ये जो थोड़े से हैं पैसे, ख़र्च तुम पर करूँ कैसे

आज फ़िल्म निक़ाह देख रहे थे तब इस पोस्ट को लिखने का ख़्याल आया। इस विषय पर लिखना है ये तो पहले से नोट किया हुआ था। लेक़िन आज फ़िल्म देखकर इसको मूर्तरूप देने का काम हो ही गया।

फ़िल्म एक बहुत ही संजीदा विषय, तलाक़ की बात करती है और फ़िल्म के गाने भी एक से बढ़कर एक। लेक़िन न मैं तलाक़ या फ़िल्म के संगीत के बारे में लिखने वाला हूँ। फ़िल्म में दीपक पाराशर विदेश से लौटकर आते हैं और सबके लिये तोहफ़े लाते हैं। फ़िल्म 1982 की है और उस समय विदेश जाना और वहाँ से तोहफ़े लाना जैसे एक रिवाज़ हुआ करता था। आपका उस तोहफ़े को अपनी ट्रॉफी समझ कर डिस्प्ले करना भी।

हमारे जानने वालों में बमुश्किल एक या दो लोग थे जो विदेश में रहते थे और कभी कभार भारत भी आते। आने की ख़बर पहले से मिलती तो उनके भारत आने के बाद घर पर आने की प्रतीक्षा रहती क्योंकि वो आयेंगे तो कुछ न कुछ ज़रूर लायेंगे। जब हम बड़े हो रहे थे तो उस समय विदेशी माल की बड़ी एहमियत होती।

तो एक बार हमारे वो पारिवारिक मित्र तोहफ़े में एक कटलरी सेट ले आये जिसमें चम्मच, काँटे और छुरी शामिल थे। घर पर अच्छे अच्छे टी सेट या डिनर सेट पहले से थे तो ये कटलरी सेट वाला तोहफ़ा भी उन्हीं के साथ रखा गया। विदेशीमाल था तो उसका इस्तेमाल ख़ास मौके पर, ख़ास लोगों के लिये होता। अच्छा जब ये भारतीय मूल के विदेशी नागरिक सड़क पर खड़े होकर पानी पूरी या किसी होटल में बैठ कर व्यंजन का मज़ा उठाने की बात करते तो वो पूरा अनुभव बड़ा ही रोमांटिक लगने लगता।

ख़ास मौक़े की बात भी इसी फ़िल्म में दिखाई गई है जब सलमा आगा राज बब्बर से मिलने उनके दफ़्तर जाती हैं। वो अपने सहायक को कहते हैं चाय ज़रा अच्छे वाले टी सेट में लायें। ऐसा ही हमें भेंट किया गया कटलरी सेट के साथ होता। अब मुझे ख़ास मेहमान की पहचान समझ नहीं आती तो मेरा तर्क ये रहता कि हम अपने को ही ख़ास मानकर क्यूँ न इसका इस्तेमाल करें। लेक़िन ऐसा कम ही हुआ और शायद इसलिये इतने वर्षों बाद भी उस सेट के एक दो पीस इधर उधर मिल जायेंगे।

एक और गिफ़्ट (तोहफ़े से अब गिफ़्ट हो गया) जिसका सालों साल इस्तेमाल हुआ वो थी दीवाल घड़ी। वैसी दिवाल घडी आजतक देखने को नहीं मिली। उसको किसी न किसी तरह पिताजी ने चलाये रखा। अच्छा हम जब ये कटलरी या घड़ी में खुश होते रहते, पता चलता लोगों ने टीवी, वीसीआर और न जाने क्या क्या विदेशी माल गिफ़्ट करवा लिये स्वयं को। इतना विदेशी माल का बोलबाला था।

इसी से जुड़ी एक और बात बताना चाहूँगा। फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसकी लेखिका एक रेसिपी बता रही थीं (मुझे देखने से अगर लगता है की मैं सिर्फ़ खाने का शौक़ीन हूँ, तो संभल जाइए। मुझे खाना बनाने का भी शौक़ है और ये लॉक डाउन की देन नहीं है)। उसमें उन्होंने भी ऐसी ही कुछ बात लिखी थी। उन्होंने कहा की वो अच्छा वाला, महँगा वाला तेल जिसे आपने किसी ख़ास रिशेतदार के लिये बचा कर रखा है उसको इस्तेमाल करें क्योंकि आपका वो रिशेतदार आने वाले कुछ समय के लिये नहीं आ पायेगा तो अच्छा होगा की आप उस महँगे तेल में अपने लिये ही कुछ पका लें।

बहरहाल विदेशी तोहफ़े से मामला इधर उधर जा रहा है। तो जब भी कोई विदेश से आता कुछ न कुछ लाता। तोहफ़े से ज़्यादा ये सोच कर अच्छा लगता की उन्होंने हमारे बारे में सोचा (ये बड़े होने के बाद की समझदारी थी। उस समय तो बस ये देखना रहता कि क्या लाये हैं)। एक बार मेरे और छोटे भाई के लिये वीडियो गेम आया। मेरा गेम ऐसा कुछ खास नहीं था लेक़िन भाई का वीडियो गेम बड़ा अच्छा था। इसलिये ये किसी औऱ को भी पसंद आ गया क्योंकि कुछ समय बाद ये गेम घर से ग़ायब ही गया था। हम अभी भी उस शख़्स के बारे में सोचते हैं जिसने ये किया।

अगर आप किसी बड़े शहर में रहते हैं तो आप देखेंगे की किसी त्यौहार या छुट्टी के मौक़े पर जब लोग घर वापस जाते हैं तो अपने सामर्थ्य अनुसार सबके लिये कुछ न कुछ लेकर जाते हैं। जब ट्रेन से जाना होता था तब ऐसे कई लोग दिखते। जब थोड़ी समझ आयी तो हम भी बहन इस पूरे तोहफ़ा वितरण समारोह की नक़ल करते और हँसते। क्योंकि अक़्सर ये एक खानापूर्ति भी लगती। चलो उनके लिये भी कुछ ले लेते हैं। उस तरह से।

अब परिवार के इतने सारे लोग बाहर रहते हैं, या आते जाते रहते हैं की इसका कोई हिसाब नहीं। जब मुझे विदेश जाने का मौक़ा मिला तो ये समझ ही नहीं आये की क्या लिया जाये। और अब ऐसी कोई भी चीज़ नहीं है जो यहाँ नहीं मिलती है। लेक़िन अपनी समझ से कुछ न कुछ ले लिया। क्या लें इसकी परेशानी मुझे मिली एक गिफ़्ट में भी दिखी। विदेश से लौटे एक परिचित ने मुझे एक ऐसी चीज़ भेंट करदी जिसका मेरे जीवन में कोई उपयोग ही नहीं था। उसका वही हश्र हुआ जो दीवाली पर सोनपापड़ी के साथ होता है। फर्क़ सिर्फ़ ये रहा की ये डब्बा वापस नहीं आया।

उपर जो दोनों बातें हैं – एक फ़िल्मी और दूसरी असल ज़िन्दगी की – दोनो से यही ज्ञान मिलता है कि हम ख़ास मौक़े का इंतज़ार न करें। हम अक्सर कई ओढ़ने पहनने की चीजें या खाने पीने की चीजें अच्छे समय के लिये बचाकर देते हैं। वो अच्छा समय कब आयेगा इसका कोई पता नहीं होता है। तो क्यों न अभी जो मौक़ा है उसको ख़ास बनायें। आज बढ़िया ओढ़िये, पहनिये और खाइये कल की कल देखी जायेगी।