जब भी ये दिल उदास होता है, जाने कौन आसपास होता है

गुलज़ार मेरे पसंदीदा शायरों में से एक हैं औऱ इसके पीछे सिर्फ़ उनके लिखे गाने या ग़ज़ल ही नहीं बल्कि उनकी फिल्मों का भी बहुत बड़ा योगदान है। वैसे आज तो पूरी पोस्ट ही गुलज़ारमय लग रही है। शीर्षक भी उन्हीं का एक गीत है औऱ आगे जो बात होने जा रही वो भी उनका ही लिखा है। आज जिसका ज़िक्र कर रहे हैं वो न तो फ़िल्म है न ही गीत। औऱ जिस शख्स को याद करते हुये ये पोस्ट लिखी जा रही है, वो भी गुलज़ार की बड़ी चाहने वालों में से एक।

गुलज़ार, विशाल भारद्वाज (संगीतकार), भूपेंद्र एवं चित्रा (गायक) ने साथ मिलकर एक एल्बम किया था सनसेट पॉइंट। इस एल्बम में एक से एक क़माल के गीत थे। मगर इसकी ख़ासियत थी गुलज़ार साहब की आवाज़ जिसमें वो एक सूत्रधार की भूमिका में कहानी को आगे बढ़ाते हैं या अगले गाने के लिये एक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। इसको सुनकर आपकी गाना सुनने की इच्छा औऱ प्रबल होती है। शायद अपने तरह का ये एक पहला प्रयोग था। एल्बम का पूरा नाम था सनसेट पॉइंट – सुरों पर चलता अफ़साना।

आज से ठीक एक बरस पहले हमारा जीवन हमेशा के लिये बदल गया जब मेरी छोटी बहन कैंसर से अपनी लड़ाई हार गई। कहते हैं बदलाव ही जीवन है। हम में से किसी के पास भी इस बदलाव को स्वीकार कर आगे बढ़ने के अलावा औऱ दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था। आप कुछ भी करिये, नहीं मानिये, लेक़िन वो बदलाव हो चुका था। हमेशा के लिये।

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यशस्विता शास्त्री ❤️❤️❤️

365 दिन का लंबा सफ़र पलक झपकते ही ख़त्म हो गया लेक़िन यादों की सुई जैसे अटक सी गयी है। अग़र आपने कभी रिकॉर्ड प्लेयर पर गाने सुने हों तो ठीक वैसे ही। कुछ आगे बढ़ता सा नहीं दिखता लेक़िन 2021 आया भी औऱ अब ख़त्म होने की कगार पर है।

वापस आते हैं आज गुलज़ार साहब कैसे आ गये। इस एल्बम में अपनी भारी भरकम आवाज़ में एक गीत के पहले कहते हैं –

पल भर में सब बदल गया था…

…औऱ कुछ भी नहीं बदला था।

जो बदला था वो तो गुज़र गया।

कुछ ऐसा ही उस रात हुआ था। अपनी आंखों के सामने \’है\’ को \’था\’ होते हुये देखा। पल भर में सब कुछ बदल गया था। सभी ने अपने अपने तरीक़े से अपने आप को समझाया। जब नहीं समझा पाये तो आँखे भीगो लीं। कभी सबके सामने तो कभी अकेले में। हम सब, यशस्विता के परिवारजन, रिश्तेदार, दोस्त सब अपनी अपनी तरह से इस सच्चाई को मानने का प्रयास कर रहे थे। लेक़िन समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा औऱ आज यशस्विता को हमसे बिछड़े हुये एक बरस हो गया। पहली बरसी।

ज़िन्दगी की खूबसूरती भी यही है। ये चलती रहती है। औऱ यही अच्छा भी है। नहीं तो हम सभी कहीं न कहीं अतीत में भटकते ही रहें। सबके पास अपने अपने हिस्से की यादें हैं। कुछ साझा यादें भी हैं औऱ कुछ उनके बताने के बाद हमारी यादों का हिस्सा बन गईं। आज जब यशस्विता को याद करते हैं तो इसमें वो बातें भी होती जो उससे कभी नहीं करी थीं क्योंकि इन्होंने आकार उनके जाने के बाद लिया। जैसे कोई अजीबोगरीब नाम पढ़ो या सुनो तो उसका इस पर क्या कहना होता ये सोच कर एक मुस्कान आ जाती है औऱ फ़िर एक कारवां निकल पड़ता है यादों का। जैसे अमिताभ बच्चन सिलसिला में कहते हैं न ठीक उसी तरह…तुम इस बात पर हैरां होतीं। तुम उस बात पर कितनी हँसती।

