कहीं कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है

पिछले लगभग बीस वर्षों से अपने शहर से नाता टूट सा गया है।

कभी शहर की गलियों में ऐसे ही घूमने निकल जाओ तो समय जैसे ठहर सा जाता है। आता जाता हर शख़्स जाना पहचाना लगता है। पिछली बार जब भोपाल गया था तो घर से निकलना बहुत ज़्यादा तो नहीं हुआ लेकिन जब कहीं जाना हुआ हर शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लगी। एक दो को तो बस नाम लेकर पुकारने ही वाला था। बस ज़ुबान पर नाम आते आते रुक गया।

कुछ को तो मैने आंखों से ओझल होने तक देखा। इस उम्मीद में की शायद वो दिलवाले दुल्हनियां की काजोल की तरह पलट कर शाहरुख ख़ान को देख लें। अब यहां मामला गड़बड़ हो गया। मतलब ये उम्मीद थोड़ी ज़्यादा हो गई थी। खुद की काया दो राज के बराबर हो गई होगी लेकिन उम्मीद ये की कोई काजोल हमको पहचान ले। वैसे सामने वाले भी अब सिमरन कहां।

इसके पहले की बात बिगड़े, ये बता देना उचित होगा परिचित सिर्फ़ महिला नहीं बल्कि पुरुष भी लग रहे थे। पिछले लगभग बीस वर्षों से अपने शहर से नाता टूट सा गया है। हर बार जाना होता है तो कुछ कड़ी ढूंढते रहते हैं। इसी तलाश में समय निकल जाता है और वहां से मायानगरी वापस। यहां वो कड़ियां कभी बनी ही नहीं, या ये कहूं की मैंने इसमें कभी कोई रुचि नहीं दिखाई।

विदेश में जो लोग जाकर बसते हैं उनकी मनस्थिति क्या होती है? जब ये निश्चित हो जाता है अब यही शहर, देश उनका रहेगा तब उनके लिए कितना आसान या मुश्किल होता है? क्या जब कभी वो देस वापस आते हैं तो कुछ पहचाने हुए चेहरे खोजते रहते हैं? क्या अपने नए देस में वो जाना पहचाना ढूंढ़ते हैं?

दिल पे मत ले यार, दिल पे मत ले

व्हाट्सएप ग्रुप भी बड़े मज़ेदार होते हैं इसका एहसास मुझे अभी बीते कुछ दिनों से हो रहा है। मैं बहुत ज़्यादा ग्रुप में शामिल नहीं हूँ और जहाँ हूँ वहाँ बस तमाशा देखता रहता हूँ। बक़ौल ग़ालिब होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे।

इसमें से एक ग्रुप है मेरे स्कूल के साथियों का। और इसमें क्या धमाचौकड़ी होती है। व्हाट्सएप पर लड़ाई ग्रुप छोड़ दिया और फ़िर वापस। उसके बाद फ़िर लड़ाई और फ़िर वापस। मतलब ये लॉकडाउन में सब घर में बैठे हैं और बीवियों से कोई पंगा लेने की हिम्मत नहीं कर सकता तो सब इस ग्रुप में निकल जाता है। और सब बातें ऐसे करते हैं जैसे सामने बैठे हों। मतलब सब बातें बिना किसी लाग लपेट के। कुछ लोग समय समय पर ज्ञान देते रहते हैं। कुछ समय सब ठीक और उसके बाद फ़िर से वापस हंगामा। लेकिन सब होने के बाद वापस वैसे ही जैसे दोस्त होते हैं। शायद यही इस ग्रुप की ख़ासियत है। कोई किसी को कुछ बोल भी देता है तो माफ़ी माँगो और आगे बढ़ो। दिल पे मत ले यार।

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सबको ऐसे ऐसे नामों से बुलाया जाता है। सही कहूँ तो इन सबकी बातें पढ़कर कई बार हंसी भी आती है और लगता है अभी हम जिस स्थिति में है उसमें सब साथ हैं। कुछ हंसी मज़ाक और कुछ नाराज़गी सब चलता है। लेकिन ग्रुप में सब एक दूसरे की मदद भी बहुत करते हैं। किसी को अगर नौकरी बदलनी है तो वहाँ भी सब आगे और किसी को दूसरे शहर में कुछ मदद चाहिये तो सब जैसे संभव हो मदद करते हैं।

