मन दा का नाम कहाँ से आया इसके बारे में कई तरह की बातें हैं। ऐसा माना जाता है गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी साहब, जिन्होंने राहुल के पिता एस डी बर्मन के साथ कई फिल्मों में काम किया था, उन्होंने उनका नाम सुझाया। नासिर हुसैन ने मजरूह के कहने पर मुलाकात करी। ख़ुद आर डी बर्मन ने भी मजरूह सुल्तानपुरी साहब को इसका श्रेय दिया है।

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शम्मी कपूर को इसका भरोसा नहीं था की आर डी बर्मन फ़िल्म के लिये सही संगीतकार हैं। लेक़िन जब उन्होंने धुनें सुनी तो वो नाचने लगे औऱ वहीं से शुरू हुआ बर्मन दा, नासिर हुसैन एवं मजरूह सुल्तानपुरी का कारवां। फ़िलहाल बात तीसरी मंजिल की चल रही है तो कारवां की बातें फ़िर कभी।

जब फ़िल्म बन रही थी उसी दौरान शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का निधन हो गया। फ़िल्म का सेट लगा हुआ था लेक़िन नासिर हुसैन साहब ने इंतज़ार करना बेहतर समझा। कुछ दिनों के बाद भी शम्मी कपूर काम करने को तैयार नहीं थे। विजय आनंद घर से उनको ज़बरदस्ती सेट पर लेकर आ गये। लेक़िन शम्मी कपूर बहुत दुःखी थे औऱ उन्होंने बोला उनसे ये नहीं होगा। विजय आनंद ने कहा एक बार करके देखते हैं अगर नहीं होता है तो काम रोक देंगे।

उस समय तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां गाने की शूटिंग चल रही थी। फ़िल्म में ये गाना एक ऐसे मोड़ पर आता है जब नायक को लगता है नायिका को उनसे मोहब्बत हो गयी है औऱ इसी ख़ुशी में वो ये गाना गा रहे हैं। लेक़िन असल में बात कुछ औऱ ही थी। ख़ैर, शम्मी जी तैयार हुये औऱ शूटिंग शुरू हुई। सब कुछ ठीक हुआ औऱ जैसे ही शॉट ख़त्म हुआ सब ने तालियाँ बजायी। लेक़िन विजय आनंद को कुछ कमी लगी तो उन्होंने शम्मी कपूर से कहा एक टेक औऱ करते हैं।

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इतने समय बाद शम्मी कपूर वापस आये थे औऱ काम शुरू ही किया था। सबको लगा आज कुछ गड़बड़ होगी। लेक़िन जब शम्मी जी ने रिटेक की बात सुनी तो वापस पहुँच गये शॉट देने। सबने राहत की साँस ली। थोड़े आश्चर्य की बात है की इतनी बड़ी हिट फिल्म देने के बाद नासिर हुसैन औऱ शम्मी कपूर ने इसके बाद दोबारा साथ में काम नहीं किया।

तीसरी मंज़िल के बाद विजय आनंद ने भी कभी नासिर हुसैन के साथ दोबारा काम नहीं किया। नासिर हुसैन ने भी इस फ़िल्म के बाद बाहर के किसी निर्देशक के साथ काम नहीं किया। अपने बैनर तले सभी फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने स्वयं किया। जब उन्होंने निर्देशन बंद किया तो उनके बेटे मंसूर खान ने ये काम संभाला। उसके बाद से अब ये प्रोडक्शन हाउस बंद ही है।

तीसरी मंजिल वो आख़िरी नासिर हुसैन की फ़िल्म थी जिसके सभी गाने मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाये थे। दोनों ने साथ में काम जारी रखा लेक़िन अब किशोर कुमार का आगमन हो चुका था। वैसे रफ़ी साहब को नासिर हुसैन की हम किसी से कम नहीं फ़िल्म के गीत \”क्या हुआ तेरा वादा\’ के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

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तीसरी मंज़िल से जुड़ी एक औऱ बात। ये जो तस्वीर है ये है सलमान खान के पिता सलीम खान। लेखक बनने से पहले उन्होंने कुछ फिल्मों में काम किया था उसमें से एक थी तीसरी मंज़िल। शम्मी कपूर आशा पारेख औऱ हेलन, जिनके साथ उन्होंने बाद में विवाह किया, को आप फ़िल्म के पहले गाने \’ओ हसीना ज़ुल्फोंवाली\’ में देख सकते हैं।

इसी गाने से जुड़ी एक बात के साथ इस पोस्ट का अंत करता हूँ। फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद एक सज्जन ने गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी से इस गाने के बोल को लेकर सवाल किया की, \’मजरूह साहब क्या आप ये कहना चाहते हैं उस एक हसीना की ही ज़ुल्फ़ें हैं? क्या बाक़ी हसीनाओं के बाल नहीं हैं? क्या वो गंजी हैं?\’

अग़र फ़िल्म देखने के इच्छुक हों तो यूट्यूब पर देख सकते हैं। लेक़िन संभाल कर। देखना शुरू करेंगे तो उठना मुश्किल होगा। फ़िल्म की शुरुआत ही ऐसी है की आप जानना चाहते हैं आगे क्या होगा। खाने पीने की तैयारी के साथ मज़ा लें तीसरी मंजिल का।

Bell Bottom review: Wish there was bell to sound script writers to stop writing bottomless scripts

There is catch phrase in Bell Bottom, \’It isn\’t over till it\’s over\’ which is obviously said by Akshay Kumar who is playing the title role. The same catch phrase is true for the ordeal of watching the latest offering by Kumar. It isn\’t over till the end credits start rolling which is 123 minutes after it started playing on Amazon Prime.

Now Akshay Kumar had mastered the art of becoming new age Bharat Kumar. I am sure like many things, he discovered accidentally that was the space he could easily fill. To be fair to him, he was part of many such successful patriotic films. But to give him the credit alone would be wrong. He had directors like Neeraj Pandey and wonderful script writers too. Sadly after successful films the two parted ways and since then Kumar is trying to find the winning combo with little success so far.

Coming to Bell Bottom, if you have seen the promo or if you were lucky enough to watch the film in cinema halls (really? lucky?), you know it\’s about a plane hijack incident and Kumar plays a RAW agent whose code – you guessed it right, is Bell Bottom. Now if you read the synopsis it\’s like tailor-made for Akshay Kumar. There is little that could go wrong. But after spending 123 minutes of a lazy Saturday afternoon, I am sharing the big secret. Everything about the film is wrong.

Script

As said earlier, the script synopsis sounds great. But the full script needs more meat to hold the audience. Here it fails miserably, which has been the case with past so many Akshay films. Agreed the film was shot during strict lockdown conditions but a half baked script won\’t have survived even during the normal times. It looks like the script was not ready and the makers decided to go ahead with the shooting.

