गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!

1979 में आयी हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म एक बेरोज़गार युवक के बारे है जो नौकरी पाने और फ़िर उसी नौकरी को बचाने के लिये एक के बाद एक झूठ बोलता है।

फ़िल्म में अमोल पालेकर ने राम प्रसाद का किरदार निभाया था। उनके बॉस भवानी शंकर के रूप में उत्पल दत्त थे और उनकी बेटी बनी बिंदिया गोस्वामी। राम प्रसाद नौकरी के लिये पूरे हिंदुस्तानी बन सिर्फ कुर्ता-पाजामा ही पहनते हैं। सिर में ढेर सारा तेल और मूछें रखते हैं। उन्हें खेल में कोई दिलचस्पी नहीं है और वो बहुत ही धार्मिक बनते हैं। ये सब वो सिर्फ और सिर्फ एक नौकरी के लिये करते हैं।

झूठ बोल कर मैच देखने पर पकड़े जाते हैं और फ़िर जन्म होता है उनके छोटे भाई लक्ष्मण प्रसाद का जिसे बिंदिया गोस्वामी अपना दिल दे बैठती हैं। ऐसे ही और झूठ बोलते हुये अमोल पालेकर और उनकी बहन अपनी दिवंगत माता को भी जीवित कर देते हैं दीना पाठक के रूप में। ये सब एक नौकरी बचाने के लिये होता है औऱ इसमें अमोल पालेकर की बहन, दोस्त परिवार के बड़े सब शामिल होते हैं।

आप में से अधिकांश लोगों ने ये फ़िल्म देखी होगी। रोहित शेट्टी ने इसी शीर्षक से चार फिल्में बना डाली हैं लेकिन उनका पहली आयी फ़िल्म से कोई रिश्ता नहीं है। सभी फिल्में कॉमेडी हैं और

कल से अमोल पालेकर का एक वीडियो चल रहा है जिसमें एक समारोह में उन्हें मंत्रालय के खिलाफ बोलने पर टोकने को लेकर बवाल मचा हुआ है। वीडियो में पालेकर मंत्रालय के कुछ निर्णय के ख़िलाफ़ बोलना शुरू करते हैं और उनसे कहा जाता है कि आप विषय से भटक रहे हैं और आप जिस कलाकार की प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आये हैं उस बारे में बोलें। पालेकर जी ने पूछा कि क्या उन्हें बोलने की स्वतंत्रता नहीं है? इस पर उन्हें फ़िर से बताया आप बोल सकते हैं लेकिन इस मंच पर आप अपने विचार सिर्फ़ उसी विषय तक सीमित रखें जिसका ये आयोजन है।

बस। तबसे सब ने इसे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन अर्थात विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर एक वार बताया है। इसके पक्ष और विपक्ष में सब कूद पड़े। बाद में पालेकर जी ने बताया कि उन्हें विभाग के कुछ निर्णय से ऐतराज़ था जिसे उन्होंने उस मंच से उठाना चाहा।

1970-80 के दशक में अमोल पालेकर ने गोलमाल, चितचोर, बातों बातों में, रंगबिरंगी, छोटी सी बात, रजनीगंधा, दामाद आदि जैसी कई फिल्में करीं जो दर्शकों को काफ़ी पसंद आई। उसके बाद बतौर निर्देशक भी उन्होंने काफी सारी फिल्में बनायीं।

मेरी पालेकर जी से कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं है पर मुझे लगता है उस मंच का उपयोग उन्हें मंत्रालय से संबंधित अपनी शिकायतों के लिये नहीं करना चाहिए था। जिन बातों का ज़िक्र वो कर रहे हैं वो नवंबर की हैं। अगर वाकई उन्हें इस विषय पर कोई शिकायत थी तो उन्हें इतना समय क्यों लगा। वो इस विषय पर पत्रकार वार्ता भी कर सकते थे। अगर आपने दीपिका पादुकोण और रनवीर सिंह की शादी के मुम्बई रिसेप्शन का वीडियो देखा हो तो उसमें मुकेश अम्बानी के आने पर एक फोटोग्राफर ने चिल्ला कर कहा सर यहाँ नेटवर्क नहीं आ रहा।