जब मैंने लिखना शुरू किया तो अतीत के कई पन्ने खुले औऱ बहुत सी बातों का ज़िक्र भी किया। जब कभी यशस्विता से बात होती औऱ किसी पुरानी बात की पड़ताल करता तो उनका यही सवाल रहता, आज फलां व्यक्ति के बारे में लिख रहे हो क्या। मेरे ब्लॉग की वो एक नियमित पाठक थीं औऱ अपने सुझाव भी देती रहती थीं। जब मैंने एक प्रतियोगिता के लिये पहली बार कहानी लिखी तो लगा इसको आगे बढ़ाना चाहिये। तो ब्लॉग पर कहानी लिखना शुरू किया तो कुछ दिनों तक उनकी कुछ प्रतिक्रिया नहीं मिली। लिखने मैं वैसे भी आलसी हूँ तो दो पोस्ट औऱ शायद तीन ड्राफ्ट (जो लिखे तो लेक़िन पब्लिश नहीं किये) के बाद भूल गये। एक दिन यशस्विता ने फ़ोन कर पूछा कहानी में आगे क्या हुआ? अब लिखने वाले को कोई उसकी लिखी कहानी के बारे में पूछ लें इससे बड़ा प्रोत्साहन क्या हो सकता है, भले ही पाठक घर का ही हो तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने उनसे कहा अग़र आगे की कहानी जाननी है तो कमेंट कर के पूछो। न उन्होंने कमेंट किया न वो ड्राफ्ट ही पब्लिश हुये। वैसे उसके बाद उनकी स्वयं की कहानी में इतने ट्विस्ट आये की जय, सुधांशु, कृति औऱ स्मृति की कहानी में क्या ही रुचि होती। ख़ैर।

औऱ वो जो गुलज़ार का गाना जिसका मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, उसके बोल कुछ इस तरह से हैं,

तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं,
रात भी आई थी और चाँद भी था,
सांस वैसे ही चलती है हमेशा की तरह,
आँख वैसे ही झपकती है हमेशा की तरह,
थोड़ी सी भीगी हुई रहती है और कुछ भी नहीं,

होंठ खुश्क होते है, और प्यास भी लगती है,
आज कल शाम ही से सर्द हवा चलती है,
बात करने से धुआं उठता है जो दिल का नहीं
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं
रात भी आई थी और चाँद भी था,
हाँ मगर नींद नहीं …नींद नहीं…

गुलज़ार – सनसेट पॉइंट

वो यार है जो ख़ुशबू की तरह, वो जिसकी ज़ुबाँ उर्दू की तरह

कल की पोस्ट में जो कैफ़ियत शब्द का इस्तेमाल किया था इसको पहली बार गुलज़ार साहब की आवाज़ में सुना था। एल्बम था गुलज़ार के चुनिंदा गानों का औऱ उनकी वही भारी भरकम आवाज़ में वो कहते हैं, \”मिसरा ग़ालिब का, कैफ़ियत अपनी अपनी\”।

जब कैसेट पर ये सुना था तब समझ में नहीं आया। उस समय इंटरनेट भी नहीं था लेक़िन उर्दू जानने वाले काफ़ी लोग थे और उनसे मतलब पूछा था। उस समय समझा और आगे बढ़ गए। उन दिनों भाषाओं की इतनी समझ भी नहीं थी। आगे बढ़ने से पहले – मिसरा का मतलब किसी उर्दू, कविता का आधारभूत पहला चरण। कैफ़ियत – के दो माने हैं हाल, समाचार या विवरण।

गुलज़ार ने इसके बाद अपना लिखा जो गाना सुनाया वो था दिल ढूँढता है फ़िर वही फ़ुरसत के रात दिन। इस गाने में सारे मौसम का ज़िक्र है। जाड़ों की बात है तो गर्मियों की रात का भी ज़िक्र है और बर्फ़ीली सर्दियों का भी। इसी गाने का एक दूसरा भाग भी है जो दर्द से भरा है। इस गाने से संबंधित एक बात और जिसकी शिकायत गुलज़ार साहब से है की उन्होंने इसमें बरसात का ज़िक्र क्यूँ नहीं किया? बात कैफ़ियत से शुरू हुई थी और एक गाने में सिमटती जा रही है।

जो मैं अर्ज़ करना चाह रहा था वो ये की किसी भी भाषा का ज्ञान कई स्त्रोतों से मिलता है। कई शब्द सुनकर सीखते हैं और चंद पढ़कर भी। अब जैसे अपशब्द की तो कोई क्लास नहीं होती लेक़िन अपने आसपास आप लोगों को इसका इस्तेमाल करते सुनते हैं और धीरे धीरे ये आपकी भाषा का अंग बन जाता है। पहले तो सिनेमा में भाषा बड़ी अच्छी होती थी लेक़िन अब गालियों का खुलकर प्रयोग होता है और वेब सीरीज़ तो परिवार के साथ न देखने न सुनने लायक बची हैं। अभी ऊपर भटकने से बचने के बात करते करते वापस उसी रस्ते।

जिस तरह के आजकल के गाने बन रहे हैं उससे लोगों की अपशब्दों की डिक्शनरी ही बढ़ रही है। जब सेक्सी शब्द का इस्तेमाल हुआ था तो हंगामा हुआ था। आखिरकार बोल बदलने पड़े थे। अब बादशाह, कक्कड़ परिवार, हनी सिंह ने पूरी पीढ़ी को नई भाषा ज्ञान का ज़िम्मा उठाया है और इसके नतीज़े आपको कोरोना ख़त्म होते दिखेंगे जब ससुराल गेंदा फूल पर छोटे छोटे बच्चे नाचेंगे।

