इन दिनों नवरात्रि की धूम है। बीते दो साल से त्योहारों की रौनक़ कम तो हुई है लेक़िन उत्साह बरकरार है। लोग किसी न किसी तरह त्यौहार मनाने का तरीक़ा ढूंढ ही लेते हैं। अगर सावधानी के साथ मनाया जाये तो बहुत अच्छा।
पिताजी को जो सरकारी मकान मिला था वो बिल्कुल मेन रोड पर था। भोपाल में चलने वाली बसों का एक रूट घर के सामने से ही जाता था। कुल मिलाकर आजकल जो घर देखे जाते हैं, ये भी पास हो, वो भी नज़दीक हो, बस ऐसा ही घर मिला था।
घर के सामने एक कन्या विद्यालय था जो हमारे सामने ही बना था औऱ हम लोगों ने वहाँ बहुत खेला भी (जब तक क्रिकेट से स्कूल में लगे शीशे नहीं टूटने शुरू हुये)। इसी स्कूल से लगा हुआ था लड़कों का स्कूल। लेक़िन दोनों ही स्कूल के आने जाने का रास्ता विपरीत दिशा में था।
ये जो लड़कों का स्कूल था वहाँ अच्छा बड़ा मैदान था औऱ हर साल नवरात्रि में गरबा का कार्यक्रम आयोजित होता। भोपाल शहर का शायद सबसे बड़ा गरबा कार्यक्रम हुआ करता था। सारा शहर मानो गरबा कर रहा हो इतनी भीड़ हो जाती। औऱ यही हमारी मुसीबत का कारण बनता।
घर के सामने जो भी अच्छी ख़ासी जगह थी रात होते होते वो सब गाड़ियों से भर जाती औऱ अगर हम लोग कोई बाहर निकले तो गाड़ी अंदर रखने का कार्यक्रम देर रात तक रुका रहता। हमारे प्यारे देशवासियों की आदत भी कुछ ऐसी ही है। अपने घर के सामने ऐसा कुछ हो तो पता नहीं क्या कर बैठें लेक़िन ख़ुद बिना सोचे समझे यही काम करते रहते हैं।
उन दिनों मेरा भी भोपाल में उसी संस्था से जुड़ाव था जो ये भव्य कार्यक्रम आयोजित करती थी। लेक़िन चूंकि हमारा काम ही शाम को शुरू होता था तो कभी जाने का मौक़ा नहीं मिला। जब श्रीमती जी से विवाह की बात शुरू हुई तो पता चला वो सामने वाले उसी स्कूल में पढ़ती थीं जिसका निर्माण हमारे सामने हुआ था। कई लोगों को लगा शायद मैंने उन्हें स्कूल आते जाते देखा औऱ…
दूसरा रहस्योद्घाटन ये हुआ की जिस गरबा की भीड़ से हम साल दर साल परेशान रहते थे वो उस भीड़ का भी हिस्सा थीं। अलबत्ता उनके ग्रुप की गाड़ियाँ हमारे घर के सामने नहीं खड़ी होती थीं।
जिस दिन हमारी सगाई हुई उन दिनों भी ये महोत्सव चल रहा था। समारोह के पश्चात सब अपने अपने घर चले गये लेक़िन श्रीमती जी औऱ उनके भाई बहन सबका गरबा कार्यक्रम में जाने का बड़ा मन था। लेक़िन सबको डाँट डपट कर समझाया गया औऱ सीधे घर चलने को कहा गया।
जब गरबा क्या होता है ये नहीं मालूम था, उस समय एक बार अहमदाबाद जाना हुआ था। एक गीत \’केसरियो रंग तने लागयो रे गरबो\’ ये सुना था औऱ यही याद भी रह गया है (अगर बोल ग़लत हो तो बतायें)। भोपाल में गुजराती समाज भी ऐसा कार्यक्रम आयोजित करता था लेक़िन सिर्फ़ सदस्यों के लिये। मुम्बई में भी ऐसे कई बड़े कार्यक्रम होते हैं जहाँ कभी जाना नहीं हुआ। गरबा क्वीन फाल्गुनी पाठक से मिलना ज़रूर हुआ था लेक़िन दिल्ली में जब वो अपने एक एल्बम रिलीज़ के सिलसिले में आई थीं।मुम्बई में तो उनके कार्यक्रम को टीवी पर ही देखा है। गरबे की असली धूम तो गुजरात में होती है लेक़िन अमिताभ बच्चन के बार बार कुछ दिन तो गुज़ारो गुजरात में बोलने के बाद भी इसका मौक़ा नहीं लगा है।
जो हमारे समय नवरात्रि का कार्यक्रम होता था वो था झाँकी देखने जाने का। एक दिन परिवार के सब लोगों को कार में भरकर पिताजी पूरे शहर की झाँकी दिखाते। ये सब घुमाने फिराने का कार्यक्रम पिताजी के ज़िम्मे ही आता क्योंकि – एक तो उनको शहर के इलाके बहुत अच्छे से पता हैं औऱ दूसरा ये की वो बिना किसी परेशानी के आराम से घूमने देते हैं। मतलब घूमते समय घड़ी पर नज़र नहीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण? श्रीमती जी आज भी कहती हैं मार्केट जाना हो तो पापा के साथ जाना चाहिये वो आराम से घूमने देते हैं। हमारे साथ मार्केट जाना तो घंटो का नहीं मिनटों का काम होता है। अभी तक ये गुण नहीं आया है – देखिये आने वाले वर्षों में क्या कुछ बदलता है।
समय के साथ सब बदलता है। ऐसा ही कुछ शादी के लगभग दो साल बाद हुआ। कहाँ पास होने के बाद भी गरबा कार्यक्रम में कभी नहीं गये औऱ कहाँ विवाह उपरांत पूरे एक महीने गुजरात से सिखाने आये गुरुजी से गरबे की ट्रेनिंग ली। हम चारों – ताऊजी के बेटे और भाभी औऱ हम दोनों, शायद बहुत ही गंभीरता से सीख रहे थे। ये अलग बात है कभी गरबा कार्यक्रम में जाने का औऱ अपनी कला दिखाने का मौक़ा नहीं मिला।
तो ये हमारा भोपाल भ्रमण कार्यक्रम का बड़ा इंतज़ार होता। अलग तरह की प्रतिमाओं को देखना, कोई किसी घटना को दर्शा रहा है या कोई किसी प्रसिद्ध मंदिर की झाँकी औऱ सुंदर सी देवीजी की मूर्ति। इन सबकी अब बस यादें ही शेष हैं। अक्सर ये घूमना षष्ठी या सप्तमी के दिन होता क्योंकि कालीबाड़ी भी जाना होता था। नवरात्रि मतलब गरबा – ये वाला कार्यक्रम अभी भी पूरी तरह से नहीं हुआ है। मुम्बई में झाँकी/पंडाल वाला कार्यक्रम सिर्फ़ बंगाली समाज तक सीमित है तो वहाँ जाना हुआ है।
जो हमारा घर था उसके दायें औऱ बायें दोनों तरफ़ दुर्गाजी की झाँकी लगती औऱ सुबह सुबह से दोनों ही पंडाल भजन लगा देते। शुरुआत एक से होती लेक़िन दूसरे कमरे तक पहुंचते पहुंचते भजन भी बदल जाता। क्योंकि पहले वाले की आवाज़ दूसरे के मुक़ाबले कमज़ोर पड़ जाती।
आप नवरात्रि कैसे मानते हैं औऱ इतने वर्षों में क्या बदला ? अपनी यादें साझा करें।