Going back to Neeraj Pandey- Akshay Kumar combo (sounds so much like a dish you are ordering that would taste much better than this tasteless film), the characters were fleshed out and there were good, rather excellent actors in other roles too. There are glaring loopholes in the film and without giving away too much let\’s just say ignore them to sit for next 123 minutes.

There is scene in Baby climax (it reads so weird, read that again to get the punch), when the flight is waiting for ATC clearance to take off. Bell Bottom has a similar scene. While the Baby scene had tension building up because you so badly wanted the flight to take off with the prized possession, in this latest offering you don\’t care if the flight is allowed to take off or not. You just want this to end (there is till few minutes left if you check the player). Don\’t worry.

Actors

Ever since the trailer of the film was out Lara Dutta got special mention for her role as Indira Gandhi. Getting the look is fine. It\’s what the script offers after the look that matters. And she is not present throughout the film (it\’s not about her). Adil Hussain is great actor but had very little to do in this film. Vani Kapoor continues her War role of a song, couple of scenes and pack up. It\’s sad to see actors like Huma Qureshi, like Hussain, have been reduced to itsy bitsy roles.

And Akshay Kumar has age catching up with him. Fast. How on earth can he be passed off as a 30/32 year old is beyond me. I mean he is no Aamir Khan who works really hard on his character/look. That Kumar cannot act is a well known secret. It\’s just that producers get their money back and that\’s how he has survived. But not anymore. He reinvented himself to become the Bharat Kumar Hindi film industry was looking for. After all these years, looks like time has come for him to reinvent again. A lean, mean, fit Akshay Kumar is fine but films need more. There are other actors vying for the Bharat Kumar slot like Hrithik Roshan and Tiger Shroff. So there is competition for Kumar.

There are two songs in the film. First one is picturised on Kumar and Kapoor and the other one plays in the background during the climax. The KK song is pretty early in the film and it\’s not even on my playlist, which kind of explains there is nothing much to write when it comes to music.

I think the makers also realised the film will not have a long shelf life, like say Baby (I have lost the number of times I have seen it),  and hence thought it best to release it on Amazon Prime before it\’s too late.

I was wondering what if the code name was either Sunder, Saand, Pucchi or Dollar given to other RAW agents in the film, instead of Bell Bottom?

While you think about it, look for Baby. It must be playing on one of the platforms and may be watch it again. Give this bottomless movie a miss.

Mumbai Diaries 26/11 review: A lifeless saga

Hospital drama in India have been popular but so few have been created. The ones that were, had less to do with hospitals and more to do with individuals. The best one I had seen and still remember something about is \’Lifeline\’. I still remember the title music by Vanraj Bhatia. In case you are wondering, it was on Doordarshan (yes the golden days when DD had awesome content). It looked like a real hospital and the characters (both doctors and patients) were believable.

Then there was Pakistani serial \’Dhoop Kinare\’ which was thoroughly enjoyable (again less about hospital and more about relationship between a young doctor and her senior). In between there was Sanjeevani which I haven\’t seen (I believe it was inspired by Dhoop Kinare) and then there was one with title Hospital but it was more about a journalist trying to expose wrongdoings going on and less about the hospital.

The 26/11 terrorist attacks has so far been seen from the eyes of cops, from Taj hotel staff member and now we have the doctor\’s side of the attack in the latest web series available on Amazon Prime – Mumbai Diaries 26/11. Interestingly, all the versions cover the attacks but the focus remains on whose version it is. So the first installment focussed on police version of the attack and it\’s aftermath, the Taj hotel was about attack on hotel and how this staff member saves lives of hotel guests.

Some thirteen years after the November 26, 2008 attack we get the doctor version of it. Like 9/11, this attack was widely covered on television (too much of it, if you ask me) but more on that some other time. While the other two versions were based on real life characters, I don\’t know if it\’s based on real life doctors present that day.

The plot

Since we all know about the attack and the plot and those behind it, there is nothing much to add. But this series is based on what happened at the hospital on that fateful day and creates the ground for what will happen in the night. So we have three fresh doctors who report to join as trainee doctor. There is no shortage of characters here and hospital also becomes a character. With other normal serials, the space where it is played out has little to contribute. But when it\’s about hospital, it becomes a character too. Unlike the spic and span hospitals which have been part of other serials, the Bombay General Hospital in this series, is as sarkari as any govt hospital could be. Overworked doctors, shortage of supplies and those stained walls – you get the perfect hospital setting.

Characters

As I said, there is no shortage of characters in this series. Bad thing is they all have a background story. But the good thing is it applies only to the hospital staff or couple of patients. Else it would have been endless series instead of just eight episodes. So there is Dr Kaushik who is head of trauma department and he has a team of nurses, attendants and the three trainee doctors who join him on the fateful day.

There is also the CMO and director social services played by Konkona Sen Sharma who is not a qualified doctor. There is just one patient who is there from the first episode till the last – one septuagenarian Punjabi lady. There are more patients but she is the only one writer could give some sort of flesh and bone.

There is a bad cop too who is after the good doc for not following the due process of informing the police about cases that should be reported. He is as foul mouthed as police characters get and he is also after a nurse for…

Since it\’s a sarkari hospital so things are in short supply but the canteen has fruit salad to offer. There is no link but just wanted to mention this. It gives you fair and not so lovely amount of idea that stage is set.

Before the terrorist storm the hospital, background stories of all the main docs (old and new both) needs to be set up. So before the terror unfolds we get to know about these characters and what all is wrong with their lives. Sounds like a regular soap opera where something or other is wrong day after day? The busy doc has no time for his wife, the pampered kid of doctor couple doesn\’t like all the attention, another trainee doc has typical middle class background where her parents ask her to offer sweets to her senior, the nurse couple is trying hard to offer a better life to their kids and hubby is selling hospital secrets to journos. Did I miss something? Oh yes. Communal harmony – we need to have a Muslim character too to complete the script and here he is in form of the male trainee doctor. The recipe looks complete. The scriptwriter managed to finish it in eight episodes nahin toh there was ample scope for extra marital angle as well. A bolder script writer would have introduced a gay/lesbian angle too. Blame it on short and sweet series.

Performance

To be fair to the actors, they have done a good job. It\’s not your run of the mill kinda set up where you look good and mouth few lines and done. They had to learn procedures and mouth what a doctor would. So good job by all.

Except Mohit Raina, there is no one else that stays with you. He is not there in every frame but whenever he is there, he just steals the show. Konkona Sen Sharma plays her part perfectly, like she always does.

Shreya Dhanwanthari as TV journalist chasing exclusives is superb. Having played print journalist in Scam and TV journalist in Mumbai Diaries 26/11, she is learning journalism on the job.

Writing

The first and may be the second episode manage to hold your attention. But third episode onwards it\’s downward journey as far as writing is considered. The tension which should be part of hospital drama is missing and the writers seem to have lost plot. Bits and pieces manage to hold it together but a better script could have done wonders. Watch Scam or Delhi Crime, again if you have already, to know what I mean.