गानों का किसी भाषा को समझने की पहली कड़ी मान सकते हैं। ये कोई फ़िल्म भी हो सकती है लेक़िन किताब नहीं क्योंकि आप उसका अनुवाद पढ़ रहे होते हैं। ग़ालिब को पढ़ा तो नहीं लेक़िन उनको सुना है। सुनकर ही शब्दों के माने जानने की कोशिश भी करी क्योंकि उनके इस्तेमाल किये शब्द भारीभरकम होते हैं। जैसे:

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

जब पहली बार ये शेर सुना तो कुछ भी समझ में नहीं आया। फ़िर अलग अलग शब्दों के माने समझ कर समझा की ग़ालिब क्या कह रहे हैं।

https://youtu.be/KhWUUPo0pTQ

ऐसा ही एक और बेहद खूबसूरत गीत है फ़िल्म घरौंदा का तुम्हे हो न हो मुझको तो इतना यकीं है । बांग्लादेशी गायिका रुना लैला की आवाज़ में ये गाना दरअसल बयां कितनी मोहब्बत है इसका है लेक़िन सीधे सीधे नहीं बोलकर गुलज़ार साहब नें शब्दों के जाल में एक अलग अंदाज में बताया है। जब शुरू में ये गाना सुना तो लगता वही जो मुखड़ा सुनने पर लगता है। लेक़िन जब अंतरे पर आते हैं तो समझ में आता है की बात कुछ और ही है। ये मुखड़े से अंतरे तक का सफ़र बहुत कठिन रहा लेक़िन मज़ा आया। अगर आप ये गाना देखेंगे तो ये एक दर्द भरा गीत भी नहीं है।

पिछले दिनों एक पुराने सहयोगी ने बताया उर्दू की क्लास के बारे में। तो बस अब उस क्लास से जुड़ने का प्रयास है औऱ एक बरसों से दबी ख्वाइश के पूरे होने का इंतज़ार।

एक आख़िरी गाना जिसके शब्द बचपन से याद रहे। उन दिनों रेडियो ही हुआ करता था तो उसपर कई बार सुना। अब तो जैसे इस गाने के बोल रट से गये हैं और उनके माने भी समझ में आने लगे। हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना

दरअसल गाने और उनके संबंध पर चर्चा के बारे में किसी ने एक बहुत ही खूबसूरत बात कही थी जिससे इस पोस्ट का आईडिया पनपा। लेक़िन लिखते लिखते भटक से गये। ख़ैर उस बात का ज़िक्र आगे करेंगे।

राह पे रहते हैं, यादों पर बसर करते हैं

साल 2000 में शाहरुख खान की फ़िल्म आयी थी जोश । फ़िल्म में उनके साथ थे चंद्रचूड़ सिंह, शरद कपूर और प्रिया गिल। फ़िल्म की कास्ट को लेकर चर्चा तब शुरू हुई जब ऐश्वर्या राय को फ़िल्म में लिया गया लेक़िन शाहरुख खान की हीरोइन के रूप में नहीं बल्कि बहन के रोल में। जहाँ फ़िल्म के निर्देशक मंसूर खान इस कास्ट को लेकर बहुत आशान्वित थे, जनता के लिये नये कलाकारों को ऐसे रोल में देखना एक नया अनुभव था।

पहले तो दोनों कलाकार इसके लिये मान गए वही बड़ी बात थी। इसके कुछ ही महीनों बाद शाहरुख – ऐश्वर्या के नई फ़िल्म आयी मोहब्बतें जिसमें दोनों एक रोमांटिक रोल में थे। इसके बाद इसी जोड़ी ने संजय लीला भंसाली की देवदास में भी काम किया। लेक़िन जैसी शाहरुख़ की काजोल, जूही या माधुरी के साथ जोड़ी बनी और पसंद भी की गई वैसी उनकी और ऐश्वर्या की जोड़ी नहीं बन पाई। और जो तीन-चार फिल्में साथ में करीं भी तो उसमें रोमांटिक जोड़ी नहीं रही।

पिछले दो दिनों से फिल्मी पोस्ट हो रहीं हैं तो आज किसी और विषय पर लिखने का मूड़ था। लेक़िन सुबह मालूम हुआ हरी भाई ज़रिवाला एवं वसंतकुमार शिवशंकर पादुकोण का जन्मदिन है, तो उनके बारे में न लिखता तो ग़लत होता। हिंदी फिल्मों के सबसे उम्दा कलाकारों और निर्देशकों में से एक या शायद एकलौते जिनकी कोई इमेज नहीं रही।

बहुत ही बिरले कलाकार होते हैं जो किसी भी रोल को निभा सकते हैं। हरिभाई अर्थात हमारे प्रिय संजीव कुमार जी ऐसे ही कलाकार रहे हैं। गाँव का क़िरदार हो या शहर बाबू का या पुलिस वाले का। हर रोल में परफ़ेक्ट। हर रोल में उतनी ही मेहनत।

वसंतकुमार शिवशंकर पादुकोण अर्थात गुरुदत्त जी भी ऐसे ही निर्देशक रहें हैं। आज मैं सिर्फ़ संजीव कुमार जी के बारे में लिख रहा हूँ। गुरुदत्त जी के बारे में विस्तार से बाद में।