ग्रुप के सदस्य दुनिया में अलग अलग जगह पर हैं तो इस समय के हालात पर भी जानकारी का आदान प्रदान भी चल रहा है। जो लोग इस समय बार नहीं जा पा रहे वो घर से अपनी शामों की तस्वीरें शेयर कर रहे हैं। कुल मिलाकर स्कूल की क्लास ही छूटी है बाकी सब वैसे ही चालू है।

इनमें से शायद 98% लोगों से मेरी स्कूल छोड़ने के बाद कोई बातचीत भी नहीं हुई। एक मित्र से बात हुई थी पिछले दिनों जिसका बयां मैंने अपनी पोस्ट में किया था। जी वही टिफ़िन वाली पोस्ट। एक बात शायद आपको बता दे की ग्रुप में क्या होता है – मेरा ये स्कूल सिर्फ़ लड़कों के लिये था। अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं…

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जब भी कोई भोपाल में स्कूल जाता है तो ज़रूर सबको बताता है। जो भोपाल में हैं वो भी कभी कभार स्कूल का चक्कर लगा लेते हैं। अगर उनको कैंटीन के समोसे खाने को मिल गये तो सबको जलाने के लिये उसकी फ़ोटो शेयर करना नहीं भूलते। सही में आंटी के उन समोसों का स्वाद कमाल का है और आज भी वैसा ही स्वाद। अगली भोपाल की यात्रा में इसके लिये समय निकाला जायेगा।

अब ये लॉकडाउन के ख़त्म होने का इंतज़ार है। क्या आप भी ऐसे ही किसे ग्रुप का हिस्सा हैं? क्या ख़ासियत है इस ग्रुप की?

जब एक पोस्टकार्ड बना पार्टी की सौगात

चलिये पत्र लिखने की बात से ये तो पता चला कि ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने आज तक न तो पत्र लिखा है ना उन्हें कभी किसी ने। इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि इन लोगों के समझते समझते मोबाइल फ़ोन का आगमन हो चुका था और हम सबको संपर्क में रहने के लिये एक नया तरीका मिल गया था। जिन्होंने कभी पत्रों का आदान प्रदान नहीं किया हो वो इससे जुड़े जज़्बात शायद न समझें। और अगर आने वाली पीढियां इस पर पीएचडी कर लें कि पत्र लिखने की कला कैसे विलुप्त हुई, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

बदलाव का बिल्कुल स्वागत करना चाहिये लेकिन इस बदलाव ने भाषा बिगाड़ दी। एक तो लोग पहले से लिखना छोड़ चुके थे और उस पर ये छोटे छोटे मैसेज। रही सही कसर व्हाट्सएप ने पूरी कर दी। अब तो लिखना छोड़ कर सिर्फ 🙏, 👍,🤣 जैसा कुछ कर देते हैं और बस काम हो गया। मुझे अपने काम के चलते ऐसे बहुत से युवा पत्रकार मिले जो भ्रष्ठ भाषा के धनी थे।

ऐश्वर्या अवस्थी ने पोस्टमेन की याद दिला दी। हमारे यहाँ जो पोस्टमेन आता था उसको हमसे कोई खुन्नस थी। शायद उसका होना भी वाज़िब था क्योंकि हमारे यहां ढ़ेर सारे ख़त तो आते ही थे साथ में पत्रिकाओं का आना लगा रहता। जब मेरा पीटीआई में चयन हुआ तो इसका संदेश भी डाक के द्वारा मिला। हाँ आदित्य की तरह प्रेम पत्र नहीं लिखे। काश फ़ोन के बजाय लिख दिया होता तो आज दोनों अलग अलग ही सही पढ़ कर मुस्कुरा रहे होते।