There is scene in episode seven where doctor needs to operate upon a patient and there is some senti line thrown in by one of character. It was supposed to be rather emotional high point, choking and tears welled up kind of scene. But nothing happens. For a person who gets emotionally invested rather easily, I was completely not interested in whatever was happening. Like Mohit Raina in the last episode who looks at one of trainee crying over a dead body and pleading for help.

There is another scene which is so so filmy. One character has to call his wife using mobile of another character. Unable to reach, he tries to message to only discover a secret on the mobile. I have tried not to give away too much info by smartly omitting the names. 🙂

Verdict

As mentioned in the beginning, I began watching this series hoping to get a good hospital drama (even after knowing the story). But was let down by poor writing, which is often the case these days. And why the hell we cannot have series without the F word and reference to ladies? The docs use F word like there is no tomorrow and the less said about the gaalis the better. It\’s actually my pet peeve with content creators. I also realised that there is hardly any series without these words. Like writers who use these words in any and every situation, the viewers have also started treating it as normal. (Angry face).

There is lot of blood and gory cuts, stitches and shots of human organs. So if blood is not what you like to see, you can give it a miss. Otherwise watch it for Mohit Raina and hope he gets better scripts.

कोई ये बन गया, कोई वो बन गया

गायक अभिजीत भट्टाचार्य ने शाहरुख़ ख़ान के लिये फ़िल्म फ़िर भी दिल है हिंदुस्तानी में एक गाना गाया था I am the best और लगता है अपने ही गाये हुये इस गाने से बहुत प्रभावित हैं। वैसे अभिजीत का विवादों से पुराना रिश्ता है। अपने बड़बोलेपन के चलते वो कई बार मुश्किलों में पड़ चुके हैं। हाल ही में उन्होंने अक्षय कुमार को गरीबों का मिथुन चक्रवर्ती बताते हुये उनकी सफलता के श्रेय अपने गाये हुये फ़िल्म खिलाड़ी के गानों का दिया।

अभिजीत के अनुसार फ़िल्म खिलाड़ी में उनके गाये हुये गीत \’वादा रहा सनम\’ बाद अक्षय कुमार की किस्मत बदल गई औऱ वो गरीबों के मिथुन चक्रवर्ती से एक कामयाब नायक की श्रेणी में आ गये थे। अब्बास-मस्तान के निर्देशन में बनी फ़िल्म चली तो बहुत थी औऱ उसका संगीत भी काफ़ी हिट रहा था। लेक़िन क्या इसका श्रेय सिर्फ़ अभिजीत को मिलना चाहिये ये एक बहस का मुद्दा ज़रूर हो सकता है।

वैसे इससे पहले अभिजीत ने अपने आपको शाहरुख़ ख़ान की आवाज़ बताते हुये ये कहा था की उनकी आवाज़ में ही किंग खान ने सबसे ज़्यादा हिट गाने दिये हैं। वैसे एक सरसरी निगाह डालें तो शाहरुख़ के लिये ज़्यादा गाने तो नहीं गाये हैं अभिजीत ने। उदित नारायण औऱ कुमार शानू ने कहीं ज़्यादा गाने गाये हैं शाहरुख़ के लिये। इस पर भी बहस हो सकती है जो ज़्यादा लंबी नहीं खिंचेगी। लेक़िन अभिजीत हैं तो मामला कुछ भी हो सकता है।

वैसे कुसूर उनका भी नहीं है। बरसों पहले सलमान ख़ान की फ़िल्म बाग़ी के हिट गाने देने के बाद भी वो सलमान की आवाज़ नहीं बन पाये औऱ ये सौभाग्य मिला एस पी बालासुब्रमण्यम जी को। इसके बाद शाहरुख़ ख़ान के लिये भी हिट गाने देने के बाद भी उदित नारायण औऱ कुमार सानू ने ही उनके अधिकतर गीत गाये।

आज ये अभिजीत मेरे निशाने पर क्यूँ हैं? यही सोच रहे होंगे आप। दरअसल आज दिन में देवानंद जी की फ़िल्म सीआईडी (1961) के गाने सुन रहा था तो अभिजीत का ख़्याल आया।

आमिर खान-करिश्मा कपूर की फ़िल्म \’राजा हिंदुस्तानी\’ बड़ी हिट फिल्म थी औऱ बहुत से कारणों से ये चर्चा में रही थी। फ़िल्म की सफलता में उसके संगीत का बड़ा योगदान रहा था। नदीम श्रवण के संगीत को आज भी पसंद किया जाता है। फ़िल्म का सबसे हिट गाना \’परदेसी परदेसी\’ रहा जिसको उदित नारायण, अलका याग्निक एवं सपना अवस्थी ने गाया था।

उदित नारायण को इस फ़िल्म के लिये फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। अभिजीत जिनका फ़िल्म फ़रेब का गाना \’ये तेरी आँखें झुकी झुकी\’ भी फ़िल्मफ़ेअर के लिये नॉमिनेट हुआ था। उदित नारायण का ही एक औऱ सुंदर गाना घर से निकलते ही भी लिस्ट में था। लेक़िन अवार्ड मिला राजा हिंदुस्तानी के गीत को चूँकि वो बड़ा हिट गाना था बनिस्बत घर से निकलते ही के।

अभिजीत इस बात से बहुत आहत हुये थे और उन्होंने बाद में कहा की \”गाने में दो लाइन गाने के लिये उदित नारायण को अवार्ड दे दिया\”। अग़र आपने गाना सुना हो तो निश्चित रूप से उदित नारायण ने दो से ज़्यादा लाइन को अपनी आवाज़ दी थी। ख़ैर।

तो आज पर वापस आते हैं। फ़िल्म सीआईडी के गाने एक से बढ़कर एक हैं। आजकल तो ऐसा बहुत कम होता है की किसी फ़िल्म के सभी गाने शानदार हों, लेक़िन उन दिनों संगीत क़माल का होता था शायद इसीलिये आज उसीकी बदौलत बादशाह औऱ नेहा कक्कड़ जैसे लोगों का कैरियर बन गया है। बहरहाल, फ़िल्म का संगीत ओ पी नय्यर साहब का है औऱ बोल हैं मजरुह सुलतानपुरी साहब के। लेक़िन इस एक गीत के बोल लिखे हैं जानिसार अख्तर साहब ने।

इस गाने की खास बात देवानंद औऱ शकीला तो हैं ही लेक़िन उससे भी ज़्यादा ख़ास है इसका मुखड़ा। जो इस गाने के अंतरे हैं उसमें नायिका नायक से सवाल पूछती है औऱ नायक का बस एक जवाब होता है \’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया\’। मोहम्मद रफ़ी साहब के हिस्से में मुखड़े की बस ये दो लाइन ही आईं औऱ गाने के अंत तक आते आते वो भी गीता दत्त के पास चला जाता है। लेक़िन जिस अदा से रफ़ी साहब मुखड़े की दो लाइन गाते हैं औऱ पर्दे पर देवानंद निभाते हैं…

