थोड़ी हँसी है तो थोड़े आँसूं

मुँह में राम बगल में छुरी वाली कहावत जब बचपन में सुनी थी तो लगता था छुरी भी दिखाई देगी। वक़्त के साथ समझ आया कि ये छुरी दिखने वाली नहीं है। हाँ आपको इसका आभास अलग अलग रूप में हो जाता है।

जैसे आपके सच्चे हितेषी कौन हैं ये बात आपको समझते समझते समझ में आती है। अक़्सर ऐसा होता है कि जिसको आप अपना शुभचिंतक समझ रहे थे वो दरअसल अपने मतलब के लिये आपके पास था। ये वो लोग होते हैं जो आपको चने के झाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं औऱ चूँकि हम सभी को तारीफ़, प्रशंसा अच्छी लगती है तो हम ये सब सुन सुनकर फूल फूल के कुप्पा हुये जाते हैं। लेक़िन जब तक समझ आता है की आप उतने भी अच्छे नहीं है जितना बताया जा रहा था तो बड़ी ठेस लगती है।

जब मुझे टीम को नेतृत्व करने का मौक़ा मिला तो कई सारे ट्रेनिंग प्रोग्राम में जाने का मौक़ा भी मिला। इसमें से एक था कि आप किसी को फ़ीडबैक कैसे दें। कंपनी के नियम ही कुछ ऐसे थे कि आप को हर महीने टीम के सभी सदस्यों की परफॉर्मेंस देखनी होती थी और रेटिंग देनी होती थी। इसके बाद हर तिमाही आपको आमने सामने बैठकर इस पर थोड़े विस्तार से बातचीत करनी होती थी। एक समय मेरी टीम लगभग 70 से अधिक सदस्यों की हो गयी थी और मेरे कई दिन इसमें निकल जाते थे। साल के अंत में तो महीना इसके लिये निकाल कर रख दिया जाता था।

इसका दूसरा पहलू भी था। टीम के सदस्यों को भी उनके लीडर (यानी मुझे) रेट करना होता था। जो भी अच्छा बुरा होता वो सीधे HR के पास पहुंच जाता और इसके बाद बॉस, मैं और HR के बीच मेरे बारे में इस फीडबैक पर चर्चा होती। इसमें बहुत सी बातें पता चलती। मसलन टीम भले ही अपने टारगेट कर रही थी लेक़िन कुछ न कुछ शिक़ायतें भी ज़रूर रहतीं। वैसे तो मैंने टीम के सभी सदस्यों को ये छूट दे रखी थी की अगर मेरी कोई बात ग़लत हो तो बता दें। लेक़िन कुछ को छोड़ दें तो बाक़ी लोगों को कोई शिक़ायत नहीं होती। ऐसा मुझे लगता।

लेक़िन जब शिकायतों की शुरुआत होती तो लगता ये तो कुछ अलग ही मामला है। लेक़िन जब आप नेतृत्व कर रहे होते हैं तो आपको एक और बात भी समझ में आती है की कुछ तो लोग कहेंगें, लोगों का काम है कहना। आप इस कहने से कितना परेशान होते हैं ये आप पर निर्भर करता है क्योंकि उस कहने की सच्चाई आपको भी पता होती है। लेक़िन इसका ये मतलब नहीं की जो आपकी निंदा कर रहे हो वो ग़लत ही हों। शायद आपको अपने में कुछ बदलने की भी ज़रूरत हो सकती है।

लेक़िन कुछ लोगों की फ़ितरत ऐसी नहीं होती। मतलब बेईमानी तो जैसे उनके डीएनए में ही होती है। और न तो समय और न उम्र उनमें कुछ बदलाव लाती है। आप कह सकते हैं ये उनका मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट होता है। लेक़िन जैसे किसी उपकरण की कई खामियां/कमियाँ आपको उनके इस्तेमाल के बाद पता चलती हैं, वैसे ही इन महानुभावों के असली चेहरे के बारे में तब पता चलता है जब आप किसी मुसीबत में हों या आपको उनकी सहायता की ज़रूरत हो।

अगर आपने फ़िल्म नासिर हुसैन की तीसरी मंज़िल देखी हो तो जैसे उसमें आख़िर में पता चलता है तो आपको एक शॉक सा लगता है। पहली बार तो ऐसा हुआ था। मैंने अपने कार्यस्थल और निजी जीवन में भी ऐसी कई उदाहरण देखे जिनके बारे में सुनने पर विश्वास नहीं होता। ऐसे लोगों के चलते मन ख़राब भी बहुत होता है क्योंकि आपको सामने ये दिखता है की सब कुछ ग़लत करने के बाद भी (जिसके बारे में सबको मालूम भी है) वो व्यक्ति अपने जीवन को ऐसे जी रहा है जैसे कुछ हुआ ही न हो। आप यही उम्मीद करते हैं जैसे सबको अपने कर्मों का फल मिलता है इन \’गुणी\’ लोगों को भी मिले।