ऐसा ही एक संदेश एक सज्जन के पास उनकी बहन ने पहुँचाया। उनकी पत्नी जो गर्भावस्था के अंतिम चरण में थीं उन्होंने पुत्र को जन्म दिया है। अब ये बात एक पोस्टकार्ड पर लिख कर बताई गई थी। ज़ाहिर सी बात है की पत्र कई लोगों द्वारा पढ़ा गया और नये नवेले पिता से पार्टी माँगी गयी और उन्होंने खुशी खुशी दे भी दी। समस्या सिर्फ इतनी सी थी की ऐसा कुछ हुआ नहीं था। डिलीवरी में अभी भी समय था। बहन ने भाई को यूँ ही लिख दिया था। फ़िर तो बहन को जो डाँट पड़ी।

भोपाल के एक सांसद महोदय ने भी इस पोस्टकार्ड का बहुत ही अनोखे तरीक़े से इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने पते के साथ पोस्टकार्ड अपने क्षेत्र में लोगो को दे दिये। कोई समस्या हो तो बस मुझे लिख भेजिये। मतदाताओं को ये तरीका बहुत भाया।

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आज भी किसी को उनकी अदाकारी या किसी और काम के लिये बधाई या धन्यवाद अपने एक छोटे से स्वयं के लिखे नोट से करते हैं। नोट की क़ीमत इस लिए तो है ही कि इसे बच्चन साहब ने भेजा है। लेकिन उनके हाथ से लिखा हुआ है तो ये अमूल्य हो जाता है।

इस विषय पर थोड़ी रिसर्च भी कर डाली तो सब जगह यही पढ़ने को मिला। हज़ारों साल पुरानी ये परंपरा को लोगों ने लगभग छोड़ ही दिया है। हाँ जैसा आदित्य द्विवेदी ने कहा, फौज में आज भी ये चलन है। उतने बड़े पैमाने पर शायद नहीं लेकिन फौजी के घरवाले आज भी पत्र लिखते हैं।

फ़ोन पर आप बात करलें तो आवाज़ सुनाई देती है और दिल को चैन आ जाता है। सही मायने में जब आप पत्र लिख रहे होते हैं तो जाने अनजाने आप अपने बारे में कुछ नहीं बताते हुए भी बहुत कुछ बता जाते हैं। वैसे ही पत्र पढ़कर आप एक तस्वीर बना लेते हैं लिखने वाले के बारे। जैसे फ़िल्म साजन में माधुरी दीक्षित बना लेती हैं संजय दत्त की और उनसे प्यार करने लगती हैं। लेखक, कवि, शायर से बिना देखे बस इसलिये तो प्यार हो जाता है।

काफ़ी लोगों की तरह मैंने भी प्रण तो लिया है कि अब पत्र लिखा जायेगा। लेकिन इस पर कितना कायम रहता हूँ ये आप को तब पता चलेगा जब आपके हाथ होगा मेरा लिखा पत्र जिसका जवाब आप भी लिख कर ही देंगे। तो फ़िर देर किस बात की। मुझे sms करें अपना पूरा पता (पिनकोड के साथ)। व्हाट्सएप से मैं हट गया हूँ तो वहाँ कुछ न भेजें।

यादों का खज़ाना

आज ऐसे ही सफ़ाई के मूड में अपनी कुछ पुरानी फ़ाइल और कागज़ात निकाले। इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत होती कुछ इस तरह से की मैं परिवार के अन्य सदस्यों को बोलता हूँ कि वो पुराना सामान निकाले और जिसकी ज़रूरत नहीं हो वो निकाल कर रद्दी में रख दें। ये मेरा सेल्फ गोल होता है क्योंकि फिर मुझे ही सुनने को मिलता है श्रीमती जी से की आप का भी बहुत सारा पुराना सामान रखा है उसे भी देख लीजियेगा।

मैं सिर्फ इसी उद्देश्य से इस काम में जूट जाता हूँ। लेकिन बस शुरू ही हो पाता है कि फिर एक एक कर कुछ न कुछ मिलता रहता है। जैसे इस बार मुझे मिले कुछ पत्र जो करीब 18 साल पुराने हैं। कुछ दोस्तों के द्वारा लिखे हुए और कुछ परिवार के सदस्यों के द्वारा। परिवार वाले पत्र तो उस समय क्या चल रहा था उसके बारे में होते हैं लेकिन दोस्तों के पत्र होते हैं अधिकतर फ़ालतू जानकारी से भरे हुए लेकिन मज़ेदार। अगर उनको अठारह वर्ष बाद पढ़ा जाये तो उसका मज़ा ही कुछ और होता है।