लाइन दो मिलें या पूरा गाना बात तो उसको पूरी ईमानदारी से निभाने की है। अवार्ड मिले या न मिले। औऱ लोगों का क्या, उनका तो काम है कहना। औऱ ये मानने में भी कोई बुराई नहीं है की आप सबसे अच्छे हैं। बात तो तब है जब यही बात बाक़ी लोग भी कहें या माने।

द फैमिली मैन 2: थोड़ा था, बहुत की ज़रूरत थी

हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। कोरोना की कहानियों की श्रृंखला के बीच ये सोना कहाँ से आया? वैसे तो सोना हम भारतीयों का प्रिय है लेक़िन उस विषय पर मेरा ज्ञान बहुत ही सीमित है। तो कहानी आगे बढ़ाते हैं।

अस्पताल से लौटने के बाद टीवी देखना बहुत कम हो गया है। समाचार देखना तो समय की बर्बादी लगता है तो बस कभी कभार हल्के फुल्के कार्यक्रम देख लेते हैं। मनोज बाजपेयी की द फैमिली मैन का दूसरा सीजन बहुत समय से अटकते हुये 4 जून को आ गया। पहला सीजन देखा था तो थोड़ी उत्सुकता थी इस बार क्या होगा। ट्रेलर देखकर लगा की इसको अपना समय दिया जा सकता है। तो बस इस हफ़्ते के कुछ घंटे उसको दे दिये। ये उसी का लेखा जोखा है। सोने वाली बात की गुत्थी आगे सुलझेगी।

किसी भी फ़िल्म, किताब या इन दिनों की वेब सीरीज़ की जान होती है उसकी स्क्रिप्ट। अच्छी स्क्रिप्ट हो औऱ ठीक ठाक कलाकार भी हों तो ये आपको बांधे रख सकते हैं। इस सीरीज़ में तो मनोज बाजपेयी जैसे कई मंझे हुए कलाकार हैं। इस बार दक्षिण से सामंथा अकिनेनी इससे जुड़ीं हैं। वैसे तो प्रयास यही है की बहुत ज़्यादा न बताया जाये लेक़िन अगर आपने अपने सप्ताहांत का सदुपयोग (?) नहीं किया है तो आप मेरी कोई पुरानी ब्लॉग पोस्ट पढ़ सकते हैं। 

कहानी

अगर आपने पहला सीज़न देखा है तो आपको पता है मनोज बाजपेयी एक सीक्रेट सर्विस (टास्क) एजेंट हैं। इस बार शुरुआत में वो एक IT कंपनी में काम करते हुऐ दिखाई गये हैं। आपको ये तो पता है की देर सबेर वो वापस अपनी एजेंसी में जायेंगे तो ऐसा हो ही जाता है नहीं तो कहानी कहाँ से आगे बढ़ती? लेक़िन उनका और उनकी पत्नी का संबंध कुछ ठीक नहीं चल रहा है। चूँकि फैमिली मैन है तो परिवार वाला ट्रैक साथ में चलता रहता है औऱ इस बार मनोज बाजपेयी की बेटी का थोड़ा ज़्यादा काम है।

श्रीलंकाई तमिल आतंकवादियों का एक समूह भारतीय औऱ लंका के नेताओं पर हमले की फ़िराक में हैं। कैसे बाजपेयी औऱ उनकी टीम इसको नाकाम करते हैं यही कहानी है। पिछली बार जैसे मिशन कश्मीर में था इस बार दक्षिण भारत में कहानी सेट है। इसके अलावा इसके कुछ क़िरदार लंदन में भी हैं। कुल मिलाकर सीरीज़ बड़ी स्केल पर बनाई गई है।

अभिनय

मनोज बाजपेयी के साथ प्रियामनी, सामंथा अकिनेनी, सीमा बिस्वास, शारिब हाशमी मुख्य भूमिका में हैं। कलाकारों की लिस्ट लंबी है इसलिये कुछ का ही ज़िक्र कर रहे हैं। पहले सीज़न वाले कलाकार अपने क़िरदार में हैं औऱ उसी को आगे बढ़ाते हैं। सामंथा का किरदार बोलता कम है औऱ काम ज़्यादा करता है औऱ उन्होंने जो उन्हें काम दिया गया वो बख़ूबी निभाया है।

निर्देशक

निर्देशक राज और डीके कहानी को हल्की फुल्की रखने के चक्कर में बहुत सारी चीजों को नज़रअंदाज़ करते लगते हैं। औऱ जब लगता है कहानी यहाँ पर ख़त्म होगी तो उसको खींचते से लगते हैं क्योंकि उनको उसको एक बड़े स्केल पर दिखाना है। सीरीज़ का कैमरावर्क अच्छा है लेक़िन क्या सिर्फ़ बढ़िया कैमरे का काम आपको चार घंटे तक बाँधे रख सकता है?

क्यूँ देखें / न देखें

लगभग साढ़े चार घंटे की सीरीज़ है तो अगर आप समय का सदुपयोग करना चाहते हैं तो सोच समझ कर पहल करें। अगर आप देखना चाहते हैं तो ये एक टाइमपास सीरीज़ है जैसी ज़्यादातर सीरीज़ होती हैं। बहुत कुछ पहले सीज़न के जैसा है – गलियों में अपराधी के पीछे भागना। मतलब इसको तो हमारे निर्देशकों ने अब इतना भुना लिया है की अब इसमें कुछ नयापन नहीं दिखता। हाँ आजकल इसकी लंबाई ज़रूर चर्चा का विषय रहता है। लेक़िन अब इसमें वो मज़ा नहीं रहा। बहुत सी वर्तमान स्थिति पर लेखक टिप्पणी ज़रूर करते हैं लेक़िन चूँकि वो सीरीज़ का फ़ोकस नहीं है तो बस बात आई गयी हो जाती है।

एक सीक्वेंस है जिसको देख कर हँसी भी आती औऱ स्क्रिप्ट और डायरेक्टर की सोच पर आश्चर्य कम तरस ज़्यादा होता है। देश के शीर्ष नेता पर हवाई हमले की बात हो रही हो औऱ हमारी हवाई क्षमता का कोई ज़िक्र भी नहीं। औऱ तो औऱ शीर्ष नेताओं की सुरक्षा में लगी एजेंसी या हमारी सेनाओं से भी कोई तालमेल नहीं दिखाया गया है जो बहुत ही हास्यास्पद है। शायद इसलिये की बाजपेयी जी एक एजेंट हैं, एक फाइटर पायलट नहीं। इसलिये उनकी बंदूक के निशाने से ही…