अमोल पालेकर का मंच का उपयोग उस फोटोग्राफर के जैसे लगा। मैं उनके सारे विषय से सहमत हूँ लेकिन मंच की और कार्यक्रम की मर्यादा रखना उनका धर्म है। अगर शाहरुख खान उनकी फिल्म पहेली में रानी मुखर्जी के साथ फ़िल्म चलते चलते के गाने तौबा तुम्हारे ये इशारे पर थिरकने लगते तो क्या अमोल पालेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इसे चलने देते?

मौके पर मौजूद मंत्रालय के अधिकारी भी राम प्रसाद की तरह अपनी नौकरी ही बचा रहे थे। हाँ उसके जैसे झूठ नहीं बोल रहे थे।

चलिये शुरू करते हैं कुछ नया

दिल्ली का छूटना कई मायनों में बहुत दुखद रहा लेकिन मैं इस बात को लेकर ही खुश हो लेता हूँ कि मैंने लिखना शुरू किया। वो भी हिंदी में।

मेरा पूरा पत्रकारिता का करियर अंग्रेज़ी को समर्पित रहा है। जब भी कभी लिखने का प्रयास किया तो अंग्रेज़ी में ही किया। उसपर ये बहाना बनाना भी सीख लिया कि मेरे विचार भी अंग्रेज़ी में ही आते हैं और इसलिए उनको हिंदी में लिखना थोड़ा मुश्किल होता है।

अपने इस दकियानूसी तर्क पर कभी ज़्यादा सोचा नहीं क्यूंकि अंग्रेज़ी में ही लिखते रहे। लेकिन जब हिंदी में लिखना शुरू किया तब लगा कि मैं अपने को इस भाषा में ज़्यादा अच्छे से व्यक्त कर सकता हूँ। अटकता अभी भी हूँ और पहला शब्द दिमाग़ में अंग्रेज़ी का ही आता है। लेकिन शरीर के ऊपरी हिस्से में मौजूद चीज़ को कष्ट देते हैं तो कुछ हल मिल ही जाता है।

टीम के एक सदस्य जो भोपाल से ही आते थे, उनको अंग्रेज़ी का भूत सवार था। उनका ये मानना है कि अंग्रेज़ी जानने वालों को ही ज़्यादा तवज्जों मिलती है। हमारे देश के अधिकारीगण भी उन्हीं लोगों की सुनवाई करते हैं जो इस का ज्ञान रखते हों। मैं इससे बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखता लेकिन उनको इसका विश्वास दिला नहीं पाया।

अच्छा मेरी भी अंग्रेज़ी जिसका मुझे अच्छे होने का गुमान है, लेकिन असल में है नहीं, वो भी बहुत ख़राब थी। उसको सुधारने का और मुझे इस लायक बनाने का मैं ठीक ठाक लिख सकूँ, पूरा श्रेय जाता है तनवानी सर को। उन्होंने बहुत धैर्य के साथ मुझे इस भाषा के दावपेंच समझाये। बात फिर वहीं पर वापस। आपके शिक्षक कैसे हैं। अच्छा पढ़ाने वाले मिल जायें तो पढ़ने वाले अच्छे हो ही जाते हैं।

मैंने पहले भी इसका जिक्र किया है और आज फ़िर कर रहा हूँ। घर में पढ़ने लिखने की भरपूर सामग्री थी और इसका कैसा इस्तेमाल हो वो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। अख़बार पढ़ने की आदत धीरे धीरे बनी। शुरुआत में सब बक़वास लगता। फिर रुचि बढ़ने लगी। उनदिनों नईदुनिया के लिये मेहरुनिस्सा परवेज़ साहिबा लिखती थीं और मुझे उनके कॉलम पढ़ने में काफी आनन्द आता। उनसे तो नहीं लेकिन उनके आईएएस पति से कई बार मिलना हुआ। कई बार सोचा कि एक बार उनके बारे में भी पूछलूँ लेकिन संकोच कर गया।