लेकिन अब आजकल जो ये ईमेल और व्हाट्सएप का चलन शुरू हुआ है तो कागज़ पर अपने विचारों को उतारना ख़त्म सा हो गया है। अब तो जन्मदिन या बाकी अन्य आयोजन के उपलक्ष्य में भी फेसबुक या व्हाट्सएप पर बधाई दे दीजिये। बस काम हो गया। इससे पहले दोस्त, घरवाले कार्ड दिया करते थे। दूर रहनेवाले रिश्तेदार भी कार्ड चिट्ठी भेजा करते थे।

लेकिन जैसा कि फ़िल्म नाम के चिट्ठी आयी है गाने में आनंद बक्शी साहब ने लिखा है,

पहले जब तू ख़त लिखता था कागज़ में चेहरा दिखता था, बंद हुआ ये मेल भी अबतो ख़त्म हुआ ये खेल भी अब तो।

वैसे हिंदी फिल्मों में ख़त का इस्तेमाल अमूमन प्यार के इज़हार के लिये ही होता रहा है फ़िर चाहे वो सरस्वतीचंद्र का फूल तुम्हे भेजा है ख़त में हो या मैंने प्यार किया का कबूतर जा या संगम का ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर। लेकिन अब ऐसे गीत बनेंगे नहीं और अगर मेरे जैसे किसी ने ऐसा कर दिया तो सब हंसेंगे की अब कौन पत्र लिखता है।

जब आजकल के नये संपर्क साधन नहीं थे तो नई जगह पहुंच कर वहाँ से पिक्चर पोस्टकार्ड भेजने का भी चलन था। ऐसे ही कुछ मुझे अपने ख़ज़ाने में मिले जब भाई विदेश गया था और जब माता पिता धरती पर स्वर्ग यानी कश्मीर गए थे। अब तो बस सेल्फी खींचो और शेयर करो। विपशना के जैसे कहीं बाहर जाओ तो फ़ोन के इस्तेमाल पर रोक लगा देना चाहिये।

इस डिजिटल के चलते एक और चीज़ छूट रही है और वो है फ़ोटो। सबके मोबाइल फ़ोन फ़ोटो से भरे हुए हैं लेकिन अगर आप और मोबाइल बिछड़ जायें तो… पिछले दिनों जब व्हाट्सएप मोबाइल से हटा रहा तो श्रीमती जी ने आगाह भी किया कि फ़ोटो भी चली जायेंगी। ख़ज़ाने में मुझे बहुत सारी पुरानी फ़ोटो भी मिलीं। ढूँढने पर एक पुराना एल्बम भी मिल ही गया। बस इस सबके चलते यादों का कारवाँ निकल पड़ा लेकिन जिस काम के लिये बैठे थे वो नहीं हुआ।

इस नये चलन को बढ़ावा मैंने भी दिया लेकिन अब जब पुराने पत्र पढ़ रहा हूँ तो लगता है इस सिलसिले को फ़िर से शुरू करना चाहिये। तो बस कल पास के पोस्टऑफिस से कुछ अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड लेकर आयेंगे और पहुँचाते हैं आप तक। अगर आप भी इसका हिस्सा बनना चाहते हैं तो अपना पता छोड़ दें कमेंट्स में। वो क्या है ना कि हम फ़ोन नंबर से शुरू कर अपनी दोस्ती सिर्फ फ़ोन तक ही सीमित कर लेते हैं। जब तक मिलने का संयोग न हो तो पते का आदान प्रदान नहीं होता है।

मेरी आवाज़ ही पहचान है

पिछले दो दिनों से घर में माहौल थोड़ा अलग सा है। श्रीमती जी एक मित्र हमारी सोसाइटी छोड़ नई जगह चली गयीं। दोनों की मुलाक़ात दस साल पहले हुई थी जब हम इस सोसाइटी में रहने आये थे। शुरुआत में वो हमारी ही फ्लोर पर रहती थीं लेकिन मुझे उस समय के बारे में कुछ भी याद नहीं है। वो तो जब बारिश होती और उनके पति अपनी कार से बच्चों को छोड़ने जाते, तब उनसे मिलते और यही मुझे याद है। इन दोनों की अच्छी दोस्ती के चलते उनके पति और मेरा भी कभी कभार मिलना हो ही जाता था। लेकिन दोनों सखियों की रोज़ फ़ोन पर बात एक नियम था और संभव हुआ तो मिलना भी। अब ये सब ख़त्म होने जा रहा था और श्रीमती जी इससे बहुत दुखी थीं।