इस सीरीज़ का अगला सीज़न भी बनेगा ऐसा आख़िरी एपिसोड में बता दिया गया है। इस बार निर्देशक ने कहानी अरुणाचल प्रदेश वाले इलाके में सेट करी है तो तैयार हो जाइये वहाँ की खूबसूरती देखने के लिये। औऱ अगर आपको कोई अच्छी सीरीज़ देखने का मन है तो मेरे दो ही सुझाव हैं : दिल्ली क्राइम औऱ स्पेशल ऑप्स। दोनों की स्क्रिप्ट औऱ उसका ट्रीटमेंट क़माल का है। वैसे इस सीरीज़ के लेखकों को गुल्लक भी एक बार देख लेना चाहिये। शायद तीसरे सीज़न में कुछ बात बन जाये।

रही सोने वाली बात – तो ट्रेलर से अपनी उम्मीदें न बांधें औऱ न ये समझें की मनोज बाजपेयी हैं तो बढ़िया होगी। क्योंकि हर चमकती चीज़…

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँही कोई बेवफ़ा नहीं होता

इसे हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का दुर्भाग्य ही कहेंगे की यहाँ सब घुमाफिरा कर बात करने में उस्ताद हैं। आप किसी से कोई सीधा सा सवाल पूछिये लेक़िन उसका सीधा जवाब नहीं मिलता। इसका दूसरा पहलू ये है की अगर इसी इंडस्ट्री में रहना है तो क्यूँ उनको नाराज़ रखा जाये जो आपको काम दे सकते हैं। मतलब आपके मुँह खोलने से आपका नुक़सान हो तो अच्छा है मुँह बंद रखा जाए। यही बात मीडिया पर भी लागू होती है।

मीडिया इस इंडस्ट्री का एक अभिन्न हिस्सा है। ट्विटर औऱ फ़ेसबुक पर तो हंगामा अब मचना शुरू हुआ है। लेक़िन उसके बाद भी मीडिया का एक बहुत बड़ा रोल है इंडस्ट्री से जुड़े लोगों औऱ दर्शकों के बीच की दूरी ख़त्म तो नहीं लेक़िन कम करने में। औऱ फ़िर सभी लोग ट्विटर और फ़ेसबुक पर भी नहीं हैं।

सुशांत सिंह राजपूत के मामले में जितना जो कुछ ग़लत हो सकता था सब हो गया है, हो रहा है और आगे भी होयेगा। मीडिया बंट गया है, जिसकी उम्मीद थी, लेक़िन इंडस्ट्री भी बंट गयी है, जो किसी भी हाल में नहीं होना चाहिये था। मीडिया, यहाँ मेरा मतलब वो पोस्टमैन से एक्ससीलुसिव बात करने वाले नहीं, बल्कि वो लोग जो इंडस्ट्री को कवर करते रहे हैं, की ख़ामोशी भी शर्मनाक है। इस इंडस्ट्री से जुड़े मीडियाकर्मी अग़र किताबें लिखना शुरू करदें तो पता चले यहाँ क्या नहीं होता है। लेक़िन ऐसा होगा नहीं क्योंकि कोई भी बुरा बनना नहीं चाहता औऱ उनको ये भी पता है जैसे ही उन्होंने कुछ लिखा इंडस्ट्री उनका हुक्का पानी शराब कबाब सब बंद करवा देगी। अब कौन ख़ुद अपने पेट पर लात मारकर ये काम करेगा। इसलिये सब अच्छा ही लिखेंगे।

अग़र इंडस्ट्री के लोग इसको एक परिवार मानते हैं तो आज इनको इनके किसी साथी के साथ कुछ ग़लत हुआ है तो साथ देना चाहिये था। साथ खड़े होने का मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि आप उनके विचारों से भी सहमत हों। आपसे किसी आंदोलन को समर्थन देने की उम्मीद नहीं कि जा रही है। आपके विचार अलग हो सकते हैं, आप अलग अलग विचारधारा का समर्थन करते होंगे लेक़िन जिस समय आपको सिर्फ़ साथ देना था, आप पीठ दिखा कर खड़े हो गये। ये भी सही है की ये सबके बस की बात नहीं है और शायद यही हमारा दुर्भाग्य है।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेबाक़ लोगों में से एक अनुराग कश्यप हैं। मुझे अनुराग की ये बेबाक़ी शुरू से पसंद आई लेक़िन उनकी फिल्मों के बारे में मैं ये नही कह सकता। उनकी बनाई बहुत से फिल्में मैंने नहीं देखी हैं और जो देखी हैं वो कुछ ख़ास पसंद नहीं आईं। उनकी मनमर्ज़ीयाँ का संगीत काफ़ी अच्छा है। लेक़िन फ़िल्म बोरिंग थी।

तो इन्ही अनुराग कश्यप ने सुशांत सिंह के मैनेजर के साथ हुई अपनी चैट सार्वजनिक कर दी। उन्होंने इसके बाद एक और ट्वीट कर बताया क्यों इंडस्ट्री के लोग सुशांत के साथ नहीं है क्योंकि इन लोगों ने सुशांत सिंह के साथ समय बिताया है और वो उनके बारे में जानते हैं।

चलिये अनुराग माना सुशांत में सारे ऐब होंगे जो एक इंसान में हो सकते हैं। लेक़िन वो तब भी आपकी इंडस्ट्री का एक हिस्सा था। आज वो नहीं है तो आप उसकी कमियाँ गिनाने लगे। अरे इंडस्ट्री के अपने साथी के नाते न सही, इंसानियत के नाते ही सही आप साथ देते। इंडस्ट्री के इसी रवैये के चलते ही लोगों के अंदर इतना गुस्सा है।

लेक़िन ये सवाल एक अनुराग कश्यप, एक कंगना रनौत या एक रिया का नहीं है। आप सब उस इंडस्ट्री का हिस्सा हैं जो भारत के एक बहुत बड़े तबके का एकमात्र मनोरंजन का साधन रहा है। लेक़िन आज आप उसके साथ नहीँ हैं जिसके साथ ग़लत हुआ है। रिया की टीशर्ट पर जो लिखा था उसपर तो सबने कुछ न कुछ कह डाला लेक़िन आपकी बिरादरी के एक शख्स पर जब सरकारी तंत्र ने ज़्यादती करी तो सब ख़ामोश रहे। ये दोहरे मापदंड सबको दिख रहे हैं। अगर रिया के साथ जो हो रहा है वो ग़लत है तो जो इंडस्ट्री अपने एक साथी के साथ कर रही है वो सही है? इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की ये ख़ामोशी शायद उनकी मजबूरी भी बयाँ करती है। लेक़िन जहाँ से हम, दर्शक और इंडस्ट्री के चाहने वाले देख रहे हैं, ये ख़ामोशी सिर्फ़ एक ही बात कह रही है All is not well.