इंटरव्यू के लिये कई बार ऐसे ऐसे नमूने मिले जो सपना पत्रकार बनने का रखते हैं लेकिन अख़बार पढ़ने से तौबा है। लेकिन दिल्ली में कई पढ़ने के शौक़ीन युवा साथी मिले। इनसे मिल के इसलिये अच्छा लगता है क्योंकि वो मुझसे कुछ ज़्यादा जानते हैं। जैसे आदित्य काफी शायरों को पढ़ चुके हैं और मैं उनसे पूछ लेता हूँ इनदिनों कौन अच्छा लिख रहा है। इतनी बडी इंटरनेट क्रांति के बावज़ूद बहुत से लेखकों से हमारा परिचय नहीं हो पाता। जो चल गया बस उसके पीछे सब चल देते हैं। इसके लिये हम सब को ये प्रयास करना चाहिये कि अगर कुछ अच्छा पढ़ने को मिले तो उसको अपने जान पहचान वालों के साथ साझा करें। तो अब आप कमेंट कर बतायें अपनी प्रिय तीन किताबें, उनके लेखक और क्या खास है उसमें।

जीवन सिर्फ सीखना और सिखाना है

मैंने अपना पत्रकारिता में करियर अंग्रेज़ी में शुरू किया और उसी में आगे बढ़ा। हिंदी प्रदेश का होने के कारण हिंदी समझने में कोई परेशानी नही होती है और ख़बर हिंदी में हो तो उसको अंग्रेजी में बनाने में भी कोई दिक्कत नहीं। इन सभी बातों का फायदा मिला और वो भी कैसे।

नासिर भाई ने अगर लिखना सिखाया तो दैनिक भास्कर के मेरे सीनियर और अब अज़ीज दोस्त विनोद तिवारी ने सरकारी दफ्तरों, अफसरों से ख़बर कैसे निकाली जाये ये सिखाया। विनोद के साथ भोपाल में नगर निगम और सचिवालय दोनों कवर कर मैंने बहुत कुछ सीखा। उन दिनों मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था लेकिन विनोद ने एक दिन चाय पीते हुये एलान कर दिया था कि मुझे पत्रकारिता का कीड़ा लग चुका है और मैं अब यहीं रहूँगा।

हिंदी के पाठक उस समय भी अंग्रेजी से ज़्यादा हुआ करते थे लेकिन मुझे अंग्रेज़ी में लिखना ही आसान लगता। उस समय ये नहीं मालूम था कि पन्द्रह साल बाद मैं भी हिंदी में अपना सफ़र शुरू करूंगा। थोड़ा अजीब भी लगता क्योंकि मेरे नाना हिंदी के लेखक थे और पिताजी भी हिंदी में कवितायें लिखते थे।

इंडिया.कॉम को जब हमने हिंदी में शुरू करने की सोची तो मेरे बॉस संदीप अमर ने पूछा कौन करेगा। मैंने हामी भर दी जबकि इससे पहले सारा काम सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी में ही किया था। लेकिन \”एक बार मैंने कमिटमेंट कर दी तो उसके बाद मैं अपने आप की भी नहीं सुनता\” की तर्ज़ पर मुंबई में लिखने वालों को ढूंढना शुरू किया। इसमें मुझे मिले अब्दुल कादिर। वो आये तो थे अंग्रेज़ी के लिये लेकिन वहाँ कोई जगह नहीं थी और उन्हें जहाँ वो उस समय काम कर रहे थे वो छोड़नी था। समस्या सिर्फ इतनी सी थी कि उन्होंने हिंदी में कभी लिखा नहीं था। लेकिन उन्होंने इसको एक चुनौती की तरह लिया और बेहतरीन काम किया और आज वो हिंदी टीम के लीड हैं।