अग़र वो जया भादुड़ी के साथ अनामिका में रोमांटिक रोल में थे तो परिचय में बाप-बेटी के क़िरदार में और फ़िर शोले में ससुर और बहू के रोल में। लेक़िन दोनों को साथ देखकर आपको कुछ अटपटा नहीं लगेगा। और न ही आपको ये बूढ़े ठाकुर को देखकर लगेगा की वो सिर्फ़ 37 साल के हैं। राखी भी ऐसी ही एक अदाकारा रही हैं जो अमिताभ बच्चन की प्रेयसी बनी तो शक्ति में उन्हीं की माँ का भी रोल किया है।

ये संजीव कुमार का हर तरह के रोल की भूख ही होगी की उन्होंने अपने सीनियर कलाकार शशि कपूर के पिता का रोल यश चोपड़ा की यादगार फ़िल्म त्रिशूल में करना स्वीकार किया।

आजकल हिंदी फिल्मों का हीरो फ़िल्म में बड़ा ज़रूर होता है लेक़िन बूढ़ा नहीं। मुझे हालिया फिल्मों में से दो फिल्में वीरज़ारा और दंगल ही याद आतीं हैं जिसमें क़िरदार जवानी से बुढ़ापे तक का सफ़र तय करता है। संजीव कुमार की शोले हो या आँधी उनका क़िरदार दोनों ही उम्र में दिखा औऱ क्या क़माल का निभाया उन्होंने।

आज के समय में कलाकार कला से ज़्यादा अपनी इमेज की चिंता में रहते हैं। संजीव कुमार की कोई भी फ़िल्म देख लीजिये लगता है जैसे क़िरदार उनके लिये ही लिखा गया था। उनके हर तरह के रोल करना ये सिखाता भी है की जो भी काम मिले उस काम को बखूबी निभाओ। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता।

उनके दो रोल आँधी और अँगूर दोनों बहुत पसंद हैं। इत्तेफ़ाक़ से दोनो के निर्देशक गुलज़ार साहब हैं। वैसे अग़र आज संजीव कुमार जी होते तो शायद वो औऱ गुलज़ार साहब मिलकर न जाने और कितने क़माल की फ़िल्में करते।

जहाँ आँधी में संगीत का उसके पसंद किये जाने के पीछे बड़ा योगदान है, अंगूर तो सिर्फ़ और सिर्फ़ उनकी एक्टिंग के लिये प्रिय है। वो वाला सीन जिसमें वो गलती से अपने हमशक्ल के घर आ जाते हैं और उसकी पत्नी (मौष्मी चटर्जी) उन्हें अपना पति समझ कर उनसे बात करती है। इस पूरे पाँच मिनट के सीन में संजीव कुमार जी कितने उम्दा कलाकार थे, ये बख़ूबी दिखता है। जिस तरह से वो बताइये से बताओ, बताओ पर आते हैं या बहादुर के बाप बनने की ख़बर पर उनकी प्रतिक्रिया – सब एक्टिंग की मास्टरक्लास है। जब हमारे आज के हीरो जिम से फुर्सत पायें तो कुछ देखें।

जब छोटा था तब से एक पारिवारिक मित्र घर आते थे। जब भी उन्हें देखता लगता है उन्हें कहीं देखा है। वो बिल्कुल संजीव कुमार जी की तरह लगते और जैसे उनके बाल सफ़ेद रहते इनके भी वैसे ही रहते। और वैसा ही चश्मे का फ्रेम।

वैसे तो संजीव कुमार जी के एक से बढ़कर एक गाने हैं, ये मौसम के हिसाब का गाना है और एक बहुत ही कर्णप्रिय गीत है। मौसम, गीत दोनों का आनंद लें।

https://youtu.be/F6FkVPOMtvM

पाके भी तुम्हारी आरज़ू हो, शायद ऐसे ज़िन्दगी हंसी है

8 जुलाई 1987 को जब गुलज़ार साहब की फ़िल्म इजाज़त रिलीज़ हुई थी तब तो शायद पता भी नहीं होगा फ़िल्म के बारे में। शायद गुलज़ार साहब को भी थोड़ा बहुत जानना शुरू किया होगा। मैंने शायद इसलिये लगा दिया की ठीक ठीक याद नहीं है फ़िल्म के बारे में और गुलज़ार साहब के बारे में भी। इतना ज़रूर पता है फ़िल्म सिनेमाघर में नहीं देखी थी लेक़िन छोटे पर्दे पर ही देखी।

तैंतीस साल पहले इस फ़िल्म में लिव-इन रिश्ते दिखाये गये थे। मतलब जब एक साल बाद 1988 हम क़यामत से क़यामत तक में आमिर खान और जूही चावला की प्यार की जंग देख रहे थे उससे भी एक साल पहले ये फ़िल्म एक बहुत ही अलग बात कर रही थी। हाँ इस फ़िल्म QSQT से जुड़ा सब बिल्कुल साफ़ साफ़ याद है।

रियल ज़िन्दगी में आते आते इस तरह की ज़िंदगी को और ज़्यादा समय लग गया। मुझे अभी भी याद नहीं इस फ़िल्म का संगीत कैसे सुनने को मिला। टीवी और रेडियो ही एकमात्र ज़रिया हुआ करते थे तो दोनों में से किसी एक के ज़रिये ये हुआ होगा।

