माँगा है तुम्हे दुनिया के लिये, अब ख़ुद ही सनम फ़ैसला कीजिये

भोपाल से जब वापस आये तो साथ में कुछ मीठा हो जाये के लिये कैडबरी नहीं, ग्वालियर की गजक लेकर आये थे। बचपन से गजक मतलब ग्वालियर की गजक। ग्वालियर गजक एक दुकान का नाम है। वैसे भोपाल में मुरैना गजक नाम की दुकान भी है औऱ वहाँ भी गजक मिलती है। लेक़िन कमबख़्त ये ज़बान को औऱ कुछ नहीं जँचता। तो गजक आयी औऱ देखते ही देखते ख़त्म भी हो गयी।

एक दिन सुबह सुबह सफ़ाई के जोश में गजक के कुछ डब्बे मैंने कचरे में डाल दिये। अब जैसा होता है, वैसे इसका उल्टा ही ज़्यादातर होता है जब अपना कुछ सामान कचरे के हवाले होता है। लेक़िन वो सामने वाली पार्टी का दिन था तो सब कचरा छोड़ श्रीमती जी ने उन्हीं डब्बों के बारे में पूछ लिया। अब अगर आप सोच रहें हों कि कहीं मैंने गजक का भरा हुआ डिब्बा तो कचरे के हवाले नहीं कर दिया – तो आप बिल्कुल ग़लत ओर चल पड़े हैं। सब डब्बे खोल कर औऱ उसमें से जो थोड़ी बहुत गजक बची हुई थी, सबके साथ इंसाफ करके ही डिब्बों को हटाया गया था।

मैंने पूछा कि क्या हुआ डिब्बे तो खाली थे? जो जवाब मिला उसका नतीजा बनी ये पोस्ट।

पर्यावरणविदों ने ज़िम्मा उठा रखा है ज्ञान देने का। अब वो देसी हों या विदेशी। समझाया जा रहा है उन चीज़ों का इस्तेमाल करें जो दोबारा इस्तेमाल की जा सकें। ये सब तो हम बचपन से करते आ रहे हैं। किताबों से लेकर कपड़ों तक सब चल ही रहा था औऱ आज भी जिन लोगों को इससे परहेज़ नहीं है या क्लास की फ़िक्र नहीं है वो अभी भी करते हैं।

इसके अलावा बाक़ी जिस चीज़ का ऐसा भरपूर इस्तेमाल होता देखा वो था मिठाई का डिब्बा। सरकारी घर की रसोई में एक अलमारी थी उसके ऊपर लोगों के द्वारा दिये गये या हम लोगों की लायी मिठाई के छोटे बड़े डिब्बे रखे रहते। कोई बाहर यात्रा पर जा रहा होता तो उसके साथ इन्हीं डिब्बे में खाना रख दिया जाता।

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कल जब ट्रैन यात्रा के बारे में लिख रहा था तब ये भी ध्यान आया की पहले अग़र किसी की गाड़ी आपके शहर से गुज़र रही होती तो आप स्टेशन पर दस मिनिट के लिये ही सही, जाकर मिलते औऱ साथ खाना भी ले जाते। अब तो ये चलन समाप्त ही हो गया है। अब लोग मिलने का मतलब व्हाट्सएप पर दुआ सलाम कर लेते हैं।

भोपाल का दूसरा रेल्वे स्टेशन, हबीबगंज (रानी कमलापति) घर के नज़दीक ही था। कई बार कोई रिश्तेदार या जान पहचान वाले निकलते तो हमारा जाना होता। तब यही मिठाई का पुराना डिब्बा इस्तेमाल होता। किसी ख़ास के लिये अलग से मिठाई भी लेकर जाते।

ऐसी कभी कभार हमारे साथ भी हुआ है जब ट्रैन से यात्रा करी। बीच के किसी स्टेशन पर कोई जान पहचान वाले या कोई रिश्तेदार खाना लेकर आया। अच्छा ये खाना बहुत तामझाम वाला नहीं हुआ करता था। पूड़ी, सब्ज़ी, अचार औऱ हरी मिर्च। लेक़िन क्या स्वाद होता था। औऱ ताज़ा बना हुआ रहता तो खाने में मज़ा भी आता। इसके पीछे का कारण था वही मिठाई वाला डिब्बा।