वापस मुँह में राम बगल में छुरी पर आते हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलेंगे जहाँ दानवीर धर्मस्थलों पर बड़ी रक़म तो दान कर देते हैं लेक़िन किसी असली ज़रूरतमंद की मदद करने से कतराते हैं। अब जब चूँकि अंदर वो अपनी आस्था का लेनदेन कर चुके होते हैं तो बाहर काला चश्मा पहनकर वो निकल जाते हैं।

मॉरल ऑफ द स्टोरी: अपना काम करते रहिए। जिनको आपका ऐसे या वैसे उपयोग करना होगा वो करेंगे। उनसे आप नहीं बच सकते। अगर घर में आपके सगे संबंधी आपको छोड़ देंगे तो बाहर कोई आपका दोस्त, सहयोगी आपकी ताक में बैठा होगा। लेक़िन इन लोगों के चलते उसकी उम्मीद मत तोड़ियेगा जिसका जीवन आप के एक भले काम से बदल सकता है।

दिल का हाल सुने दिलवाला, सीधी सी बात न मिर्च-मसाला

भारत-पाकिस्तान के मैच के बाद सबसे ज़्यादा जो चर्चा में पाकिस्तान टीम की परफॉर्मेंस के अलावा कुछ है तो वो है रणवीर सिंह का परिधान जो उन्होंने उस दिन पहना था। आपने रणवीर सिंह की अजीबोगरीब कपड़ों में तस्वीरें ज़रूर देखी होंगी। उनके जैसे कपड़े पहनने के लिये बड़ी हिम्मत चाहिये। उससे भी ज़्यादा चाहिये ऐसा attitude की आपको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मतलब कपड़े या स्टाइल ऐसा की हम और आप पूरे जीवन ऐसे कपड़े न पहनें। ऐसा इसलिये क्योंकि हम अपना पूरा जीवन इस बात पर ही ध्यान रखते हुए बिताते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं। जो हम पहनते हैं वो इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा होता है।

ये सिर्फ परिधानों तक ही सीमित नहीं है। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि मुझसे किसी मामले में राय माँगी जाती है और मैं वही बोल देता हूँ जो लोग सुनना नहीं चाहते। मतलब की बोलना हो तो उस पर कुछ मीठी वाणी का लाग लपेट कर बोला जाए। चूँकि ऐसा करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल होता है इसलिए लोग कम ही पसंद करते हैं मेरी राय।

मेरा ये मानना है कि एक बार ही सही जो सही है वो बोल दो। कम से कम सामने वाला कोई दुविधा में न रहे। ऐसा नहीं है कि मैंने हर बार यही रास्ता अपनाया है। कई बार मुझे सिर्फ आधी सच्चाई ही बतानी पड़ी और उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। उसके बाद लगता की काश पहले ही सब सही बोल दिया होता तो बात वहीं ख़त्म हो जाती।

सच कहने का साहस और सलीका – याद नहीं किस पेपर का कैंपेन है लेकिन बिल्कुल सही बात है। सच कहने के कई तरीक़े होते हैं। एक तो जैसा है वैसा बोल देना। दूसरा उसको थोड़ा मीठा लगा के बोलना। मुझे ऐसी ही एक ट्रेनिंग में भाग लेने का मौका मिला था। द आर्ट आफ गिविंग फीडबैक। इसमें हमें ये बताया कि कैसे बतायें आपकी टीम के सदस्यों को उनके काम के बारे में।

ये सिर्फ ऑफिस के लिये लागू नहीं होता। अपने परिवार वालों को हम लोग ये फीडबैक देने का काम करते ही हैं। ये एक बहुत ज़रूरी ट्रैनिंग है जो पति शादी के कुछ साल बाद सीख ही जाते हैं। लेकिन जैसा फीडबैक वो अपनी श्रीमतियों को देते हैं वैसा वो अपने कार्यक्षेत्र में नहीं करते। अब कार्यस्थल में तो उनका हुक्का पानी बंद होने से रहा। लेकिन श्रीमती जी के साथ ये जोखिम कौन मोल ले। क्या रणवीर सिंह अपनी पत्नी दीपिका को राय भी इतनी ही बेबाक तरीक़े से देते हैं?

क्या मुझमें रणवीर सिंह जैसी हिम्मत है? अगर किसी भी समारोह में कुर्ता पायजामा पहने के जाने को हिम्मत कह सकते हैं, तो हाँ। मुझमें हिम्मत है। क्या मैं अपनी राय भी उतने ही बेबाक तरीक़े से देता हूँ? ये मैं अपनी दीपिका पादुकोण से पूछ कर कल लिखूंगा।