जाने हमारा आगे क्या होगा…

ये शायद पिछली गर्मियों की बात है। शायद इसलिये बोल रहा हूँ क्योंकि याद नहीं किस साल की बात है लेक़िन है गर्मियों की क्योंकि ये भोपाल की बात है जहाँ सालाना गर्मियों में हमारा अखिल भारतीय सम्मेलन होता है। सुबह की चाय पर चर्चा चल रही थी गानों के बारे में और मैंने बताया ऋषि कपूर जी के एक गाने के बारे में।

आज उनके निधन के बाद वही गाने देख रहे थे तो वो किस्सा याद आ गया। अभी दो दिन पहले ही कर्ज़ देखी थी तब इसका पता नहीं था कि ऋषि जी ऐसे अचानक ही चले जायेंगे। हमारी पीढ़ी में अगर खानों के पहले कोई रोमांटिक हीरो था तो वो थे ऋषि कपूर। उनकी फिल्में देख कर ही बड़े हुये। उनकी हर फ़िल्म का संगीत कमाल का होता था। फ़िर वो चाहे बॉबी हो या दीवाना।

अगर 70, 80 और कुछ हद तक 90 को भी शामिल करें तो इन तीस सालों के बेहतरीन रोमांटिक गीत में से ज़्यादातर ऋषि कपूर जी के होंगे। अब जब बाकी सब कलाकार मारधाड़ में लगे हों तो कोई तो ऐसा चाहिये जो अच्छा संगीत सुनाये और साथ में नाचे भी। ये ज़िम्मेदारी ऋषि कपूर जी की फिल्मों ने बख़ूबी निभाई।

हिंदी फ़िल्म जगत में उनकी पहले दौर की फिल्में बेहद हल्की फुल्की, फॉर्मूला फिल्में रहीं। लेक़िन जब वो एक ब्रेक लेने के बाद वापस आये तो वो एक एक्टर के रुप में ज़्यादा पहचाने गये। और जब वो वापस आये तो जैसे अपने अंदर के सारे डर छोड़ आये कहीं पीछे और अब वो कुछ भी करने को तैयार थे। अगर उनकी पहली पारी अच्छे गीत संगीत के लिये याद रखी जायेगी तो दूसरी पारी बतौर एक उम्दा कलाकार के लिये।

ऋषि कपूर और अमिताभ बच्चन वो बहुत ही चुनिंदा लोगों में शामिल हैं जिन्हें ज़िंदगी ने दूसरे मौके दिये और इन दोनों ने उन मौकों का पूरा फ़ायदा उठाया और एक नये अंदाज़ में दूसरी पारी की शुरुआत करी। हम सभी को ऐसे मौके दुबारा नहीं मिलते। कोरोना के चलते क्या हम सभी को एक दूसरा मौका मिला है? मतलब कुछ नया सीखने का नहीं लेक़िन अपनी सोच और अपने देखने के नज़रिये में थोड़ा बदलाव?

एक बात और ऋषि कपूर जी की जो मुझे बेहद अच्छी लगती थी वो है उनका बेबाक़पन। न बातों को घुमाना फिराना और न ही उनपर कोई शक्कर की परत चढ़ाना। ये भी तभी संभव है जब आपको इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता की आपके इस तरह से बात करने से कोई नाराज़ भी हो सकता है। इस का मैंने कई बार पालन करना चाहा लेक़िन बुरी तरह असफल रहा।

हम लोग अपनी राय तो कई मामलों में रखते हैं लेकिन इस डर से की कहीं उससे किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, उसको बताते समय थोड़ा हल्का कर देते हैं। लेकिन ऋषि कपूर जी तो सार्वजनिक रूप से ऐसा करते थे। तो क्या सबका डर छोड़ कर बस जो दिल में है वही ज़ुबान पर रखें? मेरे हिसाब से तो ये अच्छा है की आप जो सोचते हैं वही बोल दें। इससे कम से कम आपको बार बार कुछ नया तो नहीं बोलना पड़ेगा।

हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से

मिस्ट्री, सस्पेंस फ़िल्म देखने का एक अलग रोमांच है। जैसे तीसरी मंज़िल या ज्वेल थीफ या वो कौन थी आदि। क़माल की बात ये है की आम रोमांटिक फिल्म से अलग होते हुये भी इन फिल्मों का संगीत आज तक याद है लोगों को। उदहारण के लिये लग जा गले से। इससे बेहतरीन प्यार का इज़हार करने वाला कोई और गाना हो सकता है? और अगर आप को फ़िल्म की जानकारी मतलब उसके सब्जेक्ट की जानकारी नहीं हो तो ये बहुत ही अजीब सी लगती है की इतना खूबसूरत गीत एक मिस्ट्री फ़िल्म का हिस्सा है।

ये फिल्मों की एक ऐसी श्रेणी है जिसमें हर एक दो साल में कुछ न कुछ नया आता रहता है। अब तकनीक और अच्छी हो गयी है तो और अच्छी फिल्में बन रही हैं। लेकिन कहीं न कहीं अब वो मज़ा नहीं आ रहा है। फिल्मों का संगीत भी ऐसा कुछ खास नहीं है जैसा 1964 में बनी वो कौन थी के संगीत में है और उसमें अगर वो रीसायकल फैक्ट्री से बन कर निकला है तो रही सही उम्मीद भी चली जाती है।

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नये ज़माने के निर्देशक अब फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक को ज़्यादा महत्व दे रहे हैं। इन फिल्मों में उसका अपना एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता है। फिल्मों में ज़रूरी न हो तो गाने भी नहीं होते। एक दो गाने प्रोमोशन के लिये शूट कर लेते हैं। लेकिन अब वो भी नहीं होगा क्योंकि एक दर्शक ने केस कर दिया था निर्देशक पर की प्रमोशनल गाना फ़िल्म में दिखाया ही नहीं गया।

दूसरी श्रेणी फ़िल्मों की जिसे मैंने अब देखना कम या बंद कर दिया है वो है हॉरर फिल्म। ऐसा नहीं है की पहले बहुत देखता था लेकिन जितनी भी अच्छी फिल्में आयी हैं मैंने लगभग सभी देखी हैं और सब की सब सिनेमाघरों में।

मुझे याद जब रामगोपाल वर्मा की रात फ़िल्म रिलीज़ हुई थी उस समय मैं कॉलेज के प्रथम वर्ष में था। फ़िल्म कॉलेज से थोड़ी दूर लगी थी। मतलब कॉलेज के आसपास कोई भी सिनेमाघर नहीं था। कॉलेज था भोपाल की BHEL टाऊनशिप में। मेरे कॉलेज के नये नये मित्र जय कृष्णन को भी फ़िल्म देखने का शौक था। बस हम दोनों पहुँच गये सिनेमाघर। कॉलेज के बाकी साथियों ने इस बार हमारा साथ नहीं दिया। शायद उन्होंने अख़बार में फ़िल्म के पोस्टर के साथ लिखी चेतावनी याद रही – कृपया कमज़ोर दिल वाले ये फ़िल्म न देखें।