वैसे स्टेशन पर ट्रेन पर मिलने के नाम पर लड़का लड़की देखने का कार्यक्रम भी होता। जिन दिनों मेरे विवाह के लिये सुयोग्य वधु की तलाश थी तब भोपाल स्टेशन पर ऐसा हुआ था। ट्रैन तो आगे बढ़ी लेक़िन बात आगे नहीं बढ़ी। बाद में भाई के समय भी ऐसा ही हुआ। वो ट्रैन से यात्रा कर रहे थे तो स्टेशन पर कन्या देखने का प्रोग्राम बना। बस बात आगे नहीं बढ़ी। लेक़िन साथ में जो मिठाई आयी भोपाल उसका हमने भरपूर आनंद लिया।

तो ये जो रिसायकल वाला ज्ञान है दरअसल ये हम लोगों के जीवन का हिस्सा रहा है। वैसे तो कपिल शर्मा शो देखता नहीं लेक़िन पिछले दिनों जूही चावला आईं थीं तो एक क्लिप देखी थी। उसमें उन्होंने एक टूथब्रश की आत्मकथा बताई थी। जब वो दाँत साफ़ करने लायक नहीं रहता तो उससे चीजें साफ़ करते हैं। उसके बाद उसको तोड़ कर उसका इस्तेमाल नाड़ा डालने के लिये होता है।

वापस आते हैं डिब्बे पर। मुम्बई में मिठाई की बहुत दुकानें हैं लेक़िन स्वाद के मामले में बहुत पीछे। पिछले दिनों एक दुकान से मिठाई मंगाई तो मैं पहले तो उसके डिब्बे से ही बहुत प्रभावित हुआ। लेक़िन उसके अंदर की मिठाई भी बड़ी स्वादिष्ट। बहुत लंबे अरसे बाद अच्छी मिठाई खाने को मिली। लेक़िन डिब्बा प्रेम थोड़े दिन रहा।

अब तो ट्रैन में पैंट्री कार होती हैं तो सब उसी के भरोसे चलते हैं। वैसे अगर ट्रैन किसी स्टेशन पर रुकी हो औऱ आपको प्लेटफार्म पर जो मिल रहा हो उसको खाने से कोई ऐतराज़ नहीं हो तो ज़रूर खाइयेगा। उसका अपना स्वाद है। जैसे मुझे इस बार इटारसी स्टेशन पर मिला। दोने में समोसे के साथ आलू की गरम सब्ज़ी औऱ तीखी हरी मिर्च। बहुत ही स्वादिष्ट।हमारी देखासीखी साथ वालों ने भी इसका आनंद लिया।

कई स्टेशन अपनी किसी ख़ास डिश के लिये भी जाने जाते हैं। जब पूना आना होता तो दौंड स्टेशन पर पिताजी बिरयानी लेने ज़रूर जाते। चूँकि गाड़ी वहाँ ज़्यादा देर रुकती है तो दूसरे प्लेटफार्म से भी लाना हो तो समय मिल जाता। वैसे ही वो बतातें उरई के गुलाब जामुन जो आज भी उतने ही स्वादिष्ट हैं।

वैसे खाने के मामले में स्लीपर क्लास का अलग मुक़ाम है। एसी में थोड़े नाज़ नख़रे रहते हैं तो कई खाना बेचने वाले आते ही नहीं। ऐसे ही एक बार चने के साथ बढ़िया प्याज़, हरी मिर्च और मसाला जो खाया था उसका स्वाद आज भी नहीं भूले।