फ़िल्म का कैसेट ज़रूर याद है। फ़िल्म में कुल चार गाने थे और सभी आशा भोंसले के गाये हुये। कहानी तीन किरदारों की लेक़िन दोनो महिला चरित्र को तो गाने मिले लेकिन एकमात्र पुरुष क़िरदार को एक भी गाना नहीं मिला। ये गुलज़ार साहब ही कर सकते थे। कैसेट में फ़िल्म के डायलाग भी थे औऱ इससे सीखने को मिला एक नया शब्द।

शब्द है माज़ी। जैसे रेखा नसीरूद्दीन शाह से अपनी क़माल की आवाज़ में पूछती हैं, माज़ी औऱ नसीर साहब जवाब देते हैं, माज़ी मतलब past, जो बीत गया उसे बीत जाने दो उसे रोक के मत रखो। अगर आप डायलॉग सुन लें तो आपको फ़िल्म की कहानी पता चल जाती है। जैसा की गुलज़ार की फिल्मों में होता है, ये मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई है। इसमें कौन सा क़िरदार ग़लत है ये सोचना मुश्किल हो जाता है।

फ़िल्म का एक और डायलॉग जो नसीरुद्दीन शाह का है और माज़ी वाले डायलॉग से ही जुड़ा है। सुधा को वो माया के बारे में कहते हैं, \”मैं माया से प्यार करता था – ये सच है। और उसे भूलने की कोशिश कर रहा हूँ – ये सही है। लेक़िन इसमें तुम मेरी मदद नहीं करोगी तो बड़ी मुश्किल होगी क्योंकि मुझसे ज़्यादा तो वो तुम्हें याद रहती है।\”

कहने को दो लाइन ही हैं लेक़िन उनके क्या गहरे अर्थ हैं। जो सच है और जो सही है। शायद ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा भी।

जब फ़िल्म पहली बार देखी तो इससे जुड़ी हर चीज़ से जैसे इश्क़ हो गया। गीत संगीत से पहले ही हो रखा था। देखने के बाद सभी कलाकारों से, थोड़ा ज़्यादा रेखा से, एक जुड़ाव सा हो गया। उस समय जब हम समाज की एक अलग तस्वीर देख रहे थे, तब इस फ़िल्म ने एक नया नज़रिया, नई सोच पेश करी।

फ़िल्म के गीत कैसे बने, कैसे आर डी बर्मन ने मेरा कुछ सामान का मज़ाक उड़ाया था धुन बनाने से पहले, इनके बारे में बहुत चर्चा हुई। लेक़िन एक और कारण था शायद रेखा को बाकी से ज़्यादा पसंद करने का। इस फ़िल्म में उनके किरदार का नाम था सुधा। शायद उन्ही दिनों धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता पढ़ी थी और शायद इस नाम की उनकी नायिका का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था। लेक़िन अभी भी फ़िल्म के गाने देखते हैं तो रेखा से नज़र नहीं हटती।

मेरा कुछ सामान के बोल हैं ही कुछ इस तरह के की पहली बार सुनने में सबको समझ में भी नहीं आते। मुझे भी नहीं समझ आया होगा की आख़िर कवि कहना क्या चाहता है। लेक़िन आप फ़िल्म देखिये तो समझ आने लगता है। बहरहाल, मुझे इसके गाने बेहद पसंद हैं तो ऐसे ही एक रात सुन रहा था। उन दिनों घर में एक रिशेतदार भी आये हुये थे। उन्होंने काफ़ी देरतक चुपचाप सुना और आख़िर बोल ही पड़े – इतना माँग रही है तो बंदा सामान लौटा क्यूँ नहीं देता?

फ़िल्म के इसी गाने के लिये गुलज़ार साहब और आशा जी को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इन 33 सालों में फ़िल्म से, इसके संगीत से, इसके किरदारों से इश्क़ और गहरा हो गया है। हिंदी फिल्मों में अब पहले जैसी बात तो रही नहीं। न पहले जैसा प्यार रहा न पहले जैसे कलाकार। लव स्टोरी के नाम पर क्या क्या परोसा जा रहा है वो सबके सामने है। औऱ दूसरी तरफ़ है इजाज़त

https://dai.ly/x3irrbr

ऐ ज़िन्दगी, ये लम्हा जी लेने दे

गुलज़ार साहब का गीत आनेवाला पल जानेवाला है देखने से पहले सुना था। जी आपने बिल्कुल सही पढ़ा है। उस समय गाने सुने ज़्यादा जाते थे और देखने को मिल गये तो आपकी किस्मत। गाना है भी बड़ा फिलासफी से भरा हुआ। उसपर किशोर कुमार की आवाज़ और आर डी बर्मन का संगीत।

फरवरी के अंतिम सप्ताह में श्रीमती जी से चाय पर चर्चा हो रही थी की कितनी जल्दी 2020 के दो महीने निकल गये। बच्चों की परीक्षा शुरू हो गयी और उसके बाद समय का ध्यान बच्चों ने रखा। लेकिन होली आते आते कहानी में ट्विस्ट और ट्विस्ट भी ऐसा जो न देखा, न सुना।