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फ़िल्म देखने मुश्किल से 15-20 लोग रहे होंगे पूरे हॉल में। दोनों बैठ तो गये लेकिन पता नहीं था क्या होने वाला है। लेकिन क्या बढ़िया फ़िल्म थी। उसका कैमरावर्क कमाल का था और सस्पेंस भी। मेरे लिये आज भी फ़िल्म रात हॉरर फिल्मों में सबसे ऊपर है। अंग्रेज़ी की भी कई फिल्में देखी और महेश भट्ट/विक्रम भट्ट की फैक्ट्री वाली कुछ फिल्में भी देखी हैं। लेकिन रात में जब कैमरा रेवती के पीछे पीछे सिनेमाघर के अंदर और उसके बाद मैनेजर के कमरे में पहुँचता है…

रामसे भाइयों ने भी ढ़ेर सारी फिल्में बनाई हैं लेक़िन मुझे सिर्फ़ उनके नाम याद हैं। बात गानों से शुरू हुई तो उसी से ख़त्म करते हैं। ये गुमनाम फ़िल्म का गीत है जिसमें हेलेन जी वही संदेश दे रही हैं जो आज इस समय बिल्कुल फिट बैठता है।

https://youtu.be/tKodgq-1TgY

Baaghi 3 gets audience approval; Will Sooryavnshi repeat the magic?

Update: The film has opened to good response despite poor reviews. It\’s speaks volumes about credibility of Tiger Shroff because there is no one else in the film to rake in Rs 50 crore in two days. The numbers would have been better had it got a wider release. It is riding only and only Tiger Shroff\’s goodwill and the action sequences which the audience seems to have loved. It\’s good news for the Hindi film industry. Now all eyes on Akshay Kumar\’s cop drama Sooryavnshi.

Hindi film industry is staring at what could be worst beginning for them. Already first two months of year 2020 has seen many big films expected to rake in the moolah not living upto the expectations. March has two big films lined up for release – the third installment of Tiger Shroff action franchise Baaghi and Rohit Shetty\’s Sooryavanshi starring Akshay Kumar. But the spread of coronavirus in India just before the release of Baaghi and days after the March 24 release of Sooryavanshi trailer is not the news Hindi film industry would be happy with.

Of all the films released in first two months of 2020 only Tanhaji – The Unsung Warrior has got a nod from the audience and has managed to collect Rs 278 crore so far. None of the other films have been anywhere close to Rs 100 crore figure. Deepika Padukone\’s Chhapak managed Rs 34 crore, Varun Dhawan\’s Street Dancer 3D collected Rs 68 crore, Kangana Ranaut\’s Panga made Rs 28.92 crore.

Saif Ali Khan and Aliya F\’s Jawaani Jaaneman was the surprise hit collecting Rs 28.76 crore. Aditya Roy Kapur-Disha Patni\’s Malang collected Rs 58 crore while Imtiaz Ali\’s Love Aaj Kal did not win hearts of the people and collected Rs 34.8 crore. Even the box office favourite child these days, Ayushman Khurrana failed to get the same love for his Shubh Mangal Zyada Saavdhan and the film on gay romance has so far collected Rs 57 crore.

MOVIESBox Office Collection
Chhapaak34.08
Tanhaji – The Unsung Warrior278.47
Street Dancer 3D68.28
Panga28.92
Jawaani Jaaneman28.76
Malang58.09
Love Aaj Kal34.8
Shubh Mangal Zyada Saavdhan56.98
Thappad (Till March 3)19.13

(Figures in crore. Source: Bollywood Hungama)

Taapsi Pannu starer Thappad though loved by critics has got a rather lukeworm response with Rs 19 crore collection in first five days. The numbers will not improve, if the initial collection is anything to go by.

Cut to 2019 when three films managed to strike gold in the first two months. Uri – The Surgical Strike managed life time collection of Rs 245 crore while February releases Gully Boy and Total Dhamaal crossed the Rs 100 crore mark and collected Rs 140 and Rs 154 respectively. Two more films collected Rs 90-plus crore – Manikarnika – The Queen of Jhansi released on January 25 collected Rs 92.19 crore and Luka Chuppi, released on March 1 collected Rs 94.75 crore.

MOVIES (2019)Box Office Collection
Uri – The Surgical Strike245.36
Manikarnika – The Queen Of Jhansi92.19
Ek Ladki Ko Dekha Toh Aisa Laga20.28
Gully Boy140.25
Total Dhamaal154.23
Luka Chuppi94.75

(Figures in crore. Source: Bollywood Hungama)

Sandiwched between the two big releases is the Irrfan Khan starrer English Medium. Unlike the two biggies which are driving high on action and low on everything else, this sequel to Hindi Medium promises to be a content and performance heavy film. With Irrfan Khan still undergoing treatment for cancer, the film is eagerly awaited by his fans.

\"English

A look at first two months of 2020 indicate which way the wind is blowing. The spread of cornonavirus has already resulted in people staying away from group activities like Holi celebration and the same would apply to watching movie in a theatre. Its too early to predict hot it hits the Hindi film industry and Indian film industry in general but it definitely would impact the collection of big movies lined up for release.

पद्मावत भव्य लेकिन एक जिस्म जिसमें जान नहीं

पिछले साल इन्हीं दिनों करणी सेना और उनके सदस्यों ने पद्मावती को लेकर हंगामा शुरू किया था। इतिहास में या रानी पद्मावती के बारे में बहुत ज़्यादा तब।भी नहीं मालूम था। बस इतना जानते थे कि ख़िलजी उनको देखना चाहते थे और पद्मावती ने अपने आप को आग के हवाले कर दिया था।

दिसंबर 2017 से जनवरी 2018 के बीच पद्मावती पद्मावत हो गयी और दीपिका पादुकोण की कमर को स्पेशल इफ़ेक्ट के साथ ढांक दिया गया। मेरा इतिहास की इस घटना के बारे में ज्ञान में इतने दिनों में कोई ज़्यादा इज़ाफ़ा नहीं हुआ। यूं कहें कि किया नहीं। बहरहाल, ये पोस्ट फ़िल्म के बारे में हैं तो उस पर वापस आते हैं।

फ़िल्म ख़िलजी से शुरू होती है और पद्मावती और रतन सिंह बाद में आते हैं। संजय लीला भंसाली अपनी फिल्मों की भव्यता के लिए जाने जाते हैं और पद्मावत उसी श्रृंखला की एक और कड़ी है। शायद यही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। कहीं न कहीं क़िरदार भव्यता के चक्कर में पीछे छूट जाते हैं। ये फ़िल्म के लेखन की सबसे बड़ी विफलता कही जा सकती है।