तो उस दिन जो श्रीमती जी का सवाल था वो इसीलिये था। वो उन डिब्बों का इस्तेमाल करना चाहती थीं दीवाली की मिठाई भेजने के लिये औऱ प्लास्टिक के इस्तेमाल से बचना चाह रही थीं। अब डिब्बे तो सफ़ाई की भेंट चढ़ गये थे तो ये ख़्याल ज़रूर आया कि मिठाई मंगा लेते हैं, डिब्बे उनके काम आ जायेंगे। लेक़िन सेहत को ध्यान में रखते हुये इसको अमल में नहीं लाया गया।

जिनको मिठाई पहुँचानी थी उन तक क्या पहुँचा – मिठाई या सोन पपडी का डिब्बा (प्लास्टिक वाला) ये पता नहीं चला। आप फ़िलहाल इस गाने का आनंद लें।

न तुम हमें जानो, न हम तुम्हे जाने

आजकल खानेपीने के इतने सारे विकल्प उपलब्ध हैं की कई बार समझ नहीं आता की क्या खाया जाये।

आपने अग़र फ़ैमिली मैन का दूसरा सीजन देखा हो तो, उसमें निर्देशक द्वय राज-डी के ने इस बार दक्षिण भारत में कहानी बताई है। मनोज बाजपेयी अपनी टीम के साथ जब चेन्नई पहुँचते हैं तो एक सदस्य चेन्नई की टीम से कहते हैं मुझे दक्षिण भारतीय खाना बहुत पसंद है। उस टीम के मुख्य उनसे पूछते हैं दक्षिण भारत में कहाँ का भोजन पसंद है। दरअसल हमने पाँच राज्यों को एक में समेट लिया औऱ ये भी मान बैठे की सभी राज्यों में एक जैसा ही खाना खाया जाता है।

इसका ज़िक्र इसलिये कर रहा हूँ की मुझ पर ये इल्ज़ाम लगता है कि मुझे दक्षिण भारत में होना चाहिये था क्योंकि मुझे भी दक्षिण भारतीय व्यंजन बेहद पसंद हैं। अब किस राज्य में होना चाहिये ये मेरे लिये चुनना मुश्किल है। वैसे मुझे गुजराती व्यंजन भी बेहद पसंद हैं। आज गाड़ी दक्षिण की तरफ़ मुड़ चुकी है तो वहीं चलते हैं। दक्षिण भारतीय व्यंजन से परिचय बहुत देर से हुआ क्योंकि जब हम बड़े हो रहे थे तब खानेपीने के इतने सारे विकल्प नहीं थे। कुछ अलग खाने की इच्छा होती तो चाट या समोसा-कचोरी।  इसके अलावा सब कुछ घर पर ही बनता औऱ स्वाद लेकर खाया भी जाता। अब तो एप्प आ गईं हैं जो आपकी ये मुश्किल आसान कर देती हैं। जब एक वर्ष दिल्ली में रहा तो एप्प ने बड़ा साथ दिया लेक़िन कई बार समझ ही नहीं आता क्या खाया जाये। चाइनीज औऱ बाक़ी विकल्पों में घूमते हुये ही समय निकल जाता फ़िर थाली ही आर्डर करने के लिये बचती।

आज के जैसे तैयार घोल जिससे आप इडली डोसा उत्तपम आसानी से बना सकते हैं, वो भी उन दिनों उपलब्ध नहीं था। मतलब सब स्वयं तैयारी करिये औऱ उसपर से सब की अलग अलग पसंद। डोसा तो फ़िर भी कभी कभार बन ही जाता था लेक़िन इडली से मुलाक़ात बहुत बाद में हुई जब इडली बनाने का साँचा मिलने लगा। कई गृहणियों ने अपने अपने हिसाब से इन व्यंजनों को बनाने का तरीका भी निकाला। कुछ ने तो आज का चेन्नई औऱ उन दिनों के मद्रास से साँचे भी मंगाये। एक परिवार ने साँचे मंगा तो लिये लेक़िन उसका उपयोग उन्हें शुरू में समझ में नहीं आया तो उन्होंने अपना एक जुगाड़ निकाला। अप्पे के साँचे को इडली के घोल से भरने के बाद वो उसी के ऊपर तड़का भी लगा देतीं। ये नई तरह की डिश का उन्होंने नामकरण भी किया औऱ सबसे ज़्यादा अच्छी बात ये हुई की ये परिवार के सदस्यों को पसंद भी आई।