पिछले लगभग दो हफ्तों में दो बार ही घर से बाहर निकलना हुआ। अब घर के अंदर दो हफ़्ते और क़ैद रहेंगे। इतनी ज़्यादा उथलपुथल मची हुई है की लगता है जब ये सब ख़त्म हो जायेगा तो छोटे छोटे सुख का फ़िर से अनुभव करूँगा। जैसे पार्क में सैर करने जाना, किसी से बात करना, किसी चाय की दुकान पर बैठकर चाय पीना और अपने आसपास लोगों को देखना।

सोशल मीडिया के चलते सूचना की कोई कमी नहीं है बल्कि ओवरडोज़ है। लेकिन इन सब में एक बात समान है – सब उम्मीद से भरे हैं की ये समय भी निकल जायेगा। सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और एक दूसरे को हिम्मत भी दे रहे हैं। मैंने इससे पहले ऐसी कोई घटना अगर देखी थी तो वो भोपाल गैस त्रासदी के समय थी। उस समय ये नहीं मालूम था हुआ क्या है बस इतना मालूम था लोगों को साँस लेने में तक़लीफ़ थी। उसके बाद कुछ दिनों के लिये शहर बंद हो गया था और हम सब भी ज़्यादातर समय घर के अंदर ही बिताते। कपड़े में रुई भरकर एक गेंद बना ली थी और इंडोर क्रिकेट खेला जाता था।

टीवी उस समय नया नया ही आया था लेक़िन कार्यक्रम कुछ खास नहीं होते थे। दिनभर वाला मामला भी नहीं था। दूरदर्शन पर तीन चार शिफ़्ट में प्रोग्राम आया करते थे। आज के जैसे नहीं जब टीवी खोला तब कुछ न कुछ आता रहता है। अगर कुछ नहीं देखने लायक हो तो वेब सीरीज़ की भरमार है। आपमें कितनी इच्छा शक्ति है सब उसपर निर्भर करता है।

लेकिन गाने सुनने का कोई सानी नहीं है। आप अपना काम करते रहिये और गाने सुनते रहिये। आज जब ये गाना सुना तो इसके मायने ही बदल गये। आनेवाले महीनों में क्या होने वाला है इसकी कोई ख़बर नहीं है। लेक़िन ज़रूरी है आज के ये लम्हे को भरपूर जिया जाये। ऐसे ही हर रोज़ किया जाये। जब पीछे मुड़कर देखेंगे तो वहाँ दास्ताँ मिलेगी, लम्हा कहीं नहीं।

https://youtu.be/AFRAFHtU-PE

दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन

गुलज़ार साहब के लिखे गानों को सुना था, उनकी लिखी फिल्मों को देखा था। जब आप किसी का लिखा पढ़ते हैं या उनका काम देखते हैं तो एक रिश्ता सा बन जाता है। शुरुआत में तो किसने लिखा है ये पता करने की कोशिश भी नहीं करते। बाद में ये जानने की उत्सुकता रहती की किसने लिखा है।

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दिल ढूंढता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन। फ़िल्म-मौसम, संगीतकार-मदन मोहन (फोटो: यूट्यूब)

गुलज़ार साहब का लिखने का अंदाज़ अलग है ये भी समझते समझते समझ में आया। उसके बाद से तो उनकी लिखाई के ज़रिये उनसे एक रिश्ता बन गया। जब पता चला की वो भोपाल किसी कार्यक्रम के सिलसिले में आये हुये हैं तो मैंने उनके होटल के बारे में पूछताछ कर फ़ोन लगा दिया। थोड़ी देर में उनकी वही भारी सी आवाज़ लाइन पर सुनाई दी।

पहले तो विश्वास नहीं हुआ। लेक़िन उन्होंने ऐसे बात करनी शुरू की जैसे हमारी पुरानी पहचान हो। मैं नया नया पत्रकार ही था। बहरहाल उन्होंने थोड़ी देर बात करने के बाद होटल आने का न्योता दिया। मेरा होटल जाना तो नहीं हुआ लेक़िन गुलज़ार साहब से मायानगरी में फ़िर मुलाक़ात हो गयी। इस बार वो अपनी एक किताब के विमोचन के लिये मुम्बई के चर्चगेट इलाके में स्थित ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर में आये थे।

मैं ऑफिस से अपने पुराने सहयोगी समोद को साथ ले गया था। समोद वैसे तो बहुत बात करते हैं लेकिन ऐसी कोई शख्सियत सामने आ जाये तो वो बस सुनने का काम करते हैं। समोद ने जल्दी से उनकी एक किताब खरीदी और उसपर उनका ऑटोग्राफ़ भी लिया। समोद के साथ और भी कई प्रोग्राम में जाने को मिला। एक बार अमोल पालेकर जी से मिलना हुआ। समोद को भी कुछ पूछने की इच्छा हुई। लेकिन बस वो उस फिल्म का नाम भूल गये जिससे संबंधित प्रश्न था। उन्होंने ने मेरी तरफ देखा लेकिन मुझे जितने नाम याद थे बोल दिये। लेकिन वो फ़िल्म कोई और थी। अब ये याद नहीं की वो अमोल पालेकर साहब की ही फ़िल्म थी या कोई और लेकिन वो कुछ मिनट पालेकर साहब और मैं दोनों सोचते रहे समोद का सवाल क्या था।