इस फ़िल्म में भंसाली संगीत में भी कहीं चूक ही गये। घूमर देखने में अच्छा होने के कारण याद रह जाता है लेकिन बाकी गाने याद भी नहीं रह पाते। ये वही भंसाली हैं जिनकी ख़ामोशी और हम दिल दे चुके सनम के गाने आज भी पसंद किये जाते हैं।

बात करें अदाकारी की तो रनबीर सिंह सबको याद रह जाते हैं। लेकिन सही कहें तो इस किरदार में जिस पागलपन की ज़रूरत थी वैसे वो असल ज़िंदगी में हैं। दीपिका को रानी पद्मावती के जैसा सुंदर होना था लेकिन वो वैसी अलौकिक सुंदरता की धनी नहीं दिखती हैं। शाहिद कपूर रतन सिंह के रूप में थोड़े से छोटे लगते हैं।
अगर कोई मुझसे इसके लिए नाम सुझाने के लिए कहता तो मेरे लिए हृतिक रोशन होते रतन सिंह, रणबीर कपूर होते ख़िलजी और ऐश्वर्या राय बच्चन होतीं पद्मावती।

हमारी धारणाएं और सच

तुम्हारी सुलु देखने का मौका मुझे पिछले हफ्ते ही मिला। जब फ़िल्म रिलीज़ हुई थी तब देखने का प्रोग्राम किसी न किसी कारण से मुल्तवी होता रहा और फ़िल्म सिनेमा हॉल से उतर गई। फ़िल्म बहुत से कारणों से अच्छी लगी।

जो सबसे अच्छी बात लगी वो थी हम कैसे धारणाएँ बना लेते हैं। लोगों के बारे में, उनके काम के बारे में। अक्सर ये धारणाएँ गलत ही होती हैं क्योंकि हम अपनी धारणा सुनी सुनाई बातों के आधार पर बनाते हैं। किसी ने कह दिया कि फलां व्यक्ति तो बहुत बुरा है। बस हम ये मान बैठते हैं कि वो व्यक्ति वाकई में बुरा है। हमारा अपना व्यक्तिगत अनुभव कुछ नहीं है लेकिन हमने सुना और मान लिया।

फ़िल्म में विद्या बालन के किरदार को एक रेडियो जॉकी का काम मिल जाता है और वो देर रात का शो होता है। उनको सुनने वाले मर्द उनकी आवाज़ और अदा पर फ़िदा। चूँकि उनको सुनने वाले उटपटांग बाते करते हैं, सुलु के परिवार वालों को ये बात बिल्कुल नागवार गुज़रती है। उनका ये मानना है कि ये काम अच्छे घर की औरतें नहीं करतीं। लेकिन सुलु ने ऐसा कोई काम किया ही नहीं जिससे उनके परिवार को शर्मिंदा होना पड़े। लेकिन ये धारणा की ये काम बुरा है ये बात घर कर गयी है।

जैसे फ़िल्म इंडस्ट्री को हमेशा से ही एक बुरी जगह बोला गया है। लेकिन क्या ये उन सभी बाकी काम करने की जगह से वाकई में बुरी है? क्या और काम करने की जगहों पर वो सब नहीं होता जिसके लिए फ़िल्म इंडस्ट्री बदनाम है? क्या बाकी जगहों पर औरतों के साथ कोई अनहोनी घटना नहीं होती हैं? लेकिन फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में ये धारणा बन गयी है।

इसका एक कारण ये भी है कि फ़िल्म इंडस्ट्री और उनसे जुड़े लोगों के बारे में लिखा बहुत जाता है। लेकिन ये बातें सभी इंडस्ट्री के लिए उतनी ही सच और सही हैं। अगर हम अपने अनुभव के आधार पर भी किसी के बारे में कोई धारणा बनाते हैं तो भी वो सिर्फ हमारे ही लिए होना चाहिए। लेकिन हमारे आस पास के लोग भी हमारे इन विचारों से प्रभावित हो कर अपनी धारणा बना लेते हैं।

जैसे आमिर खान के बारे में ये कहा जाता है कि वो बहुत ज़्यादा हस्तक्षेप करते हैं और अपनी फिल्मों को डायरेक्ट भी करते हैं। अगर ये सही है तो विद्धु विनोद चोपड़ा जैसे निर्देशक उनके साथ दो फिल्में करते? आपने अगर नहीं देखी है तो ज़रूर देखें तुम्हारी सुलु।

दुनिया समझ रही थी कि वो नाराज़ मुझ से है,
लेकिन वो जब मिला तो मुझे सोचना पड़ा

Best women centric movies

\"\"With the entire planet clebrating the Women’s Day I thought I should also join the celebrations!

But no dinners/lunch/gifts or shopping. Apologies to the women in my life!

Instead I will list movies, both Hindi as well as English, which had really good women centric script or the female cast left a lasting impression. The list is random. I love them all

1: Leading the list is of course Astitva: A very bold and unusual story. In bollywood bold means showing more flesh. But this offering from Mahesh Manjerakar and Tabu was bold in its content and the step Tabu who played the role of Aditi, takes after her husband “manages to estabilish” that he was not the real father of his son. Wonderful dialogues, this will always remain a favourite.

2: Phir Milenge: I catched the repeat telecast of the movie just last week. Again the movie is unusual as it talks about AIDS but not about the disease or how Shilpa Shetty got the virus. But what happens after people around her discover about her disease. Brilliant performance by Shilpa.

3: Erin Brokowich: Simply outstanding. The way the film opens we hav no clue where it wll end. But Julia Roberts takes us through the life of a single mother who  woks a prostitute and goes on to become a legal assistant.

4: Aakhir Kyun: Smita Patil in a really memorable role. Even Tina Munim managed to give good support to the principal cast. Add to this some really good songs popular even today.

5: Parineeta: That a movie on this theme can be made in 21st century??? Amazing performance and the good old Calcutta.

6: The Sound of Music: Maria makes me laugh and cry… Life and how to live it.

7: Charade: Saw is only last week. A mystery-comedy about a woman whose husband is dead and people think he has left her huge money which they claim is theirs.

8: Pinjar: A tragic love story about women during the Indo-Pak partition.

9: Jab We Met: Geet is again like girls today. Independent, modern and yet traditional. Hard not to smile even when Kareena and Shahid get cosy and uncomfortable… and Shahid says ho jata hai yaar kabhie kabhie…

10: Zubeidaa/Joggers Park/Silsila/Jaane Tu… yaa jane na/Pretty Woman/Abhiman/Lamhe/Chandni: All the movies had strong female roles and all were different. Far far from the conventional role we have been seeing. The women in these films had a mind of their own and did their own thing.

And the Oscar goes to Katherine… best director and best film.