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आगे टीम में और लोगों की ज़रूरत थी तो कहीं से अल्ताफ़ शेख़ का नाम आया। अल्ताफ़ ने डिजिटल में काम नहीं किया था और हिंदी में लिखने में थोड़े कच्चे थे। शुरुआती दिनों में उनके साथ मेहनत करी और उसके बाद एक बार जब उन्हें इस पूरे खेल के नियम समझ में आ गए तो उन्होंने उसमें न केवल महारत हासिल कर की बल्कि उन्होंने अपना एक अलग स्थान बना लिया। हाँ शुरू के दिनों में अल्ताफ़ ने बहुत परेशान किया और शायद ही कोई ऐसा दिन जाता जब अल्ताफ़ पुराण न हो। लेकिन उनकी मेहनत में कोई कमी कभी नहीं आई और नतीजा सबके सामने है। इनके किस्सों की अलग पोस्ट बनती है!

अल्ताफ़ इन दिनों एक मनोरंजन वेबसाइट के कंटेंट हेड हैं और आये दिन फिल्मस्टार्स के साथ अपनी फोटो फेसबुक पर साझा करते रहते हैं। आज वो जिस मुकाम पर हैं उन्हें देख कर अच्छा लगता है। उनके चाहने वाले उन्हें लातूर का शाहरुख कहते हैं। लेकिन जिस तरह एक ही शाहरुख खान हैं वैसे ही एक ही अल्ताफ़ हैं। सबसे अलग, सबसे जुदा। जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें। हिंदी के टीम के बारे में विस्तार से फिर कभी।

Best women centric movies

\"\"With the entire planet clebrating the Women’s Day I thought I should also join the celebrations!

But no dinners/lunch/gifts or shopping. Apologies to the women in my life!

Instead I will list movies, both Hindi as well as English, which had really good women centric script or the female cast left a lasting impression. The list is random. I love them all

1: Leading the list is of course Astitva: A very bold and unusual story. In bollywood bold means showing more flesh. But this offering from Mahesh Manjerakar and Tabu was bold in its content and the step Tabu who played the role of Aditi, takes after her husband “manages to estabilish” that he was not the real father of his son. Wonderful dialogues, this will always remain a favourite.

2: Phir Milenge: I catched the repeat telecast of the movie just last week. Again the movie is unusual as it talks about AIDS but not about the disease or how Shilpa Shetty got the virus. But what happens after people around her discover about her disease. Brilliant performance by Shilpa.

3: Erin Brokowich: Simply outstanding. The way the film opens we hav no clue where it wll end. But Julia Roberts takes us through the life of a single mother who  woks a prostitute and goes on to become a legal assistant.

4: Aakhir Kyun: Smita Patil in a really memorable role. Even Tina Munim managed to give good support to the principal cast. Add to this some really good songs popular even today.

5: Parineeta: That a movie on this theme can be made in 21st century??? Amazing performance and the good old Calcutta.

6: The Sound of Music: Maria makes me laugh and cry… Life and how to live it.

7: Charade: Saw is only last week. A mystery-comedy about a woman whose husband is dead and people think he has left her huge money which they claim is theirs.

8: Pinjar: A tragic love story about women during the Indo-Pak partition.

9: Jab We Met: Geet is again like girls today. Independent, modern and yet traditional. Hard not to smile even when Kareena and Shahid get cosy and uncomfortable… and Shahid says ho jata hai yaar kabhie kabhie…

10: Zubeidaa/Joggers Park/Silsila/Jaane Tu… yaa jane na/Pretty Woman/Abhiman/Lamhe/Chandni: All the movies had strong female roles and all were different. Far far from the conventional role we have been seeing. The women in these films had a mind of their own and did their own thing.

And the Oscar goes to Katherine… best director and best film.