ख़ैर, उस दिन गुलज़ार साहब से लंबी तो नहीं लेक़िन अच्छी बातचीत हुई। बातों बातों में उन्होंने बोला आओ कभी फुरसत में घर पर। बाद में और भी कई मौके आये जहाँ गुलज़ार साहब के करीबी निर्देशक के साथ मिलने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया। मजरूह के बाद अगर कोई शायर पसंद आया तो वो थे गुलज़ार साहब। दोनों का लिखने का अंदाज़ बहुत अलग है लेक़िन क़माल का है।

मेरा कुछ सामान के बारे में आर डी बर्मन ने क्या कहा था वो कहानी सबने सुनी ही होगी। श्रीमतीजी के भाई एक बार मेरे साथ फँस गये। उनकी संगीत की पसंद कुछ दूसरी तरह की है। टीवी पर गुलज़ार हिट्स आ रहे थे। मैं बड़ी तन्मयता के साथ गाने को देख रहा था और आशा भोंसले जी के इसी गीत का आनंद ले रहा था। मेरा कुछ सामान आधा ही हुआ था की उन्होंने मुझसे पूछा ये सामान वापस क्यों नहीं कर देता। उसके बाद से जब उन्हें पता चला तो अब बस चुपचाप देख लेते हैं बिना किसी विशेष टिप्पणी के।

गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!

1979 में आयी हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म एक बेरोज़गार युवक के बारे है जो नौकरी पाने और फ़िर उसी नौकरी को बचाने के लिये एक के बाद एक झूठ बोलता है।

फ़िल्म में अमोल पालेकर ने राम प्रसाद का किरदार निभाया था। उनके बॉस भवानी शंकर के रूप में उत्पल दत्त थे और उनकी बेटी बनी बिंदिया गोस्वामी। राम प्रसाद नौकरी के लिये पूरे हिंदुस्तानी बन सिर्फ कुर्ता-पाजामा ही पहनते हैं। सिर में ढेर सारा तेल और मूछें रखते हैं। उन्हें खेल में कोई दिलचस्पी नहीं है और वो बहुत ही धार्मिक बनते हैं। ये सब वो सिर्फ और सिर्फ एक नौकरी के लिये करते हैं।

झूठ बोल कर मैच देखने पर पकड़े जाते हैं और फ़िर जन्म होता है उनके छोटे भाई लक्ष्मण प्रसाद का जिसे बिंदिया गोस्वामी अपना दिल दे बैठती हैं। ऐसे ही और झूठ बोलते हुये अमोल पालेकर और उनकी बहन अपनी दिवंगत माता को भी जीवित कर देते हैं दीना पाठक के रूप में। ये सब एक नौकरी बचाने के लिये होता है औऱ इसमें अमोल पालेकर की बहन, दोस्त परिवार के बड़े सब शामिल होते हैं।

आप में से अधिकांश लोगों ने ये फ़िल्म देखी होगी। रोहित शेट्टी ने इसी शीर्षक से चार फिल्में बना डाली हैं लेकिन उनका पहली आयी फ़िल्म से कोई रिश्ता नहीं है। सभी फिल्में कॉमेडी हैं और

कल से अमोल पालेकर का एक वीडियो चल रहा है जिसमें एक समारोह में उन्हें मंत्रालय के खिलाफ बोलने पर टोकने को लेकर बवाल मचा हुआ है। वीडियो में पालेकर मंत्रालय के कुछ निर्णय के ख़िलाफ़ बोलना शुरू करते हैं और उनसे कहा जाता है कि आप विषय से भटक रहे हैं और आप जिस कलाकार की प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आये हैं उस बारे में बोलें। पालेकर जी ने पूछा कि क्या उन्हें बोलने की स्वतंत्रता नहीं है? इस पर उन्हें फ़िर से बताया आप बोल सकते हैं लेकिन इस मंच पर आप अपने विचार सिर्फ़ उसी विषय तक सीमित रखें जिसका ये आयोजन है।

बस। तबसे सब ने इसे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन अर्थात विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर एक वार बताया है। इसके पक्ष और विपक्ष में सब कूद पड़े। बाद में पालेकर जी ने बताया कि उन्हें विभाग के कुछ निर्णय से ऐतराज़ था जिसे उन्होंने उस मंच से उठाना चाहा।

1970-80 के दशक में अमोल पालेकर ने गोलमाल, चितचोर, बातों बातों में, रंगबिरंगी, छोटी सी बात, रजनीगंधा, दामाद आदि जैसी कई फिल्में करीं जो दर्शकों को काफ़ी पसंद आई। उसके बाद बतौर निर्देशक भी उन्होंने काफी सारी फिल्में बनायीं।

मेरी पालेकर जी से कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं है पर मुझे लगता है उस मंच का उपयोग उन्हें मंत्रालय से संबंधित अपनी शिकायतों के लिये नहीं करना चाहिए था। जिन बातों का ज़िक्र वो कर रहे हैं वो नवंबर की हैं। अगर वाकई उन्हें इस विषय पर कोई शिकायत थी तो उन्हें इतना समय क्यों लगा। वो इस विषय पर पत्रकार वार्ता भी कर सकते थे। अगर आपने दीपिका पादुकोण और रनवीर सिंह की शादी के मुम्बई रिसेप्शन का वीडियो देखा हो तो उसमें मुकेश अम्बानी के आने पर एक फोटोग्राफर ने चिल्ला कर कहा सर यहाँ नेटवर्क नहीं आ रहा।