जब तक भोपाल में रहे तो बाहर खाना बहुत कम हुआ। ऐसे ही किसी ख़ास मौके पर जाना हुआ इण्डियन कॉफ़ी हाउस या ICH जो उन दिनों न्यू मार्केट के मुख्य बाज़ार का हिस्सा हुआ करता था। उसके बाद से इडली, डोसा औऱ उत्तपम के साथ कॉफ़ी से मोहब्बत का जादू ऐसा चला की आज भी ये खाने को मिल जाये तो औऱ कुछ नहीं सूझता। रही सही कसर कॉलेज में बने दोस्तों से पूरी हो गयी। मेरे उस समय के मित्र जय, विजय औऱ सलिल तीनों ही दक्षिण भारत से थे औऱ इनके यहाँ खाने का कोई मौक़ा मैं नहीं छोड़ता।

जब पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा तो कॉफ़ी हाउस जाना बहुत नियमित हो गया था। कारण? वहाँ बहुत सी पत्रकार वार्ता हुआ करती थीं। इसके अलावा उस समय के काफ़ी सारे पत्रकार सुबह वहाँ इकट्ठे होते औऱ कॉफ़ी औऱ सिगरेट के बीच पिछले दिन के समाचार की समीक्षा औऱ बाक़ी चर्चा होती। मेरा इसमें जाना हुआ नहीं क्योंकि सभी बहुत सीनियर लोग थे लेक़िन मेरे गुरु नासिर क़माल साहब ने बुलाया कई बार।

परिवार के साथ भी कहीं बाहर खाने के लिये जाना होता तो ज़्यादातर कॉफ़ी हाउस का ही रूख़ करते। खाना पसंद आने के अलावा एक औऱ चीज़ जो अच्छी थी वो थी क़ीमत जो जेब पर डाका डालने वाली नहीं थी। मध्यम वर्गीय परिवार के लिये इससे अच्छी बात औऱ क्या हो सकती थी। अच्छा उन दिनों का मेनू भी बहुत ज़्यादा बड़ा नहीं हुआ करता था। अब जो नया कॉफ़ी हाउस बना है वहाँ तमाम तरह की चीज़ें मिलने लगी हैं लेक़िन आज भी जो सांभर वहाँ मिलता है उसका कोई मुकाबला नहीं।

आज ये दक्षिण भारतीय खाने के बारे में इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों कहीं पढ़ा था की नागपुर शहर से इडली डोसा सांभर का परिचय करवाया था महान वैज्ञानिक सी वी रमन जी ने। बात 1922 की है जब अंग्रेजों ने उन्हें नागपुर में एक संस्थान खोलने के लिये भेजा था। नागपुर की गर्मी तो उन्होंने जैसेतैसे बर्दाश्त कर ली लेक़िन जैसा की अमूमन होता है, वहाँ जो खाना मिलता था उसमें बहुत तेल होता औऱ उसका स्वाद भी उन्हें नहीं भा रहा था। जिस तरह का खाना उनको चाहिये था वो कहीं भी मिल नहीं रहा था। रमन जी ने अपने घर से रसोइये रामा अय्यर को बुला लिया।

महाराज के आने के बाद रमन जी को उनके स्वाद का भोजन मिलने लगा। कुछ दिनों बाद उन्होंने सोचा इन व्यंजनों से नागपुर के रहवासियों का भी परिचय कराया जाय औऱ इस तरह शुरुआत हुई \’विश्रांति गृह\’ की। कुछ ही दिनों में ये रेस्टोरेंट चल निकला औऱ लोगों की भारी भीड़ रहने लगी। कई बार तो रविवार को पुलिस की मदद लेनी पड़ती भीड़ को काबू में रखने के लिये। जो व्यंजन मिल रहे थे न सिर्फ़ उनका स्वाद अलग था बल्कि उनको बनाने का तरीका भी। जैसे दक्षिण भारतीय व्यंजन में नारियल का प्रयोग होता है। महाराष्ट्रीयन खाने में सूखे नारियल का प्रयोग होता है। लोगों को स्वाद बेहद पसंद आया।