ये जो घटनाक्रम चल रहा था उससे मुझे फ़िल्म दिल चाहता है का वो सीन याद आ गया जब तीनों दोस्त गोआ में एक क़िले से दूर समंदर में एक जहाज़ को देखते हैं। आमिर खान कहते हैं उन तीनों को साल में एक बार गोआ ज़रूर आना चाहिये। सैफ इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हैं। लेकिन अक्षय खन्ना जो शायद सबसे ज़्यादा प्रैक्टिकल होते हैं, आँखों से ओझल होते जहाज़ का हवाला देते हुये कहते हैं कैसे एक दिन उस जहाज़ के जैसे तीनों दोस्त अपनी अपनी मंज़िल की तलाश में निकल पड़ेंगे और साल में एक बार तो दूर दस साल में एक बार मिलना भी मुश्किल हो जायेगा।

श्रीमती जी और उनकी मित्र ने जल्द मिलने का वादा किया तो है लेकिन दोनों जानते हैं मुम्बई जैसे शहर में इस वादे को निभाना कितना मुश्किल है। मुझे तो कई बार फ़्लोर पर ही रहने वाले सज्जनों से मुलाक़ात किये हुए महीनों गुज़र जाते हैं। लेकिन मैं इस मिलने मिलाने के कार्यक्रम का अपवाद हूँ, ऐसा मानता हूँ। बहरहाल दोनों अपनी अगली मुलाक़ात को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं।

ऐसे ही मिलने के वादे मैं भी करता रहता हूँ। कोई इंतज़ार कर रहा है कब मैं दिल्ली आऊँ और उसके साथ समय बिताऊँ। इस वादे पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने बहुत ही शानदार लिखा भी है:

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता

ऐसे ही बहुत से मिलने के वादे बहुतों से किये हुए हैं लेकिन एक भी वादा झूठा नहीं है। पता नहीं कब मिलना होता है। वैसा भी मेरा इस मामले में रिकॉर्ड बहुत ही ख़राब रहा है। मिलना तो दूर लोग मुझे फ़ोन पर मिल जाने की बधाई देते हैं।

उम्र के अलग अलग पड़ाव के अलग अलग दोस्त

बीते 14 फरवरी को ऑफिस में टीम के सदस्य ऐसे ही सबको गाने समर्पित कर रहे थे। किसी ने आयुष्मान खुराना और परिणीति चोपड़ा पर फिल्माया गया गाना माना कि हम यार नहीं ये तय है कि प्यार नहीं की फ़सरमेश करी। ये गाना पहले भी कई बार सुना था लेकिन उस दिन जब इसको सुना तो याद आये यार दोस्त।

कहते नही हैं ना कि दोस्त खास होते हैं क्योंकि बाकी रिश्तेदारों की तरह वो आपको विरासत में नहीं मिलते। उन्हें आप चुनते हैं। स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दोस्त ऑफिस के दोस्त और वो आस पड़ोस वाले दोस्त जिनके साथ आप बड़े हुए हैं। इनमे से सबके साथ आपकी ट्यूनिंग अलग अलग होती है।

मैं ये मानता हूँ कि आपके दोस्त तो कई होते हैं लेकिन एक या दो ही ऐसे दोस्त होते हैं जो कि आपको समझते हैं और जिनसे आप कोई भी बात बिना झिझक कर सकते हैं। वो सभी बातें जो आप अपने बाकी सभी दोस्तों से नहीं कर सकते या परिवार के भी किसी सदस्य से नहीं। अंग्रेज़ी में इन्हें 3 AM दोस्त कहते हैं। मतलब आपको उन्हें रात के 3 बजे अगर फ़ोन करना हो तो सोचे नहीं और बस फ़ोन करदें। और दुसरी ओर जो व्यक्ति है वो भी ये ना सोचे कि क्या 3 बजे फ़ोन कोई फ़ोन करता है।