अमोल पालेकर का मंच का उपयोग उस फोटोग्राफर के जैसे लगा। मैं उनके सारे विषय से सहमत हूँ लेकिन मंच की और कार्यक्रम की मर्यादा रखना उनका धर्म है। अगर शाहरुख खान उनकी फिल्म पहेली में रानी मुखर्जी के साथ फ़िल्म चलते चलते के गाने तौबा तुम्हारे ये इशारे पर थिरकने लगते तो क्या अमोल पालेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इसे चलने देते?

मौके पर मौजूद मंत्रालय के अधिकारी भी राम प्रसाद की तरह अपनी नौकरी ही बचा रहे थे। हाँ उसके जैसे झूठ नहीं बोल रहे थे।

गुलज़ार से ग़ालिब तक

जो ये लंबे लंबे अंतराल के बाद लिखना हो रहा है उसका सबसे बड़ा कष्ट ये हो रहा है कि जब लिखने बैठो तो समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करें। आज बात ग़ालिब और गुलज़ार साब की।

संगीत तो जैसे हमारे घर में एक सदस्य की तरह था। उन दिनों रेडियो ही एकमात्र ज़रिया था। और सारे घर ने अपना पूरा रूटीन भी उसके ही इर्दगिर्द बना लिया था। वैसे उस ज़माने में टेप भी हुआ करता था लेकिन बहुत से कारणों के चलते हमारे घर पर इसका आगमन हुआ बहुत समय के बाद। उन दिनों घर में किसी नई खरीदी का बड़ा शोर शराबा रहता था। तो जब वो फिलिप्स का two-in-one आया तो एक जश्न का माहौल था।

ग़ालिब से मुलाक़ात भी रेडियो के ज़रिए हुई। फ़िल्म थी मिर्ज़ा ग़ालिब और प्रोग्राम था भारत भूषण जी के बारे में। सिर्फ ये ना थी हमारी किस्मत याद रहा। लेकिन ग़ालिब से जो असल मुलाकात हुई वो गुलज़ार साब के बनाये मिर्ज़ा ग़ालिब, नसीरुद्दीन शाह द्वारा निभाया गया किरदार और जगजीत सिंह के संगीत के साथ। बस उसके बाद ग़ालिब के दीवाने हुए और होकर रह गए। सुने और भी कई शायर लेकिन ग़ालिब के आगे कोई और जँचा नहीं। या यूं कहें कि हमारी हालत का बयाँ ग़ालिब से अच्छा और कोई नहीं कर सका।

कई बार सोचता हूँ कि अगर गुलज़ार साब ये सीरियल नहीं बनाते तो क्या ग़ालिब से मिलना न हो पाता। ठीक वैसे ही जैसे कल जनार्दन और आदित्य से बात हो रही थी और हम तीनों अपने जीवन में अभी तक कि यात्रा को साझा कर रहे थे। आदित्य ने बताया कि उनके पास दो जगह से नौकरी के आफर थे और उनमें से एक PTI का था लेकिन उन्होंने दूसरा ऑफर लिया और इस तरह से उनसे मिलना हुआ।

जनार्दन से भी काफी समय पहले बात हुई थी लेकिन उस समय बात बनी नहीं। लेकिन अंततः वो साथ में जुड़ ही गये। शायद ग़ालिब से मुलाक़ात भी कुछ ऐसे ही होती। कोई और ज़रिया बनता और हमारी मुलाकात करवा ही देता। जैसे मैत्री ने करवाई थी मोहम्मद उज़ैर से। अगर गुलज़ार साब का शुक्रगुजार रहूंगा ग़ालिब से मिलवाने के लिये, मैत्री का रहूंगा मोहम्मद से मिलवाने के किये।

मोहम्मद बहुत ही कमाल के शख्स हैं और ये मैं इसलये नहीं कह रहा कि उन्होंने पिछली पोस्ट पढ़ कर मेरी तुलना प्रेमचंद और दिनकर से करी थी। फिल्मों को छोड़कर बाकी लगभग सभी विषयों की अच्छी समझ और पकड़। लेकिन जब प्रत्युषा बनर्जी ने अपने जीवन का अंत कर लिया तो मोहम्मद ही थे जिन्होंने फटाफट स्टोरीज़ लिखी थी। मुझे किसी मुद्दे के बारे में कुछ पता करना होता तो मोहम्मद ही मुझे बचाते। अब वो एक नई जगह अपने हुनर का जादू बिखेरेंगे।

ठीक वैसे ही जैसे रात के सन्नाटे में जगजीत सिंह अपनी आवाज़ में ग़ालिब का जादू बिखेर रहे हैं।

देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक ब्राह्मण ने कहा है कि ये साल अच्छा है।

हमें ऐसे ही गुलज़ार मिलते रहें और ज़िन्दगी ऐसे ही गुलज़ार करते रहें।