इस खाने के चर्चे दूर तक होने लगे औऱ कोई भी अभिनेता या नेता नागपुर आते तो \’विश्रांति गृह\’ के भोजन का स्वाद लिये बिना नहीं जाते। फ़िल्म अभिनेता अशोक कुमार, कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी भी यहीं से खाना मँगवाते। ये भी माना जाता है की आजकल जो रवा डोसा खाया जाता है उसकी उत्पत्ति भी नागपुर शहर में ही हुई है। जब डोसे का घोल समाप्त हो जाता लेक़िन भीड़ कम नहीं होती तो महाराज ने रवा घोल कर डोसा बनाना शुरू कर दिया। 1930 में अय्यर महाराज ने अपने ख़ास रसोइये मणि अय्यर को रेस्टोरेंट की ज़िम्मेदारी सौंप दी औऱ दक्षिण भारत वापस चले गये। नागपुर में ये रेस्टोरेंट आज भी चल रहा है औऱ परिवार के सदस्य जो किसी का पेट भरने को एक पुण्य का काम मानते हैं, उनका भी यही प्रयास है की ये कभी बंद न हो।

नागपुर से वापस आते हैं भोपाल औऱ यहाँ के कॉफ़ी हाउस में। इस बार लिटिल कॉफी हाउस जो ICH से थोड़ी दूरी पर बना था। इसके जो मालिक थे वो पहले एक ठेला लगाते थे औऱ धीरे धीरे उनके बनाये खाने का स्वाद लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा औऱ उन्होंने अपना रेस्टोरेंट खोल लिया। लेक़िन उन्होंने उस हाथ ठेले को नहीं छोड़ा औऱ उसको भी अपने रेस्टोरेंट में रखा। यहाँ जाना थोड़ा कम हुआ करता था क्योंकि ये थोड़ा अंदर की तरफ़ था।

तो कॉफ़ी हाउस ICH में उन दिनों बैठने के अलग अलग हिस्से थे। मसलन परिवार के लिये अलग जगह थी औऱ बाक़ी लोगों के लिये जो मैन हॉल था वहीं पर ऊपर नीचे बैठने की व्यवस्था थी। अगर आप अपनी महिला मित्र को लेकर जा रहें औऱ किसी की नज़र में भी नहीं आना चाहते हैं तो आप फैमिली वाले एरिया में जा सकते हैं। वो फैमिली का हिस्सा बने या न बनें कॉफी हाउस की मुलाक़ात तो यादगार बन जायेगी। ऐसे ही वहाँ कई जोड़ियाँ भी पक्की हुई हैं। 1970 के दश्क में विवाह के लिये परिवारों को मिलना होता या लड़का/लड़की को दिखाने का कार्यक्रम होता तो वो भी इसी जगह होता। बात आगे बढ़ती तभी घर पर जाना होता। किसी की पहली मुलाक़ात, कॉफी हाउस जैसी चहल पहल वाली जगह औऱ वहाँ की कॉफ़ी। भला इससे बेहतर एक सफ़र की शुरुआत क्या हो सकती है।

हमारे समय तक आते आते नये होटल आ गये थे तो ये कार्यक्रम वहाँ सम्पन्न होता। वैसा अच्छा ही हुआ क्योंकि अग़र कॉफ़ी हाउस जाते औऱ सांभर चटनी पर ध्यान लग जाता तो ये कार्यक्रम वहीं धरा का धरा रह जाता। अगर कभी भोपाल जाना हुआ तो कॉफ़ी हाउस के लिये समय निकाल लें। बहुत कुछ बदल ज़रूर गया है, भीड़ भी होने लगी है लेक़िन स्वाद लगभग वैसा ही है।