कॉलेज के दिनों में जय कृष्णन मुझे मिले और हमने कॉलेज के अपने छोटे से साथ का बहुत आनंद लिया। क्लास में बैठकर टेबल पीट पीट कर गाने गाना और फिल्में देखना। बहुत ही यादगार रहा जब तक जय ग्वालियर में होटल मैनेजमेंट पढ़ने नहीं चले गए। उसके पहले बीएचईएल की टाउनशिप में जय जहाँ रहते थे, उनके माध्यम से मेरी मुलाकात हुई सलिल से।

जय तो चले गए लेकिन सलिल से मेरी दोस्ती बढ़ती गयी क्योंकि हम लोग एक ही कॉलेज में थे जिसका पता मुझे बाद में चला। ज़्यादा किसी से बात नहीं करते थे लेकिन मेरी उनकी फ्रीक्वेंसी मैच कर ही गयी।

सलिल वही शख्स हैं जिनके बारे मैंने पहले एक बार लिखा था। जिन्हें मैंने भोपाल स्टेशन टाइम बेटाइम बुला कर परेशान किया और सलिल ने दोस्ती का फर्ज निभाते हुए और निश्चित रूप से घरवालों से डाँट खाते हुए ये फ़र्ज़ बखूबी निभाया। आज उनके जन्मदिन पर ढेरों बधाइयाँ और शुभकाननाएँ। और ये गाना भी उनके ही लिये।

परीक्षा की घड़ी और सालाना मिलने वाले दोस्त

कॉलेज में अटेंडेंस को लेकर ज़्यादा मुश्किल नहीं हुआ करती थी उन दिनों। इसलिये जब परीक्षा का समय आता तब पता चलता कि अरे क्लास में इतने सारे लोग हैं। नहीं तो नियमित रूप से कॉलेज की शक्ल देखने और दिखाने वाले कुछ गिने चुने ही रहते।

ऐसे ही सालाना मिलने वाले एक थे विजय नारायण। उनसे मुलाकात परीक्षा के समय ही होती थी। विजय कंप्यूटर का कोई कोर्स भी कर रहे थे और उनका घूमना फिरना भी काफी था। ग्रेजुएशन के समय विजय से इतनी ज्यादा बातचीत नहीं थी। हाँ उन्हें कुछ नोट्स वग़ैरह चाहिये होते तो मिल जाते थे।

जब पत्रकारिता का रुख किया तब लगा कि लिखने का काम किया जा सकता है। ऐसा इसलिये क्योंकि परीक्षा में जहां बाकी सब के लिए 22 पेज की कॉपी भरना मुश्किल होता था मैं उसके ऊपर 4-5 सप्लीमेंट्री शीट भी भर देता। बाहर निकल के सभी का एक ही सवाल रहता कि मैंने लिखा क्या है। खैर, जब रिजल्ट आता तो पता चलता कि मेरी मेहनत बेकार ही गयी। लेकिन मुझे किसीने बताया था कि कॉपी का वज़न मायने रखता है।

पाँच साल की कॉलेज की पढ़ाई में मैंने ये बात पूरी तरह फॉलो करी। हालांकि नंबर एक अलग ही कहानी कहते थे। बहरहाल विजय से घनिष्ठता फाइनल में आते आते हो गयी और परीक्षा की तैयारी साथ में करने लगे। हम सभी बाकी गतिविधियों में इतने व्यस्त रहते की साल कब निकलता पता ही नहीं चलता। और सिर पर जब परीक्षा आती तब सिलेबस की सुध ली जाती।

परीक्षा की तैयारी का रूटीन भी बिल्कुल फिक्स्ड। सोमवार की सुबह 7 बजे के पेपर की तैयारी रविवार शाम से होगी। सुबह 5.30 बजे तक पढ़ाई और उसके बाद जो होगा देखा जायेगा के इरादे के साथ कॉलेज पहुँच जाते। उसमे पहले पढ़ाई की कोई बात करना मानो घोर पाप था। लेकिन कॉलेज बिना अटके पास किया ऐसे ही पढ़ाई करके।