क्या आपको वो दिन याद हैं जब होटल जाना एक बड़ा जश्न हुआ करता था? अपनी यादों को मेरे साथ साझा करें। आप कमेंट कर सकते हैं या इस ब्लॉग के टेलीग्राम चैनल से भी जुड़ सकते हैं।


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ये मौसम का जादू है मितवा

ये मौसम बदलता है और फरमाइशों का दौर शुरू हो जाता है। गर्मी रहती तो कुछ ठण्डे की फ़रमाइश रहती लेकिन कल से बारिश ने दस्तक दी है तो अब भजिये, पकौड़ी के लिये दरख्वास्त डाली है। हमारा कितना सारा खाना पीना मौसम के इर्दगिर्द घूमता है। अगर ये मौसम ही न हों तो?

सर्दियों में श्रीमती जी के साथ ढ़ेर सारी मटर लायी गयी और सबने मिलके छीली भी। लेकिन जब खाने की बात आई तो हम दोनों ही बचते। बच्चों को हर चीज़ में मटर कुछ ज़्यादा पसंद नहीं आया। इसलिये मैंने भी मटर के हलवे की फ़रमाइश को ठंडे बस्ते में डाल दिया और गरमा गरम छौंका मटर कई शाम खाया। लेकिन एक बार इस हलवे का स्वाद लेने की बड़ी इच्छा है। अगली सर्दी निश्चित रूप से सबसे पहले यही बनेगा।

लेकिन सर्दी की बात हो और गाजर का हलवा का ज़िक्र न हो तो मुझे सर्दी सर्दी नहीं लगती। बाज़ार में पहली गाजर की खेप आते ही हलवे की तैयारी शुरू। ये थोड़ा मेहनत और सब्र वाला काम रहता है लेक़िन उसके बाद जो मीठा फल मिलता है उसके लिये सारे कष्ट चलेंगे। भोपाल में एक मिठाई की दुकान है जहाँ बहुत ही कमाल का गाजर का हलवा मिलता है। जब कभी सर्दी में जाना हो तो कोशिश रहती की स्वाद ले लिया जाये।

इन दिनों आम की बहार है लेक़िन मुझे आम की कोई ख़ास समझ नहीं है। श्रीमती जी को है और स्वाद भी है। तो बस वो बाज़ार से ख़रीद कर सबको खिलाती रहती हैं। कभी लंगड़ा तो कभी दशहरी। लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है आमरस पूड़ी खाने में। ठंडा आमरस और गरमा गरम पूड़ी। जिसने भी ये कॉम्बिनेशन बनाया है उनको धन्यवाद।

गर्मियों में एक और चीज़ जिसके बिना गर्मी अधूरी लगती है – ऑरेंज बार। तपती गर्मी में ठंडी ठंडी ऑरेंज बार। अभी तक ये तो बताया नहीं की क्या हुआ आज जो ये खाने के ऊपर लिखना शुरू है। क्या श्रीमती जी ने भोजन नहीं दिया या बात कुछ और है?

इसके पीछे ये फ़ोटो है जिसे किसी ने ट्विटर पर शेयर किया था। आज मुम्बई में ज़ोरदार बारिश हुई और कई जगह लोग फँस गए थे। उन्हीं लोगों के लिये चाय और पारले-जी का इंतजाम किया था।

क्या??? आपने गरमा गरम चाय के साथ पारले-जी डूबा डूबा कर नहीं खाया है??? अभी भी देर नहीं हुई है। कल सुबह ही ट्राय करें। हाँ बिस्किट को सिर्फ दो सेकंड या ज़्यादा से ज़्यादा चार सेकंड तक डूबा कर रखें नहीं तो आपकी प्याली की तह में उसका हलवा मिलेगा। अदरक की चाय के साथ स्वाद कुछ और ही आता है।

खाने पर चर्चा जारी रहेगी। आप बतायें बरसात की आपकी पसंदीदा खाने की चीज़ क्या है।